उस बरस चुनाव का मौसम जोरों पर आया. चुनाव-कार्यक्रम आने में देर थी, लेकिन उठा-पटक, उखाड़-पछाड़ का दौर काफी पहले से ही शुरू हो गया. (Elections Satire Lalit Mohan Rayal)
हर कोई, बस इसी फिराक में था, कि किसी भी तरह उसका मार्ग निष्कंटक हो. कम-से-कम मेहनत में अधिक-से-अधिक नतीजे निकल सकें. संभावित उम्मीदवार, चुपचाप गाँव की आबोहवा का जायजा लेने लगे. छुप-छुपकर दूसरे खेमों की टोह लेने लगे. उन्हें इस बात की खबर ही नहीं थी, कि जिस तरह वे दूसरों की टोह ले रहे हैं, कोई तीसरा, उनकी भी टोह लेने में व्यस्त है. कछुए की तरह गर्दन निकाल-निकालकर देख रहा है, कि कब, कौन, किससे मिल रहा है? क्यों मिल रहा है? कहीं दो लोग सर जोड़े दिखे नहीं, कि वह झट से यकीन कर लेता- हो-ना-हो, ये चुनाव लड़ने की स्कीम बना रहे हैं. भले ही वे घरेलू बात में मुब्तिला हों, इस मौसम में आदमी इतना सतर्क (स्पष्ट भाषा में कहें तो वहमी) हो जाता है, कि वे फौरन बायनाकुलर लगाए उस आदमी का ऐतबार खो बैठते हैं. उधर वह आदमी बिना देरी के परस्पर संभावित उम्मीदवारों को सीज करने, उठाने-बिठाने की जुगत भिड़ाने लगता. (Elections Satire Lalit Mohan Rayal)
इन जटिल परिस्थितियों में ऐसा ही एक संभावित प्रत्याशी, किसी तरह जमाने की नजरों से बचते-बचाते, दूसरे के ठीए पर जा पहुँचा.
ना राम राम, ना दुआ-सलाम. उसे सँभलने का मौका दिए बगैर, सीधे उस पर चढ़ बैठा. उस पर बुरी तरह बिफरते हुए बोला,
“भाई तू क्यों उठ्रा? किसने दे दी चोक तुझे? मैं तो तुझे ऐसा नहीं समझता था. तूने तो दिल तोड़ के रख दिया. मैं नी जानता था कि तू भी चने की डाल पर चढ़ने वाला निकलेगा.”
उसने हैरत जताते हुए प्रतिप्रश्न किया, “क्यों मुझमें क्या कमी दिख री तुझे? मैं क्यों नी लड़ सकता?”
उसे ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी. अब वह उसके सिर हो लिया और लिहाज भूलकर साफगोई पर उतर आया, “छै उठरे छै. और तू पिच्छे से दूसरे नंबर पे आ रा.” कहकर उसने छहों के नाम गिना दिए.
उसकी यह सूचना लगभग सही थी. दूसरा उसे अब तक सीधा-साधा आदमी समझता था, लेकिन उसने जान लिया कि उसकी एनालिसिस कमजोर नहीं थी.
दूसरे की चुप्पी ताड़कर उसने फिर से आग उगली, लेकिन उगली आसान भाषा में, “तुझे कुल-कुलाँत पच्चीस भोट मिल री. तेर्से और कुछ तो होगा नी. तू मेरी वो पच्चीस भोट भी खराब करेगा.”
अपने बारे में इतना खराब आकलन सुनते ही, दूसरे का स्वाभिमान फनफनाने लगा. उसने मन में सोचा, ”यार, इसने तो मेरे बारे में बेझिझक राय बना ली. मैं इतना गया-बीता भी नहीं हूँ. अभी इतने बुरे दिन भी नहीं आए मेरे. हद्द है, ये मुझको इतना कम करके आँक रहा है.’
फिर उसने लोकतंत्र के औचित्य को सही ठहराने की कोशिश करते हुए कहा, “भाई ! मुझे पच्चीस मिल री, तो फिर तुझे क्यों टेंशन होरी. तू ठाठ से लड़ और मुझे भी लड़ने दे.”
वह जान गया कि उसकी बातों से सामने वाले के आत्मसम्मान को ठेस पहुँच गई. उसने बात सँभालते हुए उसे पुचकारा, “भाई! तू समझ नी रा. काँटे की टक्कर है. हार-जीत पच्चीस भोट से होगी. और मेरी वो पच्चीस भोट तू खारा.”
जब दूसरा नहीं माना, तो उसकी जिद देखकर, वह अपनी मादरी जुबान पर उतर आया, “भैजि! तू पिछनै बटिक द्वसर् नंबर पर छै. तू किलैछै स्याणी कन्नू.
(भाई! तू पीछे से दूसरे नंबर पर है. क्यों आफत में फँस रहा है. तेरे लिए ये दूर की कौड़ी साबित होने वाली है.)
जब इस स्क्रिप्ट से बात नहीं बनी, तो वह उसे डराने पर उतर आया, “तुन्ने कभी चुनाव तो लड़ा नी. तू नी जानता, क्याक्या पापड़ बेलने पड़ते हैं. ऐसे-ऐसे लोगों के पैर छूने पड़ते हैं, जिनकी शक्ल देखने को जी नी बोलता… पैर पकड़ते-पकड़ते, कमर टेढ्ढी हो जाती है…तू बिलौक गया कभी…अरे! इतने चक्कर कटात्ते हैं, कि दिमाग चक्रा जाता है… थाणे में जाके मुचलका भर्ना पड़ता है..”
“तू क्या सोच्रा? मुजे नी पता… तू जिस्के भरोस्से चल रा, उस्के कैणे पे कुत्ता छाँछ ना खाए.”
वह नाना प्रकार से उससे बैठने की मनुहार करता रहा, लेकिन वो माना नहीं. दिमाग में चल रही स्कीम को उससे साझा करते हुए बोला, “मैं तो उसी कंडीशन में बैठूँग्गा, अगर तीन बच्चों में छूट वाला कानून नी आत्ता. अगर सरकार ने छूट दे दी, तब तो भाई, मैं लड़ूँगाई.”
जब उसकी योजना परवान नहीं चढ़ी, तो वह चिढ़कर बोला, “तब तू क्या बैठ्ठेगा, तब तो सरकारी तुझे बैठा देगी. तेरा बैठणा, बैठणा तबी का जाएगा, अगर तू अबी बैठ जात्ता है.”
गाँव में कई कैंडिडेट थे, जो एक ही सीट पर लड़ रहे थे. मतदाताओं को लुभाने के लिए, वे किस्म-किस्म के वादे कर रहे थे. चुनाव-क्षेत्र छोटे-छोटे हिस्सों में बँटे थे. कैंडिडेट बहुत ज्यादा थे. चुनाव-प्रचार के लिए लिमिटेड समय मिला. नतीजतन उन्होंने अल्प समय में धुआँधार प्रचार किया. इतना ज्यादा कर दिया कि मतदाता परेशान हो उठे. एक वृद्धा, जो हेयरिंग एड लगाती थी, इतना इरिटेट हो गई कि कैंडिडेट्स को मुँह पर ही भला-बुरा कहने लगी,
“यूँ नर्बाग्योंन… लरै-लरैकि मुंडारू कर्दिनि… परसि बटेन रिंगि-रिंगिकि, यूँन लौटिस्पीकर पर यनु हल्ला मचैयूँकि म्यार घुंडौबि मुंडारू उठिग्याई…”
(…गाली…इन लोगों ने चीख-चीखकर सिरदर्द पैदा कर दिया. परसों से सिर पर मँडरा रहे हैं. लाउडस्पीकर पर इतना शोर मचाया हुआ है कि मेरे तो घुटनों तक में दर्द होने लगा है.)
लेकिन दो कैंडिडेट ऐसे थे, जो बड़ी साउंड बैकग्राउंड के थे. उन्हें जुबानी वादों पर ज्यादा यकीन नहीं था. सो उन्होंने चुने जाने से पहले ही, कुछ विशेष करने की ठानी.
एक ने देखा- गाँव में घरों में तो लाइट है, लेकिन रात में सड़कों में घना अँधेरा रहता है. बेचारे गाँव वाले, रात-बेरात इन अँधेरी राहों पर कैसे चलते होंगे. बड़ा कष्ट उठाना पड़ता होगा. यह सब सोचते-सोचते उसकी प्रगतिशील सोच उभर आई. जब उससे रहा नहीं गया, तो उसने आव देखा न ताव. और अगली सुबह, पूरे गाँव की सड़कों के किनारे लगे खंभों पर, स्ट्रीट लाइट ठुकवा दीं. उस रात से पूरा गाँव भयंकर जगमगाने लगा. (Elections Satire Lalit Mohan Rayal)
अब जो टक्कर का दूसरा कैंडिडेट था, उसने गाँव की सड़कों, लिंक रोड़ों पर, गड्ढे-ही-गड्ढे देखे. उसे ज्ञान हुआ कि इनकी सालों से मेंटेनेंस नहीं हुई है. गाँव वाले जब सवारी से निकलते हैं, तो धक्के खा-खाकर परेशान हो जाते हैं. उसका ह्रदय द्रवित हो उठा. मन करुणा से भीग गया. आँखें छलक पड़ी और हालात देखकर रोना आ गया. गाँव के विकास में फौरन उसकी गहरी दिलचस्पी पैदा हो गई. उसे अपने कंस्ट्रक्शन वाले कारोबार में महारत तो थी ही. उसने स्ट्रीट लाइट की रोशनी का भरपूर फायदा उठाया और पूरी रात लगकर, सारी सड़कें गड्ढामुक्त कर दीं. अगले दिन गाँव वालों ने देखा- चमाचम डामर की सड़कें. उन्हें बहुत अच्छा लगा.
वह इतने पर भी नहीं थमा. धान की कटाई हो गई थी. गाँव वालों की मँड़ाई बाकी थी. कैंडिडेट ने तबीयत ही ऐसी पाई थी, कि कोई कुछ भी माँगने गया, उसने झट से हामी भर दी. कुछ दिनों के लिए वह एकदम करुणानिधान सा बन गया – बेचारे बैलों से कब तक दाईं करते रहेंगे. उसने अपना ट्रैक्टर फ्री कर दिया – तेल भराओ, जितनी दाईं करनी है, मौज से करो. किराए-भाड़े की कोई चिंता नहीं.
गाँव वाले भगवान से मनाने लगे- हर साल-दो साल में चुनाव होते रहें, तो सारी समस्याएं कैंडिडेट अपने ही लेवल पे निपटा देंगे. किसी बात की कमी नहीं रहेगी.
एक कैंडिडेट ऐसा था कि उसके बारे में मशहूर था- वह जालिमाना हद तक कंजूस है. रुपए में तीन अठन्नी खोजता है.
चुनाव का सीजन सर पर था. वह हाथ-पर-हाथ धरे बैठा नहीं रह सकता था. देसी सेफोलॉजिस्ट्स ने उसकी जीत का गुर मालूम करने की कोशिश की. बड़ी खोजबीन के बाद उन्हें पता चला कि वह बने- बनाए खेल में सुरंग लगाने में माहिर था. किसी के भी सियासी किले में सेंध लगाने में उस्ताद था. हर समय अवसर की खोज में रहता था. मतदाता को अकेला पाकर, गेम लगाने में जरा भी देरी नहीं करता था.
उसका सीधा सा फार्मूला था- और कुछ करे-ना-करे, लेकिन वह गमी में जरूर जाता था. बुढ़िया मरने की खबर मिली नहीं, कि अर्थी सजाने से लेकर, श्मशान घाट तक वही नजर आता था. सगे-संबंधी, नाते-रिश्तेदार एक्स्ट्रा की भूमिका में नजर आते. वह पूरे कार्यक्रम को हाईजैक कर देता था. पीपलपानी से लेकर, मृत्यु-भोज तक वही छाया रहता था. उसका मात्र यही गुण, उसे वोटरों के बीच उनकी सद्भावना का पात्र बना देता. यहाँ तक कि विरोधी भी ‘साधु-साधु’ शैली में उसका गुणगान करने लगते थे- “चाहे उसके लिए कुछ भी कहो, पर एक बात तो है, बंदा हर किसी के जीने-मरने में साथ देता है. हरदम एक पैर पर खड़ा नजर आता है.” (Elections Satire Lalit Mohan Rayal)
इसी नाजुक दौर में किसी दिन वह एक खास मोहल्ले से गुजर रहा था. उस पर नजर पड़ते ही, एक आदमी, जोर-जोर से लिटरेचर बोलने लगा. उसके बारे में मशहूर था कि
“यु त फुट्याँ गिच्चै कु छ”
(जिसके बारे में मशहूर था कि यह तो मुँहफट है)
“क्या करना है ऐसे प्रतिनिधियों का, जिनके रहते जन्ता को अँधेरे में रहना पड़ता है. जो जन्ता को जन्तु समझते हों, इनके होने- ना-होने से, जन्ता को क्या फर्क पड़ता है.”
उसका व्याख्यान उफान पर था. उसने ऐसे-ऐसे जुमले बोले कि श्रोता के खून में ज्वार-भाटा उमड़ने लगा. एक छोटी सी बात को कहाँ-से-कहाँ पहुँचाए दे रहा था. यह बात सच थी कि उसने बात सीधे उससे नहीं की, पर इशारा तो उसकी ओर ही था. सीधी सी बात थी, मगर वह अन्योक्ति का सहारा ले रहा था. सो उसके चेहरे का रंग, काले से जामनी होते देर न लगी, लेकिन तभी उसे ख्याल आया- “अरे! इस समय ऐसी नादानी नहीं करूँगा. इसके मुँह लगने की गलती, भूलकर भी नहीं करूँगा. ये तो चाहता ही है कि कोई इसके मुँह लगे और मैं पूरे मोहल्ले को सर पर उठाऊँ.”
यह विचार आते ही, उसने उसे दूसरे नजरिए से देखा. उसे उसमें खेवनहर नजर आया.
दरअसल उसके घर के सामने की स्ट्रीट लाइट कुछ दिनों से फ्यूज थी, जिससे उसके आँगन में अँधेरा छाया हुआ था. भावी-प्रतिनिधि को देखते ही उसे उससे त्वरित लाभ खींचने की सूझी. कंजूस ने अपनी अंदरूनी चोट को सहलाया और सोचा, इतने से खर्च में काहे का डर.
उसने कलेजे पर पत्थर रखकर, अपनी जेब से लाइट लगवा दी. उसे लाइट लगवाते देख, एक बुढ़िया कुड़कुड़ करने लगी. श्रोता ने सरसरी तौर पर अंदाजा लगाना चाहा कि, अब यह क्या चाहती है. वह फौरन दोकन्ने से चौकन्ना हो गया. दो एक्स्ट्रा कान लगाकर, उसने ध्यान से सुना, तो वह भी उसके जले पर नमक छिड़कने की कोशिश कर रही थी. इस नाजुक घड़ी में श्रोता ने फिर से एहतियात बरती- उसने नादानी और बुजदिली न दिखाने की ठानी. साहस बटोरकर उसने उसकी लाइट भी लगवा दी.
दो मामले निपटाकर वह जल्दी-से-जल्दी घर पहुँचना चाहता था. तभी अगले तीखे मोड़ पर, उसे एक व्यक्ति मिला. वह खंभे की तरफ इशारा करके, उसे अपने निजी अनुभव बताने लगा. मुख्तसर बात यह थी कि वह रोज रात को ‘फुल टाइट’ होकर आता था और रोज उस मोड़ पर टकरा जाता था. जाहिर सी बात थी कि वह भी भावी-प्रतिनिधि को उस खंबे पर लाइट लगाने का हुकुम दे रहा था. मरता, क्या न करता. उसे हुकुम बजाना पड़ा.
पहली बार उसने इतनी भारी इन्वेस्टमेंट की. इस बात में कतई कोई अतिशयोक्ति नहीं थी.
खंभे पर रॉड लगी, तो रोशनी का मजा सबने लिया. अब खंबों के आसपास रहने वाले लोगों को यह डर सताने लगा- कि कहीं खुदा ना खास्ता, ये चुनाव हार गया तो ये रॉड वापस निकालने में देरी नहीं करेगा. उनका डर अकारण नहीं था. बाई चांस अगर ये अनहोनी हो ही जाती, तो फिर वह क्यों न निकालता. उसने लाइट्स लगाई भी तो बड़ी उम्मीदों से थी. उसे खंभों के आसपास रहने वाले लोगों से बड़ी-बड़ी आशाएं थीं. (Elections Satire Lalit Mohan Rayal)
चुनाव प्रचार शुरू हुआ. कुछ ही दिनों में कैंडिडेट थक गए. कहने लगे, “कली चुनाव हो जाए. अब नि झेल्ला जात्ता.. अपणे बस्की बात नीं. दावतों का खर्च थाम्मे नी थम्रा..”
‘सादगी भरा चुनाव लड़ो’ की सलाह पर उनके थिंक टैंक बीच में पड़ गए. भावुक होकर बोले, “भरण-पोषण करना पड़ता है. जैसा चल रहा है, चलाना पड़ता है. ऐसा नी करोगे, तो तुम्हें कोई कौड़ी को नहीं पूछेग्गा.”
देखादेखी में उन्होंने धुआंधार लंगर चलाया.
फिर एक दिन ऐसा आया कि खर्चे की तंगी महसूस होने लगी,
“अब एक दिन की गुंजाइश भी बाकी नहीं रही…आखिरी बूँद तक निचोड़कर ही मानेंगे… बाजा बज गया अपना… इंजेक्शन लगाकर खींचा और एकदम सुखाकर रख दिया… भीक माँगणे की नौबत आ गई..”
अपने बंदे को पिछड़ता देख, थिंक टैंक कैंडिडेट को भला-बुरा कहने लगा,
“ऐसे में तो चुनाव लड़ने की भूल्जा. औरों को देख जरा…जी-जान से लगे हैं, जैसे थोड़ी ही देर में कयामत आने वाली हो..अपने को देख.. टैम पे सो जाता है.. टैम के बाद उठ्ता है.. ऐसे में जित्तेगा तू.. बेट्टा.. इस चुनाव को तो तू भूल्जा…”
एक लड़े हुए प्रत्याशी ने अपना अनुभव बयाँ करते हुए बताया-
नतीजों की रात कयामत की रात बनके आई. गिन्ती तो खैर सुबे ही शुरू हो गी थी, लेकिन अपना नंबर आते-आते रात हो गई. शुरुआत्ती रुझान सेई दिल दैलने लगा.
थिंक टैंक ने मुझसे पूच्छा, “बेट्टा, देख लिये चाँद्तारे!”
बुझी हुई सी आवाज में मैन्ने बोला, “हाँ, चाच्चा जी एकसाथ दिख्रे.”
ऐसा तो मैं सोच भी नी सक्ता था.”
“बेट्टा, अपने-पराए का भेद मालूम चल्रा. अपणे-बेगाणे सब समज में आरे होंगे.”
“हाँ, आज मालूम चल्रा.. कि कस्में वादे वफा.. ये सब बातें हैं..” आज पैल्ली बार कई भेद भरे खुलास्से होरे.. जहाँ जादा भरोस्सा था, वहीं पे मार खाई.. पेट्टी से अपना कुछ नी निकल्रा… ये क्या होरा..चाच्चा… कुछ समज नी आरा… एक भोट भी नी मिल्री.. एकाद तो मिलती… चिचा यार, जित्ने लोगों से पैक्ट किया…वाँ भी खाल्ली…
…ज्हाँ पे कुछ बढ़त मिली, व्हाँ जिस पे सबसे ज्यादा भरोस्सा था, वोई रिकाउंटिंग की अर्जी लिखने बैठग्या… उसे देखके दुनिया से भरोस्सा उठग्या… भीड़ के बीच कोहनी से रास्ता बणाके, बैरिकेटिंग के ऊप्पर चढ़के चिल्लारा… रिकौंटिग होणि चइए…”
“बेट्टा, मैने पैल्लेई कैदिया था, जिसे ज्यादा दूद पिलाके पोस्सोगे, ऐन मौक्के पे वोई डसेग्गा..”
“मेरी तो बुद्धि ने साथ देना बंदकर्दिया…कोई तरीक्का बता चाच्चा… हे भगवान! इस्के कैने पे तो मैंन्ने दाँव खेल्ला था.. आज ऐन मौके पे पिक्चर में आरा.. यूँ लग्रा.. ये मेरा सीन पट किए बिना नी मान्नेगा… चाच्चा जी येत्तो बड़े पर्दे का कलाकार निकला…
एक-के-बाद एक राउंड के रिजल्ट आत्ते गए. जितने भी साथ देने वाले थे, ढेर छोटी देक्खी, खिस्कते चले गए. कैंडिडेट एकदम तन्हा रह गया. बिल्कुल तन्हा और उदास.
“अपनी हालत संभलने का नाम नी ले री थी. जब जी जादा घबराया, तो मैं भार की तरफ सरपट भाग्गा. जब मैं घर पौंछणे को हुआ, तो व्हाँ से फोन आया कि तूतो चुपके से निकल गया… बहुत छोटे मार्जन से जीत गया.. जीत तो जीत होती है…आज्जा.. अपणा सर्टिफिकेट ल्हेजा…”
एक गाँव-सभा में तीन गाँव पड़ते थे. दो गाँव बरसों से बारी-बारी से अपना प्रतिनिधित्व देते आ रहे थे. तीसरे के पास नंबर गेम नहीं था, तो वो आजादी के बाद से, मजबूरी में वोट ही देता आ रहा था. दो-तीन दर्जन भोट रही होंगी. इतनी सी भोटों में वह कहाँ से जीतते. (Elections Satire Lalit Mohan Rayal)
लेकिन इस बार इमोशनल कार्ड चल गया-
जब से देश आजाद हुआ, तबसे हम भोट दे रहे हैं. हमारी तो तीन-तीन पीढ़ियाँ हो गईं, हम तबसे भोट ही देते आ रहे हैं. भोट देते-देते उंगलियों के निशान घिस गए. कभी समाज हमको इसका रिटर्न भी देगा.
इस अपील का वाजिब असर हुआ. शेष दो गाँवों के कुछ डेमोक्रेट्स का दिल पिघल गया. उन्हें इस बात में तनिक भी संदेह ना रहा, कि कैलकुलेशन के हिसाब से, तो पिछली सदी में इनका नंबर आया नहीं. इस सदी में नंबर आने से रहा.
उन्होंने एक आम बैठक की. उस बैठक में यह संकल्प पारित किया गया कि इस बार कम नंबर गेम वालों को सभापति बनाकर ही दम लेंगे. अब इस संकल्प में एक अड़चन पड़ती थी. वो ये कि मैजिक नंबर उनके साथ था नहीं. इसलिए उन्होंने इसका पुख्ता इंतजाम किया. उपाय ये किया गया कि उसे निर्विरोध चुनने का फैसला ले लिया.
गाँव सभा पर पाबंदी लगा दी कि बचे हुए गाँवों से कोई नॉमिनेशन नहीं भरेगा.
बड़ी मुश्किल से उस गाँव से एक दसवीं पास कैंडिडेट निकला. उसे समझा-बुझाकर टिकट लेने को राजी किया गया. नॉमिनेशन की तारीख पर पंचों की राय बनी कि
“येकि दगड़ी एक सजाण आदिम भेजे जाऊ. जु यत्ना होस्यार ह्वाऊ कि येकु टिकट भरी साकू.”
“फेर क्या होणचै. बारगैं बटेक बधै ऐगेन. कन गौं च. अह्हा! अजौं बि गौंवों माँ सौहार्द्र बच्यूँ च. जतना लोग डरांदि छिन, वतना कलजुग भी नी आई अबि..’
नॉमिनेशन की आखिरी तारीख गुजर गई. सबने चैन की साँस ली. सयानो ने फरमान सुनाया-
“बाबा रे बाबा! बाल-बाल बच्यों. इज्जत रै ग्याई. मुक्क दिखौणक जोग रैग्यों.”
थोड़ी ही देर बीती थी, कि उधर से खबर आई- “कैसा निर्विरोध. कहाँ का निर्विरोध. वहाँ तो दो नॉमिनेशन और हुए हैं. अब निर्विरोध निर्वाचन कहाँ रह गया. ये तो मामला कंटेस्टेड होकर रह गया.”
सयानो ने जिज्ञासा जताई- “आखिरी वे दो लोग कौन हैं. भाई! जब पैली सल्ला ह्वैग्ये छै, त यू घपरोल़ कन्नवाल़ कुछन भाई. कैका उबटणक दिन ऐन… भौत खोजबीन चाली. पता चलिग्याई कि एक त वी सजाण आदिम छै, जू वैकि दगड़ि गै छाऊ. मददगारैन पैलि अपणी मदत कारि..
यह बड़ी शर्मिंदगी की बात हो गई. आपस में सलाह- मशविरा हुआ- अब क्या किया जाए. सलाहकारों ने राय दी- जिसको अनकंटेस्टेड लड़ाना चाहते थे, उसको भारी मतों से जितवा दो. इस राय पर ऑब्जर्वेशन इस बात पर आकर थम गई कि अभी इलेक्शन होने में तीन हफ्ते बाकी हैं. यह इतना लंबा समय है कि तब तक हमारा कैंडिडेट, तीसरे नंबर पर पहुँच जाएगा. (Elections Satire Lalit Mohan Rayal)
एक सलाहकार ने सयानों को लगभग उकसाते हुए कहा, “बारगैं बटेन जैल्या, त वालू गाड़िक जयान… जख-जख बटिन बधै छिन ठ्येकिं, ऊँसि मुक्क लुकैक जयान…”
पैली त कैंडिडेटैकि कलास लियेग्याई. तू कखछै रे स्ययूँ. वैल नोमिनेशन कनै भरि. त्वैन कुछ बोलिनी वैथैं.
“मि पता चल्दू, तब्त मि कुछ ब्वल्दू. मिन्थ चिताई नी, वैन कब यू काम कारि. वूथ मैंथे लैन्पर लगैकि गैब ह्वैग्ये छाई. तीन घंटा मि लैन्फर लग्यूँ रैयूँ. म्यार खुट्ट अजौंतक खुगट्याणा छिन…”
“अरे! बेकूब बणै ग्याई वू त्यार. त्वैथैं अल्झैकि वैन अपणमन्नैकि कर्दीनि. तू कनु ऐरे वैक भकलौण माँ..”
सब्बुन सजाणैक ज्वाड़-जुत्त कैन- “हैं बे! तू आदिम छैकि चर्खा. तु भ्याजि किलै छै, अर त्वैन कैरि क्या द्याई…याँ लैक भेजि छै….या दुर्बुद्धि त्वैतै कैन सिकै.’
उसने हलफ उठाकर अपनी सफाई में कहा कि मैं बिल्कुल निर्दोष हूँ-
“मैंथैं भौंपालू दादा न उग्साई.”
पब्लिक गुस्से में थी. छानबीन करके बोली, “वैन क्या बोलि त्वैथैं.”
वह सकपकाकर बोला, ” “वैन ब्वाल त कुछनि, पर मि जाणदु छौंंकि, वू पक्कु कमिणा छ. वैकु टिगट जरूर होलु ल्यह्यूँ. जब बटेक देस आजाद ह्वै, ऊंकि त खानदानि छ चुनौ लणनकि, वैथैं कु थाम सकदू?…तुमारि जाणिनि…वु त छापौं मा छप्याँ छन…वैथैं वाकओवर किलै दिये जाऊ..वु त यन चाँदुछै….मैदान साप देखिक वु सटाक् टिगट ल्हैग्ये…वैथैं तुमारी मीटिंग मने चुसणा..”
उधर भौंपालु दादा ने गोपालु नाती पर आरोप लगाया कि उसकी मंशा को भाँपते हुए, मुझे टिकट तो ल्हाणा ही था. मैं उसे आज से जानता हूँ? अरे! तुम जाणो न जाणों, मैं तो कब्से इसकी रग-रग जाणता हूँ..
दादा ने गद्दारी कर दी… नाती ने जिस थाली में खाया, उसी में छेद कर दिया… टाइप के आरोप-प्रत्यारोप चलते रहे.
सयाण लोगुन फेर मीटिंग बैठाई.. नाती थैं ज्वाड़-जुत्त धैरिन्.. मारि- बाँधिक वैथैं नौ वापिस लेण्थैं तैयार करैग्याई.. वु जल्दि घरैग्याई…
दादासिबि फोनफर छ्विं-बात्त ह्वैन. यनु अंदाज छाईकि, जरा जादा कोसिस लगण छै, पर वैन्भि माणिजाण छौ.. पर वै दिन आखरि तारिक छौ.. भोलेंडर सुबेर-सुबेर वैथैं मनौण खातिर पौंछ्ग्येन.. जन्निवू डिंडाल़्मा पौंछिन, वूँन द्याखि, वु कैकु फोन्फर खिर्सायूँछ… बगछट्ट बण्यूँ छ दादा.. डुक्करताल़ि मान्यूँ छ… घोरबेताल़ बण्यूँच…बिल्ली के गले में घंटी कौन बाँधे.. बड़ा धर्मसंकट पैदा हो गया…क्या बोन्नतब…दादा कन-कन कैक घर्याई …यनु ना पुछा भाई….धौ-धौ कैरिक निर्विरोध चुनाव ह्वैसाकि…
देसी सेफॉलॉजिस्ट्स ने मोटा
-मोटी अनुमान लगाया. कई-कई तहें भेदकर, गहरी माथापच्ची की. तब जाकर, चुनाव विश्लेषण में कई हैरतअंगेज निष्कर्ष निकाले-
इस चुनाव में स्क्रीनशॉट दिखाने वाले सपोर्टर भी मिले होंगे, जिन्होंने कहा होगा- ‘
भाई मैंने तो तुझेई दिया’
इस विषय में तुम्हारे प्रति अपनी निष्ठा जाहिर करने के लिए उन्होंने मुख्यतया इन संवादों का सहारा लिया होगा-
-अब दिखावा तो कर्नाई पड़ता है. मोहल्ले का है, तो रैली में जानाई पड़ा. समाज को मूँ तो दिखानाई पड़ता है.
-भाई मेरे, अंदर मोबाइल तो ले जाने ही नहीं देते. जो छुपाके, रिस्क लेके सीक्रेसी एक्ट को तोड़के, फोटो खींचने पे उतारू है, वो कितना बड़ा जिगरा लेके भोट दे रहा है. इसका मतलब उसका प्री प्लान है. इसका मतलब उसके जेहन में कहीं-न- कहीं, ये बात जरूर है, कि उसपे शुबहा किया जाएगा. क्यों न वो पुख्ता सुबूत लेकर सफाई दे. उसे हरदम यह आशंका बनी रहती है कि अगर वो कोई सुबूत नहीं देगा, तो उसपे किसी को यकीन नहीं होगा. इसका मतलब उसने वोट तो तुमको दे दी, लेकिन चोट बहुत तगड़ी मारी.
एक सेफोलॉजिस्ट ने तो ऐसे बहानों की फेहरिस्त गिनाकर रख दी-
-मजबूरी थी. साथ में पढ़ा हुआ है. बचपन का दोस्त है. दोस्ती टूट जाती. कर्नाई पड़ता है.
-रिश्तेदारी निभानी पड़ती है. रिश्तेदारी बिगड़ जाती, तो दुनिया को मुँह दिखाने के काबिल नी रैता.
– उसने तो पैलेई कै दिया था. भाई, तूने आने में जरादेर कर्दी.
-उसने कसम खिला दी. अब एकी रस्ता बच्ता है- घर के भोट बांटने पड़ेंगे. आधे उसको, आधे तुझे. रैणात्तो गांव मेंई है… वगैरा बताते हुए सेफोलॉजिस्ट ने चेताते हुए कहा,
जिसकी इस पहलू पर नजर नहीं जाती, वो बेवकूफ है. जिसको अभी भी इन बहानों पर यकीन है, यकीन मानिए, छह महीने का बच्चा भी उसका चूरन काट देगा . जो अपनी गलतफहमी दूर नहीं करेगा, वो बेमौत मारा जाएगा. (Elections Satire Lalit Mohan Rayal )
नतीजे निकल आए. कैंडिडेट चुनाव की थकान उतार रहे थे. जिनका भाग्य ने साथ नहीं दिया, उनमें से कुछ तो संभल गए. कुछ को गहरा सदमा लगा-
वैथैं भौत उम्मीद छ लगीं…वैदिन बटेन खात्ति कणौणु छ…रोज ल्हिस्ट बणौणु- गद्दारी कैन कैरि…कन छ तब लरौणु …
…वैथैं यनु शॉक लग्यूँ कि वैक हर्ता कर्ता, वैथैं रोज रातिमाँ जनकैक घौर छन ल्हिजौणा..
यह खुमारी कई दिनों तक नहीं उतरती.
सेफोलॉजिस्ट ने अचानक पूछा-
“जिसने तुम्हारी सबसे ज्यादा मुखालफत की..इस चुनाव में तुम्हारी जड़ पर लगातार रेती फेरी..उसके ऊपर मट्ठा भी डाला.. नतीजा निकलते ही वह गुलदस्ता लेकर बधाई देने सबसे पहले आया होगा… उसने फोटो सेशन चलाया होगा…कानाफूसी शैली में तुम्हें नसीहत जरूर दी होगी- आगे राजकाज कैसे चलाना है..
नीति कहती है कि जो तुम्हारा सबसे बड़ा निंदा-प्रेमी होगा, वह ऐसे मौके पर तुम्हारे गुणगान और स्तुति पर उतर आएगा. मीठी जुबान में बात करेगा, जैसे शक्कर घुली हुई हो.. हाँ, कभी-कभी चाशनी जरूर ज्यादा हो जाती है.. वह तुमसे मीठी फटकार लगाने का अधिकार चाहता है. वह लगातार तुमसे सटेगा. ऐसे जताएगा जैसे वह तुम्हारा सगा और निकटस्थ है. तुम्हारा उससे बड़ा कोई शुभचिंतक नहीं है.’
उसने उसे आश्वस्त सा करते हुए कहा, “चार-छह महीने में ये सब बातें सबसाइड होती चली जाती हैं. हाँ अगर कटु बाण बोले हों, विष बुझे बोल बोले हों, तो लोग याद रखते हैं. इसलिए इलेक्शन को इलेक्शन की तरह लेना चाहिए. गाँव की सरलता बनी रहे. हर हाल में सौहार्द कायम रहना चाहिए. यह चुनाव की पहली शर्त है. अपना आचार-व्यवहार ऐसा रखो, कि कल कोई सामने पड़े, तो नजर चुराने की नौबत ना आए” (Elections Satire Lalit Mohan Rayal )
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उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दूसरी पुस्तक ‘अथ श्री प्रयाग कथा’ 2019 में छप कर आई है. यह उनके इलाहाबाद के दिनों के संस्मरणों का संग्रह है. उनकी एक अन्य पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.
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