पहाड़ में हर घर गोठ में जानवर हो और उनकी देखभाल में कोई कोर कसर रह जाए तो घर की बूड़ि बाडियों को फड़फड़ेट हो जाती है. ब्वारियों की शामत आ जाने वाली हुई और पशुओं की सार संभार में चेलियों की सरफर बढ़ जाने वाली हुई. आमा, बूबू से ले बड़बाज्यू तक सब परेशान. अब आदमी हो तो अपना दुख बताए ये बिचारे तो बस एकटक देखें, दाना, घा -पात की ओर नज़र न फर्काएँ. चौमास में और भी हालत खराब. लतर पतर में जानवर और लस्त पस्त. मक्खी अलग ऊप्पर से ये बड़े भैंसिया मच्छर. ककलशैणी अलग दिखने वाली हुईं गोठ में. कान में घुस जाएं तो बरमांड तक जाएं.
(Diseases of animals in Uttarakhand)
“ओहS हो रे. जे है गौ हुनल, अब दूध ले णी दिने. पेट फूल नौ. नज़र लाग गे. ब्याणी गो भै? जाणी के खिले दे. रनकर साल.”
अब गाय ब्याने वाली हो मतलब जतकाली तो आमा सखत टोन में पहले ही सबके कान सेक देती. “मुला पात झन खिलैया. पराल ले नि दिनी. हल्दाक पात ले नि डालिया हां !उ भीमल और के हुं ऊ, अरे खिंदु क पात ले नि दिंण भै”. और साथ में मास या उड़द के छिलके, मडुए का नउ भी पूरे छः मास तक नहीं देना हुआ तो नहीं देना. अब गाय भैंस दूध देने वाले हो जाएं तो धान के छिक्कल या कुना या भूसा भी नहीं देना ठहरा. दूध तो ज्यादा तब मिलेगा जब सिसूण कूट कर खिलाएंगे. ग्युं भिगा अंकुर आने के बाद खिलाएंगे. नागफणी का तना कूट मसल निचोड़ कर हरी घास में मिलाएंगे. बछड़ा जब तीन महिने का हो जाए तो मास उड़द का छिकला दे सकते हैं जानवर को. एक दम डोरिने लगेगा.
बछड़े की बड़ी सार संभार होने वाली हुई. जैसे ही बछड़ा पैदा हुआ तुरत फुरत उसे कड़वे तेल यानि सरसों के तेल की थोड़ी घुटुकी पिला दी जाती. इससे उनके जुग नहीं लगता. मतलब सरसों का तेल जरा पिला दो तो पाचन सही रहता है. कीड़े कितोले भी नहीं पड़ते बाछे -कटड़े को. ऐसे ही बछड़ों को तो यही करीब तीन महीने तक पीने को पानी भी नहीं देते. आमा तो कोमल घास खिलाने से पहले गेठी -तरुड़ की पत्ती तोड़ती. करीब पंद्रह बीस दिन छौने को वही खिलाती. वो भी चबर चबर खा जाता. बस आधे महिने का हो गया तो खूब डोरियाए गा,कान हिलायेगा. रस्सी खोल दो तो सरपट कूदफाँद करेगा. घास भी खायेगा जी भर. फलने फूलने के दिन हुए सो अब पानी मैं पिसु या आटा घोल कर पिलाने और चावल की धोवन देना तीन महिने बाद शुरू.
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पहाड़ के ऐसे खास त्यार भी हुऐ जिनमें उनकी पूजा की जाती है और पेट भर छक लें ऐसा जतन किया जाता. असौज से जाड़े की थुरथुरी शुरू हो जाती. इसी महिने खतड़ुवा मनता. एक तरफ झिकड़े लकड़ी जमा कर पईंया, भांग की डंडी में फूल लगा जलती आग में डाले जाते, ककड़ी काटी जाती बांटी जाती फिर आग फलांगी जाती कि जाड़ों भर अरडपट्ट ना हो. तो दूसरी ओर जानवरों के गोठ में और आसपास घास बिछा दी जाती है, घा के पूले गाय बल्द के आगे खोल दिये जाते कि आज के दिन खा खा के धौ हो जाए. बस साल भर इनके पेट भरे रहने कि कामना है ये. इसी से यह लोक विश्वास पनप गया कि खतड़ुए के दिन अगर जम के ना खाएं तो साल भर गोर बाछ भुकान ही रहेंगें.
ऐसे ही कातिक की एकादशी को सिंगोई मनाया जाता जब गोरु-बाछ नहला धुला साफ-सूफ चमचमान कर दिये जाने वाले हुऐ. फिर इनके सींगों में लाल रंग चुपड़ देते. अब मडुए के तने, रामबांस, भांग या भीमल के रेशों के फूल बना इनको लाल, पीला , हरा रंग देते हैं. फिर ये फूल बल्दों के सींगों में लगा सजा देते हैं. इस दिन गौर बाछौं को मास की खिचड़ी खिलाते. मीठे में खीर खिलाते गुड़ चटाते. इसी मास दिवाली मनाने के बाद ‘गोधन मोहरा ‘मनाया जाता है. चावल के बिश्वार या फिर कमेट के गाढ़े घोल में गिलास, बेली या माणा डुबा गोल -गोल ठप्पे गोर -बाछ, बल्द -भैंस के पुठ में छाप देते हैं. सबके पिठ्या लगता. पूरी भी खिलाते. पूए भी. वो पुराना काला गुड़ तो दवा ही समझ लो.
अब कितनी ही सार -संभार हो. अटक- बटक जानवरों को भी बीमारी- तकलीफ होने ही वाली हुई. एकदम से दूध देना बंद कर दें तो नज़र लगने, टोने टुटके का भैंम भी हुआ. बुरी नज़र को ‘चाख’ लगना कहते. दुधारू पशुओं की अला- बला टालने के जानकार या पुछयार को बुलाया जाता जो गाँव या आसपास होते ही हैं. न मिले तो कोई बूड़ -बाड़ी सयाना. टुटकों की कमी ना हुई.
राई के दाने, झिमौड़ का ‘पोवा’ या छत्ता, काली ‘मास’ या उर्द के दाने, सर्प की केंचुली के साथ साथ बकरी के गुबटोल या मेंगनी को एकबट्या आपस में मिला-जुला मंतर पढ़ पहले बीमार ढोर की परिक्रमा लगा घुमाते और फिर उसे चौराहे में डाल देते. अब लोक विस्वास हुआ कि ऐसे टुटके से दूध उतर आएगा. दूसरा आसान तरीका ये कि लकड़ी जला उसके कोयलों में खूब सूखी ‘खुस्याणी’यानि लाल मरच के साथ राई के दाने डाल देते जिससे पशु उसका धुंवा सूंघ ले. बस अला बला टल जाती. दुश्मन बैरी का किया धरा फुस्स !
अब कभी मिट्टी में चलें, कभी बारिश में भीगें, सतझड झेलें तो रोग व्याधि भी आने वाली हुई. देखभाल में जरा सावधानी हटी तो समझो दुर्घटना घटी. कभी एकदम गरम्म तो कभी खूब ठंड. मौसमी बीमारी लग ही जाने वाली हुई.
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सबसे ज्यादा परेशानी होती है खुरपका या ‘खुरि’ में जिसमें जानवरों के खुर पक जाते, उन्हें बुखार आ जाता और वो घास खाना भी छोड़ देते. ऐसे दुधारू पशुओं का दूध नहीं पीते और उसे अन्य ठीक ठाक जानवरों से अलग भी बांध देते. कुछ जगहों में सेमल के पेड़ के बक्कल को घोंट पीस पानी के साथ मिला कर पशु को खिलाते. खुरि ठीक करने का मन्तर भी होता जिसे भोजपत्र में लिख जानवर के गोठ के दरवाजे में लटका देते. यह मन्तर बड़ा गुप्त होता. एकदम सीक्रेट. जानने वाला ऐसे बुदबुदाता कि जानवर ही सुन पाए, आस पास वाला और कोई नहीं. खुरि की ऐसी झसक मानी जाती कि खुर पके दुधारू का दूध नहीं पिया जाता. अब जाने अनजाने पी ही लिया गया हो तो जहां कहीं जानवरों का चारा रखा हो, या उन जगहों में जहां वो चरते हों वहां मूतने, लघुशंका फेरने की सख्त मनाही होती. खुरि का संक्रमण भी ऐसा ख़तरनाक हुआ इसीलिए खुरि वाले जानवर को क्वारंटीन में ही रखते. खुरपका में कीड़ों की घास या एमरेन्थेसी की हरी टहनी पशु के गले में बांध देते हैं. लोक विस्वास है की जैसे जैसे खुर ठीक होंगे वैसे वैसे हरी टहनी सूखती जाएगी. बिलकुल ठीक होने पे खुद ही झड़ जाएगी. बरसात के मौसम में बबूर की पत्ती, छाल और जड़ को घोंट पीस इसका लेप खुरों पे लगाते हैं. इसका चारा भी कई बिमारियों से बचाता है.
अब कई बार गाय-बैल, भैंस ना तो घास खा पाते ना पानी ही पी पाते. उनके गले सूज जाते और गले में ‘भेकाना’ बन जाता. भेकाना हुआ मेंढक यानि राना-टिगरीना की बिरादरी. सो इसी कारण जानवरों के इस रोग का नाम भी पड़ा ‘भिकानी’. ठीक गलघोंटू जैसा. इसे ठीक करने के टुटके भी हुऐ और जंतर भी. ‘खैर’जिससे कत्था बनता, उस की लकड़ी से बने ‘मूसल’ जिससे अनाज कूटते को हाथ में पकड़, भिकानी से ग्रस्त जानवर की पीछे की टांगों के बीचोंबीच से गले तक लाते. अब जहां सूजन है वहां मूसल के आगे के हिस्से को धीरे-धीरे पटकाते. लोक बिस्वास हुआ कि दो इक बार ऐसा करने से भेकाना पटकी जाता है और जानवर चंगा.
दूसरा आसान तरीका निम्बू- मिर्ची वाला है. निम्बू को आधा काट पहले उसमें पीसी हुई ‘खुस्याणी’ डालते. फिर इस निम्बू -मर्चा को भिकानी वाली सूजी जगह पे रगड़ते तो सूजन ख़तम हो जाने वाली ठहरी बल. ऐसे ही ‘रिखू’ या गन्ने की पत्तियों को तोड़ लेते. ओश्या रही सूज गई चमड़ी पर रगड़ देते. जानवर के खाप या मुंह में हाथ डाल अगर रिखू के पात से बनी भेकाने जैसे पिंड को वहां पर खूब रगड़ घिस दो तो इलाज गारंटेड माना जाता.
कभी कभी जानवरों की जिबड़ि के तले जीभ सा ही कुछ बन जाता. ऐसे में उनका खाना पीना जुगाली सब हराम हो जाता. इस बला का नाम है ‘पड़ जिबडू’. पड़ जिबडू का इलाज भी कई फसक वाली फंतासी से लबालब है.इक तरफ सोने की नथ के घुंटी वाले भाग को क्वेलों में गरम्म कर बढ़ गये हिस्से पे लगाते. तो दूसरा इलाज एकदम फरक जिसमें काले कुकुरे के गू को जानवर की जीभ के नीचे लगा देते. तीसरा इलाज गरमागरम होता, जिसमें लोहे की छड़ को गरम कर ‘पड़ जिबडू ‘पे लगा देते हैं. इसे डाम देना कहा जाता.
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एक तरफ ओस्याने, फूलने, सूजने जैसी आदि व्याधि है तो दूसरी तरफ सूखने की बीमारी, जिसे कहते ‘ छिपड़ि’. यह उलटी या सुल्टी दो किसम की होती. इस रोग में पशुओं के मुंह और नाक सूखने लग जाते. साथ में पेट फूलने लगता. दर्द से परेशान हो जानवर बिडोव हो जाता.हैरान परेशान. अब जानकार पशु के पेट को ध्यान से देखते. अगर पेट के पास दिख रही आँतों में छिपकली जैसी उभरी दिखे तो समझ लो कि बस उसे छिपड़ि हो गई है. अब ध्यान से देखने पर पशु की पूँछ की ओर जाती सरकती छिपकली दिख रही हो तो यह ‘उलटी छिपड़ि’ है. दूसरी ओर अगर छिपकली की अनवार पशु के मुंह की ओर हो तो ये ‘सुल्टी छिपड़ि’ है. इसमें पशु खांसता डकारता भी है. उसकी खाल भी लाल होने लगती है.
उलटी छिपड़ि थोड़े बहुत जतन से ठीक हो जाती है. पर सुल्टी छिपड़ि जानलेवा भी होती है. इसमें पशु मर भी जाते हैं. जानकार मर गये पशु की आंत से छिपकली जैसे पिंड को निकाल कर बिलकुल सुखा देते. अब जब किसी को सुल्टी छिपड़ि पड़ गई हो तो सूखे भाग के टुकड़े को पत्थर में खूब रगड़ -घिस या थेच कूट बीमार पशु को तब तक खिलाते जब तक वह पूरी तरह ठीक ना हो जाए. दूसरा इलाज ये कि पहले तो छिपकली के छोटे छोटे बच्चों को या बड़ी छिपकली को ढूढ़ खोज कर उसे थेच देते, पटका देते. जब वो मर जाते तो उनका थचुआ बना देते. पीस देते. फिर इस अवलेह को पिसे भट्ट के गोले बना उसके अंदर रख देते. और जहर ही जहर की काट करता है वाले इस फॉर्मूले से बने इस गोले को जानवर को खिला देते. ऐसे घिण भरे काम वाले इलाज को करवा पाना हर किसी के बस का नहीं. इसलिए दूसरा टुटका काम में लाया जाता. जिसके लिए चाहिए ताजी साबुत लाल मर्चा, चूक का रस, साथ में लाल साबुन जैसे लाइफ बॉय के छोटे कत्तर और रसोई की छत पर जमा हो गये धुंवे की कालिख या ‘ध्वांस’. अब पहले ‘मड़ुआ’ गूंथते हैं और इसके गोले या ‘धुंदी’ के भीतर सब एकबट्या सामान रख देते हैं. पशु को अच्छी लगने वाली घास के साथ छुपा छुपु के इसे रख पशु को खिला देते हैं.
काले भट्ट के गोलों के भीतर ‘फरकाट’ के बीज भर जानवरों को तब खिलाते हैं जब उनको ‘छेरू दामड़ी’ हो जाती है. पशु को खूब दस्त होते हैं. एकदम ज्यादा हगभरिने के साथ ही वो रंभाते भी नहीं यानि आवाज भी ब्लॉक हो जाती है. इसे ‘अल्लाना’ भी कहते हैं. इसका इलाज भी फरकाट है, जिसके बोट की छाल को पीस, भट्ट के साथ मिला खिलाने से छेरू बंद हो जाते हैं. साथ में ‘कैरूआ’ की जड़ भी मिला देते हैं. फरकाट की पत्तियों का चारा तो देते ही हैं.
दूसरी तरफ अगर पशु का गोबर एकदम सूख गया हो या कब्ज हो जाए तो इसे ‘सुक दामड़ी’ कहते हैं जो सिरफ काले भट्ट भिगा पीस -पास कर खिलाने से ही ठीक हो जाती है. तीसरी तरह की दामड़ी ‘सिमई दामडि’ कहलाती है. ‘सिमई’ हुआ सेमल का पेड़ जिसमें छोटे छोटे काने या कांटे होते हैं. पशु की खाल में भी जब ऐसे ही काने हो जाते हैं तब उसे सिमई की पत्ती खिला देते हैं. जानकार बताते हैं कि हर तरह की दामड़ी ढोलदामडि की छाल को पीस कर देने से ठीक हो जाती है.
ऐसी ही दूसरी छाल होती है, बल्दी आँख. इसे भी पीस पानी में घोल पशु को पिलाते हैं. कई जगह काले भट्टों की साथ भंगिर का पिन या छाल की साथ जौंटिल घा की जड़ के साथ कूट काट कर पीस कर देते हैं. गोबर के सख्त होने और लाल पिसाब होने को बिषादु या बिशाली कहते हैं इसमें पुदीना, मजेठी व कन्याली की पत्तियों के साथ बथुवे के बीज मिला सिलबट्टे में पीस पानी मिला कर पिला देते हैं. मेवली के बीजों के साथ काली मर्चा पीस चटा देते हैं.
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कई बार पशु बेचैन हो जाते हैं, छटपटाते हैं. इसे झाँव लगना कहते हैं. ऐसे में पशु की ‘कचुली’ या थनों के पास या पिछली टांगों के बीच ‘सिसूण’ यानि बिच्छू झपोड़ देते हैं. ऐसा करने से झांव ठीक हो जाता है.. पशुओं को ‘लुता’ भी पड़ जाता है जिसमें उन्हें खुजली होती है.वो जगह जगह खूंटे या दीवार से अपना बदन रगड़ खुजली मिटाने का जतन करते हैं. ऐसी रगड़ घिस में खुन्योल भी हो जाती है. घाव भी. फिर उनमें मक्खी भिनभिनातीं हैं. खुजाने वाली खाल के बाल भी गिरने लगते हैं. इसका इलाज होता है ‘दयार’ या देवदार का तेल जिसे लुते वाली जगहों पे चुपड़ देते हैं. साथ में खिलाने के लिए कैरूआ की जड़, सिमई की छाल और काले भट्ट पीस कर पानी के साथ देते हैं. गाय भैंस के थोरों या बछड़ों को लुता होने पर उनके मुहं के भीतर तालू में काला सा मस्सा हो जाता है. जानकार लोग इस काले लोथड़े को नाख़ून से नोच हटा देते हैं और वहां काले भट्ट के दाने घिस कर लेप कर देते हैं. थोड़े दिनों में लुता ठीक हो जाता है.
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बदन में घाव होने पर ‘प्योंली’ के पौंधों की पत्ती को पीस कर घाव में चुपड़ दिया जाता है. अगर घाव में कीड़े पड़ जाएं तो आड़ू की पत्ती, पाती की पत्ती और मेहल के दाने पीस कर घाव में भर देते हैं. आड़ू की पत्तियाँ काफ़ी जहरीली होतीं हैं जिससे कीड़े मर जाते हैं और घाव भी धीरे धीरे सूख जाता है. फोड़े फुंसी या पिल होने पर तुस्यार के पातों को पीस लेप कर देते हैं. जुवें और किन या किलनी होने पे भी आड़ू की पत्ती का लेप लगा देते हैं. तमाख या तम्बाकू की ताजी पत्ती पीस कर नमक और निम्बू के रस लगाने से कीड़े घाव छोड़ टपक जाते हैं. तितपाती की पत्ती भी रगड़ी जाती है. ऐसे ही रामबांस की पत्ती का चोप भी चुपड़ा जाता है. जुताई वाले बल्दों के ‘डीलों’ या ‘जुड़’ या कन्धों के घाव और उनसे खून आने पे जंगली पिनालू की पत्ती और जड़ घिस कर लगाते हैं. इसी तरह बल्दीकान की पत्ती पीस कर चुपड़ देते हैं. कई जगहों में सुवर की चर्बी, चूहे का खून या चमगादड़ का खून लगाना भी जानकार बताते हैं.
पशुओं की आँखें लाल होने और गीदड़ आने पर चावलों को भिगा कर पीस लेते हैं. फिर इसमें पानी मिला कर सुबह सुबह तब तक पिलाते हैं जब तक आँखें साफ ना हो जाएं. आँखों में ‘फुला’ या मोतियाबिंद पड़ जाने पर हल्दी से बने पिठ्या का सत या चिलमोड़ि का रस या मेहल के दानों का रस डालते हैं. कई बार खास कर बरसात के मौसम में पशुओं की नाक में ‘जुग’ या जौंक घुस जाती है. ये होती भी बड़ी बड़ी हैं और खून पी पी के खूब फूल भी जातीं हैं. तब पशु की नाक में तारपीन के तेल की कुछ बूंदें डाल दी जातीं हैं.लीसे को पिघला कर पतला बना उसकी बूंदें चुआ देते हैं. दूसरा इलाज है चूक का रस, जिसे नाक में टपका देते हैं. ऐसे ही तमाखू का चूरा थोड़ा सा नाक में बुरका देते हैं.बदन पे जौंक चिपट जाने पे लूण यानि नमक चुपड़ देते हैं.
अब जानवरों के साथ टूट फूट भी लगी ठहरी. आपस में मल्ल्युद्ध भी करने वाले ठहरे. ऐसे में पशुओं के सींग टूट जाने पर लाल मिट्टी के साथ सेमल के पेड़ के बगघल को कूट-थेच कर उसका लेप टूटे हिस्से पर कर देते हैं. ऐसे ही हड्डी टूटने पे मादिरा के भात का लेप लगाते हैं. या फिर चावल के आटे की लोई एकसार कर चुपड़ देते हैं. अब टूटे हिस्से में तुस्यार की लकड़ी के फट्टे फाड़ कर सुतली या ज्योडे -रस्सी से टाइट बांध देते हैं. गुम चोट होने पर ‘गुर्च ‘यानि गिलोय की टहनी और पत्तियां काट खिलाते हैं. ऐसे ही जंगली मंजेठी की पत्ती भी खिलाते हैं. गेरू में फिटकरी मिला कर इसमें चीड़ की पत्ती डाल पीस लेते हैं इसे पानी के साथ उबाल कर गुम चोट पर सेक करते हैं. गुम चोट में गोंद के साथ बांज के पेड़ के सड़े भाग जिसे बज्याणी कहते हैं को उबाल कर इसका गरमागरम सेक करते हैं. चोट पटक में डोलू की जड़ घिस कर लगा देते हैं. कच्ची हल्दी खिलाते और पीस कर पिलाते भी हैं.उमर की छाल के काढ़े में कपड़ा डुबा सिकाई से आराम मिलता है. गुम चोट में क्वैराल उबाल कर उसके रस से सिकाई कर एकदम फायदा होता है. क्वैराल या कचनार की कली और पत्तियां भी फायदा करती हैं. इनसे पेट भी सही रहता है और आंतों की कई बीमारी नहीं होती.
चौमास में गनेल भी बहुत हो जाते हैं. चारे में अगर गनेल घुस गये और जानवर ने उन्हें खा दिया तो उन्हें किड़किडिया हो जाता है. कई ऐसी घास होती हैं जिन्हें खा जानवर बहुत बीमार पड़ जाते हैं. सिमार या गज्यार, डाडब या दलदली जगह की कुछ घासें भी गलती से खा लेने पे तबियत खराब हो जाती है. खड़िक, बांज और आड़ू की पत्तियां भी पेट में गड़बड़ी करतीं हैं. ज्यादातर मामलों में पेट फूल जाता है तो हरे धनिये का रस पिलाते हैं. निम्बू का रस भी देते हैं. अफारे का सबसे बढ़िया इलाज कडुआ तेल है जो खूब पिलाने से दस्त कर रोग दूर कर देता है.
पशु, पहाड़ के घर गोठ का हर बखत का दगडुआ है. इसी के स्वस्थ ख़ुश रहने पे दूध दन्याली की बहार रहती है. खेत का अनाज, साग पात पनपता है. समृद्धि आती है. अन्नपूर्णा प्रसन्न रहतीं हैं. पहाड़ की लोक वनस्पति में साथी पशु समूह का जुड़ाव आदमी से कम नहीं. वह खुशहाली का प्रतीक है और मूक प्रेम का अप्रतिम उदाहरण.
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लोकथात में परंपरागत तरीके से पशुओं की सार संभार के जतन हैं तो इनका आधार ले वैज्ञानिक खोजबीन भी रंग लाई. एटकिंसन (1882)के तीन गजेटियर में पहाड़ के लोक में इनके योग को खूब बताया है. एन सी शाह, एम सी जोशी, जी एस रावत, पी सी पांडे, जी सी जोशी, एम एम कांडपाल, आर के इस्सर, आर डी गौड़, के सी भट्ट, जे के तिवारी, एस के जैन, आर मित्र, हरीश सिंह, जे के माहेश्वरी, प्रमिला जोशी, वाई पी एस पांगती, वीर सिंह जैसे वैज्ञानिकों ने इस लोक सम्पदा के कई रहस्यों को अपने शोध कार्य से धरोहर बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है जिनका अनुसरण कर लोक थात समृद्ध हो रही. फल फूल रही. बस घी दूध की नदी बह निकले तब जब जानवर स्वस्थ प्रसन्न रहे.
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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