हिमालय प्राकृतिक सौंदर्य व अद्भुत जैव विविधता से परिपूर्ण है. इसी कारण इसे अनजा-अजा की भूमि कहा जाता कहा है. शक्ति के स्वरूप को जानने की जिज्ञासा में देवी स्मरण दिलातीं हैं कि मुझ को ही तुम ब्रह्म स्वरूपा जानो – मत्त: प्रकृति पुरुषात्मकं जगत. अर्थात् प्रकृति-पुरुष, सद-असद रूप सब, बने मुझसे यह जानो.
(Devi Temples in Kumaon Uttarakhand)
पौराणिक आख्यानों में वर्णित है कि हिमालय की हरीतिमा में माता पार्वती का जन्म हुआ. कैलास पर्वत में शिव वास हुआ. यह पावन भूमि गिरिजा-भवानी की क्रीड़ा स्थली रही. ब्रह्म स्वरूप इस प्रथम उपस्या को नमन करते देव कहते हैं कि महादेवि शिवा तुम्हारा सतत नमन. नमन प्रकृति तुम भद्रा भी तुम, नियत हमारा विनत नमन.
गंगा, यमुना, रामगंगा, कोसी, सरयू, शारदा के साथ अनगिनत सरिताओं का उदगम हिमालय से हुआ जिन्हें हिम -पुत्री की संज्ञा दी गई. सतत सरिताओं के इस अविरत प्रवाह से देश के निवासियों को जीवनी शक्ति प्राप्त हुई.
उत्तराखंड की समस्त नदियों के उदगम एवम संगम स्थल पर शक्ति व ऊर्जा के प्रतीक देवी-देवताओं के मंदिर विद्यमान हैं. मानसखंड को कुर्माँचल या कुमाऊँ के नाम से जाना गया जहाँ काली, गोरी, रामगंगा (पूर्वी) गोमती व पनार काली नदी प्रणाली की सहायक नदियाँ हैं तो रामगंगा की सहायक नदियां रामगंगा (पश्चिमी), गोला और कोसी नदी हैं. जल स्त्रोतों को शिव व शक्ति उपासना स्थल का मुख्य केंद्र माना गया.
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ईष्ट देवी के रूप में नन्दा देवी प्रतिष्ठित हैं जिसके नाम पर हिमालय की एक विहंगम श्रृंखला का नाम “नन्दा देवी शिखर” है. जनश्रुति है कि दक्ष प्रजापति की पुत्री के नयन जब विष्णु के सुदर्शन चक्र से जब नैनीताल में गिरे तो एक रमणीक सरोवर के रूप में रूपांतरित हो गये. नन्दा देवी ही यहां नयना देवी के रूप में प्रतिष्ठित हुई जो एक मुख्य शक्ति पीठ की मान्यता रखती है. भादो शुक्ल पक्ष में नंदाष्टमी के पर्व पर नन्दा व सुनंदा की प्रतिमा पूरे विधि विधान से बनाई जाती है जिसके डोले की शोभा यात्रा निकाली जाती है. इन्हें कुमाऊँ की कुल देवी माना जाता है. नयना देवी परिसर में ही बंगाल के श्रद्धालु भक्तजनों द्वारा दुर्गा पूजा का भव्य आयोजन किया जाता है. नयना देवी परिसर से आगे ठंडी सड़क पर चट्टान में खुले में पाषाण देवी का मंदिर है जिसमें प्राकृतिक रूप से शिला पर देवी का मुख स्वरूप विद्यमान है.
कौशिकी या कोसी एवम शाल्मली या सुवाल नदियों के मध्य मानसखंड में पौराणिक ‘काषाय पर्वत’ का वर्णन है जिस पर बसा है कुमाऊँ का शीशफूल “अल्मोड़ा”, जिसे आलमनगर भी कहा गया. यहां से नंदाकोट और नन्दा देवी की चोटियां दिखाई देतीं हैं. इसी काषाय पर्वत पर “कौशिकी”देवी का वास है. परिकल्पना है कि यह पार्वती के शरीर कोश से उत्पन्न हुईं. कौशिकी के रूप में प्रकट हो कर भगवती ने शुम्भ -निशुम्भ का वध किया. दुर्गा सप्तशती के पंचम अध्याय में कौशिकी देवी की महिमा का वर्णन है. यही कसार देवी हैंजो शहर से लगभग आठ किलोमीटर दूर पहाड़ी पर स्थित है. इसकी स्थापना ईसा से दो सौ वर्ष पूर्व की बताई जाती है. यहां छठी सदी ईसा के लेख शिला पर वेत्ला के पुत्र रुद्रक द्वारा रुद्रेश्वर मंदिर के निर्माण का कथन है. अल्मोड़ा में दुर्गा देवी के मंदिरों में नन्दा देवी, उल्कादेवी, शीतला देवी, यक्षिणी देवी, त्रिपुरासुंदरी, राजराजेश्वरी देवी व पातालदेवी मुख्य हैं.
पहाड़ में उमा, गौरा या पार्वती से अधिक प्रचलित नन्दा देवी है.हिमालय की पुत्री पार्वती ने नन्दा के रूप में भादों की शुक्ल अष्टमी को जन्म लिया. अल्मोड़ा में विद्यमान नन्दा देवी मंदिर के सन्दर्भ में कहा जाता है कि अल्मोड़ा नरेश बाज बहादुर चंद ने नन्दा देवी की प्रतिमा को गढ़वाल के जूनियागढ़ किले से ला सन 1671 ईस्वी में तंत्र -मन्त्र से कीलित कर अल्मोड़ा के मल्ला महल या रामशिला मंदिर समूह में स्थापित किया.1690 से राजा उद्योत चंद ने पार्वतीश्वर व उद्योत चंदेश्वर नन्दा देवी मंदिर के निकट बनवाये तो त्रिपुरा सुंदरी का मंदिर एक ऊँची पहाड़ी पर बनवाया . कमिश्नर ट्रेल ने 1815 से 1835 में अपने कार्यकाल में राजकाज की सुविधा को ध्यान में रखते नन्दा देवी को कचहरी परिसर या मल्ला महल से उद्योत चंद्रेश्वर मंदिर के निकट पार्वतेश्वर मंदिर में प्रतिष्ठित करवा दिया.इसके समीप छोटे -छोटे देवालय हैं जो एक रक्षक दीवार से घिरे हुए हैं. इसे देवकुल शैली कहा जाता है. साथ ही चारों दिशाओं में चार द्वार बने हैं जिनकी शैली सर्वतोभद्र कही जाती है.
अल्मोड़ा से तेरह किलोमीटर की दूरी पर काकड़ी गधेरे के दाएं तट पर नारायण काली मंदिर है यहां बावन छोटे-बड़े पाषाण निर्मित मंदिर समूह में मुख्य मंदिर काली का है. दूसरी ओर अल्मोड़ा से पच्चिस किलोमीटर की दूरी पर लमगड़ा सड़क मार्ग पर लगभग दस किलोमीटर पैदल चल बानड़ी देवी विद्यमान है. यहां चतुर्भुजी विष्णु की शेषशैय्या के समीप कुटुंबरी देवी का मंदिर है. मध्यकालीन वास्तु की दृष्टि से अल्मोड़ा से पिछत्तर किलोमीटर दूर जैँती के निकट पुभाऊँ ग्राम में लक्ष्मी मंदिर के साथ ब्रह्मा व सूर्य की प्रतिमा हैं. अल्मोड़ा से रानीखेत की तरफ सीतला देवी का मंदिर सीतलाखेत में स्थित है.रानीखेत से पहले कालिका की सुरम्य व मनोहारी स्थली है जहां मोटर मार्ग से थोड़ी चढ़ाई चढ़ पहले भैरव व और ऊपर सीढियाँ चढ़ काली मंदिर है. रानीखेत से चौबटिया उद्यान की सड़क पर छः किलोमीटर दूर झूला देवी मंदिर है जिसमें देवी माँ की प्रतिमा झूले पर विराजी है.
रानीखेत से चौखुटिया जाने वाले मोटर मार्ग पर द्वाराहाट से लगभग पंद्रह किलोमीटर ऊंचाई पर द्रोणागिरी पर्वत पर दूनागिरि का शक्तिपीठ है. द्रोणागिरि रथवाहिनी या रामगंगा नदी के बाईं ओर स्थित है. द्रोणागिरि पर्वत से द्रोणी नंदिनी व वैताली सरिताओं का उदगम होता है.मानसखंड में द्रोणाद्रीमहात्म्य पर विस्तार से वर्णन किया गया है जिसके निकट नागार्जुन विभानंडेश्वर, पाण्डुखोली, महावतार बाबा की गुफा, भटकोट व शुकेश्वर धार्मिक व आध्यात्मिक दृष्टि से उल्लेखनीय हैं.
द्रोणागिरि को सात कुल पर्वतों में चौथे पर्वत के रूप में वर्णित किया गया है. यहां दुर्गा माता दूनागिरि शक्तिपीठ में वैष्णवी शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित है. द्वाराहाट से चौदह किलोमीटर की दूरी पर मंगली खान है जिससे आगे चढ़ाई पर शिखर में देवी का मंदिर है.इस मंदिर की प्रतिष्ठा व स्थापना में योगिराज श्यामाचरण लाहिरी व स्वामी सत्येश्वरानन्द का विशिष्ट स्थान रहा. यह शक्तिस्थल तीन पट्टियों यथा पट्टी द्वाराहाट, पट्टी गेवाड़ व पट्टी गेवाड़ के केंद्र में स्थित है. मंगली खान से सौ मीटर की दूरी पर “च्यूँटियां गणेश” का मंदिर है. आगे ऊपर एक किलोमीटर पैदल चढ़ाई व तीन सौ पेंसठ सीढियाँ चढ़ कर शिखर में स्थित मंदिर में पहुंचा जाता है.
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शक्ति पीठ दूनागिरि के मुख्य मंदिर के गर्भ गृह में वैष्णवी माता भगवती व जगदम्बा की प्रतीक दो पीँडी प्राकृतिक रूप से प्रकट हैं जिन्हें आभूषणों से सजाया गया है. यहां नवदुर्गा में “ब्रह्मचारिणी” विराजतीं हैं. द्रोणागिरि को शिव की शक्ति का स्वरूप माना गया है अतः भगवती माँ का पूजन शिव के ज्योतिर्लिंग के साथ किया जाता है.. आश्विन की नवरात्रियों में सप्तमी की कालरात्रि के दिवस पर देवी काली रूप में प्रकट होती है इसलिए सप्तमी को जागरण करने की परंपरा रही है. सप्तमी की रात्रि व अष्ट्मी के दिन दूनागिरि मंदिर में विशाल मेला लगता है. देवी के “कालिका” व “महागौरी” स्वरूप की उपासना संपन्न होती है.
मंगली खान से ऊपर लगभग तीन किलोमीटर ऊपर “शुकादेवी” का प्राचीन मंदिर है. यहां शुकवती नदी जो द्रोणागिरी से निकलती है, देवी के स्वरूप में पूजी जाती है. कहा जाता है कि इसी स्थान पर मुनि शुकदेव ने तपस्या की जिस कारण इसका नाम शुका देवी पड़ गया. मंगली खान से ही आगे कुकुछिना व पाण्डुखोली के दर्शनीय स्थल हैं. दूनागिरी पर्वत के सामने नौ हजार फिट से अधिक की ऊंचाई पर पुराण में वर्णित लोध्र पर्वत है जिसे परशुराम की तप स्थली माना जाता है. उन्हीं के नाम से इस इलाके से प्रवाहित सरिता “रथ वाहिनी” को रामगंगा कहा गया. सोलहवीं सदी में राजा बाजबहादुर चंद ने भटकोट की इस पहाड़ी पर संतान प्राप्ति की कामना से “पिनाकेश्वर” महादेव का मंदिर बनवाया जिसे संतति दायक देवता के स्वरूप में प्रतिष्ठा मिली. यह सम्पूर्ण क्षेत्र सिद्ध ज्ञानी महात्मा व ऋषि मुनियों की तपो भूमि रही जिन्हें गहन आध्यात्मिक अनुभूतियाँ हुईं.
दूनागिरी के नीचे द्वाराहाट में “कोट कांगड़ा” देवी चौधरी राजपूतों की कुलदेवी के स्वरूप में विराजतीं हैं. ऐतिहासिक वर्णन के अनुसार कत्युरी राजा भुवनपालित देव के शासन में वर्ष 1300 ई. में कांगड़ा के परमार वंश के चौधरी राजपूतों का दल अपनी कुलदेवी कोटकांगड़ा का डोला ले इस स्थान से गुजरा तो दूनागिरी शक्ति पीठ के नीचे जब वह रुका तो फिर बड़े प्रयत्न कर भी उठा नहीं.इसका अभिप्राय यह लगाया गया कि उनकी ईष्ट देवी इसी स्थान पर वास चाहतीं हैं अतः उनको यहीं मंदिर बना प्रतिष्ठित किया गया.
कत्युरी राजाओं द्वारा द्वाराहाट में कालिका मंदिर की स्थापना की गई. वह शक्ति के उपासक थे. उनकी कुलदेवी नन्दा देवी थी. काली के दो स्वरूप “घाटकाली” व “हाटकाली” में हाट काली कत्युरी नरेशोँ की ईष्ट देवी रहीं. द्वाराहाट में स्यालदे पोखर के पास शीतला माता का मंदिर है. वैशाखी संक्रांति के दूसरे दिन यहां विशाल मेला लगता है जिसमें ढोल, नगाड़े, रणसिंघा बजाते, निसाँण व पताका फहराते स्थानीय धड़े सामूहिक रूप से यहां आ देवी को “ओड़ा” भेंट करते हैं. काली खोली में कालिका देवी का प्राचीन मंदिर है तो महाकालेश्वर जाते पथ पर “मनसा देवी विराजतीं हैं. देवी यहां आठवीं सदी में कत्युरी नरेश जोशीमठ से अल्मोड़ा आये तो उन्होंने हाट ग्राम के निकट अपनी राजधानी कार्तिकेय पुर में बनाई. यह क्षेत्र कत्यूर घाटी के नाम से लोकप्रिय हुआ.
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अल्मोड़ा से पेंतिस किलोमीटर दूर पूर्व-उत्तर में जागेश्वर धाम में पुष्टि माता का शक्ति पीठ है. जिन स्थानों में बारह ज्योतिर्लिङ्ग व उपज्योतिर्लिंग विद्यमान हैं वहां माँ भगवती के शक्ति पीठ हैं. जागेश्वर या दारूकावने में दारुका नामक राक्षस का वध माता भगवती ने किया वहां माँ का शक्ति पीठ है व नागेश्वर नागेश नाम से उप ज्योतिर्लिंग है.
अल्मोड़ा से कौसानी होते ग्वालदम के पथ में बैजनाथ से तीन किलोमीटर ऊपर कत्युरी नरेशों द्वारा बनाए गये कोट जो कत्यूर घाटी के बीच आविष्ठित है में भ्रामरी देवी का मंदिर विद्यमान है. यहां भ्रामरी देवी के सात्विक स्वरूप की आराधना होती है व उन्हें गुड़-पपड़ी का भोग लगाया जाता है. चंद्र वंशी नरेशों द्वारा यहां नन्दा देवी की पूजा की जाती है जो उग्र-तामसी रूप में शक्ति शिला के स्वरूप में स्थित हैं. दुर्गा सप्तशती के ग्यारहवें अध्याय में भ्रामरी देवी का वर्णन है जिन्होंने असुर अरुण के वध हेतु भंवर का रूप लिया. देवी के नन्दा स्वरूप की पूजन प्रक्रिया के अनुसार मूर्ति पूजन के साथ डोला स्थापित कर विसर्जन की परम्परा रही है. बारह वर्षों के बाद आयोजित होने वाली नन्दा देवी राज जात का दूसरा विश्राम स्थल कोट भ्रामरी है जहां से देवी के स्वयंभू नन्दा देवी की कटार साथ ले आगे ग्वालदम, देवाल, बेतनी बुग्याल के पथ से होते जाते है.
गोमती व सरयू नदी के संगम तट पर बसा है व्याघ्रेश्वर जहाँ शिव बाघ रूप में विचरण करते रहे तभी इस स्थल का नाम बागेश्वर पड़ा. यहां 1602 ईस्वी में चंद्रवंशी नरेश लक्ष्मी चंद्र द्वारा बागनाथ देवालय निर्मित किया गया जिसमें अन्य देवी देवताओं के साथ उमा-महेश्वर, पार्वती, महिषासुर मरदिनी के साथ सप्त मातृका पट की प्रतिमा विद्यमान हैं. बागेश्वर से एक किलोमीटर दूर सीढ़ियों वाले पथ से होते हुए पर्वत उपत्यका में चंडिका देवी का मंदिर है जिसकी स्थापना सन 1680 में आचार्य श्री राम पांडे द्वारा की गई.
बागेश्वर से आगे चौकोड़ी हिम श्रृंखलाओं की नयनाभिराम छवि के अवलोकन का मुख्य स्थल है. यहां से बेड़ीनाग होते पेंतिस किलोमीटर की दूरी पर गंगोलीहाट है. गंगोली से अभिप्राय दो गंगाओं यथा रामगंगा व सरयू के संगम से है. जनश्रुति है कि काली ने महिषासुरसहित अनेक दानवों का वध किया जिसके उपरांत भी उनका क्रोध व रौद्र रूप बढ़ते ही गया. वह महाकाल का भयावह ज्वाला सा धधकता रूप ले संहार करने लगीं.उन्होंने जागनाथ व भुवनेश्वर को इतने तीव्र स्वर में पुकार लगाई कि जिस किसी को उनकी यह तीव्र आवाज सुनाई दी वह काल कलवित हो गया .
कुमाऊँ में काली के अठारह मंदिरों में गंगोलीहाट को ऋषियों व साधकों द्वारा हमेशा ही उन्नत अधिमान दिया गया. कहा जाता है कि यह महाकवि कालिदास की तपोभूमि रहा. आदि शंकराचार्य द्वारा यहां सिद्धियां प्राप्त की गईं. आदि शंकराचार्य छठी सदी में जब गंगोलीहाट भ्रमण पर आये तो इस रौद्र पीठ में नरबलि के आयोजन होने से वह विचलित हो गये व देवी दर्शन से विमुख हो गए.बाद में जब उन्होंने देवी दर्शन हेतु मंदिर के भीतर प्रवेश करना चाहा तो वह परिसर में गणेश जी की मूर्ति से आगे बढ़ न पाए. अब उन्हें अपने निर्णय पर पश्चाताप हुआ व उन्होंने देवी से क्षमा मांगी. माँ ने उन्हें दर्शन दिए. तदन्तर उन्होंने महाकाली के रौद्र स्वरूप को शांत किया व उनके जिस यँत्र से तीव्र ज्वाला निकलती थीं उसे कीलित कर दिया. इसी स्थान पर देवी की पूजा अर्चना संपन्न कराई जाती है.
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जनश्रुति है कि प्राचीन समय में हाट-कालिका मंदिर में नरबलि होती थी कालांतर में इसके स्थान पर पशुबलि होने लगी. जानकार बताते हैं कि यह पशु बलि महाकाली के निमित्त न हो उनके गण करतू को दी जाती है. लोक प्रचलित कथा यह भी सुनी जाती है कि कालिका माता का डोला उनके गण अर्थात आण-बाण के साथ रात्रि में चलता था. महाकाली मंदिर पर कुमाऊँ रेजिमेंट की असीम आस्था है जिन्होंने समय-समय पर यहां निर्माण व सज्जा के कार्य किये हैं.हाटकाली मंदिर में शतचंडी महायज्ञ के साथ सहस्त्र चंडी यज्ञ, सहस्त्र घट पूजा के आयोजन के साथ अठवार के आयोजन होते हैं.
गंगोलीहाट में घने जंगल के मध्य चामुंडा देवी का मंदिर एकांत में है जहां वेदी पर आवेष्ठित यन्त्र की पूजा संपन्न की जाती है. गंगोलीहाट से दस किलोमीटर दूर पाताल भुवनेश्वर की दर्शनीय गुफा में शेषनाग, आदि गणेश, काल भैरव की जिह्वा, पारिजात वृक्ष, कदली वन, ब्रह्म कपाल, सप्तकुण्ड, नर्मदेश्वर लिंग, आकाश गंगा, सप्तऋषि मण्डल व शिवशक्ति की प्राकृतिक रूप से चूने पत्थर की चट्टान में उभर आई अनुकृतियों के साथ सूर्य, विष्णु, उमा शिव व चतुर्भुजा चामुंडा देवी की अद्भुत मूर्तियां इस स्थल को धार्मिक व आध्यात्मिक स्वरूप देने के साथ दर्शनीय रोमांचकारी स्थल की अनुभूति प्रदान करते हैं. कई इतिहासकार इसे नाग सभ्यता का प्रतीक मानते हैं. इसी के समीपवर्ती स्थानों में नागराजाओं के बसाव के कई स्थलों में धौलीनाग, कालीनाग, पिंगलनाग, खरहरीनाग, अठगुलीनाग के साथ बेड़ीनाग उल्लेखनीय हैं.
भगवती के विविध स्वरूपों के दर्शन पिथौरागढ़ में होते हैं. शहर में प्रवेश करने से पूर्व ऐंचोली ग्राम से पहले गुरना देवी का स्थानीय मंदिर मोटर मार्ग पर स्थित है. इस मंदिर की बहुत मान्यता है. शहर मे आने जाने वाले यहां रुक देवी के दर्शन करते हैं. मुख्य पर्व में शहर वासी भंडारे का आयोजन करते हैं. वहीं मढ़गांव शिलिंग पट्टी में भगवती देवी का प्राचीन मंदिर है जिसके गर्भ गृह में महिषासुरमरदिनी की बड़ी प्रतिमा विद्यमान है. यहां के मंडप में गर्भ गृह के द्वार के समीप भित्तियों के आगे देवी-देवताओं की अनेक प्रतिमाएं रखी हुई हैं. पिथौरागढ़ शहर में घंटाकरण मंदिर के प्रांगण में माता भगवती विराजमान हैं. चैत में होने वाले चैतोल के मेले में तीसरा डोला भगवती का होता है जो समीप के ग्राम लिँठूड़ा से आता है. घंटाकरण से आगे चंडाक जाने वाली सड़क पर दो सदी पुराना उल्का देवी का मंदिर है. गोरखा उल्का देवी के उपासक रहे जो उग्र देवी मानी गईं. कहा जाता है कि इस स्थान पर मंदिर की स्थापना का स्वप्न सेरा गांव के मेहता परिवार के मुखिया को हुआ. जिसके आधार पर यहां विधि विधान से उल्का देवी को प्रतिष्ठित किया गया. उनके साथ भैरव की पूजा की जाती है. यहां के पुजारी मेहता राठ द्वारा उनके गुरु पुरोहित पुनेठा परिवार के सदस्य नियुक्त होते हैं. चैत एवम नवरात्रि में यहां डोला उठता है, जागर लगते हैं.
चंडाक जाने वाली सड़क पर मोस्ट मानव से आगे चढ़ाई चढ़ शिखर में घने वनों के मध्य चंडिका देवी का मंदिर है. नीचे मोस्टा देवता के मंदिर के बगल में महाकाली विराजमान हैं.यहां के पुजारी महाकाली के साथ लाटा, बाला व पशुआ देव के संग मोष्टा देव के सम्बन्ध को स्पष्ट करते हैं. भादो में ऋषि पंचमी के अवसर पर संपन्न मेले में माता का डोला समीप के गांव से ढोल नगाड़ों के आयोजन से निकलता है जिसमें कई भक्तजनों के शरीर में अवतार होता है. जागर लगते हैं,पूछ होती है. महाकाली के लिए बलि व अठवार होती है जिस समय मोस्टादेव पर आवरण डाल दिया जाता है. मोष्टा देव के भोग में दूध, खीर व पूरी चढ़ती है. मंदिर के प्रांगण में बटुक नाथ व काल भैरव विराजते हैं. एक गोलाकार शिला प्रांगण में है जिसे उठाने का प्रयास भक्त जन करते हैं. बाहर विस्तृत मैदान में एक खूब बड़ा झूला है जिसे माता का हिण्डोला कहा जाता है. मोष्टमानु से सोर घाटी के अद्भुत सौंदर्य के दर्शन होते हैं. घने वनों के साथ इस स्थल से नन्दा चोटी के साथ विस्तृत हिमालय की श्रृंखला अपने दुग्ध धवल स्वरूप में दर्शनीय हैं. यहां सिलिंग के अर्ध गोलाकार वृक्ष हैं जिनका रूप आकार देखते उसकी सुंदरता मोहित कर देती है.
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पिथौरागढ़ से वड्डा जाने वाले मार्ग पर भड़कटिया से ऊपर चोटी पर कामाख्या मंदिर अपने अनूठे शिल्प व प्रबंध व्यवस्था से श्रद्धालुओं को आकर्षित करता है. पिथौरागढ़ शहर से दस किलोमीटर की परिधि में ऐसे अनेक देवालय एवम गुफा मंदिर हैं जिनमें शक्ति का वास है. थरकोट, बलकोट, अर्जुनेश्वर, नकुलेश्वर, दिंगास, घुनसेरा गुफा के साथ कौशल्या गुफा मंदिर ऐसे कुछ महत्वपूर्ण स्थल हैं. कौशल्या देवी मंदिर में शीर्ष कमल, प्रस्तर प्रतिमाएं, सूर्य मूर्ति, वैष्णव मूर्ति के साथ महिषासुरमर्दिनी की चौदहवीं सदी की लघु प्रस्तर प्रतिमा है. पिथौरागढ़ के सीरा व असकोट में यक्ष पूजा का प्रचलन रहा है, कौशल्या देवी गुफा में भी किन्नर मिथुन की मूर्ति रखी है. सोर घाटी में जाख ग्रामदेवता के रूप में पूजनीय हैं. जाख ही यक्ष हैं जो गांव की रक्षा करते हैं. घंटाकरण या घड़ियाल भी यक्ष हैं. कौशल्या देवी मंदिर में हरगौरी प्राकृतिक शिला पर हरा लेप कर बनी है. जनश्रुति है कि भगवान राम की माता कौशल्या द्वारा इस स्थान पर शिव जी की आराधना तपस्या की थी. कौशल्या देवी की गुफा में रखी मूर्तियां इतिहासकारों के अनुसार सातवीं से चौदहवीं शताब्दी की बताई जाती हैं.
पिथौरागढ़ से लगभग बीस किलोमीटर दूरी पर बूँगाछीना की उच्च चोटी पर नन्दा देवी का मंदिर है जिसे हरद्यो कहा जाता है जो हर नन्दा द्योथल का अपभ्रँश है. जनश्रुति है कि पूर्व में यहां ‘हर गंगा’ नदी बहती थी जिससे यहां विराजी नन्दा ‘हर नन्दा’ कहलाई. मंदिर के गर्भ गृह में हेमवती शैली के दो छोटे मंदिर हैं जिनमें एक शिव जी का है व दूसरा माता नन्दा का.
पिथौरागढ़ से लगभग बीस किलोमीटर मोटर मार्ग व पांच किलोमीटर की पैदल चढ़ाई के उपरांत कालिका स्वरूप जयंती देवी का मंदिर है जिसे ध्वज कहा जाता है. सोर घाटी में ध्वज मंदिर एवम थल केदार ऐसे शक्ति स्थल हैं जो ऊंचाई पर स्थित होने के साथ स्थानीय निवासियों की प्रबल आस्था का केंद्र हैं.
पिथौरागढ़ से पांखु होते न्याय की देवी कोटगाड़ी देवी की बहुत मान्यता है. इस मंदिर में देवी के गुप्तांग स्थित होने के आख्यान हैं, इसी कारण पूजा स्थल के इस भाग को अनावृत नही रखा जाता. कोकिला देवी के मंदिर से लगे हुए छुर मल व सुरमल प्रतिष्ठित हैं जो दोनों भाई बागदेव के रूप में पूजे जाते हैं. कोकिला देवी सात्विक वैष्णवी देवी के रूप में पूजी जाती है. नवरात्रियों में यहां बलि की परम्परा रही जो मुख्य मंदिर से दूर भैरव व गोल्ल देवता के समीप दी जाती है. नवरात्रियों में यहां पूजा व मनोकामना पूर्ति हेतु भक्त जन दूर दूर से आते हैं. कोटगाड़ी देवी का मुख्य मेला चैत व अशोज में अष्टमी को लगता है.
पिथौरागढ़ से घाट व लोहाघाट होते लगभग पेंतालिस किलोमीटर की दूरी पर वाराहीदेवी का मंदिर है. यह शक्ति पीठ है जहां देवी की मूर्ति डोले में बंद है. केवल पुजारी द्वारा ही आँखों में पट्टी बांध कर मूर्ति को स्नान व पूजा की क्रिया बागड़-ठाकुर पुजारियों द्वारा की जाती है व भोग अर्पित किया जाता है. दर्शनार्थियों हेतु संकल्प व पूजा पाठ बाहर ब्राह्मण पंडितों द्वारा संपन्न की जाती है. पुजारी बताते हैं कि वाराही देवी की प्राचीन मूर्ति को लोभवश चोर लिया गया. जब वह चोर मूर्ति बेचने गया तो सुनार द्वारा धातु की पहचानने हेतु छेनी से चोट करते ही रक्त बहने लगा. डर कर वह व्यक्ति मूर्ति को झाड़ी में फेंक दिया. स्थानीय निवासी बागड़-ठाकुर को स्वप्न हुआ और नियत बताये स्थान पर मूर्ति प्राप्त हुई जिसे डोले में बंद कर मंदिर में रखा गया. इस स्थल में बटुक भैरव व कलुआ बेताल के साथ कालिका का मंदिर है जहां बलि व अष्टबलि का विधान रहा.
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कहा जाता है कि पूर्व में यहां नर बलि की प्रथा थी. एक बार जब एक वृद्धा के एकलौते बेटे की बलि होनी थी तब उसकी देख रेख का दायित्व कौन वहन के प्रश्न को ले ऐसा पंचायत नियम बना कि एक व्यक्ति के शरीर के बराबर रक्त अर्पित कर दिया जाए ताकि बलि न देनी पड़े. तब से बग्वाल आरम्भ हुई. इसका आयोजन आषाड़ में एकादशी के दिवस पर होता है. जिसमें स्थानीय वालिक या वल्का खाम, गहड़वाल खाम, चमयाल खाम तथा लमगड़िया खाम के साथ सात थोक के पधान मंदिर के पुरोहित के दिशा निर्देश द्वारा पूर्व से रखी देवी की डोली को पूजते हैं. पाषाण युद्ध का आयोजन पूर्णमासी के दिन होता है.सर्वप्रथम मंदिर के भीतर से ताम्र पिटारी में आसीन वाराही देवी, काली तथा सरस्वती को नंदघर में दुग्ध स्नान करवाया जाता है. चारों धड़े पूजा प्रार्थना के उपरांत पारम्परिक लोक यँत्र ढोल, नगाड़े, शंख घंट बजाते निसान फहराये व हाथों में दंड, फरसा लिए मंदिर में प्रवेश करते हैं. मंदिर की परिक्रमा की जाती है व फिर खोली बाण दुबाचौड़ मैदान में बग्वाल आरम्भ होती है. पत्थरों की मार से रक्षा करने को हाथ में ढाल ली जाती है. पाषाण युद्ध में रक्त बहना शुभ लक्षण माना जाता है. जब मंदिर के पुजारी यह अनुमान लगा लेते हैं कि एक व्यक्ति के शरीर के बराबर रक्त निकल चुका है तब वह चंवर गाय की पूँछ हिला बग्वाल के संपन्न होने की घोषणा कर देता है. अब पत्थरों के स्थान पर फल फूल से बग्वाल का आयोजन किया जाने लगा है. मेले की व्यवस्था में शासन का योग बढ़ा है.
चम्पावत के भव्य नक्काशीदार अलंकरण से युक्त बालेश्वर मंदिर समूह में चम्पावती देवी व कालिका के मंदिर हैं. गोरिल चौड़ के गोलू मंदिर से दक्षिण की ओर लगभग चार किलोमीटर की दूरी पर पहाड़ी में हिंगलाज देवी के नाम पर चंद राजाओं द्वारा बनाया गया हिंगला देवी का मंदिर है. लोक विश्वास है कि यहां हिडिम्बा राक्षसी रहती थी जो श्रावण में हिण्डोला झूलती थी. इस क्षेत्र में द्वापर में जब पांडव आये तब झूले में बैठी हिडिम्बा ने बलशाली भीम से झूला झूलने हेतु धक्का देने का अनुरोध किया. भीम द्वारा सहजता से दिए धक्के का जोर इतना अधिक हुआ कि हिडिम्बा छिटक कर अखिलतारिणी नामक स्थान पर जा गिरी. भीम के शौर्य व शक्ति से सम्मोहित हो हिडिम्बा ने उससे विवाह का प्रस्ताव किया. भीम ने इस आग्रह को स्वीकार किया. घटोत्कच उन्हीं के पुत्र थे जिनका घटकू नामक स्थान पर मंदिर बना है. इसके समीप ही गंडक नदी के तट पर हिडिम्बा का मंदिर है.
(Devi Temples in Kumaon Uttarakhand)
चम्पावत जनपद में टनकपुर से बीस किलोमीटर की दूरी पर उच्च उपत्यका में शक्तिपीठ पुण्यागिरी स्थित है. पौराणिक आख्यान के अनुसार यहां सती की नाभि गिरी. जनश्रुति है कि दो हजार वर्ष पूर्व देवी भक्त श्री चंद तेवाड़ी को स्वप्न में एक विशिष्ट स्थान जहाँ नाभि गिरी पर मंदिर की स्थापना का आदेश हुआ. शारदा नदी इस पर्वत से नीचे बहती है. टनकपुर से ऊपर चढ़ते कालसन,ठुलीगाड़, रानीहाट, हनुमान चट्टी,लादी गाड़, भैरव मंदिर, टुन्यास व काली मंदिर होते मुख्य पीठ के दर्शन होते हैं शारदीय नवरात्रि व चैत की नवरात्रियों में यहां मेला लगता है तथा बड़ी संख्या में भक्त दर्शन लाभ ले देवी के सम्मुख अपनी मनोकामनाएं रख चढ़ावा रखते हैं.
रामनगर कोटाबाग में पावलगढ़ और लेधारा के बीच सीता माता की तपस्या स्थली सीतावनी है. सीतावनी व कौशिकी के मध्य अशोक के वन हैं. सीता माता की तपस्या स्थली वाल्मीकि आश्रम के नाम से प्रसिद्ध है.
कुमाऊँ के राजाओं के प्राचीन केंद्र काशीपुर जिसे चीनी यात्री ह्वेन सांग ने ‘गोविषाण’ कहा में बाल सुंदरी देवी का मंदिर है. चैत्र मास में देवी के प्राचीन मंदिर में चैती मेला लगता है. गिरि ताल के पास चामुंडा देवी का भव्य मंदिर है. यहां स्थित मनसा देवी मंदिर की बहुत प्रतिष्ठा है. रुद्रपुर-हल्द्वानी मार्ग में अटरिया देवी का मंदिर है जिसमें नवरात्रियों में विशाल मेले का आयोजन होता है. आगे रामनगर में कौशिकी या कोशी नदी के बीच ढिकाला मार्ग में गर्जिया नामक स्थान पर गिरिजा देवी का मंदिर है. आख्यान हैं कि पर्वत राज हिमालय की कन्या सती दूसरे जन्म में पार्वती या गिरिजा कहलाई. गिरिजा माँ के दो स्वरूप वर्णित हैं पहला उमा व गौरी का व दूसरा असुरों व देत्यों की संहारक महाकाली, चामुंडा व महाकाली का उग्र रूप. स्पष्ट है कि सत्व व रजोगुण से युक्त स्वरूप गौरा, गिरिजा, उमा व पार्वती हैं तो तमोगुण से युक्त अंश भद्रकाली, काली व चामुंडा हैं. गर्जिया में गिरिजा सतोगुणी रूप में जटा नारियल, धूप दीप सिंदूर, लाल वस्त्र अर्पित कर पूजी जाती है. मनोकामना पूर्ति पर श्रद्धालु चांदी का छत्र व घंटी चढ़ाते हैं. माता गिरिजा की आराधना के उपरांत माता के मूल में विराजे भैरव बाबा की पूजा खिचड़ी चढ़ा कर की जानी आवश्यक समझी जाती है.
हल्द्वानी में गोला पार जंगलों के बीच कालिसौढ़ मंदिर है जिसकी काफी अधिक मान्यता है. इस मंदिर को अब काफी नवीन स्वरूप दे दिया गया है. कुमांऊ में लोक पूजित देवियों दुर्गा, भगवती, चंडी, चामुण्डा, गौरा,पार्वती, काली, महाकाली व भवानी के स्वरूपों के साथ इष्ट की मान्यता में नंदा देवी मुख्य हैं. आंचलिक व स्थानीय लोक विश्वास व परम्पराओं से पुण्यागिरि, पाशाणदेवी, धड देवी, सूर्यादेवी, गडेलीदेवी, घनेली देवी, रक्षा देवी, मानिला देवी, रक्षादेवी, शीतला देवी, नैथाणा देवी, गढ़ देवी, रणचुला देवी, बानडी देवी, मल्लिका देवी, कठ्पतियादेवी, धुर्कादेवी, धौलादेवी, भ्रामरीदेवी, उजयाली देवी, अन्यारी देवी, कोटवीदेवी, जाखन देवी, झुमा देवी, ब्यान्धुरादेवी, अखिलतारिणी, मोतीमाला, जयंती, कोटगाड़ी व उल्का देवी की शास्त्र सम्मत विधानों से पूजा अर्चना की जाती है. सहज रूप से अपनी अराध्य देवी की शक्ति का नमन कर यही प्रार्थना भाव निहित रहता है –
काली काली महाकाली कालिके परमेश्वरी.
सर्वानन्द करे देवी नारायणी नमोsस्तुते.
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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