“ऊपर गाड़ी में सामान किसका है, रस्सी से बंधा”? बिल्कुल पैक हो गई रोडवेज की सुबह सात बजे नैनीताल से पिथौरागढ़ चलने वाली बस में खड़ी सवारियों के बीच अपनी जगह बनाते आवाज गूंजी. “हां भई, भवाली की सवारी को टिकट नहीं मिलेगा. अभी उतर जाओ, बगल में के.एम.ओ.यू. की गाड़ी खड़ी है उसमें जाओ.”
(Chhiplakot Article by Mrigesh Pande)
छत में मेरा सामान है. मैंने बताया.
“कहाँ जाना है”?
पिथौरागढ़.
“अच्छा बैठो. वो होल्डल और ट्रंक तो ठीक. गत्ते की पेटी में क्या है”?
किताबें हैं.
“चार पेटियों में किताब? वहाँ बेचने ले जा रहे हो क्या? दुकानदार जैसे तो लगते नहीं हो. इनकी तो बुकिंग करनी होगी. मैंने सब तिरपाल डाल दिया है. बारिश के दिन हैं “.
बेचने की नहीं. पढ़ने की हैं.
“पढ़ने की”?
हां, मैं पढ़ाता हूं. अभी ट्रांसफर हुआ है. अल्मोड़ा कॉलेज से पिथौरागढ़.
“अच्छा, मास्साब हो. तभी. होss, तो यहाँ नैनीताल से कैसे चढ़ रहे”?
नैनीताल घर हुआ.
“अरे! तभी, होss, मैं भी नैनीताल का हुआ. नीचे रईस होटल. मंटी लाला रोडवेज वालों के बगल में घर हुआ अपना. वहाँ जी आई सी में जा रहे या और कहीं”.
मैं डिग्री कॉलेज में हूं.
“अच्छा होss, तो चौवालिस रुपए दो, ये लो टिकट. अब बड़े मास्साब हुए. सामान की पेटी का नहीं ले रहा हूं. अब नैनीताल वाले ही हुए हम. मंटी लाला को जानते हो?”
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टिकट के लिए सौ रुपए का नोट बढ़ा, मैं बोला हाँ. पूरे परिवार को जानता हूं उनके. वो तो पीलिया की दवाई भी देते हैं दही के साथ मिला कर खाने वाली. रोडवेज वाले तो हुए.
“हां, हां. अरे यार. खड़े क्यों हो? बैठो. तो तुम्हारी सीट धन बहादुर ने रखवाई है. वो, बैठो. होss, हमारे पंडित जी के बगल में आगे. बस, सोना मत हां,आगे बैठ के, पंडित जी हमारे मतलब पायलेट साब का गुस्सा बहुत डेंजर है. बाकी पैसे आगे वापस होंगे टिकट पर लिख दिया है. हाँ होss,और कोई बिना टिकट.”
पिथौरागढ़ की यह एकमात्र बस रोज ही फुल जाती इसलिए जानकारों की सलाह से मैंने अपने विश्वस्त मेट धनबहादुर से कह सब जुगाड़ फिट कर लिया था जिसने छह बजे ही सारा सामान सार कर बस की छत पर चढ़ा, उसे रस्सी से बांध भी दिया था. धन बहादुर पिथौरागढ़ काली पार बैतड़ी का रहने वाला था और इंद्रा फार्मेसी के बगल में भुवन लाल साह जी किराना वालों का मेन पल्लेदार भी. तल्ली ताल बाजार से घर राशन रसद वहीं हमारे घर तक पहुँचाता था. बड़ा खुश था कि अब में उसके गाँव के पड़ोस में पहुँच गया हूं.
तोंद वाली टाटा गाड़ी के सबसे आगे ड्राइवर के बायें की सीट पर मेरा बैग रखा था जिसे गोद में रख मैं सीट पर जम गया. शीशे के सामने काली माता की फोटो फ्रेम में लगी थी. बड़ी कलाकारी से शीशे के ऊपर की खाली जगह में ॐ लिखा था और उससे हट मेरी ओर शिव पार्वती गणेश की फोटो थी. स्टेयरिंग के दाईं ओर दो अगरबत्तीयां तीन चौथाई से ज्यादा जल चुकीं थीं. पीछे टिकट कट रहे थे अल्मोड़ा, दन्या, मकडाऊँ, पनार, घाट.
सात बजने में बस दो तीन मिनट ही बाकी थे. तभी ड्राइवर की ओर का दरवाजा खुला. बंद गले का कोट, मफलर और गाँधी आश्रम की ऊनी टोपी लगाए, मस्तक पर पिठ्या अक्षत और दाएं कान में ठुसा लाल फूल, गेहुँवा रंग, अधेड़ से, माथे के ठीक बीच से कपाल को जाती बड़ी साफ रेखा. कहीं पढ़ा था ऐसे लोग बड़े अनुशासन प्रिय होते हैं. चमकदार आँखे, जो सीट में बैठने तक के दौर में एक गहरी नज़र मुझ पर डाल चुकी थीं. लम्बे हॉर्ने के साथ ही गाड़ी स्टार्ट हुई और आगे सरकने लग गई. घड़ी ठीक सात बजा रही थी.
बाद में कंडक्टर खुशाल से हुई लम्बी बातचीत से जाना ये पंडित जी के नाम से विख्यात थे. “समय के पाबंद, गाड़ी को चकाचक साफ रखने वाले और उसके हर पुर्जे-वुर्जे से वाकिफ. रिकॉर्ड था कि उनकी गाड़ी का कभी एक्सीडेंट नहीं हुआ. सात बजे सुबह चल ठीक पांच बजे पहुंचा देने वाले. कोई अमल पानी नहीं. रास्ते में किसी दुकान में कुछ खाते पीते भी नहीं. अपनी रोटी साथ रखते हैं, मुझे भी देते हैं”.
कैंट ऑफिस के पास पहुँचते बस की बढ़ती स्पीड को अचानक विराम लगा. पंडित जी की कड़क आवाज गूंजी, “ये बीड़ी कौन पी रहा बस में? हयात! देख जरा”. तब तक हमारे कंडक्टर साहिब बिल्कुल पीछे बैठे दो डोटियालों के हाथ से बीड़ी का बंडल और माचिस जब्त कर अपनी जेब के हवाले कर चुका था और बता भी चुका था कि आगे अगर फूक लगायी तो पंडित जी आगे पीछे के तरल और ठोस दोनों पर रोक लगा देंगे, नार सिंह साधा है उन्होंने. “ना हो हजुरो. अब नी खूँल बिड़ी. माफ़ी देओ हजुरो. द्यापता झन चढ़ेया”.
बस रफ़्तार पकड़ चुकी थी. पहाड़ में खासकर गढ़वाल और जौनसार की खूब यात्रा मैं खूब कर चुका था पर इस गाड़ी की रफ़्तार और सुर बिल्कुल अलग थे. अमूमन पहाड़ में चलती गाड़ी मे कुछ पढ़ पाना बड़ा मुश्किल होता है पर इसकी गति इतनी एकसार थी कि लगा आराम से पढ़ा जा सकता है. अपने झोले की किताबों से मैंने श्री लाल शुक्ल की आदमी का जहर उपन्यास निकाल गोद में रख लिया. अपराध पर यह शायद उनकी पहली कृति थी. झोले में कर्नल रंजीत और चन्दर की जासूसी किताबें भी थीं. कर्नल रंजीत तो टाइम्स ऑफ़ इंडिया वाले आनंद प्रकाश जैन बताये जाते जो छद्म नाम से लिखते थे और चन्दर की भोलाशंकर सीरीज मेरी प्रिय थी ही. सब हिन्द पॉकेट बुक की घरेलू लाइब्रेरी योजना से जमा होती जा रहीं थीं.
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बस सरकती पाइंस की नगरपालिका चुंगी पर पहुँच चुकी थी जिसके बाईं ओर से ऊपर को जाती पगडंडी दिखाई दे रही थी जो घूमते घामते चीना रेंज के रांची तक पहुँचती थी. रांची जहां जंगलों के बीच के धूरे में किशोर होने तक की तमाम मेरी हरकतों के निशान आज भी जिन्दा हैं और यही है लड़िया कांटा का वह टॉप, वह चोटी जिस पर चढ़ने की मुझे जिद थी. उस एक चोटी ने कैमरे की तरह मुझे एक वाइड एंगिल दे डाला था. लड़िया कांटा का यह ऊपरी इलाका अब एयर फ़ोर्स ने ले लिया था, जिसके राडार उस चोटी पर चमकते दिखते हैं और सिविलियन की वहाँ नो इंट्री है.
पौने पांच के आस-पास बस पिथौरागढ़ पहुँच गई. एक बजे दन्या में आनंद के परांठे खाने के बाद जब बस में पहुंचा तो मेरे से ठीक पीछे की सवारी यहीं उतर गई थी. मैं तुरंत उस सीट पर जम गया. डेढ़ बजे बस फिर चली. आगे ध्याड़ी और पनार तक रास्ता बहुत संकरा और ज्यादातर जगह कच्चा था. यह सारी सड़क डी जी बी आर के अधीन थी और जितनी गुंजाइश हो सकती थी उतनी मेन्टेन भी. दन्या के दो डबल आलू के गरम पराठों, आलू टमाटर चने और लौकी की दड़बड़ सब्जी के साथ हरी सिल पर पिसी चटनी ने पेट तृप्त कर नींद के झोंके देना भी शुरू कर दिया था. पनार तक पहुँचते तो मैं बड़ी झपकी भी ले चुका था. सामने रामेश्वर का घाट था. अब घाट के पुल तक रास्ता हल्के मोड़ वाला सीधा सरल था. घाट का पुल आते ही बस की रफ़्तार कम हुई. नीचे बहती बहुत साफ पानी वाली रामगंगा नदी थी जिस पर कई सवारियों ने खिड़की खोल सिक्के डालने शुरू किये. दूसरी तरफ लोहाघाट-टनकपुर को जाती सड़क के नीचे भी छोटे-छोटे कई मंदिर दिख रहे थे. घाट की चौकी पर पुलिस की चेक पोस्ट थी. कुछ सवारी उतर तेजी से काले चीर लगे छोटे थापे मंदिर की ओर लपके और वहाँ खिचड़ी चढ़ा कर आ गये. बस में सवारी चेकिंग हुई. कुछों की लटी-पटी भी टटोली गई. एक डोटियाल तो रोने लगा “के णि हुन छो हो हजुर ” पर अपनी यूपी पुलिस. उसकी पुंतुरी खोल ही दी और उसमें निकली गुड़ की भेली “रss, तेरे को गुड़ की भेली पिथौरागढ़ नहीं मिलती क्या? सिपाही भी हंस पड़ा.” ये मालिकों ने दी. सौजू ने बोले लौंडा होगा तेरा तब फोड़ना गूड़ की भेली, हजुरो. “तो कितने टैम बाद जा रहा बैतड़ी”. सिपाही ने पूछा.”चैत में गया था शाल भर तो हुई ग्या”. “तो वहां लौंडा किसने तैयार किया बे”? सिपाही ने डपटा. सभी हंस पड़े. डोटियाल सोच में पड़ गया.
घाट चुंगी से फिर चढ़ाई शुरू हुई. पंडित जी वाकई बहुत ही कुशल चालक थे. इतने लम्बे सफर के बाद भी मेरे बदन में जरा भी थकान न थी. अब बड़ी खुली सी जगह में बस फिर रुकी. यह मीना बाजार था. तीन चार दुकानें, सब जगह लकड़ी के चूल्हे और उन पर रखी चाय की केतलियां. सामने परातों में रखी पकोड़ियाँ, अल्यूमिनियम के डेगों में रखे काले चने जिनमें पड़ी लाल मिर्च उबल उबल कर तेल के साथ ऊपर सतह पर आ गई थी. सभी दुकानें लकड़ी के लम्बे गिंडों की वर्गाकार व आयातकार घेरेबंदी से बनीं थीं जिनकी छत, कुछ में टीन की, तो कहीं पुवाल बिछा कर बनाई गई थी. नीचे दूर घाट में बहती रामगंगा थी जिसका लम्बा सर्पिल पाट यहाँ से साफ दिखाई दे रहा था. सारी दुकानों के आगे कोलतार के ड्रम थे जिनमें पानी भरा था. प्यास तो मुझे भी खूब लगी थी पर उन ड्रमों में स्टील के मग डाल लकड़ी के बेंच में खाली मगों में भरा जा रहा था. भरने वाले हाथ अभी-अभी बर्तन धो रहे थे, आटा गूंथ रहे थे. यहाँ काफी धूल थी जिसका पाउडर उन परातों में भी दिख रहा था, जिन को एक बार सेक कर पकोड़ी, अंडा-पकोड़ी, ब्रेड टोस्ट रख दी गईं थी. जो भी यात्री पकोड़ी मांगता उसके लिए दो मुट्ठी पकोड़ी परात से टीप करीब-करीब जल रहे काले से तेल में डाल तुरंत प्लेट में सर्व कर दिया जाता. सड़क के दूर कोने में लोगबाग शंका समाधान के लिए जा रहे थे. मैंने यह देख लिया था कि ऊपर कहीं से रबर के पाइप लगा पानी आता दिख रहा है. मैंने भी बस से अपनी बड़ी टिन वाली पानी की बोतल निकाली और उसमें पानी भरने निकल पड़ा. पाइप से आ रहे पानी के श्रोत के पास बस के चालक पंडित जी अपने कान में लगी जनेऊ कमीज के अंदर डाल रहे थे. किर्मिच चढ़ी अपनी पानी की बोतल का ढक्कन मैं खोल ही रहा था कि पूरा हाथ दिखा उन्होंने मुझे रोक दिया.
“माट्साब, पानी आगे से भरोगे, गुरना मंदिर से. यहाँ का गंगाजल है वो. खूब पी भी लेना और हाथ मुंह भी धो लेना. फिर गुरना माता के दरबार में शीश झुका लेना. ठीक हुआ…”
बड़े अपनेपन से कही बात कहीं छू गई. पंडित जी सीधे जा कर स्टेयरिंग पर बैठ गये. एक लम्बा हॉर्न और गाड़ी चढ़ाई की ओर चढ़ने लगी. अब बहुत सारी बसें थीं ऊपर की ओर जाने वाली. ऊपर से आने वाले ज्यादातर टाटा के ट्रक थे जो खाली थे और धड़धड़ाते नीचे की ओर बहे जा रहे थे. मोड़ों पर कोई हॉर्न नहीं. एक तरफ पहाड़ तो सड़क के दूसरे सिरे के नीचे ख़तरनाक भ्योल. हमारे पंडित जी की चाल तो बस वही थी लोरी गाती बस में थपकी दिला उनींदा करने वाली. करीब घंटे पौन घंटे के बाद मंदिर में बजती घंटियों से तंद्रा टूटी. सामने गुरना देवी का मंदिर था. आगे दूर तक बहुत बसें खड़ी थीं. पंडित जी ने मंदिर से थोड़ा आगे बस रोकी और कहा, ” बस सौ मीटर आगे बढ़ जाओ और छक के पियो धारे का पानी. आओ”, वो सामने देखो पहाड़, कैसी दूध की धार बहाता झरना है. वाह, मैं बस में लौटा और अपना निकॉरमेट एफ टी टू कैमरा निकाल चालू हो गया. झरना, मंदिर, पंडित जी क्लिक क्लिक.
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वाकई इस पानी की ठंडक और इसका स्वाद कभी नहीं भूला. एकदम तरोताजा कर दिया इसने. अपनी बोतल भरी और माँ गुरना को हाथ जोड़े. मंदिर के पुजारी ने बैठने को कहा और मेरे माथे पर दो बार पिठ्या घिस अक्षत चिपका दिए. जेब में हाथ डाल मैंने भी एक नोट देवी के चरणों में रख दिया. हरा नोट था पांच वाला. भीतर बस में थालियां घूम रही थीं उनमें पिठ्या अक्षत होते, जिन्हें लोग लगाते और थाली में अपनी श्रद्धा से सिक्के रख देते. चवन्नी अठन्नी रुपया दस पैसे पांच पैसे भी. कहते हैं पहले इस जगह बहुत दुर्घटनायें हुईं. फिर स्थानीय ग्रामवासी थे कोई भट्टजी उनको स्वप्न हुआ मंदिर बनाने का. तब से सब ठीक ठाक हो गया. भट्ट लोगों ने ही पूजा पाती के प्रबंध किये. मंदिर के निर्माण में शहर के बड़े दानदाता लाला सेठों द्वारा दी राशि का संगमरमर भी दिखा तो शहर की कुछ दुकानों के बोर्ड भी. आइये राजा होटल में आपका स्वागत है. अपट्रॉन टी. वी. पुनेठा क्लॉथ. खर्कवाल स्टोर. लाला दामोदर दास खत्री. राजा होटल.
गुरना मंदिर की चढ़ाई चढ़ सामने सड़क के दूर-दूर छिटके मकान, घर को लौटते जानवर. गाय बैलों के गले में बँधी घंटियों की टुनटुन. सड़क किनारे की दर्जन भर दुकानें, कहीं सुबह की बनी लाल जलेबी तो कहीं सूखी मरियल सी सब्जियाँ, कुछ सौदे बस्ते की और एक दुकान कॉपी किताब की भी. यह गुरना था जिसके आगे दाईं ओर ऊपर की ओर पगडंडी, बड़ा सा बोर्ड राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, गुरना. अब आगे घाटी का सपाट छोर. इग्यारदेवी और फिर कई लुभावने मोड़ जो नैनीताल के चील चक्कर मोड़ से कहीं अधिक पैने और घुमावदार थे. फिर एंचोली तक चढ़ाई. सड़क के दोनों ओर घर और दर. चहल-पहल. आगे फिर चढ़ाई तो ठीक सामने फैला हुआ पिथौरागढ़. ऊपर की ओर उठती पर्वत श्रेणियाँ. अब क्या मिसाल दूँ तुम्हारे शबाब की. मन में मुहम्मद रफ़ी बजने लगा था.
बस रुकी भी न थी कि अगल-बगल से मेट छत पर रस्सी फैंकने लगे थे. खिड़की से बाहर देखा तो सामने बहन खड़ी थी उसका ट्रांसफर मुझसे पहले यहां हो गया था. उसके साथ उसकी दोस्त भी थी. जो मेरी संध्या दी बनीं. मैं बस से बाहर निकलने ही वाला था कि पंडित जी की आवाज सुनाई दी, “आपको सोर घाटी फले माट्साब”. मैं अचानक ही बड़ा कृतज्ञ और भावुक हो पड़ा. कहते हैं कि दिन में एक बार तो आदमी की जबान पर सरस्वती बैठती ही है. वाकई पिथौरागढ़ ही वह जगह रही जिसने मेरी छोटी-छोटी हसरत परवान चढ़ा दीं. उससे आगे की तमन्ना की अपनी औकाद भी न थी.
मृगेश.. एक धीमी सी आवाज आई और मेरे कंधे पर उसके हाथ का स्पर्श. मुड़ के देखने से पहले ही वह मेरे सामने था. दीप पंत. फिजिक्स का होनहार. डी एस बी प्रोडक्ट. फोर फर्स्ट. शांत, रिज़र्व, साहित्य प्रेमी. मेरी ही तरह उसका भी कुमाऊं विश्वविद्यालय में प्रवक्ता पद पर सेलेक्शन नहीं हुआ था. डी एस बी नैनीताल में पढ़ा रहा था. रिसर्च के डॉ पंत के ऑफर को भी ठुकरा चुका था. प्रोफ़ेसर सनवाल उसके लिए आई आई टी कानपुर में व्यवस्था कर चुके थे तो ऑब्जरवेटरी के डायरेक्टर डॉ सिनवल उसे साफ अपने यहाँ आने का ऑफर दे चुके थे. पर दीप ने चाहा था बस पढ़ाना.
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“आज ही पहुंचा, वाह”. कह उसने मुझे अपने में लपेट लिया, “अब आएगा मजा. चल पहले भोलेनाथ के यहाँ चलें”. पुरानी बाजार की सीढ़ियों से परे उसने मुझे शिवालय ओर मोड़ दिया. नीचे सीढियाँ उतर पानी का धारा था. दीप की देखा-देखी मैंने भी जूता जुराब खोल हाथ पाँव धोये और छक के पानी पिया. पानी बहुत ही मीठा और ठंडा, तृप्त कर देने वाला. यहाँ अपना सामान रखते बहन बता रही थी कि पिथौरागढ़ में तो पानी की बड़ी दिक्कत है. खास तौर पे टकाना के इस मोहल्ले में. दुमंजिले में तो चढ़ता ही नहीं. कई बार तो आता भी नहीं. तब दूर पदिया धारा जाना पड़ता है.
इस बहुत पुराने मंदिर की लोकेशन निराली लगी. ठीक सामने बड़ी सी लकड़ी की चौखट जिस पर खूब बड़ा व भारी पीतल का घंटा लटक रहा था. उसके अगल बगल और छोटी दो घंटिँयां. बड़ी घंटी की आवाज में गूँज थी जो बड़ी देर तक सुनाई दे रही थी. दीप ने बड़ी घंटी बजाई और फिर विलंबित ताल से छोटी घंटिँयां टुनटुनाई. तभी बाईं ओर जल रहे अलाव के पास बाबा से थोड़ी दूर बैठे ढोली ने ढोल बजाना शुरू किया
भीतर शिव मंदिर में पूजा कर रही महिलाओं ने आरती शुरू कर दी . टन्न टुन टुन टुनटुन टन्न टुनटुन ढमक ढमक ढम छन छन. बाबा का चिमटा भी बजने लगा.भीतर शिव लिंग फूल बेलपत्र केले व सफेद धतूरे के फूलों से भरा पड़ा था. इतनी धूप अगरबत्तियां कि आगे धुंधला धुँधला और शिवलिंग हिलता सा लगा .मैंने देखा कि दीप एक कोने में पत्थर के चंथरे पर चन्दन की बड़ी सी लकड़ी को घिस रहा है. उसका पूरा ध्यान बस वहीँ है. फिर उसने अपनी हथेली से घिसे चन्दन को समेटा और वहीँ रही एक कटोरी में इकट्ठा कर दिया. वहाँ आरती कर रही महिलाएं बाहर जा चुकीं थीं. बस दो तीन ही लोग रह गये थे.अब चौका मोड़ दीप उस चौके पर बैठ गया जिस पर शायद पंडित जी बैठते थे. मैं भी सुखासन में बैठ गया. दीप ने फूल पत्ते हटा शिवलिंग में कुछ जगह बनाई और शिव जी के माथे पर चन्दन से तीन लकीरें बना दीं. फिर वहीँ थाली में रखे अक्षत वारे. एक टीका मुझे भी लगा.फिर हाथ जोड़ शिव जी से कही जा रही उसकी धीमी शांत आवाज मुझे सुनाई देने लगी. “लो, भोले नाथ, ये भी आ गया यहां. खूब भगत बढ़ा रहा तू. अब इससे खुश रहना. खूब संतोष देना इसे अपने कामधाम से. इसके पांव में भी छनीचर है. खूब डोलता है तेरे गणों की तरह. बस बीच बीच में देखते रहना हाँ”.
भगवान से ऐसी बात-चीत तो मैंने सुनी ही न थी. मैं तो ज्यादा से ज्यादा कोई एकआध मंत्र बोल देता था जो घर में हो रहे अनवरत कर्म कांड से मुझे रट गये थे.उनका अर्थ जानने की कोई कोशिश भी मैंने न की थी. वाहय पूजा में ठ्या में, मंदिर में सब सजा कर रख देना, दिया ज्योत जलाना धूप -अगरबत्ती जलाना, हवन सामग्री बना लकड़ी के पतले पच्चर दराती से फाड़ रख देना और बल्ब वगैरह ठीक ठाक कर देना मुझे बड़ा अच्छा लगता था. पूजा के लिए कसार, रोट और पुए भी खूब बना लेता था. पर ये दीप तो सीधे शिव जी से सीधे बात कर रहा.शिव लिंग की ओर मुंह किये ही पीछे लौट फिर प्रदक्षिणा की गई और फिर बाईं ओर के थान में जाने से पहले विशाल बड़ के पेड के नीचे रही काली विविध मूर्तियों को हाथ जोड़े गये. वहाँ भी दिए जले थे. धूप अगरबत्ती सुलग रही थी.अब सामने बड़े से कक्ष में जिसकी भीतरी दीवार की जगह शिला थी. वहां प्रवेश किया . यह देवी मंदिर था जहां अनगढ़ सी एक मुख्य मूर्ति थी. इस कक्ष में अद्भुत शांति थी. काली मूर्तियों में लाल वस्त्र व चीर इसे थोड़ा डरावना बना रहे थे.
अब वापस पीछे की तरफ से हनुमान जी थे और बिल्कुल कोने में भैरव बाबा. उसके ऊपर कुछ सीढियाँ चढ़ बड़ा चबूतरा था जिस पर काफी लोग बैठ सकते थे. साफ सुथरी दरियां बिछीँ थीं. दीप आगे आगे था जो अब बढ़ कर धूनी के पास बैठे बाबा के सामने की चटाई में बैठ गया. बाबा ने तुरंत भभूत लगा दी, माथे के साथ कान और गले के टेंटुए में भी फिर उसी हाथ से पीठ भी ठोक दी. मेरे साथ भी यही हुआ.
“चा लो भगत “. कह धूनी के किनारे पड़ी चाय की कितली से स्टील के गिलास में बाबा ने चाय डाली. चाय की लम्बी सुडुक के बाद गिलास रख बाबा ने सुलफे पर चिमटे से सुलगता कोयला निकाला और बम भोले हो गई. दीप की ओर बढ़ाया तो उसने हाथ जोड़ दिए और मैंने भी.
बाबाओं की जिंदगी भी निगरगंड है. बस एक अड्डा मिल जाये सामने आस्था भक्ति डर और रूटीन से बंधे लोग- बाग, रोज कुछ न कुछ पर्व त्यौहार, सब कुछ का प्रबंध करती श्रद्धा. सुलफे से महकती,अत्तर की तेज महक.उसी से सर घूमने लगा था. सुना था पिथौरागढ़ में तो अत्तर की भारी आवक है. नेपाल से भी खूब आती है. इसकी बदौलत कइयों ने खूब कोठियाँ खड़ी कीं हैं.चीन डमपिंग भी खूब करता है. सौ का जूता बीस की छाता दस की पेन. सारा इलेक्ट्रॉनिक्स का सामान, कपड़ा कम्बल लोग झूलाघाट धारचूला से भर भर लाते हैं. लाला लोगों के ट्रक हुए ही यहां वहां पहुंचाने को.
हम मंदिर से निकल अब ऊपर की ओर सीढियाँ चढ़ने लगे. दीप ने बताया ये पुरानी बाजार है. जिस पर रास्ते के दोनों ओर छोटी बड़ी दुकानें ही दुकानें. रह रह कर कई लोग उसे नमस्कार कर रहे थे. उनमें युवा जवान होते पट्ठे भी थे तो और भी कई. यहां हाथ जोड़ नमस्कार करने का कुछ का तरीका बड़ा खास था. बिल्कुल पास से गुजरता कोई दीप को नमस्कार कर रहा है तो जुड़े हाथ उसी की तरफ घूमे हुए हैं.मेरी तरफ वह देखेगा भी नहीं. ये कन्नी काटने का लेटेस्ट इग्जामपुल दिखा.
छोटी छोटी सुनारों की दुकानों से चढ़ती सीढियाँ. गोल घूमते चक्के, निकलती हवा,सुलगती भट्टी, खटखट-पटपट, सुनार और कारीगर सब जमीन पर आसन लगा बैठे हुए, दूसरे किनारे लम्बी बेंच जिस पर गाहक गर्दन झुकाये बन रही चीज पर ध्यान लगाए.
(Chhiplakot Article by Mrigesh Pande)
“प्रोफेसर साब “… आवाज लगी और दीप ने मेरा हाथ थाम मुझे भी उस बड़ी सी दुकान के भीतर कर दिया जहां एक गौर वर्ण का बड़ा हैंडसम अपनी पूरी मोहक मुस्कान के साथ हाथ बढ़ाये खड़ा था.
ये अपने हीरो सचदेवा हैं. बड़े दिलदार. शौकीन.
पूरी बड़ी सी दुकान पे नज़र फिरा मैंने पाया कि वहाँ सारा नया पुराना माल भरा पड़ा था बड़ी व्यवस्था से. चार पांच लोग कहीं कुछ पैक कर रहे, कुछ बांध रहे खोल रहे. होल सेल कारोबारी लगा मुझे ये सचदेवा. सफेद शर्ट के साथ नीली टाई आकर्षक टाई पिन से बँधी , सफेद पेंट, काली पेटी, काले मोकासीना शू. बदन से महकती इत्र की महक.
“आइये आइये. आज सोमबार है. मैं सोच ही रहा था अभी तक आये नहीं आप दर्शन करने. इसी बहाने आपके दीदार हो जाते हैं”.
लो अपनी संगत का एक और बढ़ा. इनसे मिलो.
मेरा तारुफ्फ कराया गया. दीप ने बताया अपना सचदेवा शेरो शायरी में बड़ा गहरा है. लिखता भी है पर सुनाता सिर्फ तब है जब सिंगिंल माल्ट वाली का साथ हो जिसके लिए संडे तक इंतज़ार करना पड़ेगा और बहुत बढ़िया कुक भी है अपना हीरो . चिकेन बर्रा तो क्या बनाता है”. दीप की इस प्रशंसा से हमारे हीरो के गिज़े लाल पड़ गये . अपनी पूरी धवल बत्तीसी दिखा बोला “तो अगला इतुवार पक्का. दस बजे निकल पड़ेंगे उधर चंडाक की ओर. दिन भर आपके नाम”. इनविटेशन मिल गया.
सचदेवा की दुकान में भीड़ बढ़ने लगी थी.फिर होती है भेंट कह दीप ने उससे हाथ मिलाया. फिर मैंने भी अपना हाथ बढ़ा दिया. बड़ी मजबूत कड़क,पकड़ थी उसमें , स्पैटुलेट हैंड, उँगलियों की संधि में गांठे. मन तो हुई कि अंगूठे को पीछे की तरफ मोड के देखूं कि लोच कितनी है.पर इतना तो अंदाजा लग गया कि आदमी दृढ भी है दिलदार भी. ऐसे लोग,ऐसे हाथ बहुत कम ही मिलते हैं. ज्यादा तो पसीने से भरे लुत्त हाथ. श्रीनगर के अपने मित्र और कई मामलों में गुरु महेश कर्नाटक जी की याद आ गयी. उनके साथ ने पॉमिस्ट्री के कई रहस्य बातों बातों में मेरे भीतर भर दिए थे खुदबुद करने को.
सचदेवा जनरल स्टोर के बाहर संकरी सी उस बाजार में हम ऊपर की और चढ़ने लगे . दीप को लगातार नमस्कारें ठुक रहीं थीं. अचानक ही वह रुका और बोला,” ये शिवालय धारे के पास तल्ली बाजार में परमानन्द जी की सबसे पुरानी कण्ट्रोल की दुकान हुई. पनार साइड के हुए वह.ऊपर अब, ये सय्यद परिवार वालों की दुकाने हैं बड़ी पुरानी ,जो अटरम -बटरम कहीं न मिले और जगह न मिले वह कमर अली ,मीर अली चिराग अली के यहाँ मिल जाये. इनमें जो चिराग अली हुए उनके अब्बा हुए मीर साहिब. और खूब लम्बे समय तक रामलीला में रावण का पार्ट खेलते आये.मियां अंकू वो भी यहीं रहते थे. रावण का ऐसा अभिनय कि बाजार में चलते मिल जाएं तो औरतें रस्ता छोड़ इधर -उधर हो जाएं.कई तो थू करें. पुराने लोग बताते हैं कि मियां थे बड़े सीधे साधे पर आवाज ऐसी कड़क जो सोहराब मोदी से भी उन्नीस रहे .उन्हीं के समय में केकई का रोल करते थे अम्बा दत्त कलखुड़िया. यहीं आगे तुफ़ैल बक्स की जूते की दुकान हुई जो अपने क्रेप सोल के जूतों के लिए फेमस हुई तो ऊपर नबी बक्स हुए जिनके वहां बाटा फ्लेक्स सब मिल जाता है.
(Chhiplakot Article by Mrigesh Pande)
धीमे से दीप ने मेरे कंधे पर अपना हाथ रखा ,मैंने उसकी और देखा तो उसने सीढ़ियों से ऊपर की और बनी पुराने ढब की एक दुकान की ओर इशारा किया और बोला ,”पिथौरागढ़ का सबसे अहम् व्यवसाय इन सब छोटी मध्यम दुकानों में सिमटा है. सोना ,सोने के जेवर. वो जब एक ही वस्तु सामान आकार रूप-रंग में होमोजीनियस हो और विक्रेता भी बहुत सारे तो उसे तुम परफेक्ट कॉम्पिटीशन कहते हो न, पर यहाँ ऐसा नहीं है. सबसे ज्यादा इस दुकान का बिक्री बट्टा है. वो क्या हुआ अब इमपर्फेक्ट या मोनोपोलिस्टिक कॉम्पिटीशन. तो ये बड़ी दुकान वाले गोविन्द लाल चौधरी तो ब्रांड हुए. अभी तो काला महीना चल रहा पर वहाँ भीड़ देख. पैसा हो न हो,या सब पेशगी दे दिया जाय गोविन्द लाल चौधरी का नाम ऐसा फला है कि लोग आंख मूंद भरोसा करते हैं.इनके भाई हुए लच्ची लाल चौधरी वो पोलिटिक साइंस पढ़ाते हैं.अभी बगल में उनका बड़ा लड़का बैठा है उनकी ही ट्रू कॉपी. वो जो दुकान में सफ़ेद कमीज वाले बैठे हैं न,वो वासुदेव पांडेजी हैं कॉलेज में संस्कृत के हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट. हर महीने तन्खा मिली तो बंधी रकम से सोना पक्का करवा लेते हैं. बनारस के हैं बड़े विद्वान.मैं उस दुकान की और देख ही रहा था कि दुकान के भीतर से दीप के लिए कई हाथ हिले. “आ चल ,थोड़ी देर बैठते हैं. तू भी थक गया होगा”.
दुकान के पास पहुंचे तो अपने हाथ में कोई सोने की माला उठाये ही गोविन्द लाल जी ने हाथ जोड़े और आवाज आयी,’भैट ‘.संयोग से दायीं ओर की बेंच खाली पड़ी थी. दीप ने मुझे इशारा किया और मैं उस सिरे पर बैठ गया जहां से पूरी दुकान वाइड एंगिल में मेरे सामने थी. परिचय हुआ गौर वर्णीय मझोले कद ,माथे पर गोल चन्दन और भेदती आँखों वाले प्रोफ़ेसर वासुदेव पाण्डे जी से ,उनके बगल में बदरंग सी कमीज पहने कुछ अस्तव्यस्त से लम्बी नाख वाले हिंदी के प्रोफेसर दीक्षित और उनके बगल में गौर वर्णीय ,बड़ी बड़ी आँखों और मोटे मोटे होंठों वाले अंग्रेजी के प्रोफेसर कार्की जी जो वैल ड्रेस्ड थे और इत्मीनान से सिग्रेट की धीमी चुस्की लगा रहे थे. इनकी गोद में अगर एक सफ़ेद रूसी बिल्ली होती तो !मैं ब्रिटिश फिल्म के सलीकेदार विलेन की कल्पना कर ही रहा था कि उन्होंने बड़े स्नेह से छलकती आँखों से मुझे देखा और बोले ,”तुम्हारे पापा याद आते हैं मृगेश ,गजब की पर्सनालिटी थे. रानीखेत से ज्ञानपुर ट्रांसफर कर दिया था मेरा डायरेक्टर ने ,वाइफ बड़ी बीमार ,बेड में पड़ी हुई. तब बरसर साब से कहा और ट्रांसफर कैंसिल. डायरेक्टर अपने मायाराम जी इतना मानते थे उन्हें. वो ही क्या डायरेक्टरेट की नब्ज रखते थे हाथ में.वहां के कर्ताधर्ता श्रीराम और अशफ़ाक़ तो जैसे जेब में हुए. यूनिवर्सिटी तो छल गयी बरसर साब को,जिसके लिए जान लगायी वही पलट गया. मैंने पाया कि उनकी आँखें छलछला रहीं हैं. में बड़े संकोच में पड़ गया. यह अहसास तो मुझे था ही कि मेरी पहचान मेरे बाप के ही नाम से है ,मैं…
चाय की आवाज से ध्यान भंग हुआ देखा छोटे छोटे गिलासों में अद्धी चाय वहीँ स्टोव में बन रही थी . “कल ज्वाइन करोगे फिर ?डॉ करन तो हैं नहीं. बाराकोटी जी करवा देंगे चार्ज. दस बजे जूलॉजी डिपार्टमेंट में चले जाना ,बाकी काम तो बड़े बाबू तिवारी जी का हुआ ,बसेरा बाबू का हुआ.अच्छा हुआ तुम आ गए. हामिद जब से गया रामपुर तब से घपला ही है तुम्हारे विभाग में.वो डॉ साह आये कि नहीं लौट के ?कार्की जी ने दीप से पूछा. दीप ने अपना हाथ एक सौ अस्सी डिग्री पलटा दिया. मेरी समझ में कुछ न आया. “अरे सब बढ़िया होगा. कल वैसे भी शनिश्चर है. कल की जॉइनिंग यानि तुम जम गए यहाँ ” .ये वासुदेवजी थे. चाय पी दीप उठा. आते रहिएगा पांडे जी. आपसे भली पहचान हो गयी”.गोविन्द लाल जी के हाथ जुड़ गए. हर उंगली में सोने की अंगूठियां थीं. क्रम से पुखराज ,नीलम, माणिक और पन्ना दमक रहे थे. हाँ ,आना तो पड़ेगा ही. ईजा बार बार याद दिलाती है बहिनों की शादी और हर किसी के वास्ते कम से कम पांच-सात तोले सोने के आभूषणों की. अब अपनी एक महीने की तन्खा भी सात सौ और एक तोले सोने की कीमत भी सात सौ. मैं तो सोचता था कि खूब पढ़ लिख नौकरी पर लगें बहनें. औरों की बातें तो अजीब रायता फैलाती हैं. अभी दूसरी बहन ने बी एस सी करने के बाद जियोलॉजी ली तो ले हंगामा.. पूरे बैच में अकेली लड़की, कैसे जाएगी लड़कों के साथ फील्ड वर्क में ?मैंने तो साफ कहा रुई डाल कान में और पत्थर तोड़ने वाले हैमर से फोड़ सर सबके. वैसे भी डॉ वल्दिया जैसे हेड हैं उनने कब किसकी सुनी.फिर भी सोने के जेवर के बारे में कुछ प्लानिंग सी पकाता मैं दीप के साथ दुकान से उतर गया.
ये क्या डिपार्टमेंट में घपले सपले की बात कर रहे थे ?मैंने दीप से पूछा.उसने मेरे कंधे में हाथ रखा ,”अरे कुछ नहीं,सब चलता रहता है. दो लोगों का इकोनॉमिक्स में ट्रांसफर हो गया. तुम्हारे हेड साहिब भी कुछ जरुरी काम से बाहर गए हैं. अब सिर्फ बिपिन उप्रेती है जितना ठेल सकता है ठेल रहा है. उस पर कॉलेज के ढेर काम उसके सर. सब निभा जाता है.अब तू आ गया है.बढ़िया खूब फैली हुई जगह है ये पिथौरागढ़. सोर घाटी . मौसम भी बढ़िया थोड़ा गरम हुआ नहीं कि बस आ जायेंगे बादल और बरस पड़ेंगे. तीन ओर से पहाड़ हुए. चोटियां. आगे वो भाटकोट है वहां से तो पूरी पंचचूली साफ दिखती है. दिखाऊंगा तुझे”.
ऊपर ओर की चढ़ते दोनों तरफ की दुकानें देखते हम फिर बढ़ चले. चर्यो के साथ सोने के छोटे छोटे खुक्कल गछाती वह लड़की एक दुकान के आगे अपना छोटा सा बक्सा सजाये एक बारीक़ धागे में चर्यो डालने लगी थी. उसके बगल में गले में मफलर डाले और सर में चीकट सी टोपी पहने शायद उसका पिता था जो एक चौड़ी सी पट्टी के इनारे किनारे रंग बिरंगे धागों से कुछ कारीगरी कर रहा था. मैंने दीप की ओर देखा तो वह बोला, “इसे टीप कहते हैं, नेपाली डिज़ाइन है.ऐसे ही नेपाली मुनड़े, नेपाली नथ भी यहाँ खूब चलती है. सोना भी आता है नेपाल से, बरेली से भी. अपना चेला है एक लक्ष्मण बराल, उससे मिलाऊँगा तेरे को,वह सब समझायेगा. इस सोने जेवर के धंधे पर किसी ने कुछ काम भी नहीं किया है. कॉलेज में रामसिंह जी हैं हिंदी वाले उन्होंने यहां के लोक पर खूब लिखा है. यहां के इतिहास पर गांव गांव जा लोगों के यहां पड़ी पुरानी चीजें, पुराने औजार, लोकयंत्र, ताम्रपत्र देख लिखते हैं. खूब काम करने वाले लोग मिलेंगे यहां,डॉ मदन चंद्र भट्ट हैं इतिहास में, वहीँ तेरे क्वाटर के बगल में उनका घर है रामाश्रय,खूब लिख़ते हैं वह फिर छोटी -छोटी पुस्तिकाऐं छपा देते हैं यहीं लोकल प्रेस में. अपने घर में, बिषाड़ अपने गाँव के पुश्तेनी घर में पुस्तकालय, संग्रहालय सब बना रखा. श्याम लाल जी हैं इतिहास वाले वो भी बड़े जानकार हैं. पदमा दत्त पंत जी हुए लोक थात पर तो इंटर कॉलेज में तारा चंद्र त्रिपाठी जी हुए नैनीताल वाले..”.
वह तो मेरे गुरू हुए,हिंदी पढ़ाई है उन्होंने इंटर में. उनके तो मैं घर भी बहुत जाता था . वो दुर्गालाल लाइब्रेरी के ऊपर मोहन निवास में. उनके बगल में गिरीश चंद्र पांडे जी रहते थे हमारे हाई स्कूल के प्रिंसिपल. उनके घर तो क्रोकर स्पेनियल कुत्तों का जोड़ा भी था. गुरू जी के घर की कुण्डी खड़काओ तो भीतर भोंक भोंक कर कान कल्या देते थे. जब हम दिख जाएं तो बस दुम हिलाना, चाट -चूट शुरू. त्रिपाठी जी तो यही पूछते हर बार कि क्या लिखा, दिखा. अपने साथ घुमाने भी ले जाते. अपने घर में कई बार बिखरे कागज एकबटयाने का काम देते. यहां वहां फैली किताबें भी सही ढंग से लगवाते. किताबें कितनी थीं उनके पास. उन दिनों तो किसी ब्रह्मपुरी की खोज पर थे. क्या क्या बर्तनभाण्ड इकट्ठा कर दिए थे.बुद्ध पर एक किताब उनने मुझे दी थी अभी भी है मेरे पास और भी एक किताब दी थी जिसमें यहाँ की शौका जनजाति की संस्कृति पर लिखा था. उसका ‘अमरीमो’ मुझे अभी भी याद है. अब जाऊंगा उनके पास. शायद अब समझ में आ जाये.इस अमरीमो के बारे में विस्तार से जानना है.
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दीप से बात करते आगे सीढ़ियों पर कदम बढ़ाते मेरी नजर हरे पेंट से रंगे दरवाजों, खिड़कियों और पूरे लकड़ी से बने घरों पर टिक गईं.
ये सब मालदार साब की मिल्कीयत है. ये सब लकड़ी -लोहे का का पुराना काम है, बड़ा मजबूत नक्काशी दार. ये वोई मालदार साब हुए जिनने नैनीताल डी एस बी के लिए अपनी जमीन दान की थी.यहां देव सिंह इंटर कॉलेज है,साथ ही पूरा खेल का मैदान भी,उन्हीं के नाम पर. इनकी सक्सेस स्टोरी पर भी तू लिखना. मैं रविन्द्र से मिला दूंगा तुझे. यहाँ से आगे धर्मशाला लाइन तक सब उनका ही है.
दीप के हाथ का स्पर्श मेरे कंधे पर था. ये देख,ये है नबी बक्स की दुकान. ये परिवार भी पुस्त पूरी कर चुका यहां आये. यहाँ हैदर मास्साब भी बैठते हैं. ऊपर चँडाक में हैदर का बगीचा भी है.मिशन स्कूल में अंग्रेजी और गणित पढ़ाते हैं. बाहर से बड़े कड़क और सख्त पर भीतर तो बहते पानी जितने साफ. इनके साथ वो सोर की सबसे ऊँची चोटी पर चढ़ा था मैं. चढ़ाई है विकट उस असुर चुला की चोटी पर जाने में. वहां चंडाक इनके घर में भी रहा हूँ मैं. इतना घुमाते खिलाते हैं कि वहां से कि लौटने की मन ही नहीं होता . बस बीड़ी सिगरेट नहीं पीनी हुई, नाराज हो जाते हैं. अभी दुकान में बैठे दिख नहीं रहे. चल दिए होंगे चँडाक की चोटी पर.आखिरी बस का टाइम भी हो गया.
अब ये दूसरी तरफ आगे को नई बाजार है. कपडे की दुकानें हैं वहां. लोहाघाट के ब्राह्मण बनिया जो कहो, पुनेठाओं की. कलखुड़िया, खर्कवाल भी. इनके ग्रेन स्टोर भी और राशन का सारा माल भी इन्हीं के टाटा ट्रकों की बदौलत टनकपुर से यहाँ चढ़ता है आगे मुंसियारी, मदकोट जौलजीवी धारचूला तक. पाटनी परिवार है इलेक्ट्रॉनिक्स वाला, मिक्सी रेडियो और उनके ही बगल में एम एस सी फिजिक्स किये मेकेनिक. कहाँ -कहाँ नौकरी पा जाते पर नहीं, बस अपना काम, अपनी दुकान. वो नैनीताल रामलीला मैदान के सामने शेखर वाच हाउस वाले हैं ना बिल्कुल वैसे ही परफेक्ट,अपने काम कारीगरी में.
उधर ही स्वाधीनता संग्राम सेनानी शर्माजी की दुकान है. बड़े जानकार वैद हुए. दुनिया भर की जड़ी बूटी.अब कलकत्ता की लामा फर्म हो या केरल की आर्य वैद्य शाला सबकी पेटेंट दवा मिल जाएगी. झंडू वैद्यनाथ तो हुए ही. मोलभाव नहीं, बकझक नहीं. बड़े खरे गुस्सैल भी हैं.जो पसंद आ गया उसे अपने मौ में मक्खी की तरह चिपका भी लेते हैं.बाकी सब आउट. आगे उधर जजूट वाले पंडित चिंतामणि वैद्य हुए, अरे वो, प्रोफेसर रमेश चंद्र पंत हुए ना डी एस बी में , उनके पिताजी. उनकी दुकान तो यहां के जाने माने लोगों के बैठने का अड्डा हुई. दुनिया जहां की जानकारी ले लो वहां. अब तो नीचे सिनेमा लाइन की ओर वैद्य सरस्वती नंदन भी आ गये हैं.
खूब नामी और भले मानस डॉक्टर रहे है पिथौरागढ़ में. डॉ चन्द हुए, बच्चों के डॉक्टर रहे डॉ त्रिलोकीनाथ पंत जिनका बेटा प्रकाश भी अब डॉक्टर बन गया है. ऐसे ही डॉ मोती राम खरकवाल हुए उनका बेटा हुआ राजू वो भी एम बी बी एस हुआ.सिमलगैर में डॉ चिलकोटी हुए. अब तो हॉस्पिटल में डॉ अवस्थी भी आ गये हैं, आई सर्जन पौडवाल भी. वो भी खूब घूमने के शौकीन हैं. डॉ भूपाल सिंह बिष्ट भी है सर्जन, हर्फ़नमौला हुआ.
यहाँ से आगे नये बाजार में वो पहले पान की दुकान है, बढ़िया पान लगाता है बंगला, कलकतिया देशी बिल्कुल अल्मोड़ा की टक्कर के. उसी के नीचे मोदी लाला का स्टोर हुआ,. बुश, फिलिप्स, मर्फी, टेप ट्राँजि स्टर, जॉली टी वी, अपट्रॉन. फिर गाँधी आश्रम. पंत फार्मेसी जिसमें प्रकाश पंत बैठता है.उसने फार्मेसी का कोर्स किया है. अचानक पड़े में रात अधरात भी दुकान खोल देता है. जिसकी हैसियत न हो तो बिना जताये खूब मदद करता है.कविता भी लिखता है. तुझे मिलाऊँगा उससे.
उसके ही नीचे खन्ना स्टोर हुआ.ये काशीपुर से यहाँ आये, लाला दामोदर दास खत्री, बंसी लाल खत्री का कुनबा. रहते तो सिनेमा लाइन है. लोह लक्ष्मी से ऊपर. लोह लक्ष्मी डॉ रामसिंह का हुआ. बिल्कुल खादी धारी धोती धारी हैं. पोंगा पंथियों की खबर लेते रहते हैं.खूब उपक्रमी. दिनमान धर्मयुग साप्ताहिक हिंदुस्तान में पहाड़ पर धारदार लिखते रहते हैं. जाने माने लेखक उनके यहां आते रहते हैं. अभी कुछ दिन पहले शोभाराम शर्मा, चित्रकार हरिपाल त्यागी और वाचस्पति आये थे. रामसिंह जी ने चोटी पर ऐचोली में घर बनाया है.वहीँ से रोज पैदल आना जाना हुआ.खूब फल फूल लगाने का शौक भी है. मैं तो एंचोली कितनी बार हो आया. पत्नी बहुत सीधी सादी पूजा -पाठ वाली इतना खिलाती हैं कि पूछ मत. गुरूजी तब परिहास भी करते हैं कि खूब पेट भरो बामण का. इनका बड़ा लड़का हुआ भारत और लड़की नीर प्रभा. यहीं कॉलेज से पढ़े है.
नबी बक्श की दुकान के आसपास टहलते और फिर सीढियाँ चढ़ ऊपर पहुँच दीप ने नीचे पसरी दुकानों की ओर इशारा किया और फिर मुझे सोर घाटी की बाजार का इतिहास भूगोल समझाने लगा.”ये सब नीचे तक माहेश्वरी वाली लाइन हुई . लोग बताते हैं कि यहाँ पहले जोरदार मूँछ वाले मोहन लाल साह जी की दुकान हुआ करती थी . परचून का हर सामान मिलता था तो पूजा की चीज बस्त भी”.
“अब अखबार ले लूँ हां. यहाँ तो अखबार बरेली से शाम तक ही पहुँच पाता है. सब अंग्रेजी वाले और दिल्ली से छपे हिंदी वाले अखबार दिल्ली वाली गाड़ी से आते हैं. में तो रोज दुकान से ही ले जाता हूँ”.
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अब मेरी नजर उस बहुत बड़ी सी दुकान पर टिक गई जिस पर लिखा था पंडित मनीराम पुनेठा एंड संस. बगल में छवि दत्त पुनेठा जूते वाले. दीप के साथ मैं आगे काउंटर की तरफ बढ़ गया. काउंटर क्या था तमाम अखबार और पत्रिकाऐं लाइन में क्रम से रख दी गईं थीं. भीतर दो तीन जवान से पट्ठे थे जो तुरंत पत्र पत्रिका हाथ में थमा नोट भीतर की ओर एक बड़ी टेबिल में रख रहे थे जिस पर टोपी धरे, काये रंग का कुरता और उसी रंग की ढीली ढाली फतुई पहने गले में मफलर डाले, साठ तक के दिख रहे बड़े प्रभावी सज्जन जमे थे. उनका ध्यान बस शतरंज के बोर्ड पर टिका था.उनका परिचय देते दीप ने मुझे बताया कि,” ये हैं घन श्याम पुनेठा. गजब की पर्सनालिटी. किताबें बेचते ही नहीं पढ़ते भी हैं, पढ़ाते भी हैं . जब मोहरा हाथ में हो या किताब पर ध्यान लगा हो तो मुँह के आगे रखी चीज भी ग्राहक मांगे तो हाथ हिला मना कर देते हैं. भीतर इनकी दुकान में यहाँ के नामचीन लोग और एक से बढ़ कर एक हस्तियाँ बैठी रहती हैं. देश परदेश की कोई बात हो अगर बुड़ज्यू को जम गई तो उसकी पूँछ से ले कर सर तक सब डिस्कस कर देंगे. वरना इनके ठेंगे से. इनके यहाँ स्वामी जी भी बैठते हैं स्वामी प्रणावानन्द. कई बार कैलास मानसरोवर की यात्रा करने वाले. आजकल यहीं दिखते हैं, चिलकोटी वकील साब के यहां टिके होंगे, क्या पता अभी यहीं दिख जाएं”.
दीप की बातों के साथ पुनेठा जी के शतरंजी बको ध्यान से प्रभावित, मैं इस बीच, पूरी दुकान पर जहां तक नजर पंहुच सकती थी, निरीक्षण कर चुका था. हिंदी अंग्रेजी के साथ बंगला तक की पत्रिकाऐं, प्रबुद्ध भारत भी. धर्म- दर्शन- आध्यात्म का खजाना, गोपीनाथ कविराज और जे, के कृष्णमूर्ति की किताब तो बस ठीक सामने. चौखम्बा, वेंकटेश्वर प्रेस, गीता प्रेस, तारापुरवाला बॉम्बे तो दिख ही रहे थे,बाकी किताबों का अम्बार भी बड़े कायदे से लगा हुआ. भीतर सर -फर करते लड़के भी बहुत तेजी से मांग पूर्ति का संतुलन कर रहे थे.
मैंने भी अखबार पत्रिका लगानी है. मैंने दीप से कहा तो दीप ने इशारे से उस गोल मटोल पट्ठे को बुलाया जो कैपिटल कॉपीयों का बंडल खोल रहा था. वह हाथ में पकड़ी कॉपी रख आया और उसने दीप के साथ मुझे भी हाथ जोड़े. हाँ, बबलू इनके अखबार पत्रिका लगानी हैं. फ़ौरन रजिस्टर खोल उसने मेरा नाम पूछा, प्रवक्ता अर्थशास्त्र लिखते फिर हाथ जोड़े. हां सरजी, बताइये. जनसत्ता कहते ही अखबार मेरे हाथ में दे दिया गया. उसने मुझे देखा और हाथ की पेन दो उँगलियों में नाचने लगी. दिनमान, साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग और सारिका, माया भी . इसके साथ इकोनॉमिक टाइम्स.
चारों पत्रिकाऐं मेरी ओर रख वह कुछ कहने वाला था कि भीतर से बड़ी धीर गंभीर आवाज आई, ” इकोनॉमिक टाइम्स तो अभी तीन ही आते है.एक डी एम के यहाँ जाता है.दूसरा स्टेट बैंक के मैनेजर लेते हैं और तीसरा मेग्ने साइट वाले रावत जी. आपका हफ्ते भर बाद लगेगा.तब तक यहीं दुकान में पलट लेना. कंटिन्यूटि बनी रहेगी. मैंने तेज चुभती और बड़े सम्मोहन वाली उस नजर को देखा जो अब मेरी ओर टिकी थीं. लो ये शह और मात कहने के बाद उनका धीर गंभीर स्वर गूंजा, ” ला भुवना, वो पानी तो पिला बेटा,कापड़ी जी को भी पिला घोड़े की ढय्या से चित हुए हैं “. बड़े से लोटे को अपने बड़े से हाथ में थाम अब वह गट्ट गट्ट कर पानी पीने लगे थे.
लोटा पास ही खड़े भुवना के हाथ थमा अब वह बाहर काउंटर की तरफ आ गये. “नये आये हैं. ये पांडेजी हुए. अच्छा!आप तो पंण जू पाण्डेखोला अल्मोड़ा के हुए ये कहाँ के हुए”? उन्होंने दीप से पूछा जबकि देख वह मेरी ही ओर रहे थे.”ये पल्यूं के पांडे हुए, वो बाड़े छीना से आगे “दीप ने बताया.”अच्छा!तो वो हमारे पहले डी एम साब जीवन चंद्र पांडे भी उधर के ही हुए. जानते हो”. पंडित घनश्याम पुनेठा जी ने मेरी ओर देखा फिर बोले,”जानते हो, वो पहले डी एम थे इस नये जिले के. पहले ये अल्मोड़ा से ही चिपका था. जीवन चंद्र पांडे जी ने आ कर यहाँ काया पलट कर दी. रोज शाम घूमने आते थे पैदल. कोई संतरी चपरासी नहीं. कंधे में झोला भी रहता था. साथ में उनकी श्रीमती जी भी रहतीं थीं. सब्जी वालों से खूब मोलभाव करतीं. ये साले ठग्गू मैदान की सड़ी गली सब्जी बेचने वाले क्या जानें कि डी एम की बीबी हैं. पहाड़ी में बात करतीं थीं और सर में पल्ला जरूर हुआ.पांडे लोग बहुत आये यहां और यहीं बस गये. वो इधर दाईं तरफ देख रहे हो ये सिमलगैर बाजार हुआ. यहीं रहते थे पहले अल्मोड़ा से आये प्रसिद्ध रमेशचंद्र पांडे वकील दुमंजिले मकान में. अब तो नगरपालिका के पल्ली तरफ चले गये हैं. अचानक घनश्याम पुनेठा जी चुप हो गये.
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“अरे वो बढ़िया ड्राइंग शीट का नया बंडल खोल ना, कल ही तो आया है, बिना देखे ना कह देता है. है बेटी मिल जायेगा, रुक जरा ” उन्होंने एक लड़की की ओर देख कहा और फिर मेरी ओर पलट गये. “तो पांडे जी ये जो सिमल गैर बाजार है ना इसमें आग लग गई,1964 की बात है ये. वो वहां भसीन ग्रेन स्टोर हुआ करता था. उसके नीचे पंजाबी की पटाकों की दुकान, होल सेल का काम. अब क्या हुआ उसी पंजाबी का खोता कहीं से एक बानर पकड़ लाया. अब लौंडे ने की ठिठोली और बानर की पूँछ में चुटपुटिया पटाकों की लड़ी बांध दी. फिर उसमें पाड़ दी आग. ले भाई, पट पट शुरू तो बानर भी कूदा. ऐसा सरपट आरपार यहाँ से वहां कि धू धू धू सब स्वाहा . लोग भी इस मजाक का मजा ले रहे थे.पर जब आग सुलगी और पटाके के गोदाम तक पहुंची तब भागदौड़ शुरू हुई. देखते ही देखते सिमल गैर की पूरी बाजार भसम.बानर ने लंका दहन कर दिया पांडे जी.ला भुवनिया,पानी तो पिला, आज गुड़ चना ज्यादा खा दिया मैंने, तीस बुझ ही नहीं रही . ” ताँबे के लोटे से फिर गट गट हुई और गले के मफलर से अपना मुँह पोछ उन्होंने फिर मेरे को देखा.
“अरे भुवन, वो जहां क्विंक श्याही का डब्बा है उसके बगल में जो पैकेट है, वो ला तो. कैंची भी देना हां “. अब वो फिर मुझे देख बोलने लगे,”आग खूब लगी है इस बाजार में. ये जो नीचे लाइन है ना,जहां माहेश्वरी की दुकान है वहां भी आग लगी. ये तो अभी कुछ साल पहले की बात है. लकड़ी के मकान हुए पांडे जी. ऐसा बारीक़ काम, ऐसे डिज़ाइन थे चौखट, खिड़की दरवाजों में,कि क्या बताऊँ. ऐसा काम तो मैंने जौनसार में देखा, हरकी दून की तरफ देखा, हिमाचल की तरफ देखा. क्या कारीगरी हुई. अब कहाँ मिलते हैं वैसे शिल्पकार? वैसे कारीगर. अब तो बस भीतर मैदान की लकड़ी हो आरामशीन में चिरी और बाहर से पोत दो बिरोजा तारपीन सफेदा पेंट- हेंट. तो जब इस लाइन ने आग पकड़ी तो मोहन लाल साह जी की दुकान -मकान सब भसम कर गई. ऐसे ही गाँधी चौक में हुआ धर्मशाला लाइन की तरफ. मालदार साब की दुकाने हुईं वहां. अब कहते हैं कि अग्नि जब भस्म कर देती है तो तरक्की का ताप भी देती है. सब फिर उठ खड़ा होता है. आगे ये सब जय दत्त लोहनी आड़त वाले, किशन लाल जी वो मेघना मिठाई वाले, उन्हीं के पास पनामा के बड़े व्यापारी भसीन लोग, खोयेके लड्डू चॉकलेट पेड़े वाले परमानन्द पंडित और ऊपर सिमलगैर में भट्ट जी, उनके नीचे हरलाल साह जी चक्की वाले सब फिर पनपे”.
मेरा मन उनकी बातों में लग चुका था. बस वो बोलते जाएं और मैं बस सुनता जाऊं. दीप सुन भी रहा था और इल्स्ट्रटेड वीकली पलट भी रहा था.
“ये सब कितने का हुआ”? मैंने ली पत्रिकाओं का दाम चुकाने को बटवा निकाला.
“वो सब हो जायेगा, आप यहाँ देखो. ये तीन चार किताब आईं हैं नई . मैं सुन रहा था इकोनॉमिक्स वाले हो. फिर अपने प्रोफेसर दीप के साथ हो. ऐसे वैसे को तो ये अपने साथ टहलाते भी कहाँ हैं. फिर दोनों दाढ़ी वाले हुए. अनवार भी एक जैसी हुई. कल आओगे तो स्वामी जी से मिलाऊंगा, प्रणवानन्द जी! आज तो वो ऊपर घर में दिन से लिखने में लगे हैं. अब इन किताबों को पढ़ना जरा. फिर मुझे भी बताना इतनी अंग्रेजी कहाँ पढ़ता हूँ मैं. मेरी बेटियां पढ़ती हैं खूब. एक डॉक्टरी में है तो एक लेक्चरर. दोनों बाहर गईं. दुकान ये बेटा चला लेगा. ये पढ़ता कहाँ है? बस धौ -धौ कर ठेल देता है पढ़ाई.”
(Chhiplakot Article by Mrigesh Pande)
मैं देख रहा था कि मुझसे बात करते वह बड़े मनोयोग से उस पैकेट की सुतली कैंची से काट भूरे कवर को हटा तीन किताबें बाहर निकाल चुके थे. ये तो गुन्नर मिरडल है. मैं चौंका भी. नैनीताल में अपने गुरू गिरीश पांडे जी, चंद्रेश अतुल दा और बड़े दा ने समय समय पर मुझे इसे पढ़ने समझने की लहर दी थी.. मिरडल की दो बातें मेरे भीतर सूत्र सा बना चिपक गईं थीं कि कोई भी समस्या हो आर्थिक सामाजिक राजनीतिक और सबसे बढ़ कर सांस्कृतिक व मनोवैज्ञानिक तो उसकी घेर बाड़, उसकी संरचना,उसके स्ट्रक्चर को समझें तभी समस्या के समाधान का रस्ता पकड़ा जा सकता है. दूसरा वृद्धि और विकास के लिए हमेशा एक धनात्मक दृष्टिकोण उपजना चाहिए. रोग और शोक जैसा ना -नहीं -किन्तु- परन्तु नहीं. गिरदा हमारे गुरू जी सवाल उठाते थे कि भूख -अभाव मुफलिसी से घिरे आदमी की सोच में कहाँ और कैसी पॉजिटिविटी? गुलाम और बंधुवा में कहाँ से पैदा होगी क्रिएटिविटी . पर जब मैंने दो बीघा जमीन देखी और मेघ ढका तारा उपन्यास पढ़ा तो मुझे लगा कि प्यास से तड़फ रहे भूख से मर रहे को, जब एक घूंट पानी मिलता होगा,एक टुकड़ा रोटी दिखती होगी, अपनी जमीन का मोह तड़फाता होगा तभी कुछ आगे जीने की आशा भी उपजती होगी उसमें. आदिविद्रोही एक ही दिन में थोड़ी बनेगा. रिचर्ड बाश के उपन्यास का जोनाथन सीगल भी तभी उड़ा,बहुत ऊँची छलांग ले उड़ा,जब उसके पँख तपने लगे ताप से.
“ये लो पांडे जी, इसे कहते हैं संयोग. वो अपना दिल्ली किताब वाला मुझे नई- नई किताब भेजता जाता है और में सोचता जाता हूँ कि इन्हें कौन पढ़ेगा? अब देखो,ये तीन खंड हैं एशियन ड्रामा के, ये क्या है? द चैलेंज ऑफ़ वर्ड पोवर्टी ये 1970 में छपी और ये है,अगेंस्ट द स्ट्रीम.ये तो 1973 में आ गई थी. मेरी पढ़ाकू बेटी ने मुझे बताया था कि बब्बा इनकी बीबी भी नोबल प्राइज वाली है और लड़का भी इकोनॉमिक्स से जिसका नाम जैक हुआ उसकी माँ हुई आलवा .सब संस्कार में मिल गया पांडे जी. अब आप ले जाओ इन्हें,और पढ़ो.. सब पेपर बैक हैं. यहींअपने देश की प्रेस में छपी.कीमत भी दिल्ली वाले ने मय पोस्टेज तीन सौ पचास लगा रखी. छपी कीमत की चौथाई है.आपका अकाउंट तो खुल ही गया यहां. जब होंगे तब दे देना.अरे बेटा तूने अखबार का एडवांस नहीं लिया क्या? आप बस अभी दस रुपये दे दो. जब अखबार बंद होगा तब ये वापस हो जाते हैं.
कंधे में झोला डाल चलने की आदत नैनीताल की आड़त से ही पड़ी थी.अखबार में तुरंत पैक कर सुतली से बांध पुनेठा जी के सुपुत्र ने वह मुझे थमाई और मैंने झोले में डाली.आज झोला खूब भर गया. नई जगह और इतना सब जान लेना. मैंने दीप की ओर गदगद हो कर देखा.
दुकान से बाहर निकल दीप ने कहा कि आगे यहीं पर रजनीकांत जी की दुकान है. ईजा ने कहा है गंगा दशहरा का द्वार पत्र ले आना वहीँ मिलेगा. तेरे यहाँ आने की खबर से वो बहुत खुश हो गई, बाबू भी यहीं हैं अब. आज तो थोड़ी देर हो गई. फिर वो टकाना वाली लाइन में तो कुत्ते भी बहुत हैं. नये आदमी की खूब सूंघ सांघ करते हैं. मैं तो नगरपालिका से नीचे नारायण प्रेस में रहता हूँ. ये जो रजनीकांत जी हुए इनके ही बड़े भाई हुए हीरा बल्लभ जोशी. वहीँ से यहाँ का अखबार निकलता है उत्तराखंड ज्योति. कैलाश दा चलाते हैं.अब तो भगतदा ने भी अखबार शुरू कर दिया है पर्वत पीयूष.उनके भाई भी हैं साथ नंदन सिंह कोश्यारी. आर एस एस वाले हूए वो तो इधर हमारे ही इलाके में बी डी कसनियाल हुए कम्युनिस्ट,वो आज का पहाड़ निकालते हैं. कहते हैं पूरे सोर में ग्यारा कम्युनिस्ट हैं.दिनेश जोशी भी आया है दिल्ली भटक के. बड़े अख़बारों में लिखता है. प्रशासन की नाक का बाल हो रहा है. हमले भी हुए हैं उस पर.अभी वो नीचे पेट्रोल पंप के ऊपर महेन्द्र मटियानी हुए. बता रहे थे कि नया अखबार जनजागर शुरू किया है. मटियानी तो रामलीला में भी खूब लगा रहता है. पहाड़ी में कविता भी लिखता है और जागृति कला केंद्र के नाटकों का डायरेक्टर भी हुआ. फॅमिली ड्रामा खूब मेक अप वाले सेट भी बना लेते हैं. वो ये रजनीकांत जी की दुकान से ही आगे गाँधी चौक में प्राण पुस्तक भंडार है उसी का हुआ जागृति कला केंद्र. हमारे हेड साब आर सी पांडे जी का भी हर नाटक में रोल हुआ. मटियानी की श्रीमती जी हुईं तेजी मटियानी वो भी एक्टिंग करतीं हैं और वो जो दुकान है न, रमेश पुनेरा की वह भी खूब शौक़ीन है. एक से एक एक्टर हैं यहाँ. आगे चक्की है उसमें बैठता है कैलाश पंत. आर्ट्स का स्टूडेंट है हमारा, बड़ा बढ़िया एक्टर है. अब तू आ गया है. वो सफ़दर का नाटक उठाते हैं यार, अलीगढ़ का ताला.राजा का बाजा. या फिर अंधों का हाथी”.
(Chhiplakot Article by Mrigesh Pande)
मन की बात झन झना दी दीप ने. अल्मोड़ा रहते तो नाटक कर न पाया.बस नैनीताल जाता तो रिहर्सल देखता कभी अंधायुग, कभी मैन विआउट शैडो, खड़िया का घेरा. पर अपने बच्चों को ले कर नाटक करने का आनंद ही कुछ और है.
तो एक था गधा. मैं इतनी जोर से बोला कि अगल बगल के लोग हमें देखने लगे.
“शरद जोशी..”
हाँ, वही एक था गधा… एक था गधा अलादाद, जो समय से ऑफिस जाता है, रिश्वत नहीं लेता, राशन की लाइन नहीं तोड़ता. हमेशा टिकट ले कर सफर करता है वही अलादाद”. मैं एक सांस में कह गया.
“तो नवाब बनेगा कैलाश पंत, कोतवाल होगा विश्ववीर सिंह रावत और अलादाद!वो भी है हमारा ही बी एस सी का स्टूडेंट. अरे !क्या आवाज है और क्या आँखें? जमाने भर का गुस्सा छुपा है उनमें. पर प्रॉब्लम तो ये कि वो छमिया जैसे रोल के लिए कोई लड़की तैयार न होगी जिसके डांस के बीच अकड़ के निकलता है कोतवाल, देखो चले कोतवाल संभल के “.
दीप का चेहरा बहुत ही खिला खिला सा हो गया.. आस पास की दुकानों में बल्ब जलने लगे थे. सौ वाट का एक बल्ब रजनीकांत जी की दुकान में जला जिसकी रौशनी दीप के चेहरे पर पड़ी.उसने जैसे अपने कूटस्थ चैतन्य अपनी तीसरी आँख की ओर सारा ध्यान लगा चेहरा ऊपर की ओर किया और फिर वह बोला, “हमारा अलादाद किसी फंदे पर किसी रस्सी पर नहीं लटकेगा. वह तो चोटी पर चढ़ेगा. असुर चुला की चोटी पर”.
जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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