बीच में कल-कल करती हुई चंद्रा नदी. बलुवाई मिट्टी के दो तट मिलने से सदा मजबूर. किंतु उनसे भी अधिक मजबूर थे दोनों तटों से पट कर बसे हुए दो गांव माधोपुर और सुजानपुर. माधोपुर नदी की बायीं ओर और सुजानपुर दायीं ओर. दोनों गांवों के हृदय कभी एक नहीं हुए. प्रकृति ने दोनों को एक सा ही संवारा था. एक सी हरी भरी बृक्षावली, एक सी मिट्टी, एक सा पवन और एक सा ही चांद सूरज एक ही बादल दोनों धरतियों पर बरसता और एक ही चन्द्रा नदी दोनों गांवों के प्राणीयों की प्यास बुझाती. किन्तु हो न सके एक तो वे थे इंसानों के दिल.
(Story By Bagwati prasad joshi)
माधोपुर के लोग सुजानपुर न कहकर मूरखपुर कहते और सुजानपुर वाले माधोपुर न कह कर गधापुर कहते थे. सबेरे नींद खुलते इस बात की पूरी चेष्टा की जाती थी कि दूसरे गांव की झलक तक न दीखे. यदि किसी ने भूल से देख लिया तो स्पष्ट था कि उसके ग्रह क्षीण पड़ गए और उस दिन उसे खाना मिलने से रहा. पैंठ में यदि अनायास मिल गये तो आंख मूंद चुपचाप कन्नी काट जाते और भगवान न करे अचानक यदि भीड़ में भिड़ गये तो दोनो ओर से खुलकर कटबांस के लट्ठ ‘ठैं-ठैं’ बजने लगते.
पर अजीब थी यह बात कि दोनेां गांवों में ईष्र्या-द्वेष का कारण किसी को पता न था कि कब से यह ठर्रा चल रहा है. बस इतना पता था कि उसके दादा लकड़दादा पकड़दादा के जमाने में भी बिलकुल ऐसा ही था और पुरानी लकीर को हर काम में पीटते जाना ही उनका सनातन धर्म था और पुरखों को पानी चढाने से बड़ा पुण्य.
सुजानपुर होकर कस्बा केवल दो कोस था और माधोपुर से भी सुजानपुर होकर सवा दो कोस पड़ता, पर गधापुर वाले भला मूरखपुर हो कर क्यों जाते? सीगें न जम जाती उनके. इसलिए उनको जब कुछ खरीदने बेचने जाना पड़ता तो नदी के किनारे किनारे जा कर कस्बे के पास की नदी पार करते और इस प्रकार उन्हें पांच कोस से घट न पड़ता. गाड़ियां चुचिया जाती, बैल बोल जाते, पर क्या मजाल कि वे सुजानपुर वाले रास्ते में चलने की कल्पना तक दिमाग में आने देते.
‘मूरखपुर’ तो ‘मूरखपुर’ ठहरा मूरखपन से बढ कर छूत का रोग क्या है? हैजा-प्लेग तो ज्यादा से ज्यादा प्राण लेगा पर ‘मूरखपुर’ तो जीवन भर का जंजाल ठहरा. यही हाल सुजानपुर के सज्जनों का था, बल्कि कुछ बढ़ कर. उन्होंने वे फसलें उगानी छोड़ दी थी. जिन्हें ‘गधापुर’ वाले उगाते थे. अगर माधोपुर में इख पैदा की जाती तो वे सिर्फ कपास बोते. माधोपुर वाले गोबर खाद दे तो वे बेखाद की जोतें. पड़ोंसी टोपी पहने तो ये पगड़ी. सुजानपुर में प्याज का छौंक न लगता तो माधोपुर लहसुन प्याज का छौंक लगाकर खाना मुख्य रसोई धर्म और सुझाव यहां तक था कि चूंकि गधापुरवाले अब बड़ी-2 मूंछे रखने लगे हैं, इधर साफ मैदान बनाने के लिए गांव के एक मात्र कानें गोकुल नाऊ को क्यों न आदेश दें दिया जाय.
पंचायतों के नये चुनाव हुए. माधोपुर में ठाकुर कल्याण सिंह और सुजान पुर में ठाकुर प्रतापसिंह निर्विरोध प्रधान चुने गए. लेकिन आदमी बदल जाने पर भी नाम पुराने ही रहे. सुजानपुर वाले गधापुर के प्रधान को गधासिंह मूरखपुर के प्रधान को मूरखसिंह कहते. सरकारी शपथ ग्रहण हुई और उसके बाद दोनों प्रधानों ने अपनी प्रतिज्ञाएं भी दुहराई वे कभी भी उस गांव के लोगों से न कोई संपर्क रखेंगे और न बोलचाल करेंगे.
एक दिन एक अधिकारी आए. उन्होनें दोनों प्रधानों के ग्रामों में जाकर चंद्रा नदी पर पुल बनाने की राय दी और उसके लाभ बताए और आश्वासन दिया कि वे प्रस्ताव भर कर दे तो सरकारी अनुदान से निर्माण हो जायेगा. यह सुनकर गधापुर वालों के जैसे सिरों से किसी ने सींगें काट डाली और मुरखपुर वाले मुंह खोले मक्खियां निगलने लगे. आधिकारी आये और गए. पर चंद्रा उसी तरह हर बरसात उफन-2 कर गांवो की कमर तोड़ती रही और माधोपुर वालों की गाड़ियां पहले की तरह कस्बे के लिए पांच कोस घिटती बैलो की नानी मरती रहीं. न उनके कानों न उनके कानों जूं रेंगी और न सरकारी खजाने में खटमल.
सुजानपुर के प्रधान प्रतापसिंह का इकलौता लड़का था घूरेसिंह. नाम से हमें क्या लेना, काम में बड़ा मस्त-मलंग. बंदक लिए हर समय शिकार पर रहता. कभी हिरन लाद लाता तो कभी मुर्गाबियां टांग लाता और कुछ न मिला तो फाख्ते या कबूतरों पर सूरमई झाड़ता.आखिर था तो ठाकुर का बेटा. ठाकुर वीरता न दिखाए ता गौ-ब्रह्मण की रक्षा कैसे हो? (Story By Bagwati prasad joshi)
एक दिन नदी तट पर जा कर उसने तैरती मुर्गाबियों साधा. ‘टांय’ पर मुर्गाबियां कांय-कांय कर नदी को ठीक उपर एक गोल कूं मंडराने लगी. फिर बंदूक की नाल आकाश उठ गईं ‘ठांय!’ एक मुर्गाबी हवा में चक्कर काट कर धरती की ओर ठीक उसके सिर के उपर उतरी पर जैसे ही वह उसे हवा में पकड़ने उछला वह पलटकर दूसे तट की ओर मुड़ गई.
ठीक उसी स्थान पर माधोपुर की एक लड़की कपड़े धो रही थी. वह घायल पंछी अनायास उसकी गोद में जा गिरा. घूरे की नजर पहिले पंछी और फिर लड़की पर जाकर रूक गई. गोरी-गोरी, बड़ी-बड़ी आंखें हाथों में सोने के कंगन और कानों में बालियां, जूड़े के पास बिंदिया ऐसे चमक रही थी जैसे कजरारी बदली के बी नन्हा सा पूनम का चांद. लड़की ने पहले पक्षी की परीक्षा की उसकी बांयी आंख में थेाड़ा सा घाव था. उसने उसे धोया, पौंछा और उसके मुंह में पानी डाला. पंछी ने टिकुर-टिकुर आंखें खोल दी कितनी करूणा थी उसमें. लड़की मुस्कराई.
घूरेसिंह परंपरागत कनून के विरूद्ध उस पार नहीं जा सकता था. बड़ी देर वह उस छोकरी को देखता रहा. उसे ताज्जुब था कि गधापुर में कैसे यह अप्सरा पैदा हो गई. वहां तो कोई गधी पैदा होनी चाहिये.
लड़की ने देखा नदी की दूसरी ओर एक बंदूकची युवक खड़ा था गोरा-गोरा, भीगती मूंछें, रोबदार चेहरा. उसे आश्चर्य हुआ कि मूरखपुर में कैसे ये फिरंगी पैदा हो गया. वहां तो कोई बांगड़ बिल्लू होना चाहिये था.
‘‘ऐ छोकरी! ला मेरी चिड़िया, इस पार फेंक दे. वह मेरी शिकार है’’ घूरे बोला.
ऐ हत्यारे! निर्दोष चिड़ियों को मारते तुझे दया नहीं आती? अपना रास्ता देख, यह ले!’’ कहकर उसने चिड़या का आकाश में उछाल दिया. पंखों में हवा भर कर एक बार उसने अपने डैन फड़फड़ाए, एक चक्कर काटा और फिर तेजी से अपनी टोली में जा मिली. घूरे देखता रह गया.
उसने ताना मारा- ‘‘आखिर गधापुर की गधी न होगी तो क्या घोड़ी होगी?’’
‘‘अरे मूरखानंद मूरखपुर में मूरख न होगा तो क्या होगा?’’
घूरे ने पूछा- ‘‘तुम क्या रोज यहीं आती हो कपड़े फींचनें?’’
‘‘और तुम क्या रोज यहीं आते हो झक मारने?‘‘ लड़की ने ताना दिया ‘‘बड़े निर्दयी मानष हो!’’
‘‘आज तुमने दया का पाठ पढा दिया न. अब मैं गांधी महात्मा बन जाऊंगा.’’
“तो यूं कहो अब तुम मूर्खों का बाना छोड़ कर लंगोट बांध लोगे. अच्छा है कोई भली राह लग जाये. अपना तो काम कह भर देना था.’’
लड़की बुद्धिमान है, घूरे समझ गया.
‘‘अपना नाम तो बता दो’’ उसने पूछा.
‘‘पहिले तुम बताओ’’
‘‘मेरा तो घूरेसिंह है.’’
लड़की मुस्कराई- ‘‘ जथा नाम तथा गुण. बहुत अच्छा नाम है. मेरा है चंपा सुना चंपा. मैं लड़की प्रधान कल्याण सिंह की हूं.’’
‘‘नाम तुम्हारा चंपा भला है मुझे चंपा का फूल लुभावना लगता है. मैं भी प्रधान प्रतापसिंह का लड़का हूं.’ घरे का छर्रा निशाने पर लगा. दोनों ओर प्रेम की लगन लग गई. उन दोनों प्रेम एक होकर अब ऐसा लगता था कि दोनों ग्रामों की धरती आतुर हो कर मिल जाना चाहती है. वे दोनों मानों शरीर मात्र थे. जिनके माध्यम से दोनों ग्रामों के चिर-विरही हृदय मिलन के लिए छटपटाने लगे.
दोनों ग्रामों की धरती सिमट कर जैसे नदी के दो तटों पर इकट्ठी होने लगी. वातावरण में कई फिल्मी गीत मधुर स्वरों मे बजने लगे.
मैं हूं कितने पास पिया के,
फिर भी कितने दूर.
एक नदी के दो किनारे,
मिलने को मज़बूर.
एक तट पर घूरे, दूसरे पर चंपा. नित घंटों बैठे रहते. एक दिन घूरे ने हद कर दी. नदी पार कर पुरखों की परंपरा तोड़ दी और दूसरे दिन चंपा ने भी ऐसा ही कर दिखाया. बरसात में अथाह चंद्रा की छाती को चीर घूरे उस पार तैर जाता. दोनों गांवो में चर्चा होने लगी. दोनों पर मन भर मार पड़ी. उन पर मर्यादा भंग के कठोर आरोप लगाये जाने लगे. खेत खलियान ताने दिए जाने लगे.
‘‘हाय-हाय! क्या जवानी हम पर नहीं आई? हाथी मद पीता तो क्या सूंड न संभलता. सारी मर्यादा डूबो दी है इनने.’’
कस्बे की पैठ से लौटते एक दिन दुतर्फा खूब लट्ठ चले क्योंकि मूरखपुर के एक सभ्य ने चिल्ला कर कह दिया था- ‘‘अरे गधेपुर वालों! क्यों नहीं अपनी उस गधी को बंद रखते? हमारा तो खुला सांड़ है कहां तक बांधते फिरें!’’ बस फिर क्या था वह ताबड़-तोड़ हुई कि गधों का पसीना और मूरखों का खून एक साथ धरती को सींचने लगा. (Story By Bagwati prasad joshi)
आखिर सीमा होती है. प्रधान प्रतापसिेह से न रहा गया. बेटे की दुर्दशा अधिक न सह सके. ले-दे के चार भाइयों में एक लड़का था-घूरे. देवी की लाख मन्नत मांग कर पूत मिला था. एक दिन भरी पंचायत रख दिया उन्होंने अपना इस्तीफा.
‘‘पंचों मुझसे अब तुम्हारी परधानी नहीं होगी. ले-दे के एक लड़का है पानी देवा. तुम्हारे गवंई-गांव के झगड़े में मैं अपना परलोक न बिगाड़ूंगा भाई…! आखिर कोई तो बतावे माई का लाल कि माधोपुर से हम बैर क्यों रखें? वे हमारे पड़ोसी ही नहीं जात बिरादरी के हैं. हमारी धरती, हमारा जल और आसमान एक है, फिर काहे का रगड़ा भाइयों?’’
कोई न बोला. सिर्फ बोल रहे थे इक्कीस हुक्के- ‘‘गुड-गुड़-गुड-सूड़-सुड-सुड़.’’
हमारा सवाल एक ही है चौधरी, ‘‘सिर्फ एक काना पंच बोला.’’ तुम यह बताओ कि घूरे के लिए इस गांव या कहीं आन गांव में कोई छोरी नहीं थी. जो उस गधेपुर की एक गधी की बच्ची से प्रेम का स्वांग रच रहा है.’’
‘‘प्रेम तो किसी एक से हो जाता है बेचूसिंह,’’ प्रधान बोले ‘‘नौटंकी तो तुम सारे साल भर देखते हो मजनू के लिए और सब छोरियां मर गई थी जो उसने लैला से ही प्रेम किया? ‘प्रेम न जाने जात कुजात, कुत्ता न जाने बासी भात’ तुमने सुना होगा. फिर हमारा घूरे क्या करे? और माधोपुर के ठाकुर उतने ही शुद्ध ठाकुर हैं जितने हम. जमाना बदल गया है पंचों ! हमें बदलना ही पड़ेगा. और अगर बैर का कोई पक्का कारण है तो बोलो, बताओ.”
हील हुज्जत होने लगी. हुक्के धुआं उगलने लगे पर बावजूद हो-हल्ले के कोई भी यह न बता पाया कि माधोपुर से बैर रखा जायें तो क्यों? पंचायत उठ गई. प्रधान का इस्तीफा न लिया गया.
ऐंसी ही खलबली माधोपुर की पंचायत में भी हुई. नदी के दोनों तट पटतें ही गये. धरती आतुर होकर बढ़ने लगी. (Story By Bagwati prasad joshi)
एक दिन नदी के इस पार सुजानपुर के प्रधान प्रतापसिंह और उस पार कल्याणसिंह हाथों में नारियल और कलश लिए खड़े थे और उनके पीछे सारे गांव के नर-नारी. दोनों बढ़कर बीच चंद्रा नदी में नारियल चढ़ाकर गले मिले, तटों पर पुष्प-बृष्टि होने लगी.
माधोपुर और सुजानपुर की पंचायतों ने मिलकर कस्बे तक पक्की सड़क बना ली. पांच कोस का चक्कर बच जाने से बैलों ने आशीर्वाद दिए और बिना सरकारी सहायता के ही एक दिन दोनों ग्रामवासियों ने चंद्रा नदी पर पक्का पुल बना लिया. नदी के दोनों तट चिरमिलन में समा गए.
जैसे इन दो बिछुड़े गावों के तट एक हुए, ऐसे ही भगवान करे हर हृदय और हर देश, गांव के तट के बंधन ढीले पड़ कर एकमय हो जाएं. (Story By Bagwati prasad joshi)
-भगवती प्रसाद जोशी
1950 की लिखी इस कहानी के लेखक स्वर्गीय भगवती प्रसाद जोशी हैं. काफल ट्री को यह कहानी उनके पुत्र जागेश्वर जोशी ने भेजी है.
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