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हल्द्वानी के इतिहास के विस्मृत पन्ने : 33

कुमाऊं अंचल में कई प्रख्यात कलाकारों, रंगकर्मियों, साहित्यकारों ने जन्म लिया. उनमें से कुछ को जाना गया, कुछ उपेक्षित रहे और कुछ गुमनामी का जीएवन जीकर चले गए. प्रख्यात नृतक हरीश चन्द्र भगत भी उन्हीं गुमनामी का जीवन व्यतीत करने वाले कलाकारों में रहे. भगत कत्थक सम्राट शम्भू महाराज के शिह्य रहे. उन्होंने अखिल भारतीय संगीत-नृत्य परतियोगिता में छह बार उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व करते हुए प्रथम स्थान प्राप्त किया. उन्हें ढेरों पुरस्कारों से नवाजा गया परन्तु उत्तराखण्ड का यह कलाकार उपेक्षित ही रहा. वे पुलिस विभाग में नौकरी करते थे. सेवाकाल के अंतिम 5 वर्ष उन्होंने हल्द्वानी में बिताये. उन्होंने हल्द्वानी में ‘स्वर संगम’ नामक संगीत-नृत्य संस्था की स्थापना की और कई शिष्यों को कत्थक की शिक्षा दी. अवकाश प्राप्त करने के बाद वे चिलियानौला (रानीखेत) स्थित अपने घर में एकांतवास करने लगे. भगत जी चाहते थे कि उनके ज्ञान का लाभ यहाँ के कलाकार उठा सकें लेकिन प्रतिकूल स्थितियों के कारण वे ऐसा नहीं कर सके. वे सरकार द्वारा संस्कृति के नाम पर की जाने वाली घोषणाओं से खिन्न रहते थे. 7 सितम्बर 2009 को चिलियानौला में उनका निधन हुआ.

हल्द्वानी के सिख परिवारों की अगर बात करें तो विभाजन से पूर्व यहाँ पांच-सात परिवार ही रहा करते थे. सरदार जय सिंह का परिवार उन पुराने परिवारों में से एक है. जय सिंह पकिस्तान के वासु गाँव तहसील फालिया के रहने वाले थे. जो जिला गुजरात की प्रसिद्ध मंडी बहाउद्दीन का क्षेत्र हुआ करता था. पेशावर के निकट वन्नुकोहाट की हरभजन कौर के साथ उनका विवाह हुआ. यह परिवार नानतिन महाराज का भक्त था. 1926 में यह परिवार हल्द्वानी आ गया. वे यहाँ कारोबार करने लगे. वह गोविन्द बल्लभ पन्त के समय कांग्रेस के मंडल कोषाध्यक्ष भी रहे. तिवारी के साथ प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में भी रहे. चार बार नगर पालिका के सदस्य रहे.

1962 में हल्द्वानी में पासपोर्ट साइज़ फोटो खिंचवाने के लिए, स्टैंड में काले कपड़े से ढंके जादूगरी के से दिखने वाले बक्से वाले, फोटोग्राफर के पास जाना पड़ता था. इस तरह का एक फोटोग्राफर नया बाजार के नुक्कड़ पर बैठता था. कई बार उसे अपना चलता-फिरता स्टूडियो कंधे पर लादे फेरी लगाते हुए भी देखा जा सकता था. इसके बाद नया बाजार स्थित सरदार जगत सिंह का स्टूडियो ‘कला भवन’ अस्तित्व में आया. तब यह हल्द्वानी का एकमात्र फोटो स्टूडियो हुआ करता था. कला के साथ-साथ समाजसेवा में भी सक्रिय रहने वाले जगत सिंह का 2012 में 86 साल की उम्र में देहांत हो गया.

1950 में जगत सिंह ने फोटोग्राफी की अपनी दूकान खोली. उस समय फोटोग्राफी कैमरे के कमाल से ज्यादा हाथ की कलाकारी होती थी. इन्होने नैनीताल के मूलराज से फोटोग्राफी सीखी थी. उस ज़माने में ‘बाबू पेंटर’ का काम सबसे ज्यादा हुआ करता था. सरे जंगलात के बोर्ड वही लिखा करता था. जगत सिंह ने भी इनसे वाल पेंटिंग सीखी. एकमात्र फोटोग्राफर होने के कारण जगत सिंह उस वक़्त के इतिहास के भी गवाह थे. वह आर्मी और पंतनगर विश्वविद्यालय की भी पूरी फोटोग्राफी किया करते थे.

उन दिनों रंगीन चित्र बनाने के लिए श्वेत-श्याम चित्रों में हाथ से रंग भरा जाता था. हल्द्वानी में 1999 में हिल्स कलर लैब के नाम से पहली कलर लैब बनी. बाद में यहाँ धीरे-धीरे कई लैब स्थापित हुईं और यह हल्द्वानी मंडी के उन्नत व्यवसायों में से एक बन गया.

1947 से पहले हल्द्वानी में बीएस गए सिख परिवारों में से ज्ञानी निर्मल सिंह का परिवार भी था. निर्मल के फूफा तेजा सिंह भसीन 1890 में हल्द्वानी आ चुके थे. निर्मल सिंह 1936 में 17 साल की उम्र में अपने फूफा के पास चले आये. वह मूल रूप से पश्चिमी पकिस्तान के जिला झेलम, तहसील चकवाल के रहने वाले थे. निर्मल सिंह भारत छोड़ो आन्दोलन में भी सक्रिय रहे. वर्तमान खालसा स्कूल उस वक़्त ऐसी गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था. गोविन्द बल्लभ पन्त का परिवार भी इसी जगह पर रहा करता था. भारत-पकिस्तान विभाजन के समय निर्मल सिंह अपनी जान की परवाह किये बिना पकिस्तान जाकर अपने परिवार समेत 200 लोगों को भारत लाये. हल्द्वानी आये शरणार्थियों की मदद के लिए बनी रिफूजी कमेटी के अध्यक्ष ज्ञानी निर्मल सिंह तराई को बसाने के लिए बनी कमेटी के भी सदस्य रहे. वह यूपी सिख बोर्ड के सबसे काम आयु के अध्यक्ष भी रहे. नानकमत्ता और रीता साहिब गुरुद्वारों के भी संस्थापक सदस्य रहे. वे कई अन्य संस्थाओं के अलावा यूपी अल्पसंख्यक आयोग के उपाध्यक्ष भी रहे.

शिक्षा जगत में भी उनका काफी योगदान रहा. 1947 में विभाजन के बाद हल्द्वानी में खालसा प्राइमरी स्कूल गुरु सिंह सभा की स्थापना की गयी. ज्ञानी जी अपनी मृत्यु तक इस संस्था के संस्थापक अध्यक्ष रहे. उस समय यह स्कूल रामलीला मैदान के पास मुख्य गुरुद्वारे में संचालित होता था. बाद में यह हवाई अड्डा ग्राउंड तिकोनिया और अब खालसा इंटर कॉलेज परिसर में चल रहा है. 1980 में ज्ञानी जी ने गुरु तेग बहादुर पब्लिक स्कूल की स्थापना में भी योगदान दिया.

1949 में पंजाब मोटर हाउस के नाम से इन्होने अपना करोबार शुरू किया. तब हिन्दुस्तानी गाड़ियाँ नहीं हुआ करती थीं. विदेशी वाहन फोल्ड, फ़ार्गो, शेवरले इत्यादि सीमित मात्र में थे. 1956 में टाटा की गाड़ियाँ आयीं, फिर एम्बेसडर कार. उस समय आयात-निर्यात का सीधा संपर्क हल्द्वानी से अमेरिका को था. ऑटो मोबाइल्स के मुख्य बाजारों में मुम्बई, लाहौर, अमृतसर थे. अमेरिका से मोटर पार्ट्स सीधा हल्द्वानी फर्म में आते थे और यहीं से अन्य स्थानों को भेजे जाते थे.

( जारी )

स्व. आनंद बल्लभ उप्रेती की पुस्तक ‘हल्द्वानी- स्मृतियों के झरोखे से’ के आधार पर

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Sudhir Kumar

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