समाज

चैतोल पर्व : लोकदेवता देवलसमेत द्वारा सोरघाटी के बाईस गांवों की यात्रा का वर्णन

मध्यकाल में लगभग शत-प्रतिशत पहाड़ कृषि खेतीबाड़ी पर ही जीवनयापन करता था. जीवन प्रकृति के समीप था, आचार व्यवहार हर प्रसंग में ईश्वर भगवान अदृश्य अलौकिक शक्तियों पर अटल विश्वास आस्था थी. कदाचित इसी परिपेक्ष में सामान्य जन जीवन के रीति रिवाजों को भी दैवीय शक्तियों से जोड़ा गया होगा. Chaitol Festival of Pithoragarh Uttarakhand

पहाड़ में एक परंपरा रही है भिटौली. चैत्र माह को भेटौलिया माह के नाम से भी जाना जाता है. प्रचलित विश्वास कहें या मान्यता जिसके अनुसार सोरघाटी के प्रमुख लोकदेवता देवल समेत महाराज (जिनको शिवरुप जाना जाता है) अपनी बहिनों, माता भगवती के अनेक रुपों को भिटौली देने बाईस गांवों का भ्रमण करते हैं.

चतुर्दशी को दोपहर छात का निर्माण, प्राण-प्रतिष्ठा बिंण गांव के बीच होता है. देवता का भनार या भंडार की देखरेख बिंण का भट्ट परिवार करता है. सभी के सहयोग से पुजारी जो कि कुसौली गांव के भट्ट परिवार से होता है पूजा अर्चना शंख ध्वनि कर छात के प्रस्थान का आह्वान करता है और प्रारंभ होता है दो दिवसीय चैतोली पर्व. जिसका समय होता है लगभग तीन से साढे तीन बजे.

सबसे पहले छात को जटेश्वर महादेव, तपश्यूड़ (निकट बिंण ब्लाक) में पूजा जाता है. इसके बाद बिंण ब्लाक के पूर्व में एक छोटा सा मंदिर है जहां से सेरादेवल मंदिर दिखता है, वहां से महाराज का आह्वान होता है. इसके बाद छात बिंण के कोट नामक स्थान पर भूमिया देवस्थल में रुकती है. जहां पर पहले से स्वागत को तैयार जन होते हैं. यहीं पर देवडांगरों का पहला आह्वान एवं पूजार्चना होती है. लगभग चार साढे चार बजे मखौलीगांव, देवलाल गांव में छात का स्वागत् चटकेश्वर देवता की छात एवं विशाल भक्तजन करते हैं. यहां पर छोटा-मोटा मेला भी लगता है. Chaitol Festival of Pithoragarh Uttarakhand

तल्ली देवलाल गाँव में देव डांगरों का मिलन, अर्छा-पर्छा, ढोल-दमाऊ एवं स्थानीय वाद्य भकोरे के साथ दर्शनीय होता है. इस स्थान पर छात पूजन के पश्चात मल्ला देवलाल गांव देप्ता को खलो नाम स्थान पर लाते हैं, जहां पर विशाल भक्तजन देवताओं का आशिर्वचन लेते हैं और आगे की यात्रा में चल पड़ते हैं. अब दो छात हो जाती हैं. सीता पति बाबा की – जै, के उद्घोष के साथ आगे देवलसमेत और पीछे चटकेश्वर (ये भी शिवरुप में पूजे जाते हैं) की छात पहुंचती है. बस्ते भगवती के मंदिर में और पूजा अर्चना के बाद सीधे आगे बड़ते हैं. मूल्पा देवी के थान (मंदिर) देकटिया जहां पर मेला जुटता है और विशाल भक्त समुदाय छात का स्वागत करता है एवं देवडांगरों का आशीर्वचन लेते हैं.

इसके बाद अगला पड़ाव सिलौली मड़ के देप्ता को खलो (देवता का आंगन) में होता है. यहां पर छात छत्र पूजन के पश्चात शाम के धुंधलके में घोसियार गांव की पहाड़ी में स्थित कोटवी देवी गुफा मंदिर में दो दिनी भ्रमण कर माता भगवती की छात प्रतीक्षा कर रही होती है. इस स्थान पर आस्था का जो सैलाब उमड़ता है वह कुछ विशेष होता है. रात का अंधेरा भी माहौल को थोड़ा अलग बना देता है. देव मिलन के पश्चात चतुर्दशी की चांदनी रात में छात आगे बड़ती है. उर्ग गांव, जाजरदेवल से आगे बढ़ते हुए ओड़माथा गांव पहुंचती है. जहां स्थानीय ग्रामीण चाय पानी की भी व्यवस्था किये रहते है. यहां थोड़ा विश्राम और पूजा अर्चना होती है. देवलसमेत महाराज की छात आगे नैनीसैनी की ओर बढ़ती है और चटकेश्वर बाबा की छात विसर्जन हेतु अपने मूल स्थान चटकेश्वर मंदिर की ओर मुड़ जाती है.

नैनी गांव में भी यही प्रक्रिया अपनाई जाती है और फिर आता है सैनी गांव यहां पर भी चाय पानी की व्यवस्था ग्रामीण जन किये रहते हैं. भव्य स्वागत होता है. पूजा अर्चना के बाद आज के अंतिम पड़ाव कासनी गांव पहुंचते हैं. यहाँ पर देवता के खले में यही पूजा अर्चना की प्रक्रिया होती है और छात को पौराणिक महिसासुरमर्दिनी मंदिर में लाया जाता है. पौराणिक रुप से यहीं रात्रि विश्राम स्थल होता था चूंकि तब छात के साथ चल रहे अधिकतर लोग यहीं पहरु रह जाते थे जिनके खाने रहने की व्यवस्था कासनी गांव के ग्रामीणों को करनी होती थी.

कदाचित अभाव या तत्कालीन असमर्थता के चलते लोग व्यवस्था को सक्षम नहीं रहे होंगे तो छात का विश्राम स्थल बिंण के जट्टेश्वर महादेव मंदिर में किया गया. पूर्णिमा के रोज सुबह लगभग छः बजे छात (छत्र) तपश्यूड़ मंदिर से छीबी (ठूलीगाड़) होकर कुसौली गांव पहुंचती है. यहां तीन स्थानों पर छात पूजन होता है. जहां से भड़कटिया देवीमंदिर में अगला पड़ाव होता है. जहां पूरा गांव फल-फूल भेंट अक्षतों से पारंपरिक छत्र पूजन करता है. इसके बाद जोशी परिवार के खले (आंगन) में इसी प्रक्रिया को किया जाता है और छत्र बढ़ता है आगे रुईणां गांव को.

यहाँ पर देवलसमेत मंदिर गांव के मध्य सुंदर स्थान पर स्थित है. छत्र पूजन देवताओं के आह्वान के अतिरिक्त इस गांव की एक अलग विशेषता है अतिथि सत्कार की जिसका साठ के दशक से लेखक स्वयं गवाह है. इसके बाद कोटली गांव में दो स्थानों पर छत्र पूजन होता है.

अब अगला पडा़व है बरड़गांव ये गांव लगभग पलायन कर चुका है. जहां देवपूजन कर छात सिमखोला, रणसैनी मंदिर पहुंचती है किंवदंती है कि रणसैनी, देवलसमेत महाराज की सबसे बड़ी बहिन हुआ करती थीं. इसके आगे रिखांई (आठगांव शिलिंग) छात जाती है. यहां पर भी छत्र पूजन की यही प्रक्रिया एवं देवडांगरों का आह्वान होता है और वापस छात आती है अपने धाम सेरादेवल जहां देवलसमेत महाराज का मूल वास माना जाता है. Chaitol Festival of Pithoragarh Uttarakhand

सेरादेवल में पूजा अर्चना कुछ विशेष होती है. यहां पर देवडांगरों के बोलवचन भी होते हैं. हाँ एक विशेष बात जो मैं बताना चाहूँगा वह है हरेला. जब कभी मध्यकाल में चंपावत राजधानी हुआ करती थी तो पूरे कुमाऊं में दो धड़े हुआ करते थे महर और फड्त्याल. जिसमें महर धड़ा केवल चैत्र नवरात्रि के थापना अर्थात पहली नवरात्रि को हरेला बोता है जिसे छत्र पूजन के दिन ही काटा जाता है. पहले हरेले से छात को पूजा जाता है बचे हुए हरेले को दर्शनार्थियों के बीच वितरित कर दिया जाता है.

अब सेरादेवल से वापसी में जामड़ और कोस्टाका नामक मंदिरों में छत्र पूजन कर छात वापस बिंण गांव के नायकूड़ा की ओखलसारी में स्थापित किया जाता है. समय दोपहर बारह से एक के बीच का होता है, सभी सेवक स्नान भोजन कर थकान मिटाते हैं क्योंकि अगला कार्यक्रम अपरान्ह तीन से चार बजे के बीच शुरु होगा जिसमें चैंसर गांव के लोग आकर छात को आगे की यात्रा पर ले जायेंगे.

पूर्णिमा के मध्याह्न तीन बजे के आसपास चैंसर गांव के युवक बिंण से छात को चैंसर ले जाते हैं. जहाँ आस्था का जनसमूह छात का बेसब्री से इंतज़ार कर रहा होता है. बच्चे महिलाएं छोटे-मोटे मेले का आनंद ले रहे होते हैं. यहां पर भी पारंपरिक पूजा अर्चना होती है. एक बात जो आकर्षण का केन्द्र होता है वह होता है डोला.

यह एक पालकी होती है जिसमें देवडांगर को बिठाकर छात के साथ घुमाया जाता है. आगे मटखानी नामक स्थान से नानीगाड़ (चंद्रभागा नाले) में स्थित कूंणी नामक जल कुंड में डोले को स्पर्श कराया जाता है. अब ये एक परंपरा मात्र रह गया है क्योंकि नाले का जल दूषित हो चुका है.

तत्पपश्चात धपड़पाटा छत्रपूजन कर पुलिस लाईन से जाखनी गांव की ओर छात बड़ जाती है जिसके स्वागत को जाखनी गांव की छात और डोला गांव के प्रवेशद्वार तक आता है. जाखनी गांव के कोट नामक स्थान में इस स्थान पर पारंपरिक पूजा का यही क्रम दोहराया जाता है जिसके बाद मल्ली जाखनी छात जाती थी, परंतु अब मार्ग अवरुद्ध होने से छात सीधे कुमौड़ गांव की ओर बड़ जाती है. Chaitol Festival of Pithoragarh Uttarakhand

कुमौड़ गांव में भी पारंपरिक मार्ग अवरुद्ध होने से मार्ग बदल गया है. अब कुमौड़ हिलजात्रा मैदान में डोले का स्वागत छात और देवडांगर का डोला करता है. पूजा अर्चना के बाद कुमौड़ गांव का छत्र और डोला वापस गांव की ओर मुड़ जाता है, रह जाती है बिंण और जाखनी गांव की छात और डोले जो सिल्थाम मार्ग से घंटाकरन के शिव मंदिर जाता है. जहां पर लिन्ठूयड़ा गांव की छात और भगवती का डोला स्वागत को तत्पर रहता है. इस मिलन के दर्शन को विशाल जनसमूह उपस्थित रहता है.

अब बिंण और जाखनी की छात का अगला पड़ाव होता है मल्ली जाखनी का देवलसमेत देवालय. जहां पर दर्शनीय देवातरण और पूजा अर्चना होती है यहां पर जाखनी गांव की छात रुक जाती है. बिंण की छात दौला गांव की ओर बढ़ जाती है. दौला गांव में तीन स्थानों पर यही पूजा अर्चना देवातरण की प्रक्रिया संपन्न की जाती है. इसके बाद ए.पी.एस. तिराहे से होकर छात वापस बिंण गांव के नाचनी नामक देवलसमेत मंदिर में पहुंचती है. यहीं पर चैतोल यात्रा पूरी होती है और छत्र विसर्जन होता है. यहां पर युवक जलपान की व्यवस्था किये रहते हैं आसपास के स्वयंसेवक रात्रि दस बजे लगभग झोड़ा चांचरी खेल लगाकर यात्रा को यादगार बना देते हैं और लेते हैं विदाई अगले वर्ष मिलने के वचन और यादों के साथ. Chaitol Festival of Pithoragarh Uttarakhand

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कुलदीप सिंह महर

पिथौरागढ़ के विण गांव में रहने वाले कुलदीप सिंह महर सोशल मीडिया में जनसरोकारों से जुड़े लेखन के लिए लोकप्रिय हैं.

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