समाज

सिमटती पुस्तकालय संस्कृति

कई पुस्तकालय ऐसे भी हैं जहां पाठकों की संख्या तो पर्याप्त दिखाई देती है पर वे वित्तीय व अन्य संसाधनों की समस्या का सामना कर रहे हैं. इनमें प्रशिक्षित और व्यावसायिक पुस्तकालय कर्मियों का अभाव दिखाई देता है और पुस्तकें अलमारियों अथवा बंद बोरों में सिमटी पड़ी हैं. निस्संदेह इस तरह की परिस्थितियों ने पुस्तकालय और आम पाठक वर्ग के बीच की दूरी को बढ़ाने का ही काम किया है.

सार्वजनिक पुस्तकालय ऐसी सामाजिक संस्था है जिसके माध्यम से व्यक्ति का सतत बौद्धिक और सांस्कृतिक विकास होता है. पुस्तकालयों में उपलब्ध साहित्य, दर्शन, इतिहास, धर्म, विज्ञान, राजनीति के साथ-साथ सामाजिक, आर्थिक और कला, संस्कृति जैसे विविध विषयों की पुस्तकों से मानव अपने ज्ञान में अभिवृद्धि करने का प्रयास करता है. स्थानीय समुदाय के सदस्यों को पुस्तकालय पीढ़ी-दर पीढ़ी शिक्षा, मनोरंजन व विकास के लिए सूचना और सेवा देने का काम करते आ रहे हैं. कुल मिला कर कहा जा सकता है कि एक सामाजिक मिशन के तहत सार्वजनिक पुस्तकालय ज्ञान संसाधन केंद्र के रूप में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं.

पुस्तकालय के पुराने इतिहास पर अगर नजर डालें तो माना जा सकता है कि भारतीय पुस्तकालयों का प्रारंभिक स्वरूप पुरातन काल में भी रहा था. वस्तुत: प्रागैतिहासिक काल की शिलाओं, गुफाओं और अन्य माध्यमों में उत्कीर्ण चित्र-लिपि व लेखों में हम एक तरह से पुस्तकालय की आरंभिक छवि पा सकते हैं. तत्कालीन मानव समुदाय के मध्य विचारों को पहुंचाने में इन शिलालेखों की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी. वैदिक काल में समय-समय पर धर्म व दर्शन संबंधी साहित्य ताड़ और भोज पत्र, वस्त्र विशेष और हस्त निर्मित कागज पर लिखने की परंपरा विकसित होती रही. इस काल में वेद, इतिहास, पुराण और व्याकरण संबंधी कई ग्रंथों की रचना तत्कालीन ऋषि-मुनियों ने की.

हाथ से लिखे गए इन ग्रंथों की पांडुलिपियां स्थान-विशेष यथा मठ-मंदिरों और गुरुकुलों में सुरक्षित रखी जाती थीं. बौद्ध काल में तक्षशिला व नालंदा जैसे महत्त्वपूर्ण शैक्षिक केंद्रों में भी आयुर्वेद, ज्योतिष कला, राज-व्यवस्था, विज्ञान आदि के ग्रंथ संग्रहित रहते थे. मुगलकाल में कई बादशाह अपने दरबार में विद्वानों द्वारा रचित संस्कृत और फारसी के विविध ग्रंथों का संकलन किया करते थे. सम्राट अकबर के पुस्तकालय में भी विविध विषयों के तकरीबन पच्चीस हजार ग्रंथ थे.

हालांकि आधुनिक भारत में पुस्तकालय का विकास उस गति से नहीं हुआ जितनी कि अपेक्षा की जा रही थी. देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था. इस वजह से शैक्षिक पुस्तकालयों की ओर अधिक ध्यान नहीं गया और पुस्तकालयों को राष्ट्रीय स्तर का स्वरूप नहीं मिल पाया. सन 1882 में मुंबई राज्य, 1890 में कर्नाटक और 1910 के आसपास बड़ौदा राज्य में पुस्तकालयों की तरफ ध्यान देने का प्रयास किया गया. इसी तरह पुस्तकालयों के विकास के संदर्भ में 1924 में बेलगांव, 1927 में मद्रास राज्य व 1929 में कर्नाटक के धारवाड़ में पुस्तकालय संघों की बैठकें भी हुर्इं. सन 1933 में भारत में पुस्तकालय विज्ञान के जनक कहे जाने वाले डॉ एसआर रंगनाथन के प्रयासों से मद्रास विधानसभा में पुस्तकालय अधिनियम पारित किया गया. इसी दौर में पुस्तकालय विज्ञान के बीस ग्रंथ भी प्रकाशित किए गए.

एक समृद्ध और बहुआयामी सामाजिक संस्था के रूप में सार्वजनिक पुस्तकालयों की भूमिका देश और समाज के विकास के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है. किसी भी समाज में ज्ञान को सवर्सुलभ बनाने में पुस्तकालय से बेहतर दूसरा विकल्प संभवत: नहीं हो सकता है. वर्ष 2005 में गठित भारतीय ज्ञान आयोग ने इसी बात को ध्यान में रख कर भारत में एक स्वायत्त राष्ट्रीय पुस्तकालय आयोग की स्थापना करने की शानदार पहल की है. वर्तमान में इस आयोग की देखरेख में देशभर में मौजूद पुस्तकालयों के विकास, संरक्षण और संवर्धन की दिशा में कार्य करने का प्रयास किया जा रहा है.

भारत में आज जिस गति से पुस्तक प्रकाशन व्यवसाय में वृद्धि हो रही है और दिल्ली, जयपुर, कोलकाता, पटना सहित अनेक शहरों में आयोजित छोटे-बड़े साहित्यिक उत्सवों और पुस्तक मेलों में कला व साहित्य प्रेमियों की जबरदस्त भागीदारी दिखाई दे रही है उसके सापेक्ष यदि हम सार्वजनिक पुस्तकालयों की ओर नजर दौड़ाएं तो स्थिति कदाचित इसके उलट है. ज्यादातर पुस्तकालय दयनीय हाल में हैं. इन पुस्तकालयों में पाठकों की वह आमद नहीं दिखाई देती जो दरअसल एक पुस्तकालय के लिए पर्याप्त मानी जाती है. इस तरह के सार्वजनिक पुस्तकालयों में इमारतों की खस्ताहाल स्थिति, अल्मारियों में धूल फांकती पुस्तकें, टूटे-फूटे फर्नीचर, अप्रशिक्षित पुस्तकालय कर्मचारी, अन्य मूलभूत सुविधाएं न होने और वाचनालय के वीरान माहौल को देख कर पाठकों में निराशा होना स्वाभाविक है.

देश में प्रत्येक राज्य ने अपने यहां सार्वजनिक पुुस्तकालयों के रखरखाव और उनके संचालन के लिए किसी न किसी तरह की व्यवस्था का प्रावधान तो कर रखा है लेकिन बावजूद इसके सार्वजनिक पुस्तकालयों की स्थिति निराशाजनक ही है. आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, गोवा, उत्तर प्रदेश, गुजरात, बिहार, राजस्थान, हरियाणा, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, केरल, मिजोरम, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, लक्षद्वीप और ओड़िशा की राज्य सरकारों ने अपने यहां सार्वजनिक पुस्तकालय अधिनियम भी पारित किया हुआ है. फिर भी ये पुस्तकालय पाठकों के बीच पैठ नहीं बना पा रहे हैं. कई पुस्तकालय ऐसे भी हैं जहां पाठकों की संख्या तो पर्याप्त दिखाई देती है पर वे वित्तीय व अन्य संसाधनों की समस्या का सामना कर रहे हैं. इनमें प्रशिक्षित और व्यावसायिक पुस्तकालय कर्मियों का अभाव दिखाई देता है और पुस्तकें अलमारियों अथवा बंद बोरों में सिमटी पड़ी हैं. निस्संदेह इस तरह की परिस्थितियों ने पुस्तकालय और आम पाठक वर्ग के बीच की दूरी को बढ़ाने का ही काम किया है.

सार्वजनिक पुस्तकालयों का एक दूसरा स्वरूप यह भी है कि वे ज्ञान, शिक्षा और सूचना के भंडार होने के साथ ही स्थानीय समाज, इतिहास और संस्कृति के प्रबल संवाहक भी होते हैं. इस दृष्टि से इन्हें निकटवर्ती गांव क्षेत्र से लेकर जनपद और राज्य स्तर तक सांस्कृतिक व बौद्धिक गतिविधियों का मुख्य केंद्र बनाने की पहल की जानी चाहिए. इसके तहत सार्वजनिक पुस्तकालयों को आमजन से जोड़ते हुए संस्कृति, कला, साहित्य, समाज, इतिहास, पर्यावरण और समसामयिक विषयों से जुड़े कार्यक्रमों के आयोजन कारगर साबित हो सकते हैं.

समय-समय पर व्याख्यान, वार्ताएं, साहित्यिक गोष्ठियां, प्रदर्शनी और फिल्म प्रदर्शन जैसे आयोजन किए जा सकते हैं. सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक तौर पर कमजोर लोगों के लिए भी इस तरह के आयोजनों को उपयोगी बनाया जा सकता है. स्थानीय समाज व संस्कृति पर केंद्रित शोधपरक आलेखों को पुस्तिकाओं अथवा मोनोग्राफ के रूप में प्रकाशित कर पाठकों के सामने लाने की पहल भी सार्वजनिक पुस्तकालयों के माध्यम से की जा सकती है.

वर्तमान दौर संचार और सूचना तकनीक का है. ऐसे में सार्वजनिक पुस्तकालयों को कंप्यूटर, इंटरनेट सुविधा, लाइब्रेरी नेटवर्किंग, डिजिटल लाइब्रेरी सर्विस, आॅनलाइन सेवा जैसी अन्य महत्त्वपूर्ण सुविधाओं से जोड़ने की भी जरूतत है. हालांकि भारी-भरकम आर्थिक बजट के चलते ई-लाईब्रेरी और डिजिटलीकरण की योजना महंगी तो है पर फिर भी राज्य स्तरीय सार्वजनिक पुस्तकालयों को इस तरह की आधुनिक सुविधा से जोड़ने के प्रयास जरूरी हैं.

समाज में सार्वजनिक पुस्तकालयों को प्रभावी बनाने के लिए अंत:पुस्तकालय आदान-प्रदान सेवाएं, संदर्भ सेवाएं व परामर्शी सेवाएं जैसी सुविधाएं प्रदान की जानी चाहिए. पुस्तकालय को समृद्ध करने के लिए बाल-खंड की स्थापना और वरिष्ठ नागरिकों तथा शारीरिक तौर पर अक्षम पाठकों के लिए सचल पुस्तकालय जैसी व्यवस्थाओं पर भी सोचा जाना जरूरी है. इस दिशा में पेशेवर पुस्तकालयकर्मियों की पर्याप्त उपलब्धता, पाठकों के प्रति सहज व तत्पर सेवाएं भी पुस्तकालयों को संपन्न बनाने में मददगार साबित होंगी. भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय से उम्मीद की जानी चाहिए कि निश्चित रूप से वह सार्वजनिक पुस्तकालयों की बदहाल व्यवस्था को दुरुस्त करने और उन्हें समाजोन्मुख बनाने की दिशा में और आगे आएगा.

पुस्तकालयों की आर्थिक स्थिति मजबूत करने के लिए गैरसरकारी और कॉरपरेट जगत की संस्थाओं से भी सहयोग लिया जा सकता है. इसके लिए समाज के हर प्रबुद्ध व्यक्ति से उम्मीद की जानी चाहिए कि वह पुस्तकालयों को संवाराने में अपना योगदान सुनिश्चित करे ताकि देश के वीरान पड़े सार्वजनिक पुस्तकालय पाठकों से गुलजार बने रहें.

( ‘जनसत्ता’ के 13 अगस्त, 2019 के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख से साभार )

अल्मोड़ा के निकट कांडे (सत्राली) गाँव में जन्मे चन्द्रशेखर तिवारी पहाड़ के विकास व नियोजन, पर्यावरण तथा संस्कृति विषयों पर सतत लेखन करते हैं. आकाशवाणी व दूरदर्शन के नियमित वार्ताकार चन्द्रशेखर तिवारी की कुमायूं अंचल में रामलीला (संपादित), हिमालय के गावों में और उत्तराखंड : होली के लोक रंग पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. वर्तमान में दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र में रिसर्च एसोसिएट के पद पर हैं.

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Girish Lohani

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