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मेहमान बनने का शौक

उसे जान-पहचान में मेहमान बनने का बहुत शौक था. वह इतना भी जरूरी नहीं समझता था कि जान-पहचान बहुत गहरी हो, बस कामभर की ही सही. गाँव में इक्का-दुक्का बार आमने-सामने पड़े हों, देखा-देखी हुई हो, इतना ‘मोर दैन सफिसिएंट’ मान बैठता. इस शौक को पूरा करने के लिए वह किसी भी हद तक गुजर सकता था. उसे बस इतना भर पता हो कि देश के फलाने शहर में उसके गाँव का कोई बाशिंदा रहता है, फिर तो उसकी बन आती थी. ढूँढ-खोज करके वो येन-केन-प्रकारेण वहाँ पहुँच जाता था. चाहे इसके लिए उसे जान की बाजी क्यों न लगानी पड़े. अकस्मात् वहाँ पहुँचकर उसे मेहमाननवाजी के लिए मजबूर कर जाता. दूरी-स्थान की सीमाओं को उसने कभी नहीं माना. चाहे वो रिहाइश अंधेरी ईस्ट में पड़ती हो, चाहे वेस्ट में. इलाका, सेक्टर, लेन नंबर, हाउस नंबर जैसी इन्फॉर्मेशन्स उसके लिए कोई मायने नहीं रखती थीं. इन सबका उसे कुछ भी पता ना हो, बस महानगर का नाम भर पता हो, ‘नाममात्र’ के इसी सूत्र के सहारे वह पहचान वाले को सूँघ लेता था. गाँव के जितने भी प्रवासी थे, सब उसकी घ्राण शक्ति का लोहा मानते थे. उसका इस किस्म का अपनापा उसे देश के प्रमुख महानगरों में तो ले ही गया, यह भाईचारा उसे डिब्रूगढ़, सांगानेर, विजययवाड़ा, दमन जैसे अनगिनत शहरों तक खींच लाया.

सुबह-सुबह उसे देखकर प्रवासी भाई हैरत में पड़कर रह जाते. जिसकी परदेश में आप कल्पना तक नहीं कर सकते, वो अचानक ऐन दुआरे खड़ा हो जाए, तो अचरज होना स्वाभाविक है. फिर न कोई चिठ्ठी-पत्री न किसी तरह का कोई तार-संदेश. इन मायनों में वह सच्चा अतिथि बनने के काबिल था. विशुद्ध अतिथि, जिसके आगमन की तिथि मेजबान को बिल्कुल भी मालूम न हो. उसके ‘विजिट प्लान’ के बारे में हवा तक न लगे. जिसके बारे में उसने सपने में तक नहीं सोचा हो. वो किसी न किसी तरह भेद पा ही लेता था. लोग अपना एड्रेस चाहे कितना ही पोशीदा रखें, चाहे उसे परम गोपनीय ही बनाके रखें, वो आखिर ठिकाना ढूँढ निकालता था. इसमें एक खास बात यह देखी गई कि वो किसी को किसी भी तरह का कोई अवसर नहीं देता था, अक्सर छुट्टी के दिन ही धावा बोलता था. जब लोग अलसाएँ हों, आरामतलबी की मनोदशा मे हों, जिस दिन पूरा जीवन ‘स्लो मोशन’ में चल रहा हो, उसी दिन वो आकस्मिक हमला कर बैठता. उस दिन कोई बहाना भी तो नहीं चल सकता था. वो इतना घाघ था कि, दफ्तर का काम, फैक्ट्री का ओवरटाइम जैसी कोई भी दलील चलने लायक नहीं छोड़ता था. इस तरह से उसने मुल्क का चप्पा-चप्पा छान मारा. देश का कोना-कोना ढूँढ़ डाला. नौबत यहाँ तक जा पहुँची कि गाँव का कोई आदमी ‘लिटिल अंडमान’ मे क्यों नहीं है, को लेकर खासा नाराज रहने लगा. वो चाहे महानगर रहे हों या किसी भी कमांड एरिया के क्षेत्र, पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण हो या पूर्वोत्तर- पश्चिम भारत, उसने कोई भी जगह शेष नहीं रख छोड़ी थी. एक भुक्तभोगी का तो यहाँ तक दावा था कि “हम पुनर्वास के काम से ‘कार निकोबार’ में काम कर रहे थे. लंच टाइम में हम कैंटीन में थे और खाना खाकर बाहर आने की सोच ही रहे थे. तभी क्या देखते हैं कि ये हमें खोजते हुए सीधे हमारी ही टेबल की तरफ आ रहा था. मैं और लालाजी तो हैरान होकर रह गए. ये यहाँ आया कैसे. हम कभी एक-दूसरे का मुँह देखते, तो कभी इसका. बिना जानकारी के इतनी दूर ये कैसे चला आया. बात थी ही हैरानी की.” फिर भुक्तभोगी खीझते हुए बोला “इतना नंगा है कि, वहाँ भी पहुंच गया.” उसने एक मार्के की बात और साझा की, “निकोबार का मतलब, मलय भाषा में नग्न लोगों की भूमि होता है.”

इस संदर्भ में उसकी प्रतिभा अपने उच्चतम रूप में निखरकर सामने आई. जहाँ चाह, वहाँ राह. धीरे-धीरे लोगों मे यह विश्वास घर करने लगा कि, हो-न-हो दिशाज्ञान के मामले में इसके ऊपर जरूर कोई ईश्वरीय कृपा है. जो लोग वैज्ञानिक दृष्टि रखते थे, वे इस अंधविश्वास पर तो नहीं चल सकते थे, लेकिन वे भी यह मानने को मजबूर थे कि निश्चित तौर पर उसके शरीर में एक किस्म का पैदाइशी जीपीएस फिट था या फिर वो खुद एक तरह का चलता-फिरता जीपीएस था.

एक-दो दिन तो वह मेहमाननवाजी का पूरा लुत्फ उठाता था. आतिथ्य-सत्कार का कायदा भी यही कहता था. तीसरे ही दिन से मेजबान दवाब में आने लगता. मेहमान जो है, वो टलने का नाम ही न ले. फलस्वरूप मेजबान बचाव की मुद्रा में आ जाता. जैसे-तैसे चिंता और चाह में समय गुजारता, चिंता इस बात की रहती थी कि ये किसी तरह से टले और चाह इस बात की कि, जैसे भी हो टले. उन्हें अपनी बेखबरी पर गहरा अफसोस होता था. काश उस दिन कहीं निकल गए होते. काम पर चले गए होते, ओवरटाइम ही कर लेते, तो कम-से कम इससे तो पिंड छूटता. इस बात का उन्हें एक तरह से गहरा पछतावा सा रहता था. अपनी बेखबरी और नासमझी पर गहरा अफसोस होता, काश उस दिन हम कहीं निकल गया होते, तो कम-से-कम ये मुसीबत तो गले नहीं पड़ती.

वो बोलता नहीं था, जब भी बोलता हमेशा पैने तीर छोड़ता था. गाँव की चर्चा छेड़ देता. उत्तेजक-गरमागरम बहस खड़ी करना उसके लिए बायें हाथ का खेल था. भूले-बिसरे मुद्दों को खोद-खोदकर सामने लाकर रख देता. उन मुद्दों को जिन्हें इनसान किसी तरह भुलावा दिए रहता है, लेकिन बंदा भूलने दे, तब न. यकायक मेजबान बचाव की मुद्रा में आ जाता. हालाँकि ये मुद्दे बस सिर्फ चर्चा करने के लिए ही रहते थे.

“जिसके बूते ये काम नहीं, उसका जीना ही नहीं, जन्म लेना भी बेकार है ” जुमले को तो वो रह-रहकर बोलता था. पराये घर में वो जरा भी तकल्लुफ नहीं करता था. अन्न-वस्त्र से लेकर, ओढ़ना- बिछौना तक, सब अपना समझकर इस्तेमाल करता . फलस्वरूप कुछ ही दिनों में घर-घर न रहकर, सराय का स्वरूप धारण कर लेता था. भरम मिटने में देर ही कितनी लगती है. मेजबान को अचानक बोध होने लगता था कि, जो हो रहा है, वह ठीक नहीं हो रहा है. ऐसे में घर को रणस्थली बनने में देर ही कितनी लगनी थी. उकसाने, बरगलाने, ब्रेनवाश करने में तो वह सिद्धहस्त था. मेजबान से कहता, “कितने दिन हो गए. अब तो मेरे लिए कोई काम ढूँढ लो. कब तक बैठे-बैठे रोटियाँ तोड़ता रहूँगा.”

आई बला को टालने के लिए कोशिश करने के सिवा कोई चारा भी नहीं बचता था. मेजबान अपना काम निपटाने के बाद जी-जान लगाकर, उसके लिए काम ढूँढते. घर पहुँचने पर वह ताने दिए बिना नहीं मानता था. ‘इतने सालों से इस शहर में रहते हुए हो गए. आखिर किया क्या तुमने.’ ‘बारह साल दिल्ली में रहे, भाड़ ही झोंकी’ किस्म के जुमले बोलता. बड़ी मुश्किल से एक-दो जगह दिखती, तो उन पर वह नुक्ताचीनी करता. दरअसल पसंद उसकी थोड़ा ऊँची रहती थी. नौकरी भी च्वॉइस की ही करना चाहता था. मुँह बनाकर सिरे से नकार देता, “ये काम और मैं करूँगा. तुमने सोच कैसे लिया यार. मेरा स्टैंडर्ड अब इतना तो मत गिराओ.” काम खोजने की उनकी कमजोर कोशिशों पर उन्हें रह-रहकर कोसता.

उसका रुख देखकर मेजबान सहमकर रह जाते. उसके लिए वाजिब जगह नहीं ढूँढ पाते, तो हाथ खड़े कर जाते. इस पर मेहमान रूठकर कहता, “अजीब आदमी हो यार. इतना सा काम नहीं कर पाया, तो तू अपनी ही जगह मुझे दे दे. तू तो यहाँ पुराना आदमी है. अपने लिए नई जगह खोज लेना तेरे लिए आसान है. मैं कहाँ-कहाँ फिरता रहूँगा.” कहाँ तो लोग, नए स्थान पर डरे-सहमे से रहते हैं. इधर इसकी अकड़ में कभी शिकन तक नहीं आई. तो नई जगहों पर सर्वाधिकार स्थापित कर लेने में उसे एक किस्म की महारत सी हासिल थी.

मूलतः वह ‘होटल लाइन’ का आदमी था. सो हरसमय ‘न्यू ओपनिंग’ पर निगाह गड़ाए रखता. जाहिर सी बात है कि, नए मालिक को अनुभव थोड़ा कम रहता था. इस कमी को दूर करने के लिए वह अनुभवी आदमी खोजता था. कथानायक से ज्यादा अनुभवी आदमी उसे कहाँ मिलता. इधर कथानायक खुर्राट किस्म का आदमी था. एक ही नजर में ताड़ लेता. अल्प समय में ही वह मालिक को विश्वास में ले लेता था. उसके लिए वह सपनों का सौदागर बन के आता था. उसे तरह-तरह के सब्जबाग दिखाता. मालिक को काबू करने की कला, उसे बखूबी आती थी. ओपनिंग अक्सर तीन सितारा से शुरू होती थी. वह उसे बातों-ही-बातों में पाँच से सात सितारा बना डालता. मायालोक का एक खाका सा खींच डालता. पूरे देश में उसकी होटल-चेन खींचकर रख देता. फिर क्या था, मालिक सातवें आसमान पर. सफलता की कहानी, किसे नहीं सुहाती. उसे झट से यकीन हो जाता. वह सुझाता भी तो एक-से-एक नायाब तरीके था. कैसे झंडा गाड़ा जाएगा. संक्षेप में, उसे सफलता के रोडमैप की झलक दिखला जाता. मालिक के मन में आशा और उत्साह की लहर एकसाथ दौड़ जाती. उसका मन हिलोरे मारने लगता था. मिलेनियर- बिलेनियर होना किसे अच्छा नहीं लगता. इस तरह से अल्प समय में ही वह मालिक को शीशे में उतार कर रख देता था.

वह वही उपाय बताता था, जिन्हें तुरंत अमल में लाने की जरूरत पड़ती हो. अक्सर ‘इंस्टेंट एक्शन’ लेने की सलाह देता. नित नए तरीके ईजाद करता. इस तरह से वह कम ही समय में मालिक के मन में बैठ जाता था. मालिक भीगकर रह जाता. उससे उसकी खूब पटरी बैठती. मालिक के मन-मंदिर में क्रमशः उसकी प्रसिद्धि आकार ले चुकी होती थी. वाग्वीर तो वो था ही. ‘किसी भी तरह की जरूरत पड़े, याद करना. जान हाजिर मिलेगी.’ किस्म के वचन जब-तब दे डालता.

मालिक के सामने एक शर्त हमेशा रखता था, “टीम तो मैं अपनी ही रखूँगा. तभी असाइनमेंट टाइम से पूरा हो पाएगा.” टीम लाने के नाम पर वह कुछ एडवांस लेकर गाँव आता और गाँव से कुछ निठल्ले-फुरसतियों को बटोरकर ले जाता. दरअसल उसे मैनेजरी का ख्वाब बहुत सुहाता था. उसकी मान्यता थी कि, जान-पहचान वालों के ऊपर मैनेजरी करने का आनंद ही कुछ और होता है. अपने ही लोगों के ऊपर काम किया जाए तो बाहर भी पूछ रहती है और घर में तो क्या कहने. अंदर-बाहर सब जान जाते हैं कि, वह असली मैनेजर है. अगर बाहर के लोगों के ऊपर कितने ही ऊँचे ओहदों पर काम करने का मौका क्यों न मिले, कौन जानता है. ये तो वैसे ही हुआ, जैसे जंगल में मोर नाचा किसने देखा. अपनों के बीच काम करने का दुनिया में अलग ही रूआब बना रहता है. तो वहाँ पहुँचते ही ‘डेट फिक्स’ करके इंटरव्यू की तारीख नियत कर दी जाती थी. मालिक के सामने वह टीम को एक-एक करके पेश करता. मालिक सवाल-जवाब करता, तो जवाब ‘मैनेजर’ ही देता था, “वैसे तो ये सब ऑलराउंडर हैं. पर ये हाउसकीपिंग का एक्सपोर्ट है और वो स्टीवर्ड वेटर. ये रेस्तरां कैप्टन. ये तंदूर एक्सपर्ट. वो वाला गेस्ट सर्विस एक्सपर्ट. ये फ्रंट डेस्क एग्जीक्यूटिव.”

इस तरह से वह बहुत आसानी से अपनी टीम का परिचय करा लेता. लेकिन जितनी आसानी से वह मालिक को बताता था, टीम मेंबरान के लिए वह काम उतना आसान नहीं रहता था. पहली बार अपनी दक्षताओं की जानकारी सुनकर उन्हें घोर आश्चर्य होता. क्योंकि ये तो वे खुद भी नहीं जानते थे कि, वे इस काम को जानते हैं, जिसके बारे मे वो इतने विश्वास से दावा कर रहा है. जिस दौरान उनकी भूमिकाएँ बताई जा रही होती थी, वे चौंक-चौंककर रह जाते. कथित तंदूर एक्सपर्ट सोचता, ‘मैंने तो तंदूर कभी देखा ही नहीं. ये पक्का जलवाकर ही मानेगा. हे भगवान अब क्या होगा. रात को भागने का मौका देखना पड़ेगा. जान है तो जहान है.’ जिसे इटालियन एक्सपर्ट बताकर महिमामंडित किया गया था, बेचारा सहमकर रह जाता, क्योंकि वह जानता था कि उसे हिंदुस्तानी खाना भी बमुश्किल बनाना आता था. कुल मिलाकर मालिक के सामने वो टीम में नई जान फूँक देता. इधर नई-नवेली टीम की जान सूखकर रह जाती. वे मन-ही-मन सोचकर रह जाते, ‘जितने बड़े-बड़े दावे ये कर रहा है, इसे निभाएँगे कैसे. सीख तो सकते हैं, लेकिन इतने कम समय में सीखना तो लगभग नामुमकिन है.’ लेकिन वह किसी को भागने का मौका नहीं देता था. एकतरफ उनसे आत्मीयता जताता, दूसरी ओर गार्जियनशिप भी.

“अब तुम मेरी जिम्मेदारी पे हो. यहाँ से हिल नहीं सकते. भागने की तो सपने में भी मत सोचना. खींचकर वापस लाऊँगा.” फिर पुचकारते हुए सहलाता, “अरे धीरे-धीरे सीख जाओगे. कोई पेट से सीखकर तो आता नहीं. मर्द होकर घबराते हो. आदमी हो कि पैजामा.” इस तरह से उसने कईयों को ब्रेक दिया. कई बेकारों को लॉन्च किया. कईयों को अपनी मातहती में काम करने का मौका दिया. नए प्रतिष्ठान का काम जमने में जितना समय लगता था, तब तक लड़के काम सीख ही लेते थे. बेचारे मरते क्या ना करते. रात-रात जागकर अपना-अपना काम सीखते. इस आपाधापी में कभी-कभी वे नए व्यंजन भी ईजाद कर डालते. इतिहास गवाह है कि, सामिषाहार में अधिकांश व्यंजन जरूरत के हिसाब से ईजाद हुए हैं. चंगेज खान की सेना तीर-कमान टाँगे, भुने हुए गोश्त को पोटली में बाँधे दिन-रात धावा बोलती थी. जंग हमेशा भरे पेट से जीती जाती हैं. कुबलई खान ने जब महान् गोबी मरुस्थल को पार किया, तो उसकी सेना नमकीन गोश्त के सहारे ही जिंदा रही और उन्होंने जंग भी जीती. मुगल बादशाह औरंगजेब ने नौ महीने की जंग के बाद गोलकुंडा का किला फतह किया. इस किले को जीतने में उन्हें जरूरत से ज्यादा समय लगा, तो सैनिकों ने इस अवधि में ‘शामी कबाब’ नामक व्यंजन ही ईजाद कर डाला. तो मैनेजर कभी शांत नहीं बैठता था. वह बड़े गौर से आगे की संभावनाओं पर विचार करता रहता था. फिर किसी दिन उसे अचानक से बोध होता कि, ‘अब बहुत हो लिया. यहाँ पड़े-पड़े मैं आखिर कर क्या रहा हूँ. एक ही जगह पर मुझे इतने हफ्ते हो गए. लानत है.’

एक स्थान पर उसने कभी ज्यादा वक्त नहीं बिताया. एक किस्म से कभी मोह नहीं पाला. रात में सब को सोता छोड़कर वह आगे की राह पकड़ लेता. टीम वहीं- की-वहीं रह जाती, कप्तान आगे निकल लेता. अगली सुबह सब कयास लगाते रह जाते. मालिक को तो लगता था कि, मानो अनर्थ हो गया हो. ऐसा कदम उठाने से पहले वह किसी को हवा भी नहीं लगने देता था, जो मालिक और टीम की नींद उड़ाने के लिए काफी होता था. तब तक तो बंदा अनजान शहरों में घूमने का लुत्फ उठा रहा होता था. वह कब किस शहर में हो, कोई ठिकाना नहीं. पर बावजूद इसके, सब प्रवासी जानते थे कि, वह कभी भी चला आएगा. रुझान सामने आते ही प्रवासियों की चिंता बढ़कर रह जाती. उसके पैरों के नीचे शायद कोई अदृश्य चक्र था, जिसके सहारे वो यहाँ-से-वहाँ और कहाँ-से-कहाँ पहुँच जाता था. देश के कोने-कोने में कुदरत के नजारे देखता. जाँचता-परखता कि, यहाँ उसके गाँव का कौन रहता है. फिर वहाँ धमक बैठता. वहीं से तहकीकात करता. सतत निगाह रखता, कहाँ ‘न्यू ओपनिंग’ हो रही है. धीरे-धीरे वह ‘ओपनिंग- एक्सपर्ट’ माने जाने लगा. इस तरह से उसने ‘एंटरप्रेन्योरशिप’ की दिशा में बहुत बड़ा काम किया. तालाबंदी का कभी हिसाब नहीं रखा. रखने से कोई विशेष लाभ भी नहीं था. बोलने की कला और झेलने की हिम्मत में तो वह बेजोड़ था. तेवर और अंदाज में बिल्कुल अनूठा. उसकी ‘टाइमिंग और टोन’ से कोई नहीं बच पाया. संक्षेप में वह ‘उलूक निर्माण’ में महारत हासिल करता चला गया.

 

ललित मोहन रयाल

उत्तराखण्ड सरकार की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत ललित मोहन रयाल का लेखन अपनी चुटीली भाषा और पैनी निगाह के लिए जाना जाता है. 2018 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘खड़कमाफी की स्मृतियों से’ को आलोचकों और पाठकों की खासी सराहना मिली. उनकी दो अन्य पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य हैं. काफल ट्री के नियमित सहयोगी.

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Girish Lohani

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