जंगल सुलग रहे हैं. पहाड़ों में जाड़े के मौसम में भी जंगल में आग दिख रही है. बेमौसम बारिश हो रही है. महानगरों में आवागमन ठप होने की उद्योगों की चिमनियो से निकलते धुवें के साथ वाहनों का प्रदूषण खेती के अवशिष्ट खेतों में फूक देने से देश की राजधानी को सांस लेने से वंचित करने लगा है.खबरें सुर्खियों में हैं. असहनीय गर्मी की लहर से लोग परेशान हैं तो हाड़ कंपाती ठंड से भी. जलवायु परिवर्तन से देश में न केवल तापमान बढ़ रहा है बल्कि मौसम का चक्र भी बदलाव के संकेत दे रहा है. अचानक तेजी से हुई वर्षा से न केवल पहाड़ बल्कि मैदानी व रेतीले के साथ समुद्र तटीय प्रदेश भी विषम दुविधाओं से घिर जा रहे हैं. पिछले दशक में, 1960 से 1990 के दशक की तुलना में ठंडे दिन चालीस प्रतिशत तक घट गए हैं. बाढ़ की समस्या भी विकराल हुई है. जून 2023 से भारी वृष्टि, बर्फ पिघलने व ग्लेशियर गलने से पहाड़ी राज्यों हिमाचल व उत्तराखंड में भू स्खलन की घटनाओं ने जन जीवन को लम्बे समय तक प्रभावित किया. विकास के नाम पर स्वीकृत अंतरसंरचना और पर्यटन की सुविधा के बसेरे इस कोप के शिकार बने.
(COP 28 Report Hindi)
“ग्लोबल स्टॉक टेक” या जलवायु प्रगति का “रिपोर्ट कार्ड” भी आम आदमियों के सामने घट रही घटनाओं के प्रसंग का समर्थन करता समूची दुनिया को चेतावनी दे रहा कि हम अपनी जलवायु महत्वाकांक्षाओं से अभी बहुत पीछे हैं. अब एक मात्र विकल्प स्वच्छ ऊर्जा की ओर ले जाने वाला “संक्रमण” है. इसके लिए जरुरी है कि ऊर्जा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ऐसी नीति पर चला जाए जो प्रकृति व उसके साहचर्य में रहते लोगों के जीवन निर्वाह हेतु आजीविका पर ध्यान केंद्रित करे. इसके साथ ही जलवायु के बदलने से कमजोर समुदायों के सामने आ रही समस्याओं का “अनुकूलन” हो. कम विकसित व विकासशील देशों में निर्धनता का दुश्चक्र व बाजार की अपूर्णतायें विद्यमान रहती हैं.जलवायु परिवर्तन से वह और ज्यादा गहरा गईं हैं जिनका निराकरण केवल तब संभव होगा जब सुविचारित नीतियों के साथ उन्हें “जलवायु वित्त” सुलभता से उपलब्ध हो.
सबसे बड़ा पक्ष है ‘समावेशिता’ जुटाना, यह सुनिश्चित करते हुए कि जलवायु के परिवर्तन से आर्थिक व सामाजिक ढांचे पर पड़े असमायोजन के निर्णय व इस पर हो रही चर्चा के साथ समस्या को सुलझाने वाले समाधान कैसे लागू हों? यहां सभी प्रभाव डालने वाले कारक समावेशी प्रकृति के हैं. समस्या को सुलझाने का दृष्टिकोण स्वदेशी परिवेश व स्थानीय समुदायों के सहयोग से ही संभव होगा. कॉप 28 में निर्धन देशों की समस्याओं पर विचार करने की बेहतर पहल तो हुई है. इससे पहले देशों को रियायती दर पर जलवायु पूंजी प्रदान करने व जलवायु परिवर्तन के लिए जीवाश्म ईंधन से सम्बंधित कार्यवाही व वार्ता प्राथमिकता में रहती थी.
वर्ष 2023 का “संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन “30 नवम्बर से 12 दिसम्बर 2023 तक दुबई में संपन्न हुआ इसके अंतर्गत :
(1) विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों का सम्मेलन 28वीं बैठक (COP28) के साथ
(2) पेरिस समझौते के पक्षकारों की बैठक के रूप में कार्यरत ओपी की पांचवी बैठक (CMA5) तथा
(3)सीओपी की 18 वीं बैठक क्योटो प्रोटोकॉल (CMP18)के पक्षकारों की बैठक के रूप में कार्यरत रहेगी.
(4)कार्यान्वयन के लिए सहायक निकाय की 59 वीं बैठक (SBI 59) संपन्न होगी व
(5)वैज्ञानिक व तकनीकी सलाह के लिए सहायक निकाय की 59 वीं बैठक (SBSTA 59) की प्रस्तावना.
उद्योग एवम उन्नत प्रौद्योगिकी के समावेश तथा जलवायु परिवर्तन के प्रभाव की समीक्षा संयुक्त अरब अमीरात के सुल्तान अहमद अल जाबेर की अध्यक्षता में संपन्न हुई. उन्हें कॉप 28 के मनोनीत अध्यक्ष के रूप में चुना गया.
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कॉप 28 के अनौपचारिक परामर्श में ऐसे वैश्विक परिवर्तनों के लगातार बिगड़ने व हीन स्तर पर दिखाने पर विचार हुआ जो उत्सर्जन व जलवायु के परिवर्तन से उपजे थे. इसके अंतर्गत वर्ष 2030 से पहले होने वाले ऊर्जा परिवर्तनों की लगातार निगरानी करना और उत्सर्जन में कटौती करने के आवश्यक न्यूनतम प्रयासों को बनाए रखना शामिल है.
जलवायु परिवर्तन से उपजे दुष्प्रभावों को कम करने के लिए जलवायु वित्त की व्यवस्था तो करनी ही होगी जिसके बिना कम विकसित देश कोई भी सुधार कर पाने में असमर्थ व असहज ही बने रहेंगे. यहां सबसे उल्लेखनीय पक्ष यह रहा कि व्यापक ढांचे के साथ देशों में स्थानीय स्तर पर महसूस की जा रही परेशानियों की प्रकृति, वहां की बसासत में रह रहे लोगों के जीवन स्तर व आजीविका को जलवायु कार्यवाही के केंद्र में रखा गया.
संयुक्त राष्ट्र की जलवायु बैठक कॉप -28 में विश्व स्तर पर जलवायु के अनुकूलन से सम्बंधित विचार विमर्श हुए. 10 दिसंबर 2023 को इसका पहला प्रारूप सामने आया व 11 दिसंबर को ग्लोबल स्टॉकटेक (जीएसटी) का निष्कर्ष सामने रखा गया. कॉप -28 प्रेसीडेंसी जलवायु वार्ता में उन आधारभूत प्रदेय परियोजनाएँ को सम्मिलित किया गया जिनका अनुसरण करते हुए ऐसा ढांचा निर्मित किया जाना संभव बन पाए जिससे वर्ष 2030 तक विभिन्न देश नियत “सात निर्धारित लक्ष्यों” को प्राप्त करने में सफल बन पाएं.
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सम्मेलन में “त्रिस्तरीय” दृष्टिकोण को अपनाया गया जिसमें समस्या से संबंधित बातचीत के परिणाम, कार्य का एजेंडा व नई कार्यवाही का आह्वान सम्मिलित रहा.
वर्ष 2012 के उपरांत खाड़ी देश में आयोजित किये जा रहे कॉप सम्मलेन में सहभागिता कर रहे देशों ने मुख्य रूप से इस पक्ष पर विचार विमर्श किया कि विश्व में जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को क्रमिक रूप से चलन से बाहर करने हेतु अब कौन सी समय अवधि तय की जाये.
जलवायु कार्यवाही पर शमन, अनुकूलन और इसके लिए वांछित वित्तीय पूंजी की जरूरतों की स्थितियों की प्रगति के मूल्यांकन और संपन्न क्रियाओं की निगरानी के लिए “पांच वर्षीय समीक्षा” ग्लोबल स्टॉक टेक में पेरिस जलवायु समझौते के अधीन संपन्न की जाती रहीं हैं. कॉप -28 में विकसित व कम विकसित देशों के बीच मतभेद को पाटने के लिए पेरिस समझौते के कथन “जलवायु न्याय केवल कुछ के लिए है ” में “कुछ के लिए” शब्द हटा लिया गया है. यह बदलाव इसलिए महत्वपूर्ण माना जा रहा है क्योंकि “कुछ के लिए “से तात्पर्य है कि जलवायु न्याय का कोई सार्वजनिक मूल्य नहीं है.
विभिन्न तरह से उत्पन्न हो रहे उत्सर्जन में कमी करने के साथ साथ शमन हेतु जिस प्रक्रिया को अपनाने की वकालत की गई उसमें अनुकूलन के वैश्विक लक्ष्य (जीजीए) मुख्य रूप से सात पक्षोँ से संबंधित रहे. इनमें खाद्य पदार्थ व जल की सुरक्षा,लचीली जलवायु, अंतर संरचना, स्वास्थ्य, इकोप्रणालियां, निर्धनता का निवारण एवम सांस्कृतिक थात सम्मिलित की गईं हैं. इसके लिए उन समूहों का सशक्तिकरण किया जाना होगा जो अपने घर, बसा सत, आजीविका व भावी जीवन के लिए प्रकृति के सानिध्य में रहते हैं और प्रकृति की देखभाल करते हैं. यहां “प्रकृति सकारात्मक परियोजनाओं” का चुनाव व उनके लिए जरुरी नीतियों को तय करने के साथ जारी प्रथाओं में प्रतिबद्धता के साथ निवेश किया जाना होगा.
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यह पक्ष भी प्रमुखता से सामने रखा गया कि “पुनर्योजी खाद्य प्रणाली” संक्रमण में तेजी लाई जाए अर्थात जलवायु व जैव विविधता लक्ष्यों को पूरा करने के लिए खाद्य प्रणालियों को एक केंद्रीय समाधान के रूप में बदला जाये. वैश्विक खाद्य प्रणाली जलवायु परिवर्तन व जैव विविधता में हानि का मुख्य चालक है जो ‘ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन का लगभग एक तिहाई, ‘वनों की कटाई’ का नब्बे प्रतिशत व ‘पानी के उपयोग’ का सत्तर प्रतिशत भाग समाहित करता है. ऐसे नुकसान से खाद्य उत्पादन की प्रक्रिया जटिल बन रही है. खेतिहरों की अजीविका खतरे में है. तेजी से बढ़ती आबादी की जीवन निर्वाह आवश्यकताएं पूरी होना कठिन हो रहा है. इसके लिए जरुरी है कि “खाद्य परिदृष्यों का मानचित्रिकरण “कर स्थानीय परिस्थितियों के प्रति “संवेदनशील प्रकृति आधारित समाधान व उपायों” पर फोकस किया जाये.
‘पुनर्योजी उत्पादन’ को बढ़ावा देने का पक्ष महत्वपूर्ण है. जिसका मतलब है, ” विश्व की जैव विविधता का प्रबंधन और प्राकृतिक पर्यावरण के साथ सद्भाव” में भोजन बढ़ाना. इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए समावेशी व टिकाऊ खाद्य प्रणाली पर आश्रित रहते हुए ‘परंपरागत ज्ञान व स्केलेबल प्रकृति आधारित हस्तक्षेप’ को श्रृंखला बद्ध करना होगा. स्थानीय समुदायों के साथ जुड़ते हुए परंपरागत खाद्य प्रणालियों को सबल व सशक्त बनाना होगा. इसकी जरुरत इस कारण है कि अस्थिर खेती के कारण लगातार भूमि क्षरण हुआ है. चराई की भूमि का ह्रास हुआ है और जंगल सिमट रहे हैं. जंगलों में पेड़ों के कटने, रसायनों वाली खाद का प्रयोग बढ़ने व समुचित निगरानी के अभाव में फ्लोरा -फोना के विनाश की घटनायें बढ़ती ही गईं हैं. वनों की क्षति स्थानीय निवासियो व पशु पालकों को गंभीर रूप से प्रभावित करती है जो परंपरागत रूप से जीवन निर्वाह हेतु वनों व अन्य प्राकृतिक पारिस्थितिक तंन्त्रों का उपयोग करते रहे हैं.इन समुदायों का जीवन निर्वाह स्तर कमजोर होने के साथ आवश्यक सेवाओं का अभाव तथा विकास के साथ व्यवसायिक उद्देश्य हेतु इनके अवलम्बन क्षेत्र अर्थात घास, जंगल, झाड़ियों व पेड़ों का कटान स्थिति को और गंभीर बना देता रहा है. इसलिए भोजन, जल व वन्य जीवन से जुड़ी चुनौतियों से निबटे बिना ग्रीन हाउस उत्सर्जन की समस्या को सुलझाया जाना सम्भव नहीं. कॉप 28 इसके लिए, “आपूर्ति श्रृंखला प्रोत्साहनों को स्थानांतरित करने, बाजार पहुँच के विस्तार व सार्वजनिक नीति की गुणवत्ता में वृद्धि” के प्रस्ताव रखता है.
सम्मलेन में कहा गया कि अनुकूलन के वैश्विक लक्ष्य की रुपरेखा को अपना कर विश्व के 195 से अधिक देश अपने यहां महसूस किये जा रहे जलवायु खतरों के जोखिम और असुरक्षा का आकलन करने में सक्षम होंगे. इस आधार पर वह इन खतरों से बचने की योजनाएं वर्ष 2025 तक बना सकते हैं. बड़े स्तर पर महसूस किये जा रहे खतरों की चेतावनी देने वाली प्रणालियों को स्थापित करने तथा वर्ष 2027 तक जोखिम कम करने वाली जलवायु सूचना सेवाओं का निष्पादन करना भी आवश्यक है. ऐसी प्राविधि, तरीके एवम विधियों को लागू करना अनुकूलन की उन क्रियाओं पर निर्भर करेगा जिस पर सब सहमत हों व इसे समस्त देशों द्वारा स्वीकार किया जाए. ऐसी तकनीक को लागू करने में निश्चित ही काफी अधिक पूंजी का विनियोग करना पड़ेगा.
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संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन, “कॉप” का आयोजन हर वर्ष होता है जिसमें विश्व जलवायु संकट के समाधान के तरीकों पर विचार विमर्श कर सहमति के वह नियामक पक्ष सामने रखे जाते हैं जिन पर कार्यवाही संभव हो. उदाहरण के लिए वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखना ऐसा मुख्य बिंदु है जिसके उपाय अमल में लाए जाने हैं जिससे प्रकृति का संरक्षण व पुनर्स्थापना द्वारा उत्सर्जन में एक तिहाई कमी संभव है. प्रकृति आधारित समाधानों के लिए जलवायु वित्त पोषण की धनराशि में दस प्रतिशत की वृद्धि की जानी है. कॉप -28में सभी देशों ने यह स्वीकार किया कि जलवायु वित्त की राशि को बढ़ाया जाना जरुरी है.
विकासशील देशों पर अधिक वित्तीय भार डाल कर व उधार की निर्भरता बढ़ा कर समस्या कर समाधान करना व्यवहारिक नहीं है. इसके लिए रियायती दरों पर पूंजी जुटाने के साथ अनुदान देकर योजना का क्रियान्वयन किया जाना तय हो.दूसरी महत्वपूर्ण बात यह रही कि सैद्धांतिक रूप से कमजोर समुदायों को जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए आवश्यक कार्यवाही होनी है जो इस समस्या का “गुणात्मक पक्ष “है. इन दोनों बिंदुओं की रणनीति प्रस्तावित कर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के अनुकूल होने से ही सुधार संभव होगा जिससे “नेट शून्य ” हासिल होगा. अभी वर्ष 2025 तक राष्ट्रीय जलवायु योजना के लिए देशों की तैयारियों का अवलोकन व पहले की क्रियाओं से हो रहे हरित परिवर्तन में तेजी बनाए रखना तय हुआ. मुख्य बात लक्ष्य हासिल करने के अवसर को स्फूर्ति युक्त रखना है जिससे पेरिस समझौते के लक्ष्य प्राप्त हो सकें.
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कॉप की नई रपट में तापमान बढ़ने से उन भू भागों पर पड़ने वाले आर्थिक प्रभावों का अनुमान लगाया गया है जो विश्व में सर्वाधिक गर्म क्षेत्र हैं. चेतावनी के संकेत हैं कि खाड़ी के क्षेत्र जीवन यापन के अनुकूल परिवेश संजो न पाने के जोखिम से गुजर सकते हैं. वैश्विक स्तर पर किये जाने वाले सटीक प्रयासों से यदि ग्लोबल वार्मिंग में वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रोकने में सफलता मिले तब भी विश्व के सकल राष्ट्रीय उत्पाद में वर्ष 2050 तक 8.2 प्रतिशत का ह्रास तो दिखेगा ही. इसलिए जीवाष्म ईंधन के प्रयोग के न्याय संगत चरणबद्ध उन्मूलन केतु सार्थक कार्यवाही करनी जरुरी है. रिपोर्ट में ऐसे संकेत स्पष्ट रूप से प्रकट हुए हैं कि खाड़ी के देशों में शेष विश्व के सापेक्ष प्रदूषण उत्पन्न करने वाले कारक अधिक प्रभाव शील रहे हैं. उदाहरण के लिए कॉप -28 का आयोजन यूएई में हो रहा है,जहाँ का नागरिक औसत रूप से हर वर्ष 25.8 टन कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन करता है वहीं कांगो का औसत नागरिक 0.04 टन उत्सर्जन करता है जो विभिन्न देशों में उत्सर्जन की विषमता का उदाहरण है. जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को क्रमिक रूप से कम करते जाने का दायित्व सबसे पहले संपन्न देशों का है. इन्होने अपने हिस्से के कोटे से अधिक कार्बन बजट का प्रयोग किया है. “1.5बजट” में ही जीवाश्म ईंधन का प्रयोग वांछित है जो कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन की मात्रा का वह अनुमान है जो ग्लोबल वार्मिंग को निश्चित तापमान-सीमा से नीचे रखते हुए उत्सर्जित जा सकती है.
जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित समस्याओं के निराकरण को भारत ने अपनी राष्ट्रीय योजना के एक भाग में हमेशा की तरह चल रही व्यवसायिक क्रियाओं में अनुकूलन व समायोजन के तरीकों के रूप में शामिल किया है जिसमें वर्ष 2030 तक 57 लाख करोड़ ₹ का व्यय अनुमानित है. देश में जलवायु के प्रति संवेदनशील क्रियाओं को मुख्यतः घरेलू स्त्रोतों से ही वित्त प्रदान किया जाता रहा है. विकसित देशों के द्वारा इन समस्याओं के निराकरण के लिए बहुत सीमित पूंजी की प्राप्ति संभव हो पा रही है.सम्मलेन को संबोधित करते हुए राष्ट्रमंडल के महासचिव पेट्रिशिया स्कॉटलैंड ने भारत के प्रयासों की सराहना करते हुए यह मत व्यक्त किया कि भारत का नेतृत्व जलवायु संकट का समाधान निकालेगा. इस दिशा में भारत द्वारा किये जा रहे नवोन्मेष के रुझान सराहनीय हैं कई देशों के लिए अनुकरणीय भी. यहां यह ध्यान रखना भी आवश्यक है कि जीवाश्म ईंधन के विकल्प के रूप में नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग करना अभी संभव नहीं है. इसके लिए अभी निरंतरता युक्त प्रयास किये जाने आवश्यक हैं.
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दूसरी तरफ कार्बन कैप्चर तथा स्टोरेज (सीसीएस) को जलवायु परिवर्तन के समाधान हेतु उचित नहीं माना जा रहा है. इसका कारण कार्बन कैप्चर तकनीक का बहुत अधिक महंगा होना है. विकल्प के रूप में जीवाश्म ईंधन से हरित ऊर्जा का रूपान्तरण करना कम खर्चीला होने के साथ आसान माना जाता है. यह ध्यान रखना है कि कोयले की तुलना में तेल और गैस का अधिक प्रयोग ऐसे देशों पर अधिक आर्थिक दबाव डालेगा जो अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं के लिए कोयले का अधिक उपभोग कर रहे हैं.कोयले के प्रयोग पर रोक को ले कर इस पर कठोर नियंत्रण लागू करने की नीति उन देशों के लिए युक्ति संगत नहीं है जिनकी योजनाएं इसी संसाधन पर आश्रित हैं जिसमें चीन व भारत भी शामिल है. यद्यपि भारत हरित ऊर्जा रूपांतरण की दिशा में निरंतर प्रयास कर रहा है लेकिन विकास की अनेक परियोजनाओं में कच्चे माल व ईंधन हेतु कोयले पर निर्भरता एकबारगी ही समाप्त करना संभव नहीं है.
कॉप प्रेसीडेंसी जलवायु वार्ता के मसविदे में विकासशील देशों को विकसित देशों से मिलने वाली वित्तीय गतिशीलता को पर्याप्त किये जाने पर सहमति दी गई जिससे यह देश इससे उत्पन्न समस्याओं से निपट सकें. परन्तु जो सहायता नियत है वह पर्याप्त नहीं. ऐसे में वर्ष 2025 तक विकसित देशो से यह अपेक्षा की गई है कि वह सामूहिक रूप से जलवायु वित्त के लिए दी जाने वाली राशि में दोगुनी वृद्धि करें जिससे जलवायु बदलाव से हो रही परेशानियों का शमन, समायोजन व अनुकूलन किया जाना संभव हो सके.
पेरिस समझौते के व्यापक स्वरूप में आर्टिकल 7 के अंतर्गत वैश्विक अनुकूलन लक्ष्य (जीजीए) के मसविदे को प्रस्तुत करने से पहले वैश्विक स्टॉकटेक (जीएसटी ) की वार्ता हुई जिसमें उन सभी मुद्दों, विचारणीय पक्ष व असहमतियों को अनौपचारिक रूप से बातचीत के लिए रखा गया. इसमें जीवाश्म ईंधन अर्थात प्राकृतिक रूप से प्राप्त तेल, गैस व कोयले पर व्यापक चर्चा व विचार विमर्श हुआ. इससे प्राप्त निष्कर्ष को अंतिम मसविदे में शामिल किया गया.
कॉप -28 के अध्यक्ष सुल्तान एल जाबेर ने सभी देशों से यह अनुरोध किया कि वह जीवाश्म ईंधन के विविध रूपों व इनकी परिभाषा से सम्बंधित मतैक्य बनाए रखें. कॉप -28 के आयोजन की मेजबानी सऊदी अरब तथा यूएई के द्वारा दुबई में की गई थी. जलवायु परिवर्तन से खाड़ी देशों में होने वाले भारी नुकसान की सम्भावना पर चिंता भी प्रकट की गई. यह अनुमान लगाया गया कि यदि वर्ष 2100 तक ग्लोबल वार्मिंग तीन डिग्री सेल्सियस की रफ़्तार से बढ़ती है तो अकेले सऊदी अरब के सकल राष्ट्रीय उत्पाद को 69 प्रतिशत का ह्रास झेलना पड़ेगा. वहीं यूएई व सऊदी अरब में होने वाला ह्रास 72 प्रतिशत तक होगा.
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क्लाइमेट एक्शन अगेंस्ट डिसइनफॉरमेशन (सीएएडी) के द्वारा किये गए अध्ययन जलवायु परिवर्तन से उभर रही समस्याओं के समाधान हेतु समायोजन की प्रचलित विचारधारा से सहमत नहीं हैं. वैश्विक स्तर पर जीवाश्म ईंधन का उत्पादन करने देशों के साथ इसके उपभोग का समर्थन करने वाले समूह लगातार कार्बन कैप्चर एंड स्टोरेज (सीसीएस)को ही उचित मान रहे हैं. इसके लिए जीवाश्म ईंधन कंपनियों द्वारा विज्ञापन व जनसम्पर्क अभियान चलाये जा रहे हैं.
प्रदूषण करने वाले जीवाश्म ईंधन के दो रूपों कोयले व खनिज तेल के प्रयोग को ले कर भेदभाव पूर्ण नीति बनाने का प्रयास हो रहा है.ऐसे में जलवायु वार्ता का दस्तावेज कोयले के उपयोग की तुलना में तेल व गैस के प्रयोग में कमी करने अधिक ध्यान नहीं देता.नेट जीरो के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए तेल व गैस की उचित व्यवस्था व न्याय संगत रूप से तय उत्पादन व आपूर्ति को कम करने की बात कही गई है पर दस्तावेज के उनतीसवें अनुच्छेद में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में तीव्र व निरन्तर कमी करने पर बहुत जोर दिया गया है. गैस उत्सर्जन में कमी हेतु कोयले का प्रयोग तेजी से व क्रमिक रूप से कम करते जाना जरुरी समझा गया. कोयले से प्राप्त बिजली पर प्रतिबंध लगाने की वकालत की गई.इन सबके लिए सदी के मध्य तक नेट जीरो के लक्ष्य प्राप्त करने के लिए और स्पष्ट कार्यवाही करने के लिए रोड मैप क्या हो? इसका अभाव साफ दिखाई देता है.सबसे महत्वपूर्ण पक्ष तो यह है कि प्रदूषण से मुक्त रहने के प्रयास में ग्लोबल स्टॉकटेक की नीतियों को व्यवहारिक रूप से लागू करना ही पड़ेगा जिससे विश्व कम तनाव वाली जलवायु के स्वरूप में उभर सके.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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प्रो मृगेश पांडे जी का समानता व जलवायु न्याय के सांथ COP 28 लेख अत्यंत ही सरल भासा में इस सम्मेलन के दौरान हुई चर्चा की विवेचना करता है एक जटिल विषय पर हिन्दी में लेखन हेतु हार्दिक बधाई एवं आभार
डॉ गिरीश नेगी