मैं अपने गांव से जुड़ी एक प्यारी सी फसक आप से साझा करने जा रहा हूं, यह फसक मैंने बचपन में ह्यूनाल के वक्त में गांव के कुछ लोगों से सुनी, उस बखत में गांव में बिजली, टीवी, फोन जैसी सुविधाओं का जन्म नहीं हुआ था. गांव के अड़ोसी पड़ोसी उन के डलिये लेकर रात में किसी एक घर में बड़ी सी तपती अंगीठी के चारों ओर बैठ जाते थे और शुरू हो जाती थी ईरान-तुरान की गप्पों से लेकर, आण कथाओं तक, सच्ची बातों से लेकर मनगढ़ंत फसकों तक का लमालेत. हृयूनाल की फसकों, किस्सों, आण कथाओं के बीच अंगीठियों के ईर्द-गिर्द फुर्फुराट करती छिजुओं ने असंख्य बार उन के महीन धागों से खुद को लपेटा होगा.
(Childhood Memoir of Ganesh Martoliya)
मैं इन फसकों को बड़ी दिलचस्पी से सुना करता था. रात के खाने के बाद पड़ोस की बूढ़ी ठुल्यमां (ताईजी), तीन चार घर छोड़कर बकरियों के अन्वाल मामाजी, नानी और कई लोगों का जल्दी से पहुंचने का बेसब्री से इंतजार रहता. इसी बीच पड़ोस की ठुलम्या की दरवाजे से आवाज आती – खैला रे मैसो. (भोजन कर चुके हो?) और छिजु और उनके फुल्के हाथ में लिये इस तरह ठुल्यमा का पहला प्रवेश होता.
इसीतरह अन्य पड़ोस वालों का भी धीरे-धीरे आना शुरू होता. उस वक्त दिवाल घड़ी भी गांव में किसी किसी परिवार के पास ही मौजूद रहती थी, अत: फसकों का सिलसिला रात के कितने समय तक चलेगा कुछ मालूम नहीं था. हां अंगीठी में बांज के आखिरी कोयले की अंतिम तपिश का खत्म होना या लकड़ी के सभी छिजूओं में धागों का भर जाना ये फसकों के सिलसिलों की समाप्ति का माध्यम होता था.
हालांकि मैं इन सबको आखिरी तक बराबर सुनते जाता लेकिन जब अन्वाल मामा हिमाल के धुरों, बुग्यालों में जठिया बान (यक्ष-गंधर्व), परियों (ऐरी-आंछरी) के डरावने किस्से सुनाते या फिर कभी ठुल्यमा रड़गाड़ी रागस या फिर मर्तोली गांव की भूत की कहानी सुनाती तो मैं पाताजी के बगल में जाकर दुबककर सो जाता.
इन्हीं फसकों में से एक फसक है, गांव के एक बुबूजी की जो गांव के पहले ऐसे व्यक्ति थे जो फौज में भर्ती हुए. वैसे भर्ती क्या हुए जबरदस्ती भाबर में बकरियों के डेरे से पकड़ कर भर्ती करवा दिये गये. बेचारे बुबूजी की नयी-नयी शादी हुई थी और अपने काकज्यु (चाचाजी) के साथ बकरी लेकर भाबर आये थे लेकिन फौज में भर्ती होने के कई सालों तक फिर घर वापस नहीं लौटे. लेकिन कुछ समय पश्चात गांव में भाबर से आये किसी व्यक्ति के हाथों बुबूजी का संदेश और कुछ भेंट आच्चे के लिए प्राप्त हुआ.
आच्चे, बुबूजी की कुशलता का संदेश पाकर एकदम से खुश हो गई थी और कपड़े में लिपटे भेंट को उत्सुकता से खोला. भेंट में काले रंग की महीन खाजे (धान) की तरह कुछ अजीब सी भुरभुरी महीन चीज और कागज में लिपटे पीठा मिठाई की तरह प्रतीत हुआ.
(Childhood Memoir of Ganesh Martoliya)
आच्चे इसे शहर की विशेष मिठाई और खाजा समझकर, घर-घर जाकर भेंट को बाटने लगी. गांव के हर व्यक्तियों के लिए यह नयी सी चीज थी. हर किसी ने शहर से आये इस भेंट को चखा और न जाने अलग-अलग तरह कि प्रतिक्रियाएं दी. कुछ महिनों बाद बुबुजी छुट्टी लेकर घर आये तो आच्चे ने पूछा कि ये कौनसी अजीब सी मिठाई आपने शहर से हमारे लिए भिजावाई थी, पूरे गांव वालों ने मुंह पे डालते ही छीछी-थूथू करना शुरु किया.
(Childhood Memoir of Ganesh Martoliya)
बुबुजी सिर पकड़कर बैठ गये और हंस हंसकर लोटपोट होते हुए बोले – अरे पार्बेति पगली. वू मिठाई विठाई नै, कापाड़ ध्वेनी साबुन और चहा बनौनीक चायपत्ती छी. (अरे पार्वती पगली, वो मिठाई विठाई नहीं, कपड़े धोने का साबुन और चाय बनाने की चायपत्ती थी)
मुनस्यारी की जोहार घाटी के खूबसूरत गांव मरतोली के मूल निवासी गणेश मर्तोलिया फिलहाल हल्द्वानी में रहते हैं और एक बैंक में काम करते हैं. संगीत के क्षेत्र में गहरा दखल रखने वाले गणेश का गाया गीत ‘लाल बुरांश’ बहुत लोकप्रिय हुआ था.
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क्या कहने । आपने गप-शप के बीच आग की तपन से निखरी कर निकली कहानी को सुना कर सिद्ध कर दिया कि आप लेखन में भी माहिर हैं ।