कला साहित्य

हिमालय और उसके जन-जीवन की गहन पड़ताल है ‘दावानल’

अब ताला क्या लगाना!
तो क्या कोठरी खुली ही छोड़ दे?
असमंजस में वह बंद दरवाजे के सामने खड़ा रह गया.

(पृष्ठ-9)

‘दावानल’ उपन्यास की उक्त शुरूआती लाइनों में व्यक्त लेखक नवीन जोशी का असमंजस व्यवहारिक जीवन में भी अभी तक ज्यों का त्यों है. उनका ही क्यों हम-सब भी तो जीवन में व्याप्त असमंजस से कहां उभर पा रहे हैं?
(Davanal Book Review)

उत्तराखण्डी होने के नाते सामाजिक तौर पर विगत शाताब्दी में यहां उपजे और सफल कहे और माने जाने वाले वन, शराब तथा पृथक राज्य आन्दोलनों के औचित्य और अस्तित्व का असमंजस हम सब में नहीं है, क्या? आज, हम-सबकी जीवन में स्थिति जीवनीय अवसरों और संभावनाओं के लिए बंद दरवाजे के बाहर खड़े निरीह प्राणी की नहीं है, क्या? राजनैतिक हालातों ने हमें सामाजिक तौर पर बीते पर पछताना, वर्तमान में लाचार और भविष्य के लिए आशंकित नहीं बना दिया है, क्या?

प्रतिष्ठित लेखक और पत्रकार नवीन जोशी के ‘दावानल’ और ‘देवभूमि डेवलपर्स’ संस्मरणात्मक उपन्यास क्रमबद्ध तरीके से उत्तराखण्ड में विगत आधी शताब्दी के विविध पड़ावों यथा- सत्तर के दशक के ‘चिपको’, अस्सी के दशक के ‘नशा नहीं रोजगार दो’, नब्बे के दशक के ‘पृथक राज्य आन्दोलन’ से जूझते हुए आज ‘हेलंग’ और ‘हाकम’ के मुकाम पर पहुंचे उत्तराखण्डी जन और जीवन की गहन पड़ताल के रूप में प्रकाशित हुए हैं. मैं आपको इन किताबों की शब्द-यात्रा की ओर ले चलता हूं. पहले, ‘दावानल’ की बात कर लेते हैं-

नवीन जोशी का ‘दावानल’ उपन्यास, सामयिक प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली से वर्ष- 2006 और 2008 (दूसरा संस्करण) में प्रकाशित हुआ. लेखक संशय की गुंजाइश को विराम देते हुए आरम्भ में ही घोषित करते हैं कि ‘दावानल’ किताब ‘बीसवीं शताब्दी के सातवें और आठवें दशक में उत्तराखण्ड में छिड़ा व्यापक वन (चिपको) आंदोलन, इस कथा की आधारभूमि है. यह उपन्यास है, इतिहास नहीं.

उपन्यास का नायक पुष्कर है. गांव से लखनऊ पिता के पास पढ़ने आया नन्हा पुष्कर युवा होते ही कब कैरियर बनाती किताबों से बाहर छिटक-कर पहाड़ के सामाजिक सरोकारों की लड़ाई का हिस्सा बन गया, ये उसे भी पता नहीं चला. लखनऊ विश्वविद्यालय के मेघावी छात्र पुष्कर ने मई, 1977 के किसी दिन जब हल्द्वानी में ‘पर्वतीय युवा मोर्चा’ के एक पर्चे को पढ़ा तो जिज्ञासावश वह अपने गांव न जाकर नैनीताल चला गया. नैनीताल में ‘पढ़ाई के साथ लड़ाई’ में सक्रिय साथियों से हुई मुलाकात ने उसकी जीवन की दशा और दिशा ही बदल दी. पुष्कर को जब पूरा पहाड़ अपने गांव का ही विस्तार लगने लगा तो वो उसके दुखःदर्दो से दूर कैसे रह सकता था.
(Davanal Book Review)

असल में, पुष्कर के रूप में नवीन जोशी ने अपने किशोरावस्था से युवा अवस्था तक के संस्मरणों को इसमें पिरोया है. उत्तराखण्ड में बीसवीं शताब्दी के 70 के दशक के सामाजिक आन्दोलनों को एक अध्येयता के रूप में नवीन जोशी ने बेहद करीब से देखा और समझा था. उस काल में, पिता के सुनहरे सपनों से इतर अपने खुरदरे जीवनीय उद्देश्यों के ऊहापोह में वे रहे. कहना चाहिए कि, यह किताब, लखनऊ के नहर दफ्तर की कालोनी में अपने बाबू (पिता) के साथ रहने वाले नवीन जोशी के जीवनीय बदलावों और अनुभवों का ताप है.

‘दावानल’ उपन्यास का केन्द्रीय भाव चिपको आन्दोलन है. इसके माध्यम से यह उस काल के पहाड़ और पहाड़ी की अनेकों पीड़ाओं को प्रकट तौर पर पाठकों तक पहुंचाता है. नवीन जोशी ने ‘दावानल’ उपन्यास में पुष्कर और उसके साथियों के माध्यम से उस दौर के उत्तराखण्डी युवाओं की स्थिति, मनोदशा, पीड़ा, उन पर पारिवारिक – सामाजिक – शैक्षिक – राजनैतिक दबाव तथा चेतना के विविध आयामों को इस किताब में सार्वजनिक किया है. उपन्यास के पात्र यथा- रामप्रसाद, जीवन लाल, चंदर, मुन्नी भाभी, शंभू, ज्योति, गिर्दा, इरा, शैली, राधाबल्लभ, गौरा, सलीम, दीवान, कविता, सीपी, ममता, तिलदा, कमला, चन्द्र सिंह, लोकेन्द्र, लक्ष्मी, सुदर्शन, चन्द्रशेखर, त्रिवेन्द्र, गिरीश आदि सभी हमारे आस-पास के ही लोग हैं. इनको पहचानना मुश्किल नहीं है. चिपको आन्दोलन से प्रशिक्षित ये चेहरे उत्तराखण्ड के सवालों और मुद्दो पर चर्चित रहे हैं.

‘दावानल’ उपन्यास घर और बाहर की मध्य रेखा पर ठिठके युवा पुष्कर की उस कशमकश से आरम्भ होता है, जिसमें इजा (मां) के कहे वचन ‘अपने बाबू को कभी दुःख नहीं देना बेटा!’ को निभाने में वह अपने को असमर्थ पाता है. जबकि, ‘पुष्कर जानता था कि बाबू हर सांस पहाड़ में छोड़ आए गांव, खेत और मां के लिए लेते हैं या फिर उस बेटे के लिए जिसे पढ़ाने के लिए वे अपने साथ लखनऊ ले आए हैं. उनकी कोई सांस शायद अपने लिए नहीं होती थी. वे ऐसी मशीन थे जो गांव के लिए हर महीने एक मनिआर्डर और बेटे के लिए पढ़ाई का बंदोबस्त करने के लिए चलती थी. दो रोटी और दाल-भात खाते थे तो इसलिए कि मशीन को चलने के लिए कुछ तेल तो चाहिए ही.’ (पृष्ठ-31)

यह किताब, पिता और पुत्र के उस एकाकीपन को भी कुदेरती है जिसमें वे साथ रहते हुए भी वैचारिक रूप में साम्य नहीं रख पाते हैं. पिता-पुत्र के एक दूसरे के बारे में सोचे-समझे सुनहरे सपने जब टूट कर बिखरते हैं तो उसकी आवाज दोनों को सुनाई देती है, पर बोल कोई भी नहीं पाता है. पिता के पुत्र के प्रति बड़ते परायेपन के भाव का जिम्मेदार वह स्वयं है, ऐसा पुष्कर का मानना है.

‘और, अब तो शायद उन्होंने उसे अपने से दूर, पराया-सा भी मान लिया. नहीं तो ऐसे क्यों बोलते वे-‘आप खाना खाएंगे या अभी जाना है?’ पहले कभी उन्होंने पुष्कर से ‘आप’ नहीं कहा था.’ (पृष्ठ- 179)

ऐसी बैचैनी में पुत्र पुष्कर के अन्तःमन की धुगधुगी हर क्षण पिता को महसूस कराने के लिए मचलती थी कि ‘मैं तुम्हारे प्रति बेईमान नहीं था, बाबू’…नहीं बाबू, मैं सिर्फ तुम्हारे सपने को दूसरे कोण से देख रहा था, उसमें और भी पिताओं के सपने शामिल कर रहा था.’ (पृष्ठ- 32)
(Davanal Book Review)

पिता-पुत्र के संबंधों की यही शाश्वत नियति इस किताब में बखूबी आयी है.

‘दावानल’ सत्तर के दशक में लखनऊ में जड़-जमाते प्रवासी उत्तराखण्डियों की कथा-व्यथा की दांस्तान भी है. ‘ये लोग अपना परिवार साथ में नहीं रखते थे क्योंकि वे शहर में बसने नहीं आए थे. वे पहाड़ की किसी चोटी या घाटी में बसे गांव में छोड़ आये अपने परिवार की सप्लाई लाइन थे. वहां गांव में कुछ सीढ़ीनुमा खेत हैं, बाप-दादों का बनवाया एक मकान है, कुछ ढोर-डंगर हैं, जिन्हें छोड़ा नहीं जा सकता. इसलिए नहर दफ्तर के उन क्वार्टरों में ये लोग अकेले रहते थे. नहीं, अकेले रहते थे कहना गलत होगा, उनके साथ होते थे पढ़ाने के लिए लाए गए बेटे या नौकरी लगने के इंतजार करने वाले छोटे भाई या रिश्तेदार….पहाड़ से भागे हुए छोकरे शहर की भीड़-भाड़ और चकाचौंध से घबराकर जब कभी स्टेशन के बाहर रोते-भटकते पाए जाते, तो दयालु रिक्शेवाले उन्हें यहीं छोड़ जाते थे.’ (पृष्ठ-37)

कमोवेश यही तस्वीर थी उन दिनों लखनऊ में पनप रहे एक नये उत्तराखण्ड की थी. पुष्कर के बाबू की तरह हर साल असूज के महीने काम-धंधे, खेती-बाड़ी के लिए लखनऊ से घर-गांव आना पहाड़ियों का नियमित दस्तूर था. क्योंकि, तब उनके मन-मस्तिष्क में लखनऊ मात्र जीवकोपार्जन का ठिकाना था. पारिवारिक जीवन की जीवंतता तो वे अपने पहाड़ी गांवों में ही महसूस करते थे.

चिपको के बहाने 20वीं सदी के उत्तरोत्तर काल में पलते-बढ़ते उत्तराखण्ड के मन-मस्तिष्क का मिज़ाज़ इस किताब में है. उस दौर के तमाम सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक-सांस्कृतिक घटनाओं और जन-आन्दोलनों, व्यक्तित्वों, संस्थाओं तथा शासन-प्रशासन की नीति-नियत से हम परिचित होते हैं. तवाघाट की तबाही, नैनीताल गोली कांड, चांचरी धार और अदवानी का जंगल आन्दोलन, नैनीताल समाचार और उत्तराखण्ड संघर्ष वाहिनी का अस्तित्व आना आदि घटनायें इस किताब के महत्वपूर्ण हिस्से हैं.

लेखक, उत्तराखण्ड के तत्कालीन वर्तमान को समझने के लिए उसके अतीत को भी टटोलता है. अखबारों की पुरानी फाइलों में दर्ज 20 जुलाई, 1970 को बेलाकूची में हुई त्रासदी को पुष्कर ने कुछ इस तरह से पढ़ा-

‘…कुल बारह किलोमीटर सड़क, तीस बसें, ट्रक व कारें, इक्कीस छोटे-बड़े पुल और अलकनंदा के किनारे बसे गांव उस प्रलय की भेंट चढ़ गए.

और मनुष्य?

‘अरे छोड़ो महाराज, मनखियों के मरने-जीने का भी कोई हिसाब-किताब होता है!’ दुरमी के प्रधान रामेश्वरजी से पूछ पाता पुष्कर तो उनका यही जवाब होता.’ (पृष्ठ-174)
(Davanal Book Review)

नवीन जोशी ने उत्तराखण्डी समाज में उदित, उभरे और अवसान को प्राप्त चिपको आन्दोलन के महत्वपूर्ण पक्षों को ‘दावानल’ उपन्यास में विस्तार दिया है. उत्तराखण्ड में वन-वनवासियों के प्राकृतिक सह-संबंधों, प्रकृति की चेतावनी और उसको भूल-बिसरने की मानवीय प्रवृत्ति के मध्य चिपको आन्दोलन की विडम्बना और चरित्रों को यह जीवंत करता है. इस नाते, चिपको के मर्म और दर्द की अभिव्यक्ति इसमें हुई है.

उपन्यास का एक पात्र शैली पुष्कर से कहता है कि ‘…चिपको आंदोलन जनता का आक्रोश भर था, गुस्सा था जनता में जो उस तरह फूटा और उसे तरह-तरह के लोगों ने अपने ढंग से व्याख्यापित कर दिया. कोई उसे पर्यावरण का आंदोलन बताने लगा, कोई अधिकारों की बहाली का….पहली तरह के लोग उसमें अपने लिए अवसर देख रहे थे तो तुम लोग दिवास्वप्न में खोए थे. दोनों अपने-अपने ढंग से दोषी हो.’ (पृष्ठ-20)

यह किताब बताती है कि सरकार ने चालाकी से चिपको के शीर्ष नेतृत्वों को अलग-अलग तरीके से पुरस्कारों और सम्मानों के मोह-जाल में कैसे फंसाया? सम्मानों ने चिपको के कुछ चेहरों को देश-दुनिया में ख्याति दी, इससे वे तो बड़े हो गए पर स्थानीय समाज और उनकी संस्थायें उनसे बहुत पीछे छूट गयीं. और, यह आन्दोलन दो वैचारिक पक्षों के जगह दो चेहरों को लिए आगे बढ़ने लगा. इन दो चेहरों ने सरकार के हितों के अनुकूल चिपको के मूल चिन्तन जिसमें स्थानीय लोगों के परम्परागत हक-हकूकों से जंगलों की हिफाज़त की बात थी उससे हटकर मात्र इकालाजी की बात करना उचित समझा. लिहाजा, स्थानीय ‘आर्थिकी’ पर उनका स्वर धीमा होने लगा और ‘पारिस्थितिकी’ का स्वर तेज होने लगा. परन्तु एक तरफ देश-दुनिया में चिपको आन्दोलन के प्रचार की धूम थी तो दूसरी तरफ उसके शीर्ष नेतृत्व के मध्य अहम और वहम की धूल मंडराने लगी थी. सम्मानों की ललक ने इसको और पनाह दी थी.

चिपको की लोकप्रियता को अलग-अलग तरीके से लेखकीय रंग भरे जाने लगे. ‘…मगर छपते जा रहे हैं नामचीन पर्यावरणविदों के लेख और इंटरव्यू. बाबा जीवन लाल ने हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी में भी लिखना शुरू कर दिया है. वे अखबारों में छाए हुए हैं. स्वच्छ हवा और शुद्ध पर्यावरण के लिए जंगलों को बचाओ! ‘क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी-पानी और बयार.’ उनकी देखा-देखी राम प्रसादजी ने भी कलम उठा ली है. पता नहीं खुद लिखते हैं या कोई लेखक रख लिया है. बाबा तो अच्छे वक्ता और लेखक रहे हैं. मगर राम प्रसादजी हिंदी भी ठीक से नहीं बोल पाते थे. बार-बार अपनी पहाड़ी बोली में आ जाते. शायद आंदोलन और प्रसिद्धि ने उन्हें सिखा दिया है. जो भी हो, खूब छप रहे हैं दोनों. लिखने और इंटरव्यू देने की होड़.’ (पृष्ठ, 202-203)
(Davanal Book Review)

चिपको के परिपेक्ष्य में उपन्यास के पात्र सलीम के इन विचारों से असहमत कैसे हो सकते हैं कि ‘…यह व्यवस्था हमेशा इसी तरह काम करती है. यह जन-आंदोलनों को भी ऐसी चालाकी से मोड़ देती है कि उसका मूल स्वर गायब हो जाता है और वह जन-भावनाओें को अपने पक्ष में भुना लेती है. चूंकि ये सरकारें पूंजीपतियों, दलालों, ठेकेदारों यानी जनता की शोषक ताकतों का गठजोड़ हैं, इसलिए वास्तविक जनहित का कोई फैसला ले ही नहीं सकतीं. लेकिन पुष्कर भाई, चूंकि तुम भावुक हो, मेरे शब्दों में रोमांटिक आंदोलनकारी, इसलिए तुम्हें झटका लगना स्वाभाविक है.’ (पृष्ठ- 219)

चिपको के देश-दुनिया में फैलते तथाकथित ग्लेमर से तस्त्र पुष्कर अपने मित्रों शैली और सलीम के उस पर लगे ‘रोमांटिक आंदोलनकारी’ के तगमें आखिर तोड़ ही डालता है. वह पुरुजोर आवाज़ में अपनी खीज व्यक्त करते हुए आगे एक अध्येयता ही रहना चाहता है-

‘ओ गौरा देवी! रामी देवी!, बौंणी देवी!, रामी देवी!, लक्ष्मी देवी! और जसुली देवी! बधाई हो तुमको, पद्मभूषण और मैगसेसे की. क्या कहा? तुम इन्हें नहीं जानती! अरे पगली! किसी लाट-गवर्नर के नाम नहीं हैं. इनाम हैं, इनाम! बडे़-बड़े सम्मान! तुम्हारे नाम और काम के, जो तुम्हारे नेताओं को मिले हैं. श्रेय और सम्मान तो नेताओं को ही मिलता है न!’

‘याद है गौरा देवी, ये रामप्रसादजी रेणी का जंगल बचा लेने पर तुम्हें शाबासी देने आए थे! आज तुम उन्हें बधाई दो. घर में थोड़ा गुड़ हो तो एक डली रामप्रसादजी को खिलाओ. एक डली बाबा जीवनलाल के लिए भी भेजो.

और यह लकड़ी-पानी, घास-पत्ते की रट मत लगाओ. बड़ा काम करने वालों को छोटी-छोटी चीजों की चिंता शोभा नहीं देती. एक बात और, गौरा देवी! जो जंगल तुमने तब बचाया था, अब उसकी तरफ एक कदम मत बढ़ाना. वहां अब खूंखार, मनखीमार बाघ रहते हैं, हां! खबरदार!’   (पृष्ठ, 226-227)

‘दावानल’ में चंट-चालाक सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच ऐसे नायकों का भी जिक्र किया है जिनकी कथनी-करनी में कभी भेद नहीं रहा. चांचरीधार के जंगलों को कटने से बचाने के बाद उत्साही विपिन त्रिपाठी से जुड़ा यह किस्सा बेहद प्रेरक है, जिसने उनको ताउम्र जमीनी कार्यकर्ता बनाये रखा-

‘विपिन त्रिपाठी जिंदाबाद… टैक्सी की खिड़की से विपिन चच्चा ने भोटिया भाई के हाथ अपने हाथों में लेकर प्यार से दबाए तो निर्विकार-सा वह बोला था- ‘भुला, अपनी औकात मत भूलना, हां!’ डंक-सा लगा था विपिन चच्चा को. कैसी पते की बात कह दी थी उसने! जेल से छूटते ही चंदे की टैक्सी! वे फौरन टैक्सी से बाहर निकले, अपने गले की फूलमालाएं भोटिया भाई को पहनाई और समर्थकों के हुजूम को आश्चर्यचकित छोड़कर बस स्टैंड की ओर चल पड़े थे.’ (पृष्ठ-156)

पुष्कर के जीवनीय उतार-चढ़ावों ने उसे एक तरफ 70 के दशक के आम युवा की चर्चित ‘यंग ऐंग्री मैन’ की छवि के रूप में ढ़ाला तो दूसरी ओर उसे उनसे जीवन दर्शन का पाठ भी मिला. श्मशान घाट में किसी सयाने का यह कथन कि ‘अपना शोक यहीं बहा दो, पुत्र. यह शोक को बहा देने की जगह है. यहां से फिर जिंदगी में लौटना होता है. वह देखो, ऊपर सड़क किनारे…लाश लेकर आए आधे लोग नहा-धोकर दाल-भात पका रहे हैं. यहां चिता जल रही है और वहां भात पक रहा है. चिता की राख के साथ सारा शोक बहाकर वे भोजन करेंगे. दूर से आए हैं, थके हैं. खाकर आराम करेंगे और फिर लौट जाएंगे अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में. यही संसार का नियम है. उधर देखो, चिता की राख बहाकर वह बालक उस ठौर पर दिया जला रहा है. पंडित कह रहा है बालक से कि अब पीछे मुड़ो और घर जाओ. इस तरफ मुड़कर मत देखना. यानी इस शोक को भूल जाना और वापस जिंदगी में शामिल हो जाना. तुम भी लौट जाओ, युवक. मन का संताप यहीं छोड़कर लौट जाओ.’ (पृष्ठ- 135)

‘दावानल‘ का नायक पुष्कर भी अपने जीवन के कर्तव्य-पथ की ओर लौटते हुए उपन्यास के विराम में मन-ही-मन गाता है- ऋतु औंनै रौली, भवंर उड़ाला बलि… यही तो जीवन की नियति है.
(Davanal Book Review)

दावानल किताब यहां से खरीदें- दावानल

– डॉ. अरुण कुकसाल

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

वरिष्ठ पत्रकार व संस्कृतिकर्मी अरुण कुकसाल का यह लेख उनकी अनुमति से उनकी फेसबुक वॉल से लिया गया है.

लेखक के कुछ अन्य लेख भी पढ़ें :

प्यारी दीदी एलिजाबेथ व्हीलर को भावभीनी श्रद्धांजलि
बाराती बनने के लिये पहाड़ी बच्चों के संघर्ष का किस्सा
पहाड़ी बारात में एक धार से दूसरे धार बाजों से बातें होती हैं
मडुवे की गुड़ाई के बीच वो गीत जिसने सबको रुला दिया
उत्तराखण्ड में सामाजिक चेतना के अग्रदूत ‘बिहारी लालजी’ को श्रद्धांजलि
जाति की जड़ता जाये तो उसके जाने का जश्न मनायें
दास्तान-ए-हिमालय: हिमालय को जानने-समझने की कोशिश
उत्तराखंड के इतिहास में 6 सितम्बर का महत्व
तीन पहाड़ी युवाओं का ‘बेरोजगारी ढाबा’ से ‘अपनी रसोई’ तक का सफ़र
गढ़वाल के सामाजिक विकास के इतिहास में पूर्णानन्द नौटियाल का योगदान
डूबता शहर: टिहरी बांध बनने में शिल्पकार समाज के संघर्षों का रेखांकन करने वाला उपन्यास
आज भगवती प्रसाद जोशी ‘हिमवन्तवासी’ की पुण्यतिथि है
चन्द्र सिंह गढ़वाली के गांव से गुजरते हुए

Support Kafal Tree

.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

बहुत कठिन है डगर पनघट की

पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…

17 hours ago

गढ़वाल-कुमाऊं के रिश्तों में मिठास घोलती उत्तराखंडी फिल्म ‘गढ़-कुमौं’

आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…

17 hours ago

गढ़वाल और प्रथम विश्वयुद्ध: संवेदना से भरपूर शौर्यगाथा

“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…

6 days ago

साधो ! देखो ये जग बौराना

पिछली कड़ी : उसके इशारे मुझको यहां ले आये मोहन निवास में अपने कागजातों के…

1 week ago

कफ़न चोर: धर्मवीर भारती की लघुकथा

सकीना की बुख़ार से जलती हुई पलकों पर एक आंसू चू पड़ा. (Kafan Chor Hindi Story…

1 week ago

कहानी : फर्क

राकेश ने बस स्टेशन पहुँच कर टिकट काउंटर से टिकट लिया, हालाँकि टिकट लेने में…

1 week ago