अंतर देस इ उर्फ़… शेष कुशल है! भाग – 15
अमित श्रीवास्तव
(पिछली क़िस्त: पप्पन पांडे का निबन्ध)
गुडी गुडी में दो पाट थे और जैसा कि अमूमन होता है उन दोनों के बीच एक धार बहती थी. भले लोग उसे `मानूं तो मैं गंगा मानूं’ वाले हिसाब से गंगा ही मानते आए थे. जब-जब ये मानना `बहता पानी’ की तरफ शिफ्ट होने लगती वहां मेले का आयोजन कर लेते. मानना वापस अपने स्थान से लग जाता. कहा ये भी जाता कि ये आयोजन ग्रहों की चाल से डिसाइड होता था. क्या पता. भले लोगों की बात!
आजकल ग्रहों की चाल की वजह से वहां मेला चल रहा था और अपने बॉबी चा यहीं ड्यूटी बजा रहे थे. नहीं, सीटी नहीं, ड्यूटी. बॉबी चा, जैसा कि आप जानते हैं स्कॉटलैंड यार्ड से यहाँ बुलाए गए थे और उन्हीं कारणों से थाने से उठाकर यहाँ भेज दिए गए थे जिन कारणों से अभी मेले का होना बताया गया. ग्रहों की चाल !
मेला मेले की तरह का मेला था. जो चीज़ सबसे ज़्यादा होती है मेले में वो ही सबसे ज़्यादा थी. भीड़! उस दिन स्नान का कोई प्रमुख दिन था और घाट पहुँचने के लिए लोग जाने कहाँ के घाट-घाट का पानी पीकर आए थे. ये आयोजन दोष प्रक्षालन के लिए मुफ़ीद था इसलिए उस पानी से आत्मा पर जो काई-वाई जम जाती थी उसे यहाँ इस पानी से साफ़ किया जा सकता था. ऐसा मानूं तो मैं गंगा मानूं वाले हिसाब से ही माना जाता था कि समय-समय पर ऐसा करने से आत्मा चमक जाती थी और बेहतर काम करने लगती थी.
ऐन घाट के मुहाने पर बैरियर डाउन कर दिया गया क्योंकि अखाड़े के साधुओं का स्नान शुरू हो गया था जिसमें संसारी जीव के जाने की मनाही थी. साधुओं को मनुष्य और ईश्वर के बीच की कोई दुछत्ती पर होना माना जाता था इसलिए पहले स्नान का हक़ उनका बनता था. भीड़ ने अपनी-अपनी पाप की गठरी थोड़ी देर सुस्ताने के लिये बगल में रखी और पूरी समूह भावना के साथ उसकी जगह आसमान सर पर उठा लिया. भीड़ जो अब तक गुजरात-मराठा, शहर-गाँव, कुर्ता-पैन्ट में बंटी-बंटी नजर आ रही थी अचानक वसुधैव कुटुम्बकम हो गई.
– `लानत है ऐसी व्यवस्था पर कहाँ-कहाँ का चक्कर लगवा दिया और अभी तक गंगा मइया के दर्शन नहीं हुए’
– `अजी पब्लिक के साथ खिलवाड़ है. गंगा हमारी, घाट हमारे पर ये पुलिस वाले… दसियों किलोमीटर पैदल चलवा दिया और अब इन मुहानों पर रोक कर बैठ गये हैं‘
– `अरे भइया ये सब आपकी सुरक्षा के लिये हैं. घाट पूरे भरे पड़े हैं. खाली तो होने दो तभी स्नान कर पाओगे’ बॉबी चा ने खालिस हिन्दी में अपनी खींसे निपोरते (सिकोड़ते? नहीं-नहीं. फैलाते? नहीं-नहीं. घुमाते? नहीं-नहीं खींसों के साथ जो भी
किया जा सकता हो वो करते) हुए कहा
– `साहब…’ ललपा ने हल्की आवाज़ में कहा. दुभाषिये की आवश्यकता ख़तम हो चुकी थी लेकिन फिर भी ललपा यानी लल्लन पांडे हेड मुहर्रिर उसी श्रद्धा के साथ बॉबी चा के साथ ड्यूटी पर आ गए थे जिस श्रद्धा के साथ राम के वनवास में
लक्ष्मण साथ चले गए थे.
– `क्या है’
– `इसके जेब में कुछ है’
– `क्या’
फटाक !
नहीं नहीं धमाका नहीं हुआ बॉबी के दिमाग के किसी कोने में विचारों की एक नस फट गई. ये यहाँ कैसे? क्यों? बॉबी को दिन में तारे, चाँद, सूरज, बॉस, मीडिया, बीवी, बच्चे, पड़ोसी डिपार्टमेंटल इन्वायरी सब एक साथ नजर आने लगे. हवा चल रही थी इसलिये चेहरे पर हवाइयों को उड़ने में सहूलियत हुई. बॉबी ने समझदारी कम क्विक डिसीजन कम फास्ट एक्शन के अपने सबकों और मौके की नज़ाकत एवं हवा का रुख देख कर चलो वाले गुडी गुडी में आकर सीखे गए सिद्धांतों को याद किया और लगभग चीखते हुए बोले- `इसे थाने ले चलो वहीं पता करते हैं क्या मामला है’
बॉस का आदेश सर आँखों पर की तर्ज पर कुछ मातहत सर और ऑखें हिलाते हुए, गोया आदेश पर पड़ी फालतू की गर्द झाड़ रहे हों, उस लड़का सा कहला सकने योग्य जीव को बाकायदा मजबूती से पकड़ और बे-कायदा गाली-गलौच करते हुए थाने ले आए.
`अलूचन्द इलाहाबाद वाले’ ठेकेदार ने अपने कपड़घरों को पुराने बांस, खपच्चियों, परदों, दरियों और चीकट, मैल, मिट्टी, पैबंद के सहकारी गठजोड़ से कितना ललित ललाम लुक दिया था. नागर, द्रविड़ और वेसर तीनों शैलियों को घोलकर ही ऐसा सौदर्य हासिल किया जा सकता है. ऐसे की कपड़घरों के एक समूह को तीन फिट के दरवाजों वाले टायलेट, पूरे खुले हवादार स्नानघर, खुली-खुली नालियॉ और जंगखाये और वार्निश लगाकर चमकाए गए टीन के घरों को थाने की शक्ल दी गई थी. बाहर गेट के पास लटका साइन बोर्ड ही सबसे बड़ा, प्रत्यक्ष और इकलौता प्रमाण था कि ये एक थाना है.
इसी थाने के एक कपड़धर में बॉबी चा ने गेट पर दो बावर्दी दुरस्त सशस्त्र सिपाही बुला लिए और इन्टेरोगेशन शुरू किया. दो डन्डों की सहायता से खुले-खुले भाग को और खुल सकने की हालत में लाने वाले पार्ट को गेट समझा जाता था, जिससे आने जाने की आधिकारिक मान्यता प्राप्त हो. वैसे तो कपडघर के किसी भी कोने, बीच या कोण से प्रवेश किया जा सकता था लेकिन वो अनाधिकृत कहलाता टेंटों के भाषा शास्त्र में.
लड़कानुमा उस जीव के साथ पहली भावनात्मक मिलनी, जिसे पुलिस की भाषा में इन्टेरोगेशन कहते हैं, बॉबी ने ही की. पता नहीं इसे थर्ड डिग्री क्यों कहते हैं क्योंकि उल्टा लटकाने पर भी जमीन से 30-40 डिग्री के आसपास का कोण तो बनता ही है. इसमें मिलनी एक तरफ से शामिल होती है भावना दोनों तरफ से. पूछने वाले की भावना ऐसी होती है कि `मुझे जो जानना था मैं जान चुका हूँ बस यों ही दिल बहलाने को प्रश्न किए हैं’ और बताने वाले की भावना होती है `पूछे जाओ बेटा असली बात तो मैं नहीं बताने का.’
– `क्या नाम है’
– `जी चरनधर चिलबिल’
– `कहाँ के रहने वाले हो?’
– `जम्मू कश्मीर’
धड़ाम!
नहीं नहीं… बम इस बार भी नहीं फटा. इस बार भी दिमाग में विचारों की एक नस ने धोखा दे दिया. चिलबिल का इतना कहना कि वो जम्मू कश्मीर का रहने वाला है पुलिस के सुरक्षा दावों में बड़े-बड़े सूराख कर गया. कम से कम बॉबी की सोच, समझ और अहसास के स्तर पर तो कर ही गया. अब सारा मामला फिल्मी हो गया.
बॉबी चा ने ऊपर के अधिकारियों को धीरे से फोन द्वारा सूचना सरकाई. फिर क्या था, पूरे तंत्र में नीचे से ऊपर तक आग दौड गई. आनन-आनन में ही प्रतिक्रिया दिख गई फानन की नौबत ही नहीं आई. इतनी सारी गुप्त-प्रकट-प्रक्षिप्त एजेंसियां सूचना की सत्यता को ललकारते मुंह बाए आ खड़ी हुईं कि जितनी बॉबी चा को जानने के लिए उधर इंग्लैण्ड-विन्ग्लैंड में कम से कम एलएलबी की डिग्री चाहिए होती है, हमारे यहाँ मसि-कागद छुए बिना भी जिन्हें आत्मसात किया जा सकता है. उनके मुंह बाए आने से इतना हुआ कि बॉबी चा ने अपना वो मुंह सी लिया जो शुरुआती सदमों के समय खुला का खुला रह जाया करता था. ललपा की सलाह मानते हुए चचा चुपचाप चाय-चू के इतंजाम में जुट गये.
एक ऐसी एजेंसी नमूदार हुई जिसका जन्म ठोस देसी स्थानीय सूचनाओं के संकलन के लिए हुआ था और जो चंद बेहद सस्ते और निर्विकार अखबारों पर टिकी हुई थी. अखबार निर्विकार इसलिये थे क्योंकि इनके पन्नों की संख्या, साइज और कागज की मोटाई का कोई निश्चित आकार नहीं था. इसलिए भी क्योंकि ये एक हॉकर (अखबार वाला) से दूसरे हॉकर (चने-मूंगफली वाला) तक का सफर बहुत जल्द, मात्र चंद फेरों में तय कर लेते थे. इस एजेंसी को इंटेरोगेशन से जानकारी तो क्या हासिल हुई हाँ पहली बार पूरे मेले में अपनी नौकरी, तनख्वाह और रिश्तेदारों को वी.आई.पी. तरीके से ब्रहमकुण्ड में स्नान कराने की कवायद को जस्टीफाई करने का मौका ज़रूर मिल गया.
मौक़ा एक दूसरी एजेन्सी को भी मिला जो खुद को बड़ी बड़ी अपेक्षाओं और सरकारी उपेक्षाओं का शिकार मानती थी. इसके अधिकारियों/ कर्मचारियों को तमाम इगो के बाद भी अपनी पहचान बिना बात छुपानी पड़ती थी हालांकि गुडी गुडी का बच्चा-बच्चा जानता था कि फलाना पुरानी पीली बिल्डिंग में इसका गोपानीय कार्यालय है. इस मासूम को यह कहने का मौका भी कम ही मिलता था कि `हमने तो सूचना दी थी सही समय पर कार्यवाही नहीं हुई’ उसे आज `देश की सुरक्षा में सुरक्षा एजेसिंयों का योगदान’ विषयक निबंध की प्रस्तावना में आने का मौका मिला.
कुछ विशेष सुरक्षा एजेंसियां और प्रकट हुईं जिनके बारे में विशेष सिर्फ इतना था कि उन्हें कोई विशेष कार्य नहीं दिया जाता था और बिडम्बना ये, कि दिया भी नहीं जा सकता था. उन्हें अपने अस्तिव पर खड़े इस प्रश्न चिन्ह के जवाब में क्वामा, फुलस्टॉप, एक्सक्लामेटरी मार्क सुविधानुसार ढूँढने का मौका मिला.
इतनी एजेंसियों को मौक़ा मिला की चरनधर चिलबिल को सम्भलने का मौक़ा नहीं मिल पाया. वो सकते से सीधे सदमें में आ गया. उसे अपने होने और अपने वहां होने पर संदेह सा होने लगा. उससे इतने ज्यादा, इतने प्रकार के और इतने लोगों द्वारा प्रश्न किए गए कि उसने अपनी बीस साल की ज़िन्दगी रिवांइड-पॉज़-रिवांइड करते हुए मिनट-दर-मिनट देख ली और हर्फ-बा-हर्फ बयान कर दी. उसने अपनी यादाश्त के घोड़े दौड़ाए जो, अगर समय पर रोका न जाता, तो दौड़ते-दौड़ते उसकी पिछली योनियों तक पहुँच जाते.
वो तो अच्छा हुआ की सुरक्षा एजेन्सियों को उसके इसी जन्म से सरोकार था सो उसे जगाकर पानी पिला-पिला कर प्रश्न किए गए. उसने भी पानी पी-पी कर… बताया. प्रश्न इसलिये ज्यादा किए गए क्योंकि जवाब, वो जैसा चाहते थे, उसके माकूल नहीं था. दरअसल उन्हें प्रश्न का जवाब नहीं बल्कि जवाब के प्रश्न पूछने थे. कुल मिलाकर मामला सिफर में जा रहा था. अब एजेंसियों ने समस्या की जड़ खोदनी शुरु की, यानि चिलबिल के मूल गाँव, मूल ही माता-पिता की जानकारी इकट्ठी की. पुलिसिया भाषा में इसे वेरीफाई करना कहते हैं. पुलिस जिस अपराधी को पकड़ नहीं पाती उसे वेरीफाई कर लेती है.
वेरीफाई करने पर पता चला कि गॉव के आपराधिक इतिहास में, रिश्तेदारों के ज्यामितीय भूगोल में और चिलबिल को मिली नैतिक शास्त्र की शिक्षा में बड़ी पुख्ता साफगोई है. कहीं कोई दुराव छिपाव नहीं जो चिलबिल की, किसी भी कोण से, आतंकवादियों के साथ सांठ-गांठ सिद्ध कर सके. इति सिद्धम! एजेसिंयों ने अपने फावड़े-कुदाल-दरातियाँ किनारे रख दिये. खोदा पहाड़ और चुहिया भी नहीं निकली. वो अपनी पैन्ट झाड़ते हुए खड़े हुए और फिलॉसफी झाड़ते हुए निकल गए कि `वक्त रहते वेरीफाई कर लिया नहीं तो…’
बॉबी चा ने अपनी डायरी में तीन सबक लिखे और तीनों पर तीन बार सही के निशान लगाए. पहला, ज़रूरत पड़े तो वेरीफाई कर लेना चाहिए. दूसरा, वेरीफाई कर ही लेना चाहिए. और तीसरा, वेरीफाई ज़रूर कर लेना चाहिए.
इधर चिलबिल भी वक्त की मार के निशान देखते हुए बाहर निकले और `तीसरी कसम उर्फ मारे गए चिलबिल’ की तर्ज पर तीन कसमें एक साथ खा लीं. पहली, कभी जेब में पटाखा नहीं रखूंगा. दूसरी, कभी पुलिस थाने के इतने करीब से न निकलूंगा कि हवा के झोंके से भी गन्ध छू जाए. और तीसरी, नदी क्या नलके से भी नहीं नहाऊंगा!!
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं.
पप्पन और सस्सू के न्यू ईयर रिज़ोल्यूशन
अमित श्रीवास्तव
उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं. 6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर (कविता).
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