गायत्री आर्य

ज्यादातर औरतें आदमी की सेक्स और पेट की भूख शांत करने में ही जीवन खपा देती हैं

4G माँ के ख़त 6G बच्चे के नाम – 53 (Column by Gayatree Arya 53)
पिछली किस्त का लिंक: वहां प्रेग्नेंट औरतें बत्तख और प्रसव कर चुकी औरतें घायल सिपाही जैसे चलती थीं

मेरे बेटे! मैं नहीं जानती कि मां बनने की इच्छा प्राकृतिक है या सामाजिक? या औरतें कितनी बार स्वेच्छा से मां बनना चाहती हैं, लेकिन इतना तो दावे से कह सकती हूं कि हर बार औरत खुद चाहकर मां नहीं बनती, वह मां बना दी जाती है. प्रकृति ने इस बारे में तो औरतों के साथ अन्याय किया ही है, कि जब छोटी-छोटी बच्चियां शारीरिक और मानसिक रूप से मां बनने के लायक नहीं होती, तब भी वे प्राकृतिक रूप से मां बनने की स्थिति में पहुंच जाती हैं. जब वे मां नहीं बनना चाहती, तब भी साल-दर-साल उनकी अनिच्छा और चाहना न होने के बावजूद वे गर्भवती होती जाती हैं. ये एक किस्म की शारीरिक और मानसिक हिंसा है मेरे बच्चे, जो पति अपनी पत्नियों पर करते हैं, पर जिसके लिए उन्हें कभी सजा नहीं होती और न ही उन्हें कभी अहसास ही होता है.

ज्यादातर औरतें सिर्फ आदमी की सेक्स की भूख और पेट की भूख को शांत करने में ही अपना सारा जीवन खपा देती हैं. उन ‘कम्बख्तों’ को बिल्कुल मुफ्त में बाप बनने का सुख देती हैं. पला-पलाया एक बच्चा खानदान का नाम आगे बढ़ाने को सौंप देती हैं, इसके बावजूद भी ये ‘कम्बख्त’ (अपवाद हैं), अपनी घरवालियों की कद्र नहीं करते. मैं पूरे होश में ये अपशब्द लिख रही हूं रंग, क्योंकि मैं सच में औरतों की इस हालत से बेहद-बेहद दुखी होती हूं. तुम ऐसा कभी मत करना मेरे बच्चे, कभी भी नहीं. बहुत प्यार और सम्मान से रखना अपने जीवन साथी को और मां बनने का निर्णय अपनी जीवनसाथी को करने देना, न कि उस पर मातृत्व थोप देना.

मुझे उस मराठी स्त्री का चेहरा नहीं भूलता, जिसे तीसरी बार लड़की हुई थी और जिसके चेहरे पर ऐसी मुर्दनी छाई थी मानो उसे मरा बच्चा पैदा हुआ हो. अपनी नस्ल के प्रति इतनी नफरत. अपने नवजात शिशु की इतनी उपेक्षा. लेकिन मैं मान ही नहीं सकती कि यह किसी मां का स्वाभाविक रिएक्शन हो सकता है. (हालांकि कुछ स्त्रियां भी इसका अपवाद हो सकती हैं) लेकिन ज्यादातर बेटियों के प्रति मांओं की ऐसी उपेक्षा के लिए उसके पति, सास-ससुर, ससुराल और बाकि समाज से मिलने वाली उपेक्षा और नफरत जिम्मेदार है. बेटे के प्रति अंधी चाह ने पता नहीं कितनी बेटियों का हक मारा है, उनके हिस्से का प्यार छीना है. घने और बेहद काले बालों वाली, बड़ी-बड़ी आंखों वाली अपनी बेटी के प्रति उस मां के मन मुझे कोई ममता नहीं दिख रही थी रंग, सिर्फ एक बेबसी, एक तड़प, एक लाचारी.

शायद वो बच्ची यदि मर भी जाती, तो भी न तो वह मां, न उसका बाप और न  तमाम रिश्तेदार मातम मानते. सोचो जरा, तीसरी बेटी पैदा करने के कारण तीन दिन तक उस मां से कोई मिलने भी नहीं आया था. कैसे खुश होती वो भला. ऐसे होता हैं यहां बेटियों और उनकी मांओ का स्वागत मेरे बच्चे और डॉक्टर था कि उसे जोर-जोर से डांटने में लगा था, “मर जाएगी तू, क्यों किया तीसरा बच्चा? जान नहीं है शरीर में पर बच्चा जरूर पैदा करेगी. पिछली बार भी मना किया था न तुझे. समझ नहीं आता क्या?  अच्छा बेटा चाहिए होगा, कहां है तेरा पति?”

उस मां से मिलने कोई नहीं आता था हॉस्पिटल में, क्योंकि उसने इस बार भी बेटी को जन्म दिया था. पर यदि तीसरा बेटा होता तो तब ऐसा नहीं होता. तब उसके दिमाग में कोई डर नहीं होता. बेटी पैदा करने का ताना सुनने का, तब वो मातृत्व में डूब चुकी होती. वो औरत मुझ लड़के कि मां को और दूसरे लड़के की मांओ को ऐसे देखती थी, ऐसे देखती थी, क्या ही कहूं कि कैसे हसरत से देखती थी बेटू? इतने कोसने दिये होंगे उसने मन ही मन भगवान को, कि एक ‘नर’ बीज उसकी कोख से पैदा क्यों नहीं हो गया? ऐसी क्या गलती थी भगवान उसने? वही नौ महीने की झेलने वाली गर्भावस्था, वही प्रसव का दर्द, वही जख्म, वही खून-खराबा, पर फिर भी वो मातृत्व का सुख नहीं ले पा रही थी मेरे बच्चे. सिर्फ इसलिए कि उसने बार-बार एक ‘मादा बीज’ को जन्म दिया! उफ्फ… ये कितना-कितना दर्दनाक है और शर्मनाक भी.

एक औरत छः महीने का मरा हुआ बच्चा लेकर भर्ती थी वहां. उसका दूसरा बच्चा था वो. कैसे रातों में सुबकती रहती थी वो. ऐसी सजा तो भगवान किसी को न दे. वह दैत्य डॉक्टर जबान का बहुत बुरा, लेकिन अपने काम में बेहद अच्छा था. एम.एच. में होने वाली किसी भी डिलीवरी के लिए वो डॉक्टर 24 घंटे उपलब्ध रहता था. शायद वो अपनी थकान को ही अपनी जबान से निकालता था.

मेरा जख्म पूरी तरह लगभग पांच महीने में भरा था बेटू! उन पांच महीनों तक बीटाडीन से जख्म धोते-धोते उसकी गंध मेरे नथुनों में बस गई थी. उन चार-पांच महीनों तक मुझे यकीन नहीं था, कि मैं फिर से पहले की तरह ठीक हो पाऊंगी. जब जख्म भरने लगा था तो उसमें से हमेशा कच्चे मांस की सी बदबू आती रहती थी, अक्सर मेरे गाऊन में से सड़े मांस की सी बदबू दिनभर आती रहती थी मुझे. उस बदबू के साथ जीना और ठीक होने की उम्मीद पालना कितना-कितना मुश्किल था.

शुक्र है कि दर्द का वो दौर खत्म हो गया है. मैं भी जिंदा हूं, स्वस्थ हूं. शुक्र है कि तुम भी स्वस्थ हो. कितना-कितना ज्यादा सुखद है कि तुम्हारे जैसा प्यारा, खूबियों से भरा बच्चा मेरी जिंदगी में है. तुम बेहद सब्र वाले बच्चे हो रंग, भूख लगने पर भी नहीं रोते. ओह मेरे मिठ्ठू, तुम कितने-कितने प्यारे हो. तुम फरिश्ते हो सच में. मेरे एंजिल, इस वक्त तुम मेरी बगल में लेटे हुए खेल रहे हो, अजीब-अजीब सी आवाजें निकाल रहे हो, मुझे छू रहे हो. ओह तुम्हारे स्पर्श. तुम इंद्रधनुष की तरह आए हो मेरे जीवन में. कितना ज्यादा प्यार करने लगी हूं मैं तुमसे, तुम्हारा एक आसूं मुझे तड़पा देता है और तुम्हारी हंसी, मुस्कुराहट ऐसे, जैसे सूखे पपड़ाए होठों को ठंडा पानी छू जाए. ओह मेरे बच्चे, तुम हमेशा हंसते रहना ऐसे ही.
4.50 पी.एम /29/3/2010

उत्तर प्रदेश के बागपत से ताल्लुक रखने वाली गायत्री आर्य की आधा दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में महिला मुद्दों पर लगातार लिखने वाली गायत्री साहित्य कला परिषद, दिल्ली द्वारा मोहन राकेश सम्मान से सम्मानित एवं हिंदी अकादमी, दिल्ली से कविता व कहानियों के लिए पुरस्कृत हैं.

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Sudhir Kumar

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  • बहुत ही अच्छा लेख लिखा है। महिलाओं के उस दर्द या भावना को जुबान दी जिसे वे बयां नहीं कर पाती थीं। एक बात कहना चाहूंगा कि अब दौर बदलता जा रहा है। अब महिलाएं शिक्षित हो रही हैं और उसने पुरुष थोड़ा समझदार। अब दोनों मिलकर फैमिली प्लानिंग कर रहे हैं। हालांकि ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी महिलाएं स्वतंत्र नहीं हैं।

  • इन परिस्थितियों को को औरत कई युगों से ढों रही है । कितने विचार और इच्छाएं मारकर एक औरत जीवन जिया जाता है ?

  • यथार्थ ।समाज की अधिकांश मन स्थिति का चित्रण किया है

  • बहुत ही अच्छा लेख लिखा है। महिलाओं का असहाय दर्द या भावना को जुबान दी जिसे वे बयां नहीं कर पाती थीं। एक बात कहना चाहूंगा कि अब दौर बदलता जा रहा है। अब महिलाएं शिक्षित हो रही हैं और उसने पुरुष थोड़ा समझदार। अब दोनों मिलकर फैमिली प्लानिंग कर रहे हैं। हालांकि ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी महिलाएं स्वतंत्र नहीं हैं। लेख ने दिल को झंझोर कर रख दिया है, आपके लेखों से बहुत से लोगो की आँखे खुल जायेगी कि महिलाओ की भी कुछ इच्छा होती है। उन पर थोपो मत जगत जन्ननी की इज्जत करे

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