हरियाली को बनाए-बचाने की चिंता और साफ हवा में सांस लेने लायक का वायु मण्डल बनाने की कोशिश के संकेत जलवायु परिवर्तन को देश के विकास की चुनौती के रूप में देख रहे हैं. पिछले कई दशकों से पर्यावरण और पारिस्थितिकी संतुलन की समस्याएं बिगड़ती चली जा रहीं हैं. इनके पीछे आर्थिक विकास की वह रणनीति जवाबदेह है जो प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध व अविवेकी प्रयोग पर आश्रित रही है. प्रकृतिदत्त उपहारों के अवशोषण में भारी मुनाफा छुपा है, जिसकी आड़ में तमाम नियम-कानूनों की उपेक्षा कर एक काली समानांतर व्यवस्था पनपती गई है. अब चाहे वन विभाग हो या खनन, खेती में प्रयोग किये रसायन हों या उद्योगों के अवशिष्ट, उन्होंने भूमि – जल और वायु की गुणवत्ता को लगातार कमजोर कर दिया है. इसका प्रभाव लोगों की सेहत के साथ ही फ्लोरा- फोना पर भी पड़ा है जिनमें से कई या तो अब विलुप्त हो गए या विनाश के कगार पर पहुँच गए.
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2022-23 के आर्थिक सर्वेक्षण में एक पूरा अध्याय सतत और समावेशी विकास और इससे जुड़े मुद्दों और समस्याओं को अर्पित किया गया है. इसमें सतत विकास (एस डी जी) के क्रियान्वयन के साथ वन आवरण, भूजल की दशा,जल स्त्रोतों -नदियों की हालत, प्लास्टिक कचरा, विविध कारणों से हवा में घुलते जहर व अन्य कारकों के साथ जलवायु में होने परिवर्तन के विनाशकारी अनिष्ट को रोकने के संकेत हैं. अंतर संरचनात्मक विकास में एनर्जी ट्रांजीशन की बड़ी भूमिका को स्वीकारा गया है.देश के इतिहास में इतनी प्रमुखता से बजट 2022 -23 में पर्यावरण और जलवायु से सम्बंधित पक्ष वरीयता क्रम में नजर आते हैं. बार -बार क्लाइमेट चेंज, नेट जीरो एनर्जी ट्रांजीशन, ग्रीन बांड, बैटरी स्विपिंग के साथ सर्कुलर इकॉनमी व इंफ़्रास्ट्रक्चर के साथ एनर्जी स्टोरेज सिस्टम का जिक्र होता है. इनके साथ ही ‘ईज ऑफ़ डूइंग बिजनेस’ और ‘सिंगल विंडो’ से उत्पादकता के बढ़ने की संकल्पनायें भी प्रदर्शित हैं. जलवायु परिवर्तन से निबटने के लिए ‘ मिटीगेशन’ और ‘अडॉप्टेशन’को लेकर अधिक निवेश की जरुरत पर बल दिया गया है. भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) के कॉर्पोरेट शासन को ले कर 2021 में तय किये गए मानकों की चर्चा होती है. विश्व स्तर पर भारत द्वारा जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चिंताओं और क़दमों का भी उल्लेख है.
याद रहे कि प्रधानमंत्री ने ग्लासगो में संपन्न संयुक्त राष्ट्र की सालाना बैठक (कॉप) में स्वच्छ ऊर्जा को प्रमुखता दी. 26 नवंबर 2021 के इस जलवायु शिखर सम्मेलन में क्लाइमेट इमरजेंसी को देखते हुए ‘पांच प्लेज’ और ‘पंचामृत’ की घोषणा की गई कि भारत 2030 तक अपने पुराने लक्ष्य से आगे जाते हुए गैर-जीवाश्म ईंधन से 500 गीगावाट की ऊर्जा क्षमता विकसित करेगा. दूसरी बात यह कि वह अपनी ऊर्जा आवश्यकता का 50% नवीकरणीय ऊर्जा से पूरा करेगा इससे कुल अनुमानित कार्बन उत्सर्जन में एक अरब टन का ह्रास होगा जिससे कार्बन तीव्रता 45% कम हो जाएगी.कुल मिला कर चरणबद्ध तरीके से 2070 तक भारत शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करेगा.
अब बजट में अंतर संरचना के विकास के लिए सार्वजनिक निवेश पर जोर है जिसके अवलम्ब से सरकार निजी निवेश को गति देगी. इसके आवरण में पी एम गति शक्ति है तो दूरदर्शिता में ऐसा समावेशी विकास जो सार्वजनिक निवेश के माध्यम से ऐसा आधुनिक ढांचा तैयार कर सके जिसे देश की आजादी की सौंवीं वर्षगांठ तक प्राप्त कर लिया जाये. इस योजना के चार मुख्य स्तंभ हैं, पहला गति शक्ति, दूसरा समावेशी विकास जो उत्पादन और निवेश में वृद्धि करे, तीसरा एनर्जी ट्रांजिशन व जलवायु परिवर्तन तथा सबसे जरूरी निवेश हेतु वित्त की उपलब्धि.
पी एम गतिशक्ति अवस्थापना निर्माण से सम्बंधित है जिसमें सड़क, रेलवे, उड्डयन, बंदरगाह, जलमार्ग निहित हैं. इसके अधीन आने वाले सालों में राष्ट्रीय राजमार्गोँ में 25,000 कि. मी. का विस्तार होना है. चार मल्टी मॉडल लोजिस्टिक्स पार्क्स,2000 कि मी लम्बे रेल ट्रैक को मजबूत करना और उनकी क्षमता में विस्तार,100 कार्गो टर्मिनल बनाना तथा शहरी मेट्रो सिस्टम जिसे सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था से संयोजित किया जायेगा. इस संयोजन में नदियों को आपस में जोड़ना भी शामिल है. केन -बेतवा नदी जोड़ो परियोजना पर पुनः काम शुरू होगा. इसके साथ ही पांच और नदी जोड़ो परियोजनाओं पर काम शुरू होना है जिनमें दमनगंगा-पिंजल, पार -तापी -नर्मदा, गोदावरी -कृष्णा, कृष्णा -पेन्नार व पेन्नार -कावेरी नदियों का आपस में मिलन होना है.
1999 से 2004 के बीच बाजपेई सरकार ने ‘स्वर्णिम चतुर्भुज’ हाईवे नेटवर्क बनाने की पहल की थी जिसमें दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, और मुंबई जैसे महानगर व देश के उत्तर-दक्षिण व पूर्व-पश्चिम भू भाग आपस में जुड़ते. यह स्वीकार करते हुए कि देश में मांग पैदा करने के लिए बड़ी परियोजनाओं में निवेश जरुरी है विशेषतः अवस्थापना के विकास में. आज देश में जो टोल राजमार्ग हाईवे हैं उनकी बुनियाद इन्हीं चार लेन हाईवे के साथ रखी गई. इनमें से कई अब छह लेन में बढ़ चुके हैं और अब ये सड़कें इतनी महत्वपूर्ण हो गईं हैं कि आर्थिक सर्वेक्षण में टोल से प्राप्त आगम से अर्थव्यवस्था की नब्ज़ टटोली जा सकती है. इस सुगमता से कार्य व्यापार बढ़ा है, विस्तार और श्रृंखला प्रभाव उत्पन्न हुए हैं. यह बड़े धक्के या प्रबल प्रयास के सिद्धांत पर आधारित विनियोग रहा. दूसरी ओर लोगों के हाथ में क्रय शक्ति दे उनके खर्च में वृद्धि हो और मांग बढ़े यह आवश्यक न्यूनतम प्रयास है. बाजपेई सरकार ने पहले निवेश वस्तुओं की मांग प्रोत्साहित करने व बाद में उपभोग की वस्तुओं की मांग को क्रम बद्ध करने की नीति अपनायी. इसके लिए सड़क, टेलीकॉम, आवास की परियोजनाओं पर फोकस किया गया जिससे अन्य क्षेत्रों को प्रोत्साहन मिला. इस नीति से रोजगार, आय व उपभोग मांग में वृद्धि तो हुई पर आय वितरण की विषमताएं उभरने लगीं व असंगठित क्षेत्र की समस्याएं भी बढ़ती दिखीं.
2022-23 के बजट में अंतरसंरचना वृद्धि हेतु सार्वजनिक निवेश किये जाने पर जोर दिया गया जिसके बूते सरकार निजी निवेश को प्रोत्साहित करेगी. ग्रीन ढांचे को खड़ा करने के लिए सरकार ‘सावरेन ग्रीन बांड’ जारी कर पूंजी जुटाएगी जिसका इस्तेमाल सार्वजनिक क्षेत्र के प्रोजेक्ट में किया जायेगा. यह प्रयास किया जाना मुख्य उद्देश्य रहेगा कि कार्बन गहनता-तीव्रता कम होती रहे. अर्थात ऐसी कुशलता व क्षमता को विकसित करना है जिससे उत्पादन भी प्रभावित न हो तथा कार्बन उत्सर्जन भी कम हो जाये.कार्बन उत्सर्जन को शून्य करने के लिए ग्रीन बिल्डिंग, थर्मल पावर प्लांट में बायोमास छर्रोँ का उपयोग, कोयला गैसीकरण के साथ कृषि वानकी पर जोर दिया जाने का पक्ष रखा गया तो इनर्जी ट्रांजिशन को प्रमुखता से उभारा गया . वित्त मंत्री ने इसे बेहतर पी वी मॉड्यूल के उत्पादन से जोड़ आर्थिक सहायता देने की घोषणा की.
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बजट में ग्रिड स्केल बैटरी सिस्टम को आधारभूत ढांचे के रूप में देखा जा रहा है ताकि इस ओर निवेश प्रवाहित किए जा सकें. साथ ही एक बैटरी स्वैपिंग पॉलिसी की घोषणा भी की गई. बैटरी स्वैपिंग को बैटरी की अदला बदली से समझाया जा सकता है. अभी इसके संचालन के मानक तय होने हैं. इस नीति के आने से लोगों में इलेक्ट्रिक वाहन अपनाना आसान होगा.बजट में इलेक्ट्रॉनिक कचड़ों व पुरानी गाड़ियों के अन्य विकल्पों पर विचार करते सर्कुलर इकॉनमी बनाने पर बल दिया जो उद्योग व रोजगार के लिए रास्ता खोले.निम्न कार्बन उत्सर्जन की रणनीति, रोजगार अवसरों से उनकी संलग्नता और जलवायु परिवर्तन के एजेंडा को एक अवसर की तरह ले भावी विकास की रूपरेखा बनाई गई है. यहाँ ऊर्जा के हस्तांतरण पर बल दिया गया है और यह पूर्व कल्पना भी कि हमारे शहर इस प्रक्रिया में स्वच्छ हवा की प्राप्ति कर सकें. हरित ऊर्जा व स्वच्छ वायु की गतिशीलता की प्रणाली को “सनराइज”अवसरों की भांति देखा गया है जो तभी हासिल हो सकते हैं जब कार्बन उत्सर्जन न्यूनतम करने की लगातार कोशिश हों. इसके लिए “गति शक्ति विधि” को अपनाया गया है जो सात क्षेत्रों में अवस्थापना के निर्माण से संयोजित रहेगी. कार्बन पदचिन्ह को सीमित करने के लिए कई अल्प अवधि व दीर्घ अवधि के कार्यों का प्रस्ताव प्रधानमंत्री के कॉप शिखर सम्मलेन के सूत्र वाक्य “नासमझ और विनाशकारी खपत के बजाय सचेत और विचारपूर्वक उपयोग” पर आधारित रहा जिसमें उन्होंने “पंचामृत” को घोषणा की.
बजट में जलवायु परिवर्तन हेतु उच्च क्षमता वाले सोलर मॉडयूल के निर्माण हेतु 19,500 करोड़ ₹ का अतिरिक्त आवंटन किया गया है. दूसरा, थर्मल पावर प्लांट में बायो मास अवशिष्ट का 5 से 7%तक उपयोग किया जायेगा जिससे कार्बन डाइ ऑक्साइड के उत्सर्जन में 38 मिलियन टन की कमी आएगी. इससे खेतों में पराली जलाने से हुए प्रदूषण में भी कुछ कमी आएगी. तीसरा, कोयले के गैस तथा अन्य संघटक रसायनों में विवर्तन की चार योजनाओं का प्रस्ताव रखा गया है. चौथा, कृषि वानिकी तथा निजी वानिकी की क्रियाओं को अनुसूचित जाति व जनजाति के लोगों के जुड़ाव से संपन्न करने की योजना सामने रखी गई है. पांचवा, इनर्जी कनजर्वेशन एक्ट 2001 का समर्थ क्रियान्वयन किया जाना है.
2022-23 हेतु पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के बजट में ₹3030 करोड़ का आवंटन किया गया है जो पिछले वर्ष से 5.6% अधिक तो है पर इसमें प्रदूषण नियंत्रण के लिए ₹460 करोड़ ही आवंटित हैं जो पिछले वर्ष से ₹10 करोड़ कम हैं.
कार्बन पदचिन्ह को कम करने के लिए ‘नासमझ और विनाशकारी खपत के बजाय संसाधनों के सचेत व विचारपूर्ण उपयोग ‘पर बल दिए जाने की जरुरत को प्रधान मंत्री की “पंचामृत घोषणा ” से एकीकृत किया गया है जिसे देखते राष्ट्रीय वनीकरण व हरित भारत मिशन में अधिक व्यय किया जायेगा. उच्च ऊर्जा दक्षता मॉड्यूल के निर्माण के लिए 19,500 करोड़ ₹आवंटित किये गए हैं जो 2030 तक 280 गेगा वाट के अपने सौर ऊर्जा लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक बनेंगे. सरकार का लक्ष्य शहरी इलाकों में सार्वजनिक परिवहन के उपयोग को बढ़ावा देना है. अभी बड़े पैमाने पर चार्जिंग स्टेशन स्थापित करने के लिए शहरी इलाकों में जगह की कमी के कारण बैटरी स्वेपिंग नीति पर आश्रय किया गया है. सर्कुलर इकॉनमी का स्वरुप देने हेतु दस कारकों जैसे इलेक्ट्रॉनिक कचरा, निषप्रयोज्य वाहन, प्रयोग किया बेकार तेल, जहरीले व ख़तरनाक औद्योगिक अपशिस्ट इत्यादि के लिए कार्य योजना तैयार की गई है.
पर्यावरण और विकास के तालमेल का यह प्रारूप जलवायु कार्यवाही व ऊर्जा संक्रमण के साथ उत्पादकता वृद्धि व समावेशी विकास के निर्देश देता है. कृषि क्षेत्र की व्यवस्था हेतु ‘नेचुरल जीरो बजट और ‘जैविक खेती’ के संकेत हैं. नवीकरणीय ऊर्जा हेतु हेतु दक्षता में सुधार व बुनियादी ढांचे के सुधार, निवेश को अनलॉक करने के लिए सह निवेश, हरित बांड की प्रस्तावना, इलेक्ट्रिक वाहनों की बैटरी की अदला बदली, ग्रिड स्केल स्टोरेज व डेंस चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर के द्वारा गतिशीलता बनाए रखी जानी है. इसी क्रम में बायोमास और कोयला गैसीकरण करते हुए थर्मल पावर और औद्योगिक कार्बन की तीव्रता को कम किया जाना है और यही अमृत काल के भारत @100 के लिए रोड मैप है. यहाँ निश्चित ही एक ओर जलवायु परिवर्तन की समस्याएं हैं तो दूसरी ओर देश की आबादी के जीवन स्तर में किया जाने वाला सुधार जो आय व संपत्ति के स्तरों की बढ़ती हुई असमानता को प्रदर्शित कर रहा है.सरकार ने व्यवसायिक क्रियाओं और अंतर संरचनात्मक विकास को सबल बनाने के लिए जिस बूस्टर बजट को प्रस्तुत किया है उसमें जलवायु परिवर्तन को महत्वपूर्ण माना गया है. जलवायु परिवर्तन के जोखिम वाह्य कारक हैं.
बढ़ते हुए प्रदूषण के संकट से निबटने के लिए 2022-23 के बजट में ऊर्जा के हस्ताँतरण व जलवायु परिवर्तन के पक्ष इस दृष्टि से रेखांकित तो किये गए हैं जिनसे बढ़ते हुए कार्बन उत्सर्जन को कम किया जाये पर जिस तरह से विभिन्न मंत्रालयों को कई गतिविधियों के संचालन के लिए कोष आवंटित किये गए वह पर्यावरण के प्रति संवेदनशील रहने की दिशा में कहीं भी सहायक नहीं दिखाई देते. इस बजट में राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम या अन्य वायु प्रदूषण कम करने वाली योजनाओं के लिए किसी विशेष उपाय को नहीं दर्शाता. ऐसे ही कोयला गैसीकरण पर सरकार का ध्यान ऊर्जा संक्रमण के लिए एक रेड अलर्ट है क्योंकि यह अभी भी कोयले के निरंतर उपयोग को जारी रखता है. ऊर्जा संक्रमण के लिए कोयले के उपयोग को किसी भी रूप में चरणबद्ध किया जाना चाहिए.
बजट में कई ऐसी परियोजनाओं को अधिक आगम का आवंटन किया गया है जो कुछ आवश्यक वस्तुओं की बढ़ती हुई मांग को देखते भले ही युक्ति संगत लगें पर वायुमंडल में उनके विषाक्त प्रभाव की अनदेखी नहीं की जा सकती. राष्ट्रीय राजधानी व आस पास के क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता प्रबंधन का बजट आवंटन भी पिछले वर्ष के 20 करोड़ ₹ से घटा कर अब 17 करोड़ ₹ कर दिया गया है. जबकि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड व समितियों को वित्तीय सहायता देने व जनवरी 2019 से शुरू किये गए राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी ) में प्रदूषण नियंत्रण हेतु वित्त पोषण को जरुरी समझा गया था. इसी तरह रिनेवेबल इनर्जी टारगेट को पूरा करने के लिए इस साल व्यय 6900 करोड़ ₹ ही आवंटित है जबकि पिछले वर्ष यह 7682 करोड़ ₹ नियत था. मनरेगा जैसी स्कीम जो जलवायु के लचीलेपन और कार्बन उत्सर्जन को विलग करने की स्कीम है, में भी पिछले वित्त वर्ष के 98,000 करोड़ ₹ के सापेक्ष 73,000 करोड़ ₹ ही आवंटित किये गए हैं.
अवस्थापना परियोजनाओं के सामने पर्यावरण की क्षति के अनेक उदाहरण हैं जो बड़े पैमाने पर नवीन ऊर्जा की योजनाओं में भी सामने आती रहेंगी चाहे वह गुजरात में प्रस्तावित बुलेट ट्रैन हो या केरल में प्रस्तावित सिल्वर लाइन, गोवा में राज मार्गोँ का प्रस्तावित विस्तार हो या कर्नाटक में बाँदीपुर टाइगर रिज़र्व के प्रोजेक्ट जिनका लगातार विरोध भी होता रहा है. दरअसल व्यवसाय को आसान बनाने में या ईज ऑफ़ डूइंग बिजनेस में पर्यावरण के नियमों को लगातार शिथिल किया गया है साथ ही परियोजनाओं के पर्यावरण संवेदना प्रभाव के आंकलन की प्रक्रिया को भी कमजोर किया जा रहा है. हाल के वर्षों में 25,000 से अधिक अनुपालनों को कम किया गया व 1486 केंद्रीय कानूनों को निरस्त किया गया . अब सिंगल विंडो पोर्टल के प्रारूप को सामने रख नई परियोजनाओं के अनुमोदन प्रक्रिया को आसान बनाने पर जोर रहेगा. यह न्यून कार्बन उत्सर्जन के साथ उस परिवेश को ध्यान में रखेगा जहाँ न्यूनतम सरकार-अधिकतम निगरानी -व्यवसाय व्यापार में विश्वास -मैन्युअल प्रक्रियाओं के डिजिटलाइजेशन व सुझाव सम्मतियों की पूछ से संयोजित होगा.
जलवायु परिवर्तन की समस्याओं को देश के हरित आवरण के सन्दर्भ में देखें तो 2011 -21 की अवधि में वन क्षेत्रों की लगभग 20 % वृद्धि के समंक रखे जाते हैं जो ‘इण्डिया स्टेट ऑफ़ फारेस्ट रिपोर्ट ‘ का दावा है जिसमें यह भी कहा गया है कि पिछले दो सालों में ही वन क्षेत्रों में 2,261 वर्ग कि. मी. की वृद्धि हुई है. जानकारों का कहना है कि जिन इलाकों को जंगलात विभाग ने जंगल माना है यदि वहाँ वन संरक्षण कानून 1980 को लागू किया जाय तो ऐसे इलाके जंगल होने के मापदंड पर खरे ही नहीं उतरेंगे. फिर रिपोर्ट में वन विभाग ने वन क्षेत्र की जो वृद्धि दिखाई गई है उसमें शहरों में लगे पेड और पोंधारोपण के साथ रबड़, चाय व कॉफी बागानों की हरियाली को भी शामिल कर लिया गया. वन सर्वेक्षण के हिसाब से बने पेड़ों की यदि पहचान ही तो शहरों या बागानों में रहने वाले लोग भी वनवासी ही कहे जायेंगे.जहाँ तक वन संरक्षण कानून की बात है
पूर्वोत्तर् राज्यों में जैव विविधता से भरे जंगल का ह्रास हुआ है और यह सिलसिला 2009 से जारी है. सुदूर संवेदना प्राविधि से से पता चला है कि जैव विविधता से संपन्न पूर्वोत्तर व अन्य कई पहाड़ी प्रदेशों में वनों का अवक्षय हुआ है. वन विभाग की रपट में कहा गया है कि पूर्वोत्तर के राज्यों में 1,69,521 वर्ग कि. मी. जंगल है जो पिछली 2019 की गणना के सापेक्ष 1,020 वर्ग कि. मी. कम हुए हैं. पूर्वोत्तर के अरुणाचल, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम व त्रिपुरा में विश्व के 17 जैव -विविधता वाले हॉट -स्पॉट हैं और यह भारत के भौगोलिक क्षेत्रफल का मात्र 7.98 % होते हुए भी पर्यावरण व पारिस्थितिकी से सम्बंधित 25% के लाभ देता है. दूसरी ओर भारत का कुल वन क्षेत्र इसके भौगोलिक क्षेत्रफल का 21.71 % है जिसमें वृक्षों का आच्छादन 2.91% है. वन क्षेत्र में कमी दिखाने वाले पांच राज्य अरुणाचल, मणिपुर, नागालैंड, मिजोरम व मेघालय हैं. देश के कुल 104 पहाड़ी राज्यों में 902 वर्ग कि. मी. में जंगल कम हुए हैं.
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वन संरक्षण कानूनों में भी कई विसंगतियां दिखाई देती हैं जैसे कि सड़कों के लिए वन भूमि को जब गैर वन सम्बन्धी काम के लिए उपयोग में लाया जाना हो तब विभाग सड़क के किनारे लगे पेड़ों को फारेस्ट कवर नहीं मानती. वहीँ जब फारेस्ट कवर का कोई विवरण या रपट में उल्लेख करना हो ततब इन पेड़ों को भी फारेस्ट कवर में शामिल कर लिया जाता है.अब सवाल यह उठता है कि क्या किसी बगीचे में यदि अधिक संख्या में पेड़ हों तो क्या आने वाले समय में उसे जंगल माना जायेगा? वन विभाग की गणना रपट में तो सामुदायिक व निजी जमीन पर पौंधरोपण, सड़क, रेल पटरी और नहर किनारे लगे पेड़, व चाय –कॉफी के बागानों को भी वन आच्छादन में शामिल कर लिया गया है. इसी के साथ देश के टाइगर व शेर संरक्षण क्षेत्र में वन आवरण को समझा जाय तो बाघ अभ्यारण में वन 55,666 वर्ग कि. मी. में विस्तृत है जो इनके कुल क्षेत्रफल का लगभग 74.5% व देश के कुल वन क्षेत्र का 7.8% है. ध्यान देने योग्य बात यह है कि पिछले दस सालों में 20 बाघ वन अभ्यारण्य में वन क्षेत्र संकुचित हुए हैं तो दूसरी ओर शेर के आवास में 33.4 वर्ग कि. मी. की कमी आई है. उत्तराखंड में कॉर्बेट नेशनल पार्क व राजाजी नेशनल पार्क भी ऐसे ही संकुचन से ग्रस्त हैं जिनके पीछे सरकारी और अनाधिकृत निर्माण हैं. वन क्षेत्रों में तैयार किसी भी रपट में वनों के विस्तार व संवर्धन के साथ वनों पर उभरते संकटो की भी पड़ताल होनी जरुरी है जिसका अभाव दीखता है.पर्वतीय प्रदेशों के वन बहुल इलाकों में पर्यटकोँ की आवाजाही बढ़ी है वहाँ पॉलिथीन व कूड़े करकट से अलग समस्याएं पैदा होतीं गईं हैं. उत्तराखंड में हिमनदों व मुख्य धार्मिक तीर्थ स्थानों में भी इनके ढेर हैं जिसका एक मुख्य कारक फ़ास्ट फ़ूड के ढाबे व मदिरा की अनियंत्रित बिक्री है.
खाद्य तेलों की बढ़ती क़ीमतों के कारण इस बजट में पाम आयल के वनीकरण को प्रमुखता दी गई है जो परिस्थितिकीय दृष्टि से प्रतिगामी प्रभाव ही पैदा करेगा.ऐसे ही नदियों को एक दूसरे से श्रृंखला बद्ध करने की परियोजना है. जिससे सम्बंधित निर्माण पर्यावरण के हितैषी हों यह आवश्यक नहीं.वहीँ सरकार वन्यजीव संरक्षण और वायु प्रदूषण की जिम्मेदार कई गतिविधियों पर नियंत्रण करने की योजना में काफी कम व्यय का बजट आवंटित कर रही है. लाइफ (लीगल इनीशिएटिव फॉर फॉरेस्ट एंड एनवायरनमेंट )तथा सी पी आर (सेंटर फॉर पालिसी रिसर्च ) ने वायु प्रदूषण को प्राथमिकता न देने के पक्ष को पर्यावरण की दृष्टि से बजट की दुर्बलता बताया है. लाइफ की रपट में स्पष्ट कहा गया है कि सरकार ने शुद्ध वायु, जैव विविधता और जलवायु परिवर्तन की तुलना में पाम आयल को वरीयता दी है. ऐसे कई विभाग हैं जो पर्यावरण मंत्रालय के अधीन हैं और पारिस्थितिकी संतुलन के साथ पर्यावरण की विविध समस्याओं के समायोजन की दिशा में कार्य कर रहे हैं जैसे कि सेंट्रल जू अथॉरिटी, वाइल्ड लाइफ इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडिया तथा नेशनल बायो डाइवर्सिटी अथॉरिटी जिनकी ओर बजट में व्यय का आवंटन ह्रास मान दिखाई दे रहा है. हालांकि इस मंत्रालय का कुल बजट 2021-22 के 2,520 करोड़ ₹ से 2022-23 में 20% बढ़ा कर 3,030करोड़ ₹ कर दिया गया पर वायु प्रदूषण के लिए मात्र 460 करोड़ ₹ का व्यय नियत किया गया है. क्या यह धनराशि उन 132 शहरों में वायु शुद्धता की लागत का भी अनुरक्षण कर पायेगी जहाँ राष्ट्रीय शुद्ध वायु योजना (एन सी ए पी )लागू की गई है. जब यह रकम इन नियत शहरों के लिए ही कम है तो फिर उन 4000 से अधिक शहरों और और अनगिनत गावों का क्या होगा जो एन सी ए पी की परिधि से बाहर हैं. हवा में जहर फैलाने की पराली जलाने जैसी समस्या भी बनी हुई है जिसका सम्बन्ध कृषि अपशिष्ट के निवारण से है तो वहीँ खाद्य तेल की बढ़ती कीमत के प्रसंग में पाम तेल के संवर्धन हेतु कृषि मंत्रालय को 900 करोड़ ₹ का आवंटन किया गया है.
वायु प्रदूषण के बढ़ते संकट को ध्यान में रखते सेंटर फॉर पालिसी रिसर्च (सी पी आर ) ने स्पष्ट किया है कि वायु गुणवत्ता प्रबंधन के कमीशन को किये वित्तीय आवंटन भी कुछ कमी का शिकार बने हैं.पंद्रहवे वित्त कमीशन के अनुदानों द्वारा आवंटित धनराशि के अलावा प्रदूषण की समस्या को सुलझाने की दिशा में किसी सुविचारित रणनीति पर विचार नहीं किया जा रहा है. बजट जहाँ दीर्घकाल में अर्थव्यवस्था के व्यापक चरों के सामंजस्य की बात करता है वहीँ वायु की गुणवत्ता में सुधार की किसी सम्यक रणनीति को रेखांकित नहीं करता. प्रदूषण की यह समस्याएं बहुत चिंताजनक हैं जिन्हें नगरों- महानगरों में नियंत्रित करने के साथ ही छोटे शहरों व कस्बों के साथ ही ग्रामीण इलाकों में रोकने व संरक्षित करने की जरुरत प्राथमिकता में होनी चाहिए.
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नदियों के संयुक्तिकरण में पारिस्थितिकी संरक्षण व संवर्धन के पक्ष सुविचारित नहीं हैं. उदाहरण के लिए केन – बेतवा लिंक प्रोजेक्ट पर 44,605 करोड़ ₹ व्यय होने हैं साथ ही पांच अन्य ऐसी ही अन्य परियोजनाओं का वादा किया गया है जो जल -विद्युत व सोलर दोनों तरीकों से विद्युत उत्पादन करेगी पर इस प्रक्रिया में आने वाले पारिस्थितिक असंतुलनों की बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ेगी.
कृषि में प्राकृतिक खेती की प्राथमिकता धारणीय विकास की श्रृंखला में सबसे विचारणीय व सबल पक्ष है जबकि उस क्षेत्र की धारक क्षमता व पहाड़ी प्रदेशों में वहाँ के अवलम्बन क्षेत्र को अवश्य ही ध्यान में रखा जाना चाहिए. इस प्रकार की खेती की सिफारिश मिरतोला आश्रम, अल्मोड़ा के स्वामी माधवाशीष ने 1980 के दशक में की थी और यहीं डॉ जैकसन ने इसका मॉडल विकसित किया. स्वामी माधवाशीष योजना आयोग में कृषि सलाहकार भी रहे.हरित क्रांति के दौर में कृषि विश्व विद्यालयों के द्वारा जिन कृषि आदा -प्रदा तकनीक को अपनाया गया वह पहाड़ की खेती की उपेक्षा ही करता था. अल्मोड़ा में बोसी सेन द्वारा स्थापित विवेकानंद अनुसन्धान केंद्र द्वारा फसलों पर सार्थक अनुसन्धान किये गए व रानीचौरी में स्थित पंतनगर विश्व विद्यालय के कैंपस ने इस दिशा में कार्य किया. देश में खेती की उपज उच्च पूंजी गहनता से लागतों की लगातार वृद्धि दिखाती रही जिसमे खाद व कीटनाशक का बड़े पैमाने पर आयात से भुगतान संतुलन का असमायोजन उत्पन्न होते रहा. अंततः छोटे और सीमांत जोत के किसानों के सामने अपनी उपज की लागत भी न निकल पाने और बैंक ऋणों को भी न चुका पाने की बेबसी उभरी. सरकार के द्वारा किये गए फौरी इंतज़ाम विलंबित ही रहे और कई किसानों के द्वारा आत्महत्या कर ली गई. खेती किसानी का प्रतिशत लगातार कम होते जाना व रोजगार के लिए असंगठित क्षेत्र में चले जाने के संकेत इसी का नतीजा रहे. समर्थ किसानों ने कृषि कानूनों के विपरीत साल भर की लड़ाई लड़ी. अब कृषि विश्वविद्यालयों से भी जैविक कृषि को अपने कृषि पाठ्यक्रमों में सम्मिलित करने की अनुशंसा की गई है. इसके साथ ही इसे प्रायोगिक स्वरुप देने के लिए गंगा कॉरिडोर को चुना गया है. हरित आवरण की वृद्धि के लिए केंद्र सरकार एग्रो फारेस्ट्री व निजी वानिकी को भी समुन्नत करने के इरादे रखती है जिसमें इस बात पर विशेष ध्यान देना होगा कि इसके फायदे कुछ गिने चुने वर्ग में ही सीमित न हो जाएं.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…
शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…
कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…