प्रो. मृगेश पाण्डे

पहाड़ में ताल-चाल-खाल बनाम अमृत सरोवर

उत्तराखंड में पारम्परिक रूप से बरसात के पानी को रोकने के लिए बनाए तालाबों को चाल -खाल कहते हैं. अमूमन दो पहाड़ियों के बीच की ढलान जिस स्थान पर मिलती है वहां स्थानीय स्तर पर इन्हें बनाया जाता रहा क्योंकि ऐसी जगहों पर पानी का बहाव अधिक होता था. ये कम से कम दस से पंद्रह मीटर लम्बे-चौड़े और एक दो मीटर गहरे होते और इनकी जल भंडारण क्षमता चालीस से पचास हजार लीटर के समकक्ष तो रहती ही.
(Uttarakhand Chal-khal & Amrit Sarovar)

परंपरागत रूप से शहरों और ग्रामीण इलाकों में तालाब और पोखर का रख-रखाव कर इन्हें स्वच्छ और सुन्दर बनाने के जतन किया जाते रहे. नियमित अंतराल पर इनके तल पर जमी गाद को साफ किया जाता जिससे भूमिगत जल के स्त्रोत बने रहें और इन तालाबों में जमा पानी स्वच्छ व निर्मल रहे. बारिश के पानी को छोटे व बड़े तालाबों में एकत्र करने की परिपाटी प्रचलन में थी. ब्रिटिश काल में तालाबों व सरोवरों की हालत पर ध्यान नहीं दिया गया. न तो नये तालाब बने और न ही पुराने जल स्त्रोत की जर्ज़र होती दशा को सुधारने का प्रयास हुआ. इनको बनाए बचाये रखने की पहल स्थानीय जनता की ओर से ही हुई.

नियोजित विकास के दौर में नलकूप, कुएं और तालाब जैसी लघु परियोजनाओं की अनदेखी की गई. साथ ही जल प्रबंधन व जल के सम्यक उपयोग के बारे में न तो कोई नीति बनी और न ही कोई विशिष्ट कार्यक्रम बना. सरकारें किसी की भी रही हों नेतृत्व का जल संसाधनों के बारे में अज्ञान ही बना रहा.

जल सम्पदा के मामले में देश संपन्न रहा है. यहां साल भर में औसत वर्षा 1,170 मि मी के आसपास रही है जिसमें सबसे अधिक 11,400 मि मी वर्षा देश के उत्तरी कोने चेरापूंजी में होती है. वहीं सबसे कम 210 मि मी,राजस्थान के पश्चिमी किनारे जैसलमेर में.जल की समृद्ध विरासत होने के बाद भी देश में जल संकट बढ़ता ही जा रहा है. सालाना होने वाली बारिश के पानी के एक चौथाई भाग का भी देश में सदुपयोग नहीं हो पा रहा है. अब जलवायु परिवर्तन के आसन्न संकटों के खतरे भी बढ़ गए हैं.

अंतरसंरचना को विकसित करने के दौर में जल के पारम्परिक स्त्रोत बेरहमी से नष्ट हो रहे हैं. इसका मुख्य कारक वन विनाश है. खेती की जमीन,उसका रकबा संकुचित होता जा रहा है. भूमि की धारक क्षमता की उपेक्षा कर जो निर्माण किये गए हैं उसने भूक्षरण किया है. लगातार होती बारिश से मिट्टी की ऊपरी परत का विनिष्टीकरण हुआ है जिसका असर खेती किसानी पर पड़ा है. तालाब पुरते चले जा रहे हैं तो झील, पोखर और नदी जैसे सार्वजनिक जलाशयों का लगातार बेरोकटोक दुरूपयोग हुआ है. नलकूपों का इस्तेमाल भूमिगत जल के अनियंत्रित उपयोग से अलग संकट खड़े कर रहा है. देश की भूमिगत जल सम्पदा भले ही दस -पंद्रह गुना ज्यादा हो पर हर साल करीब दो लाख नये नलकूप खुदने से कई इलाकों में भूमिगत जल के स्तर को समेटती चली जा रही है. जल संकट अब मात्र गर्मियों तक ही सीमित नहीं इसकी उपलब्धता की सीमाएं साल दर साल तनाव, दबाव व कसाव की स्थितियाँ पैदा कर रही है.

राष्ट्रीय कृषि आयोग के बी एस नाग और जी एन कठपालिया ने देश के जलचक्र का खाका खींचते हुए देश के जलभण्डार व इसके उपयोग पर शोध की. उन्होंने बताया कि 1974 में 40 करोड़ मीटर पानी बहा लेकिन उपयोग में केवल 3.80 करोड़ हेक्टेयर मीटर अर्थात 9.5% ही आया. सन 2025 तक यह 10.5 करोड़ हेक्टेयर मीटर अर्थात 26% उपयोग में आने की संभावना रखता है.

अभी भूमिगत जल का उपयोग तेजी से बढ़ रहा है. इससे नदी से पानी का रिसाव बढ़ेगा. सिंचाई के बढ़ने से भी खेतों का पानी जमीन में ज्यादा जज्ब होने लगेगा. इस प्रकार अन्तः स्त्राव की बढ़ती मात्रा से भूमिगत भंडार में जुड़ने वाले पानी का प्रमाण भी बढ़ कर लगभग 8.5 करोड़ हेक्टेयर मीटर हो जायेगा. मिट्टी के संरक्षण हेतु किये गए उपायों से, हरियाली बढ़ने और मेढ़ बंदी से जमीन में ज्यादा पानी जायेगा. इन सबके साथ भूमिगत जल से सीधे उपयोग के लिए ज्यादा पानी मिल सकेगा साथ ही स्थानीय जल स्त्रोत भी अधिक समृद्ध रहेंगे.

आजादी के अमृत महोत्सव को मनाते राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस मनाते प्रधानमंत्री ने अमृत सरोवर योजना की घोषणा की. इसके अंतर्गत राज्य के हर जनपद में 75 सरोवर बनाए जाने का लक्ष्य नियत किया गया. अमृत सरोवर योजना 2022 का उद्देश्य काफी व्यापक रखा गया जिससे भूमिगत जलस्तर तो नियमित रहेगा ही साथ ही इसका संग्रहण जानवरों के पीने के पानी की जरूरतों को पूरा करने के साथ खेती बाड़ी, साग सब्जी को भी पर्याप्त पानी मिलने की संकल्पना जगाता है

नीति आयोग की रिपोर्ट 2018 के अनुसार समग्र जल सूचकांक की दशा देखते हुए देश के 21 महानगरों में आसन्न जल संकट से लोग जूझ रहे हैं. भारी मात्रा में भूमिगत जल के विदोहन से जल संकट और अधिक गहरा गया है. इसके साथ ही वन सम्पदा के अतिशय दोहन व वर्षा के अनियमित होने के कारक भी इसके पीछे हैं. जलवायु संकट से मौसम का बदलाव स्पष्ट दिखाई देने लगा है.

ग्रामीण परिवेश में जल के प्राकृतिक स्त्रोत व तालाब परंपरागत रूप से काफी महत्वपूर्ण माने जाते रहे. इनकी देखरेख में होने वाली चूक, तालाबों पर अवैध कब्जे, दुर्बल संरक्षण तंत्र जैसे कई अन्य कारकों से भूमिगत जल का ह्रास होता रहा. जल संकट का प्रत्यक्ष प्रभाव देश की खाद्य सुरक्षा के साथ पर्यावरण अनुकूलन पर पड़ता है तो कई इलाकों में जल के लिए आपसी संघर्ष के साथ फ़ौजदारी की भी नौबत आ जाती है.

उत्तराखंड में 1271 ऐसे स्थल नियत किये गए जिनमें अमृत सरोवर बनने हैं. इनमें 959 नये तालाब और 320 तालाबों का जीर्णोद्धार किया जाना तय हुआ. प्रदेश में ग्राम विकास विभाग को 926, वन विभाग को 312 तथा शहरी विकास विभाग को 41 अमृत सरोवर का लक्ष्य दिया गया. इसके लिए जिन स्थानों का चयन किया जाना है उनमें एक हेक्टेयर भूमि पर सरोवर का निर्माण कर 10 क्यूबिक मीटर का संग्रहण जरुरी समझा गया. अमृत सरोवर के निर्माण व रखरखाव से जहां तालाबों में जमा पानी सिंचाई के साथ पशुपालन व मछली पालन में उपयोगी होगा वहीं जलीय जीवों के लिए भी इनसे पानी की समस्या नहीं रहेगी. मैदानी इलाकों के ऐसे तालाबों में मखाने, कमलनाल व अन्य जल में उगने वाले खाद्य पदार्थ उगाए जा सकेंगे.
(Uttarakhand Chal-khal & Amrit Sarovar)

पहाड़ में भू जल के रिचार्ज होने का बेहतर स्त्रोत चाल-खाल व तालाब व कुंड हैं. पहाड़ों में अब हर साल जंगलों में लगने वाली आग समस्या बनती जा रही है जिसे बुझाने के लिए समीप में पानी की कमी इसे दावानल बनाते देर नहीं लगाती. पहाड़ में ऐसे कई सरोवर बनने से वनअग्नि के नियंत्रण में भी मदद मिलेगी. उत्तराखंड की विषम भौगोलिक परिस्थितियों को देखते हुए एक हेक्टेयर भूमि से कम जमीन पर भी सरोवर बनाने की छूट दी गई. यह तय किया गया कि पहले चरण में 15 अगस्त 2022 तक 545 अमृत सरोवर बनाए जायेंगे. उत्तराखंड में सभी 13 जनपदों के लिए तय 975 के सापेक्ष 1271 सरोवर के लिए स्थल का चयन किया जा चुका है. इन कुल सरोवरों में 959 नये बनेंगे जबकि 312 का जीर्णोद्धार किया जाना है. उत्तराखंड में 7 जिले ऐसे हैं जिनमें हर जिले में 100 से ज्यादा सरोवर बनाए जाने हैं तो बाकी जिलों में इनकी संख्या इससे कम है.

अमृत सरोवर की संकल्पना उत्तर प्रदेश के रामपुर जिले में स्थित गांव पटवई में पहला सरोवर तैयार होने पर प्रधानमंत्री के मन की बात सम्बोधन से शुरू हुई. जबकि हरियाणा सरकार सोनीपत जिले के नाहरा गांव में 1 मई 2022 से अमृत सरोवर बनाने की शुरुआत कर दी गई थी.

केंद्र सरकार की पहल पर राज्य सरकार द्वारा इस योजना को कार्य रूप देना है. अमृत सरोवर के निर्माण और पुनरुद्धार में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) की खास भूमिका है. सोच तो यह है कि जो सरोवर बनें, इसके समीप हरियाली से भरा ऐसा दृश्य हो कि इनकी ओर पर्यटक भी आकृष्ट हो सकें. धीरे धीरे उन्हें छायादार वृक्षों, बेलों, विविध प्रजातियों की पुष्प प्रजातियों से सुसज्जित किया जा सके व रात्रि काल हेतु मन भावन प्रकाश व्यवस्था की जाये.

ग्रामीण विकास, उपभोक्ता खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्रालय भारत सरकार की रपट के अनुसार ग्रामीण विकास मंत्रालय के साथ पांच अन्य मंत्रालयों व राज्य सरकारों के सरकारों के सहयोग से देश भर में पचास हजार से अधिक अमृत सरोवरों के निर्माण की योजना है .इसे कार्यरूप देने के लिए हर विकास खंड में जिलाधिकारी बैठक बुलाएंगे और विकास खंड स्तर पर ग्राम प्रधानों की उपस्थिति में सरोवर के निर्माण की हर संभावना पर विचार विमर्श किया जायेगा. स्थानीय जन अपने इलाके की हर बारीकी को जानते हैं इसलिए उनके सहयोग और आपसी तालमेल से बने अमृत सरोवर मात्र तालाब ही नहीं बल्कि पानी की रिचार्जिंग का भी अमूल्य स्त्रोत बन सकते हैं .ग्राम के हर स्तर से सभी के सहयोग और सलाह लेते हुए जिलाधिकारी द्वारा जल संचय की इस योजना को गाँव के विकास का मापदंड बनाने की पहल करनी है.
(Uttarakhand Chal-khal & Amrit Sarovar)

अमृत सरोवर के निर्माण के सुअवसर पर स्वाधीनता सेनानियों एवं उनके परिवारजनों के साथ ही अंचल विशेष के पद्म पुरस्कार सम्मानित जनों के द्वारा इनकी शुरुआत कराने का विचार रखा गया. तय हुआ कि इन तालाबों का नामकरण देश के अमर शहीदों के नाम पर रखा जाए. आदर्श तालाब के रूप में विकसित कर इन्हें भावी पीढ़ी के लिए प्रेरणास्पद बनाया जाना है. आगे अमृत सरोवर अपने भव्य स्वरुप में जल क्रीड़ा स्थली व स्थानीय पर्यटन स्थल का रूप लें व समुचित रखरखाव से इन्हें दर्शनीय बनाया जाए. इसके लिए जरुरी माना गया कि जो मानक और दिशानिर्देश इनके निर्माण के लिए नियत हैं उनका परिपालन गुणवत्ता बनाए रखने के लिए आवश्यक रूप से किया जाए. सबसे बड़ी सावधानी तो यह है कि इन सरोवरों में गांव के कोई भी अपशिष्ट पदार्थ व सीवरेज न डाले जाएं.

उत्तराखंड में औसत रूप से हर साल करीब 1500 मिमी बर्षा होती है जिसकी तीन चौथाई बारिश अमूमन मानसून से होती है. कई ऐसे इलाके भी हैं जहां किसी भी ऋतु में बादल बरस पड़ते हैं और मौसम को अनुकूल बना जाते हैं. पर प्रायः होने वाली बारिश का पानी यूँ ही गाड़ गधेरों में बह जाता है. अब यदि इस जल को प्रयास कर तालाबों में समेटा जाये तो व्यर्थ बहते पानी का उपयोग संभव है. उत्तराखंड में मनरेगा से 424 सरोवर बनेंगे वहीं 559 सरोवर का निर्माण अन्य विभागों के तालमेल से होगा. जैसे कि 250 सरोवर वन विभाग बनाएगा तो 21 तालाब ‘हर खेत को पानी की योजना’ से बनेंगे. ऐसे ही 15 तालाबों का निर्माण पंद्रहवें वित्त आयोग से प्राप्त धनराशि से होना है तो 2 तालाब का निर्माण सिंचाई विभाग की जिम्मेदारी में बनेंगे.

स्थल चयन के उपरांत नये तालाबों की खुदाई कर व पुराने तालाबों का जीर्णोद्धार कर इनको बड़ा और अधिक गहरा बनाया जाना है. इन तालाबों में जल की निकासी करने के लिए नालियाँ या गूलें बनाई जाएंगी जिससे बरसात के मौसम में इनमें पर्याप्त जल की आपूर्ति संभव हो सके. साथ ही तालाबों के संरक्षण के लिए ग्रामीणों को जागरूक भी किया जाना है. अमृत सरोवर की योजना इन्हें एक विशिष्ट स्वरुप देने की है जिसके अधीन तालाबों का सौंदर्य बना रहे, उनकी उचित बेरिकेटिंग हो जिससे वह एक आकर्षण भरे स्थल के रूप में उभरें .

सन 2020 में मनरेगा के अधीन चाल खाल, नौले धारे को पुर्न जीवित करने की योजना बनी जिसके अंतर्गत पांच हजार से ज्यादा जल स्त्रोतों को रेखांकित किया गया जिनका जीर्णोद्धार किया जाना तय किया गया और साथ ही दो साल की अवधि तक इनकी देखरेख भी की जानी तय हुई.इसमें खुदान व निर्माण की मजदूरी का भुगतान मनरेगा से हुआ. इस योजना के लिए स्थानीय स्तर पर एक समिति बनेगी जो हर स्त्रोत के पुनर्जीवन की आरंभिक रूपरेखा तैयार करेगी. जल के जो उपलब्ध स्रोत हैं उनकी खोज परख के बाद हर तीन माह में यह भी देखा जायेगा कि इसके जल प्रवाह की दशा क्या है.
(Uttarakhand Chal-khal & Amrit Sarovar)

 जल स्त्रोत के पुर्नजीवन हेतु चाल खाल बनाने से ले कर उसके समीपवर्ती स्थलों में पौधरोपण तक कई सावधानियों पर ध्यान देना जरुरी है. पहाड़ों में तो अक्सर यह देखा गया है कि पारम्परिक नौले व अन्य जल स्त्रोत में सुधार करते हुए ऐसी सामग्री का प्रयोग कर दिया गया जिससे भूमि से रिसने वाले पानी के स्त्रोत ही बंद हो गए. स्टेट ऑफ़ इनवायरनमेंट की रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में लगभग 12,000 प्राकृतिक स्त्रोत सूख चुके हैं.

उत्तराखंड में जल उपयोग की परंपरा को देखें तो पता चलता है कि समृद्ध वन सम्पदा वाले इलाकों में एक गांव या एक तोक में चार पांच चाल खाल अक्सर हुआ करतीं थीं. साथ ही ग्रामीणों द्वारा जंगलों में भी बारिश के पानी को संचित रखने के लिए गड्ढे बनाए जाते थे जो पशु पक्षियों के पीने के पानी की जरुरत को पूरा करने के साथ गांव से जुड़े अवलम्बन क्षेत्र में पर्याप्त नमी व फर्न तथा सिमार जैसी जल जनित वनस्पतियों की प्रचुरता को बनाए रखते थे. अभी भी उत्तराखंड में हजार से ज्यादा छोटी बड़ी नदियाँ व गाड़ गधेरे हैं, वर्षा भी सामान्यतः पर्याप्त होती है पर इसके बावजूद कई इलाके ऐसे हैं जहां पीने के पानी की कमी बनी रहती है. पानी की लाइनें सुदूर तक डाली गईं हैं और तमाम योजनाओं के साथ स्वज़ल व हर घर तक नल पहुंचे हैं पर उनके स्त्रोत में पानी का अभाव है. पानी के बंटवारे में भी तमाम विसँगतियाँ हैं.

जंगलों में पाबंदी और घर घर नल की सुविधा के चलते परंपरागत स्त्रोत के रखरखाव पर ध्यान नहीं दिया गया. चाल खाल में मिट्टी व दूषित अपशिष्ट का जमाव व भराव होने से ये सूखते चले गए. चाल खाल के सिमट जाने से भू जल के लगातार रिचार्ज होने की प्रक्रिया भी थम गई. चाल खाल का प्राकृतिक स्त्रोतों से सीधा जुड़ाव था जिनके अवरुद्ध होने से बड़ी संख्या में नौले व धारे भी निष्क्रिय हो गए. उत्तराखंड के वह इलाके जहां प्राकृतिक जल स्त्रोत बचे हैं उसका कारण यह है कि उनके रिचार्ज होने के भूमिगत सोत किसी छेड़छाड़ से बचे रहे हैं. वर्षा जल का संरक्षण न होने का असर पहाड़ की ऐसी छोटी नदियों व गाड़ों पर बहुत अधिक पड़ा जो हिमनद से नहीं निकलतीं, इनके या तो कम जल वाले प्राकृतिक स्त्रोत हैं और या फिर ये बरसाती नदियाँ हैं जैसे देहरादून की रिस्पना जो बहुत तेजी से विकसित होते शहर में लुप्तप्राय ही हो गई है.नदी सूखने के कगार पर आने के साथ कचड़े का ढेर बन गई. कई बड़े नाले और नहरें भी सारा कूड़ा करकट लादे इसी नियति पर पहुँच गई हैं. इन्हें रिचार्ज करने या इनमें पानी का बहाव बनाए रखने के लिए चैक डैम, नाला बंध, गधेरा बंध जैसे उपाय तो छोड़िये जल प्रवाह को नियमित रखने के लिए जो नालियाँ बनी थीं उनपर भी अतिक्रमण कर पानी के रास्ते ही बंद कर दिए. यही दशा छोटे तालाबों व चाल खाल की हुई जो सब धीरे धीरे अतिक्रमण का शिकार हुए. इसका बड़ा खामियाज़ा तब भुगतना पड़ा जब अति वृष्टि के बाद पूरा शहर पूरी बसासत आवागमन की सड़कें घर मकान दुकान जल मग्न हो जाने लगा.

यह मात्र उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में शासन की नाक के नीचे रिस्पना व बिंदाल नदी का ही उदाहरण नहीं है. बंगलौर जैसे शहर का अब यही हाल हुआ है जहां सरकार किसी की भी रही हो अतिक्रमण दिन दूने रात चौगुने की रफ़्तार से बढ़ा. यही हाल उन तमाम शहरों से निकलती लघु सरिताओं का भी हुआ है. जैसे-जैसे खेती की जमीन पर प्लाट काट उनमें भवन निर्माण हुआ तो बेतरतीब खुदान से असंख्य भूमिगत प्राकृतिक जल स्त्रोत गड़बड़ा गए. पहाड़ी इलाकों में खेती की जमीन सिमटने के साथ वहां की मिट्टी भी अवशिष्ट पदार्थों के घालमेल से कठोर होती गई. उसके पानी सोखने की क्षमता कम होती गई. मिट्टी की नमी लगातार कम होते जाने के सिलसिले ने भूमिगत जल के रिचार्ज होने के पूरे तंत्र को नष्ट कर दिया.

विकास नीतियों में लिफ्ट से पानी खींचने की योजनाओं पर ज्यादा ध्यान दिया गया व छोटे व सदानीरा रहने वाले स्त्रोत उपेक्षित ही रहे. यही हाल नहर व गूलों का है जिनमें पानी की कमी अक्सर बनी रहती है. उत्तराखंड में यदि होने वाली वर्षा का पांच प्रतिशत भी संरक्षित कर लिया जाये तो निजी जरूरतों के साथ सिंचाई व अन्य उपक्रमों के लिए पानी की कमी न पड़े.
(Uttarakhand Chal-khal & Amrit Sarovar)

नीति आयोग की रपट में बताया गया है कि देश में अभी पांच मिलियन स्प्रिंग हैं जिनमें से 3 मिलियन स्प्रिंग यहां की हिमालय श्रृंखला में विद्यमान हैं. अकेले उत्तराखंड में करीब ढाई लाख नौले धारे प्रपात चाल खाल तालाब झील विद्यमान रहे जिनको सही सलामत रखना जरुरी है क्योंकि नियोजित विकास की कारगुजारियों से इनमें से दो तिहाई विनिष्ट होने की कगार में हैं. उत्तराखंड में बारह लाख पैंतालीस हजार से अधिक ऐसे घर हैं जिनमें पीने के पानी की सुविधा वाले नल नहीं. जहां पानी के नल हैं वहां पानी नदी, झील, तालाब व प्राकृतिक स्रोतों पर आधारित पेयजल योजनाओं से आता है.

नदियों से जल योजना संचालित करने में जो सबसे बड़ी समस्या है वह इनमें पसरती गाद की है जो पानी की लाइनों और पंप में भरती है. नदियों से लिफ्ट कर चढ़ाये पानी से जलपूर्ति के विकल्प के रूप में अब भूजल की निर्भरता भी कमोबेश सिमटते जा रही है. कारण है भूजल के स्तर में होने वाला संकुचन. कुल में एक चौथाई परंपरागत स्त्रोत अभी जीवित हैं अकेले अल्मोड़ा जिले में ही 80% से अधिक नौले सूख चुके हैं.यहाँ कोसी नदी में 1992 की तुलना में पानी सोलह गुना कम रह गया है. गंगा, यमुना, अलकनंदा, मन्दाकिनी, पिंडर , काली सरयू में भी पानी का प्रवाह कम पड़ गया है. अब गंगा नदी को ही हिमनद से लगभग एक चौथाई पानी मिल पाता है क्योंकि इसके हिमस्त्रोत हर साल खिसक रहे हैं.मुख्य हिमनदों में मिलम 16.70 मीटर, पिंडारी 23.47 मीटर, गंगोत्री 18 से 22 मीटर, तियारा बेक 3.7 मीटर टोकरानी हिमनद 18 मीटर व दूनागिरी हिमनद 3 मीटर खिसक गया है.

पहाड़ों में सदानीरा स्त्रोत होने के बावजूद जल संकट का असर शहर, कस्बे और ग्राम में अनुभव किया जा रहा है सुदूर ग्रामों में तो 85% पीने के पानी की आपूर्ति प्राकृतिक स्त्रोतों से होती है. अभी भी उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों के 10 लाख परिवारों के घर तक पानी का नल नहीं पहुंचा है. इनमें लगभग 3.8 लाख परिवार तो ऊधम सिंह नगर, हरिद्वार और देहरादून जनपद के हैं. वहीं पहाड़ के सोलह हजार राजस्व ग्रामों में आठ हजार आठ सौ ग्रामों में पीने के पानी की समस्या बनी हुई है जिनमें अल्मोड़ा, टिहरी, पिथौरागढ़ और चमोली मुख्य हैं. अपने परिवार और जानवरों के लिए पहाड़ की दो तिहाई महिलाओं को पानी भरने के लिए रोज रहे -बचे प्राकृतिक जल स्त्रोतों तक जाना पड़ता है.

राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान रुड़की ने हिमालयी राज्यों में स्थित परंपरागत जल स्त्रोतों के पुनरुद्धार हेतु कई योजनाएं संचालित कीं. ऐसी विविध योजनाओं में छह कदम प्रणाली विकसित की. इसके मुख्य कदम में पहला जल स्त्रोतों का मानचित्रिकरण है. दूसरे स्तर पर निगरानी और जल प्रवाह के आंकड़े एकत्र करना है. तीसरी बात संवेदनशील स्त्रोतों यथा झरनों का चिन्हित करना व चौथा जल गहन इलाके की दशा को ध्यान में रखना है. पांचवे स्तर पर मौसम परिवर्तन से उपजी समस्याओं का हल निकलना है अंतिम रूप से क्षमता निर्माण हेतु पैरा हाइड्रोलाजिस्ट तैयार करना है. जल स्त्रोतों के समन्वित रखरखाव की इस क्रियाविधि में जलस्त्रोतों के स्वरुप, उनकी टोपो ग्राफी, जल उपयोग के प्रकार, जल की गुणवत्ता, इससे लाभान्वित भूमि उपयोग, जलस्त्रोत पर आश्रित बसासत व पशुसंख्या तथा जलस्त्रोत की वर्तमान दशा से सम्बंधित जानकारियां व विवरण ज्ञात करना संभव बनेगा.

पौड़ी में मझगांव के प्रगतिशील किसान सुधीर सुंदरियाल ने अपने साथियों एवम ग्रामीण जनों के सहयोग से ऐसी जगहों पर चालखाल बनाए जहां पहाड़ की ढाल से बह पानी एकत्रित हुआ दिखता था. इसके साथ ही समीप की अन्य पहाड़ियों से भी वर्षा जल एकत्रित करने के लिए नालियाँ बनाई. साथ ही देवराज खाल गांव, पाथर गांव व यमकेश्वर ब्लॉक में भी चाल खाल बनाए जो बरसात में पानी से लबालब रहे. वहीं उनके गांव में ग्राम सभा की ओर से चाल खाल बनाए गए जो सफल नहीं रहे. पता चला कि जिन स्थानों पर इनके लिए खुदान किया गया वह जल के उचित ठहराव के लिए उपयुक्त न था. पौड़ी जनपद में यमकेश्वर ब्लॉक, गुमखाल, लेंसडाउन , जय हरिखाल और पौड़ी नगर में पानी की समस्या पहले से ही बनी हुई है. पौड़ी जिले के इलाके को तो, “रैनशैडो डिस्ट्रिक्ट”कहा जाता है जहां औसत वर्षा बहुत कम होती रही है.
(Uttarakhand Chal-khal & Amrit Sarovar)

जलाशय व तालाबों की सफाई से इनमें पानी का ठहराव उत्साहजनक परिणाम भी दिखाता है जैसे की दो वर्ष पहले गूलरभोज जलाशय से गाद निकाल कर एन एच 74 में डाली गई थी जिसके बाद इस जलाशय में पानी लबालब भरा दिखा. इस जलाशय में अब वाटर स्पोर्ट की पहल की गई है. देहरादून स्थित हेस्को संस्था ने बार्क, मुंबई के सहयोग से छह जल स्त्रोतों को पुर्न जीवित करने में सफलता पाई है.नैनीताल जिले में वर्षाजल संग्रहित करने में पर्यावरण प्रेमी नयाल ने भी अपनी स्थानीय टीम के साथ कई निष्क्रिय चाल खाल व तालाबों में लगातार काम कर इलाके की हरियाली फिर लौटा दी है. मनरेगा से कोसी पुर्नजीवन योजना के अधीन व्यापक स्तर पर पोंधारोपण करते हुए बंद पड़े जल के प्राकृतिक स्त्रोत चल निकले. इसके बेहतर परिणाम देखते हुए अन्य जलस्त्रोतों के लिए भी योजना तैयार की गई. कोसी में सुधार कार्यों में स्थानीय निवासियों का तालमेल रहने से बेहतर नतीजे मिले. पौड़ी की ल्वाली झील व टिहरी में सोंग नदी पर बननेवाले तट बंध में सुधार होने में सरकारी सहायता के साथ गांव वालों का सहयोग व तालमेल रहा.

द्वाराहाट में भी जल समस्या काफी अधिक थी. नौले, धारे व गधेरे सूखने की दशा दिखाई देने लगी थी खेत बंजर पड़ रहे थे और जंगलो में फैलती अग्नि ने गावों से पलायन की समस्या गंभीर कर दी थी . तब द्वाराहाट ब्लॉक में इडा गांव से रा-थामण के बीच भीमला थान मंदिर के पास की पहाड़ियों सहित अलग-अलग स्थानों में नौला फाउंडेशन के सहयोग से चाल खाल व खँटियों की साफ सफाई करवाई गई जिसका प्रतिफल यह दिखा कि ये सब बारिश होते लबालब भर गए.ऐसे ही नौलों को रिचार्ज करने के लिए चैक डैम भी बनाना जरूरी पाया गया जिसकी आड़ में जल संग्रहण होता रहे.

तालाब बनाने में देशी रियासतें और राजाओं ने आधुनिक राज से कहीं बेहतर काम किया था. सौ साल पहले पचास प्रतिशत से ज्यादा रकबा तालाबों से सिंचित होता था, पर आज वह दस प्रतिशत से कम है. अंग्रेजी राज के साथ-साथ हमारे समाज के सभी अंगों प्रचलनों और परंपरागत तरीकों की अवहेलना होती रही ऐसे में तालाब कैसे बचे रहते.

आजादी मिलने के बाद नये तालाब खुदवाने की बात तो दूर, पुराने तालाबों की देखभाल करने में बहुत उपेक्षा बरती गई. अनिल अग्रवाल व सुनीता नारायण (सम्पादित, “हमारा पर्यावरण”) ऐतिहासिक पुनरावलोकन कर स्पष्ट करते हैं कि बंगाल के अकाल की छानबीन करने के लिए 1944 में गठित ‘फेमिन इंक्वायरी कमीशन की महत्वपूर्ण सिफारिश थी कि ढेर तालाब खुदवाए जाएं और उनकी देखरेख को लाजमी बनाने के लिए कानून बनाए जाएं.

1943 में आरम्भ,”अधिक अन्न उपजाओ”अभियान तथा पहली योजना में भी टूटे तालाबों के रखरखाव व मरम्मत पर जोर दिया गया था. इसके लिए तकावी कर्ज व अनुदान की व्यवस्था की गई थी.1960 तक पूरे देश के कुल सिंचित क्षेत्र में तालाबों से सिंचित जमीन का हिस्सा बीस प्रतिशत तक बढ़ा भी, पर 1980 में यह गिर कर दस प्रतिशत रह गया नियोजित विकास में दूसरी योजना से ही नेतृत्व व योजनाकारों पर बड़ी परियोजनाओं पर विनियोग करने का महालनोबीस मॉडल हावी रहा. जल जैसे प्रचुर साधन का बेहतर उपयोग करने की कोई स्पष्ट नीति नहीं बनी और न ही इसके उपयोग की परंपरागत तकनीक पर कोई ध्यान दिया गया. अब डीज़ल और पेट्रोल से चलने वाले पंप मिलने लगे, नलकूपों का आकर्षण बढ़ा.

समाजवादी माने गए दौर में जमींदारी प्रथा के खत्म होने के बाद से तालाबों की देखरेख, पानी का बंटवारा और तालाबों की मरम्मत आदि की जिम्मेदारी सार्वजानिक प्रशासन संस्थाओं पर आ गई. सबसे खर्चीली व्यवस्था के इन ढांचों के पास धन की कमी थी और परंपरा से चली आ रही पानी के प्रबंधन की बेहद सस्ती विधियों को प्राथमिकता देने की पहल में उदासीनता का भाव जिसने धीरे-धीरे सिंचाई वाले तालाबों का आधार ही खत्म कर दिया.
(Uttarakhand Chal-khal & Amrit Sarovar)

परंपरा से तालाब ग्राम पंचायत के (सरकारी ग्राम पंचायत के नहीं )साधन थे और उनकी मरम्मत व देखरेख में हाथ बटाना गांव का हर परिवार अपना स्वधर्म मानता था. जहां ये परंपराएं बची रहीं वहां तालाबों की हालत और उससे जुड़ी कार्य व्यापार की पद्धतियाँ अपेक्षाकृत अच्छी बनी रहीं. खेती के कई विशेषज्ञ तालाबों से सिंचाई को आर्थिक दृष्टि से लाभदायक और अधिक उत्पादक होने की पैरवी करते रहे और पुराने तालाबों को सुरक्षित रखने और नये तालाब खुदवाने के काम के लिए एक “भारतीय तालाब प्राधिकरण”स्थापित करने की अनुशंसा भी की गई. इस बात पर जोर दिया गया कि पानी के बेहतर प्रबंध के लिए तालाब ज्यादा उपयोगी व महत्वपूर्ण है. ये बाढ़ का खतरा कम करने में सहायक हैं. इनसे कुंवों में पानी का स्तर सही बना रहता है और ज्यादा बारिश के दिनों में अतिरिक्त पानी की निकासी की भी सुविधा रहती है.

पानी के संग्रह का सबसे ज्यादा सक्षम और किफायती साधन तालाब है. जहां भी औसत 50 से. मी से ज्यादा बारिश होती है वहां सब जगह पानी को रोक कर उसका पूरा -पूरा उपयोग किया जा सकता है.अमृत सरोवर की सोच पानी जमा करने की हमारी क्षमता और सम्भावना से जुड़ी है. हर मामले में आज से पिछड़े माने गए दौर में ऐसी व्यवस्थाऐं थीं भी. यहाँ तक कि बहुत ही कम वर्षा वाले थार रेगिस्तान में हर गांव में, लगभग हर घर में बारिश के पानी को एकत्रित करने के लिए बहुत ही कारगर उपाय काम में लाये जाते रहे. वहां हर आकार की ऐसी कुंडियां और कुंड हैं जो घर की छत, आँगन और सार्वजनिक जमीन पर बरसे पानी की हर बूंद को एकत्र कर साल भर के लिए जमा कर लेते हैं.

तालाब में एकत्रित जल के सामान वितरण के लिए पानी की समितियों के बनने के उदाहरण भी हैं जिसके पीछे यह सोच रही कि,”पानी जमीन के हिसाब से नहीं, लोगों के हिसाब से मिलना चाहिए. हर परिवार को, चाहे वह बेजमीन ही क्यों न हो, पानी पर समान हक मिलना चाहिए “. पानी की यह समितियां पनढाल की रक्षा के साथ तालाब के सौंदर्यीकरण की जिम्मेदारी संभालें .तालाबों के प्रबंध में पहले ऐसी व्यवस्था होने के कई दृष्टान्त मिलते हैं यहाँ तक कि लद्दाख जैसे सुदूर सीमांत प्रदेश में हर घर के हर खेत को पानी पहुँचाने का प्रबंध परंपरागत संगठनों के माध्यम से होता रहा.

अभी भी कई स्वयंसेवी संगठनों द्वारा समस्याग्रस्त जगहों में छोटे छोटे बंध बनाने, खेत, बावड़ी और छोटे तालाब बांध कर वर्षा जल का सदुपयोग करने की पहल की है. अब अमृत सरोवर की योजना पूरे देश के लिए पानी को जमा करने, उसका प्रबंध और वितरण करने की व्यापक सम्भावना को प्रदर्शित करता है. गांव-गांव में कस्बों में शहरों में बने अनेक तालाब सिंचाई और पेयजल योजनाओं के इस दौर में उपेक्षा की गाद से पट चले हैं ऐसे में वर्षों से मजबूती से टिकी रही चाल-खाल-तालाब की विगलित दशा को सुधारने और भरपूर पानी से समृद्ध देश में जल के अधिकतम उपयोग की पहल के सूत्र के साथ सामूहिक प्रयत्न और प्रयास की भावना से धरती की हरियाली बनाये बचाए रखने की संकल्पना है अमृत सरोवर.
(Uttarakhand Chal-khal & Amrit Sarovar)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

पहाड़ में भू-कानून के पेंच

Support Kafal Tree

.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

कुमाउँनी बोलने, लिखने, सीखने और समझने वालों के लिए उपयोगी किताब

1980 के दशक में पिथौरागढ़ महाविद्यालय के जूलॉजी विभाग में प्रवक्ता रहे पूरन चंद्र जोशी.…

4 days ago

कार्तिक स्वामी मंदिर: धार्मिक और प्राकृतिक सौंदर्य का आध्यात्मिक संगम

कार्तिक स्वामी मंदिर उत्तराखंड राज्य में स्थित है और यह एक प्रमुख हिंदू धार्मिक स्थल…

6 days ago

‘पत्थर और पानी’ एक यात्री की बचपन की ओर यात्रा

‘जोहार में भारत के आखिरी गांव मिलम ने निकट आकर मुझे पहले यह अहसास दिया…

1 week ago

पहाड़ में बसंत और एक सर्वहारा पेड़ की कथा व्यथा

वनस्पति जगत के वर्गीकरण में बॉहीन भाइयों (गास्पर्ड और जोहान्न बॉहीन) के उल्लेखनीय योगदान को…

1 week ago

पर्यावरण का नाश करके दिया पृथ्वी बचाने का संदेश

पृथ्वी दिवस पर विशेष सरकारी महकमा पर्यावरण और पृथ्वी बचाने के संदेश देने के लिए…

2 weeks ago

‘भिटौली’ छापरी से ऑनलाइन तक

पहाड़ों खासकर कुमाऊं में चैत्र माह यानी नववर्ष के पहले महिने बहिन बेटी को भिटौली…

2 weeks ago