समाज

हमारे बचपन में अभावों का भी बढ़ा भाव था

नोस्टालजिया का झरोखा तो सुकून देता ही है जनाब! चाहे वह कितना ही अभावों भरा क्यों न हो. लेकिन सच कहें तो हमारे बचपन में अभावों का भी बढ़ा भाव था. विलासिता की चीजों से दूर हम अपनी खुशियां कुदरत से खुद ही समेट लेते थे. गांवों में कोई पार्क तो होते नहीं थे कि बचपन में कुछ पल खेल लें लेकिन उसका तोड़ हम खुद ही ढॅूढ लिया करते थे. Childhood Memoir Bhuwan Chandra Pant

किसी पेड़ से कोई लता झूल रही है तो उसमें झूलने का अद्भुत आनन्द था और यदि लता न भी हो तो क्या फर्क पड़ता है, घर से एक रस्सी ली पेड़ की टहनी पर रस्सी बांधकर झूला बन जाता. बारी-बारी से एक साथी झूला झूलता दूसरा उसे धक्का देता. रौलर स्लाइड तो हमने तब देखा नहीं था लेकिन ढलान पर घुसघुसी खेलकर खूब पैंन्टें जरूर फाड़ी थी. क्या साहसिक खेल होता था घुसघुसी भी ऊपर से ढलान पर फिसलने पर न चोट लगने की परवाह और न कपड़े फटने का गम. बाद में इन कपड़ों पर एक टल्ला मार दिया जाता जिसका हमें कोई संकोच भी नहीं होता था.

सच तो यह है कि हमने बिना मां-बाप का एक धेला खर्च किये जो लुत्फ उठाये थे आज की पीढ़ी ढेरों पैसा बहाकर भी वह सुकून बच्चों को नहीं दे पा रही है. थोडे बड़े हुए तो दूसरे खेलों में हाथ आजमाया. कबड्डी-कबड्डी कहते हुए श्वास रोकने की कला गजब की रहती. श्वास रोककर मुंह तमतमा जाता, गले की नसें फूल जाती लेकिन क्या मजाल की पाला छुऐं बिना सांस छोड़ते. नजरें कहां रहती और छुआ किसी दूसरी ओर खड़े खिलाड़ी को जाता. कूटनीति का ककहरा शायद यहीं से सीखा जाता था.

गिल्ली-डण्डा खेलने के लिए कहीं भटकने की जरूरत नहीं. साथ का कोई कुशल खिलाड़ी गिल्ली तराशने में माहिर होता. खास बात ये रहती कि गिल्ली के नुकीले दोनों सिरे जमीन से उठे रहें और गिल्ली कैसी भी जमीन पर रखें किसी एक तरह को लुढ़के नहीं. खेलने के लिए डण्डे की भी निश्चित माप हुआ करती. गिल्ली बांझ अथवा सानड़ जैसी लकड़ियों की टिकाऊ रहती जब कि डण्डा पय्यां (पद्म) का ज्यादा मुफीद रहता. खेल से पहले कुछ नियम बनाये जाते और विधिवत् उनकी घोषणा की जाती. मसलन – अमुक स्थान पर गिल्ली फैंकने पर अमुक प्वाइन्ट और अगर गिल्ली किसी के बाड़े में जाती तो उसकी डांट पड़ती इसलिए उस प्वाइन्ट को आउट माना जाता. इस पर भी किसी खिलाड़ी ने गिल्ली दूर फैंकी तो दूसरी पार्टी से प्वाइन्ट की मांग की जाती. यदि प्वाइन्ट से खिलाड़ी सन्तुष्ट है तो ठीक वरना डण्डे से पूरी दूरी नापी जाती. जितने डण्डे से नापने से दूरी उतने प्वाइन्ट. समय के हिसाब से जीत हार के प्वाइन्ट पहले ही निर्धारित होते, समय कम है तो 100-200 प्वाइन्ट की भी बाजी होती अथवा 1000-2000 प्वाइन्ट का खेल भी खेला जाता. Childhood Memoir Bhuwan Chandra Pant

बेशक घुड़सवारी का शौंक हमें भी बचपन में था लेकिन तरीका कुछ अलहदा था. एक लड़का खड़ा होता, दूसरा पीछे से उसकी कमर पर सिर टिका कर झुका रहता और तीसरा झुके लड़के की पीठ पर बैठता, जब दोनों आगे बढ़ते तो सवार लड़का घुड़सवारी का आनन्द लेता. बारी-बारी से यह क्रम चलता रहता.

रोड पर गाड़ी चलाने का शौक हमें भी था लेकिन तरीका अलग था. कभी कोई पहिया मिल जाता तो एक डण्डे के आगे सिरे पर तार फंसाया जाता. तार को कुछ इस तरह की शक्ल दी जाती कि उसकी ग्रिप पहिये को दायें-बायें भागने से रोके. तार का सहारा देकर पहिये को बढ़ाया जाता और उसमें भी स्पर्धा होती कि किसका कितनी देर तक पहिये को नीचे नहीं गिरता. कुछ लोग जुगाड़ लगाकर पुराने टायरों से उसे साइकिल के टायर का आकार देकर चलाते , वे थोड़े ऊॅचे दर्जे के चालक होते. टायर हाथ के सहारे अथवा लकड़ी के डण्डे के सहारे ही चलाये जाते.

कांच की गोलियों का खेल तो कुछ गिने चुने लोग ही खेलते जो या तो अपने मां-बाप से पैसे मांगकर अथवा चुराकर दुकान से कांच की गोलियां खेलने की हैसियत रखते. हम लोग तो सिगरेट के कवर से ही खेलकर तसल्ली कर लेते. सिगरेट की डिब्बों के कवर एकत्रित करने की होड़ लगी रहती. उस समय चलन में जो सिगरेट थी उनके अलग-अलग प्वाइन्ट निर्धारित थे. मसलन स्टार सिगरेट का कवर 3 प्वाइन्ट, गोल्ड फ्लैक का 10 प्वाइन्ट, गोल्डन गोल्ड फ्लैक का 5 वाइन्ट, सीजर का 20 प्वाइन्ट, विल्स का 50 प्वाइन्ट. आम चलन की सिगरेट स्टार हुआ करती इसलिए उसके प्वाइन्ट कम थे. जबकि विल्स महंगी थी कम लोग इस्तेमाल करते इसलिए उसके प्वाइन्ट ज्यादा होते.

माना 20 प्वाइन्ट का खेल है तो हर एक अपने पास उपलब्ध डिब्बों से 20 प्वाइन्ट्स का कॉम्बिनेशन बनाता. इस प्रकार समतल जगह पर सभी खिलाड़ियों से उनके पास डिब्बों के कवर जमा करवाये जाते और लगे ढेर को एक निश्चित दूरी पर खड़े होकर बारी बारी से उसे गिराना होता था जो गिरा पाता सारे डिब्बे उसी के होते. खेल के अन्त में जिसके पास डिब्बों का ढेर ज्यादा जाता उसका कुछ अलग ही रूआब होता.

लड़कियों के प्रमुख खेल बाघ-बकरी हुआ करते. जिसमें जमीन पर कई वर्ग बनाकर उनके ऊपर पत्थर के छोटे टुकड़ों के रूप में हर खाने में बकरियों के प्रतीक रूप में रखी जाती तथा बाघ को भी खानों में रखा जाता. जो आज की सांप-सीड़ी से कुछ मिलता जुलता था. इसके अलावा पहाड़ की लड़कियों का धुरपातई भी एक खेल होता. दो लड़कियां आपस में हाथ संटाकर खड़ी होती और दोनों ही सिर पीछे की ओर झुकाकर पावं मिला लेती और गोलाकार में घूमती. कभी-कभी बच्चे परस्पर हाथ पकड़कर गोल घेरा बनाते और घेरे के बीच एक बच्चा खड़ा रहता. गोल घेरे के बच्चे गाते – 

हरा समन्दर गोपी चन्दर, बोल मेरी मछली कितना पानी  

बीच का बच्चा पांवों से लेकर सिर तक ईशारों से बताता -इतना पानी. जब पानी सिर के ऊपर आ जाता तो अगले की बारी आती. गुच्छी जैसे खेल भी टाईमपास के सुलभ खेल हुआ करते.

और हां ! जब हम पहले दर्जे में होते तो कमेट से रिंगांल की कलम बनाकर पाठी में लिखा जाता. पाठी मिसाने (मिटाने) से लेकर उसमें घोटा लगाकर चमकाने की स्पर्घा भी कम रोचक नहीं होती. घर के पास उपलब्ध हरी पत्तियों से पाठी मिसाने (मिटाने) के बाद उसमें तवे का झोल (कार्बन) अथवा पुराने बैटरी सैलों के कार्बन से काला किया जाता. अच्छी तरह सूख जाने के बाद कांच की शीशी से पाठी में घोटा लगाया जाता. जब चमकने लगती तो कमेट के डिब्बे में मोटा धागा भिगाकर लाइनें डाली जाती. Childhood Memoir Bhuwan Chandra Pant

एक तरफ स्वर, व्यंजन, बारहखड़ी अथवा ईमला के लिए और दूसरी तरफ गिनती व पहाड़ों के लिए. दर्जा तीन में जाने पर ही पहले पहल कापी में लिखने का सौभाग्य मिलता और इसे किसी बड़ी उपलब्धि से कम नहीं समझते.

खैर! बात खेलों की चल रही थी, पुरानी यादों में खोकर कहां चले गये? बात खेलों पर चल रही थी. जहाज हमारे भी तब खूब चलते थे, पानी से लेकर हवाई जहाज तक. कागज की कश्ती बनाते और उसे किसी पास बहती नाली अथवा घर के किसी पानी भरे बड़े बर्तन में तैरा लेते. कागज से बने हवाई जहाज तो ऊंची उड़ाने भरते बशर्ते कि बनाने वाला इसका उस्ताद हो. यह दीगर बात है कि इन जहाजों के शौक से हमारी कापियां कब खत्म हो जाती पता ही नहीं चलता. 

वर्तमान दौर में बच्चों के ये सभी खेल विलुप्ति के कगार पर हैं लेकिन अतीत में झांककर पुरानी यादों को आज की पीढ़ी से साझा करने में हर्ज भी क्या है? कम से कम उनको यह बताने के लिए कि वह पीढ़ी कुदरत के कितने करीब थी और आज की पीढ़ी घरों के अन्दर मोबाइल, लैपटाटॉप अथवा कम्प्यूटर में उलझकर कुदरत से कितनी दूर जा चुकी है. Childhood Memoir Bhuwan Chandra Pant

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भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.

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