भाई साहब विज्ञान विषय से उच्च शिक्षित हैं. मोबाइल, लैपटॉप, फ्रिज, कार, मोटरसाइकिल सबका भरपूर प्रयोग करते हैं, लेकिन विज्ञान से नाराज रहते हैं. उन्हें लगता है, जीवन में जो भी है, ईश्वर की वजह से है. ईश्वर ही सत्य है, बाकी सब मिथ्या है. मनुष्य को विज्ञान तक पहुंचाने वाला भी ईश्वर है. इसलिए जब भी कोई व्यक्ति विज्ञान की शान में कुछ कह देता तो भाई साहब नाराज हो जाते. उन्हें यह ईश्वर की अवमानना लगती और वे विज्ञान की तारीफ करने वाले पर पूरी शक्ति से हमला बोल देते. हमले में वे साम, दाम, दंड, भेद सबका प्रयोग करते. वे चाहते, सामने वाला किसी भी तरह बस चुप हो जाये. वे अपने विश्वास को किसी भी हाल में हारता हुआ नहीं देखना चाहते, इसलिए जब कोई पढ़ा-लिखा या तार्किक व्यक्ति उनके सामने होता तो वे उसे नास्तिक, कम्युनिस्ट, माओवादी और न जाने क्या-क्या कह देते.
भाई साहब की इस हालत के पीछे उनका बचपन था. उनकी परवरिश एक ऐसे घर में हुई जहां ईश्वर को प्रसन्न रखने के लिए आये दिन कई तरह के रीति-रिवाजों का पालन करना पड़ता था. पुरुषों को सिर के बालों के बीच चोटी और कंधे पर जनेऊ धारण करना होता था. बच्चों ने होश संभालते ही बड़ों को इन्हें पहनते हुए देखा था, इसलिए ये सबके लिए स्वाभाविक थे. इन पर सवाल-जवाब करने का किसी को ध्यान नहीं जाता था. बल्कि उत्सुकता रहती थी कि बड़े होने पर वे भी इन्हें धारण करेंगे. भाई साहब ने दूसरे शहरों में जाकर जब अलग तरह के लोगों को देखा, तब ध्यान अपनी चुटिया और जनेऊ पर गया. तब दिमाग में सवाल उठा, कि चुटिया दूसरे के सिरों पर क्यों नहीं है? यह क्यों जरूरी है? सिखों के सिरों पर पगड़ी तथा मुसलमानों की दाढ़ियाँ देखकर सवाल उठा कि ये लोग हर रोज एक जैसे रहकर कैसे जी लेते हैं. बीच-बीच में खुद को बदलते क्यों नहीं? फिर ध्यान अपने ऊपर गया, और ज्ञान प्राप्त हुआ कि जब मैं अपनी चुटिया और जनेऊ को नहीं बदल सकता तो वे कैसे बदल सकते हैं.
तो भाई साहब का बचपन एक ऐसे माहौल में बीता जहां सारा जोर चीजों को मानने पर था, जानने पर नहीं. छुआ-छूत है तो है. भेदभाव है तो है. है तो उसके कुछ कारण होंगे. उन पर बात करने की कोई जरूरत नहीं. हम और हमारे पुरखे महान थे, उन्होंने जो किया महान किया. जो नियम बनाये, सोच-समझकर बनाये. यहां प्रश्नों तथा जिज्ञासा की गुंजाइश नहीं थी. सभी चीजों के रेडीमेड उत्तर तैयार थे. आपकी तारीफ इसमें नहीं थी कि आप नये-नये प्रश्न करते, बल्कि इसमें थी कि आप कैसे प्रश्न करने वालों को अपने उत्तरों से चुप करा सकते हैं.
भाई साहब स्कूल गये तो एक बात साफ-साफ समझा दी गई कि पढ़ाई सिर्फ नौकरी प्राप्त करने के लिए है. कुछ जानने-सीखने के लिए नहीं. तुम्हें ज्ञान तो पहले ही हो चुका है कि इस सृष्टि का जो भी कार्य-कारण है, वह ईश्वर है. इसलिए जो भी पढ़ाया जाये उसे रट लो और कॉपियों पर या लोगों के ऊपर जहां उगलने को कहा जाये उगल दो. भाई साहब बखूबी स्कूल के प्रश्नोत्तरों को रट लेते और शिक्षकों के सामने उगल देते. इस खूबी के कारण वे होशियार समझे जाने लगे और सभी को उनका भविष्य उज्ज्वल लगने लगा.
फिर क्या था. भगवान का नाम लेकर कॉपियां भरते रहे और परीक्षाएं अच्छे नम्बरों से पास करते रहे. ईश्वर की कृपा से नौकरी भी लग गई. सुबह-शाम ईश्वर को धन्यवाद देते. हुक्मरान जो कहते उसे ईश्वर का आदेश समझकर करते जाते. लेकिन इसी दौरान नोट किया कि कुछ लोग अलग तरह से सोचते हैं. वे अब बच्चों के जन्म को ईश्वर की कृपा नहीं मानते. जहां पानी नहीं है, वहां पानी की लाईन लगाने की मांग करते. जहां सड़क नहीं होती, वहां सड़क की मांग करते. कभी शिक्षा, कभी स्वास्थ्य, कभी रोजगार की बातें करते. भाई साहब को ऐसे लोग बड़े बुरे लगते. वे सोचते, ईश्वर की जब मर्जी होगी, पानी, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा रोजगार सब हो जायेगा. इसमें नारे लगाने की क्या जरूरत?
भाई साहब ने देखा कि लोगों के कहने तथा कोशिश करने से भी काम होते हैं. सड़कें, स्कूल और अस्पताल बनते हैं.लोग उन्हें बनवा सकते हैं. सबसे बड़ा झटका तो उन्हें तब लगा, जब उन्होंने देखा कि लोगों की जिंदगी भगवान के ही भरोसे नहीं है, बल्कि समय से अस्पताल पहुंचाकर डॉक्टर लोगों की जान बचा सकते हैं. पहले किसी की मौत पर लोग क्या हुआ होगा, पूछते थे तो जवाब मिलता था, सब भगवान की महिमा है. लेकिन अब डॉक्टर बता देते हैं कि हार्ट फेल हो गया. किडनी खराब हो चुकी थी. कई लोगों को तो बचा भी लिया जाता था. यहीं से नाम आता था विज्ञान का और भाई साहब को लगता यह ईश्वर पर हमला है. भगवान द्वारा बनाया इंसान भला उसके अधिकार क्षेत्र में दखलंदाजी कैसे कर सकता है? भाई साहब रुंआसे होकर ईश्वर की तस्वीर की ओर देखते, मगर तस्वीर में कोई हलचल नहीं होती.
कई लोग तो इस कदर ईश्वर द्रोही होते कि उसे खुलेआम चुनौती देते.कहते, मनुष्य सबसे ऊपर है. ईश्वर की रचना भी मनुष्य ने की है. मनुष्य ईश्वर की बात करना बंद कर दे तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा. यह मनुष्य है जिसने मंदिरों के जरिये ईश्वर को जिंदा रखा. ईश्वर है क्योंकि कई लोगों की रोजी-रोटी उससे जुड़ी है.
वे सवाल करते अगर ईश्वर नाम की कोई चीज है तो वह सभी मनुष्यों के लिए एक जैसा क्यों नहीं है? अलग-अलग जगह वह लोगों के अनुसार रूप क्यों बदल लेता है? अगर वह सृष्टि को चलाने वाला है तो सच्चे लोगों के ऊपर अन्याय क्यों होने देता है? उसके भक्तों की प्राकृतिक आपदाओं तथा भगदड़ में मृत्यु क्यों होती है? जब वह कुछ नहीं कर सकता. सब कुछ प्रकृति के हाथ में है तो उससे क्यों डरा जाये? उसकी चिंता क्यों की जाये? धूर्त और मक्कार लोग ईश्वर की परवाह न करते हुए जो मन में आता है करते हैं. वे सीधे-साधे लोगों को भगवान का भय दिखाते हैं, मगर खुद कभी उसकी परवाह नहीं करते हैं. वे जानते हैं, वह कभी उनके कुकर्मों को रोकने के लिये नहीं आयेगा.
शातिर लोगों के लिए ईश्वर का बना रहना बहुत जरूरी है क्योंकि सीधे-साधे लोग उसमें उलझे रहते हैं और वे उन पर राज करते रहते हैं. इसीलिए तथाकथित धार्मिक लोग तर्कवादियों से खौफ खाते हैं. उन्हें बर्दाश्त नहीं कर पाते. तर्कवादी चमत्कारियों की पोल खोल देते. ईश्वरवादियों के पास उनके प्रश्नों का जवाब नहीं होता.उन्हें लगता है, वे उनकी सत्ता को खत्म कर देंगे. इसलिए धार्मिक लोग तर्कवादियों की हत्या करने से भी नहीं चूकते?
भाई साहब नहीं समझते कि ईश्वर को जानने का अर्थ या ज्ञानी होने का अर्थ ही यह जान लेना है कि ईश्वर नाम की कोई चीज नहीं है. विपत्ति या बीमारी के समय कोई तुम्हें बचाने के लिए आने वाला नहीं. खुद तुम, तुम्हारे मित्र या डॉक्टर ही तुम्हारी सहायता कर सकते हैं. अपना जीवन जैसा चाहो खुद तुम्हीं बना सकते हो. चाहो तो इस सच्चाई के साथ जियो, चाहे ईश्वर के भरोसे के नाम पर जीवन बिता दो.
भाई साहब अगर समझ जायें कि धर्म तथा विज्ञान जीवन को देखने या जीने के दो नजरिये हैं तो शायद उनके जीवन में शांति था सुकून आ जाये. धर्म तथा ईश्वर के दृष्टिकोण से जीने का अर्थ है, यह मानकर चलना कि कोई शक्ति है, जो मेरे जीवन को तय कर रही है. मेरे जीवन में अच्छा-बुरा उसकी वजह से है.जबकि विज्ञान के दृष्टकोण से जीने का अर्थ है, अपने जीवन को अच्छा-बुरा में ही बना सकता हूँ. जैसा करूंगा, वैसा प्राप्त करूंगा. धार्मिक होकर जीने का अर्थ काल्पनिक भरोसे के साथ जीना, जबकि वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ जीने का अर्थ है, सच्चाई से आंख मिलाते हुए जीना.
मगर भाई साहब ईश्वर के भरोसे के साथ ही जीना चाहते हैं. वे सोचते हैं, ईश्वर का भरोसा नहीं होगा तो उनके जीवन में क्या बचेगा. हम उनके भरोसे को तोड़ना नहीं चाहते. वे जैसे चाहें जिएं.हम चाहते हैं, वे अपने जीवन में विज्ञान को भले ही शामिल न करें मगर सच्चाई को अवश्य सम्मिलित करें. सच्चाई को जीवन में शामिल करने से उनको समस्याओं तथा प्रश्नों के काफी हद तक सही जवाब मिलेंगे तथा उनके जीवन में वास्तविक खुशी तथा सुकून आयेगा.
दिनेश कर्नाटक
भारतीय ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार से पुरस्कृत दिनेश कर्नाटक चर्चित युवा साहित्यकार हैं. रानीबाग में रहने वाले दिनेश की कहानी, उपन्यास व यात्रा की पांच किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं. ‘शैक्षिक दख़ल’ पत्रिका की सम्पादकीय टीम का हिस्सा हैं.
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हमेशा की तरह शानदार लेख,,,,,