हिन्दी भाषा में जहां एक अक्षर के शब्दों का प्रयोग अधिकांशतः कारक के रूप में ने, से, को, का, के, की? में, हे! आदि में अथवा समुच्चय के रूप में दो शब्दों अथवा वाक्यांशों के संयोजन में -या का ही प्रयोग किया जाता है, अन्यथा हिन्दी में केवल एक अक्षर से कोई ऐसा शब्द नहीं होता, जिससे किसी भाव की पूर्ण अभिव्यक्ति होती हो. न अथवा ना ही ऐसा शब्द है जो नकारात्मक अभिव्यक्ति के लिए व्यक्त किया जाता है लेकिन वह भी स्वतंत्र रूप से नहीं, जब तक कि उसका कोई सन्दर्भ न हो अन्यथा हिन्दी में कोई एक वर्ण का शब्द पूर्ण भाव व्यक्त करने की क्षमता नहीं रखता.
(Beauty of Kumaoni)
कुमाऊनी लोकभाषा में न केवल एकाक्षरी शब्दों से गंभीर भावों की अभिव्यक्ति की अद्भुत क्षमता है, बल्कि एक ही शब्द हृस्व अथवा दीर्घ रूप में भी अलग-अलग भाव व्यक्त करता है. लोकभाषा का ’द्’ एक ऐसा ही शब्द है जो हृस्व अथवा दीर्घ रूप में एकदम भिन्न भाव व्यक्त करता है. विशेषकर महिलाओं के बीच प्रयुक्त होने वाले इस शब्द का हृस्व रूप में ’द्’ एक उपेक्षा का भाव व्यक्त करता है. उदाहरण के लिए यदि हम किसी व्यक्ति से वह अपेक्षा करते हैं जो उसके बूते से बाहर की बात है, तो दूसरी ओर से उत्तर में ’द्’ की ध्वनि केवल यह व्यक्त करने के लिए पर्याप्त है कि यह कार्य उसके बूते का नहीं हैं.
उदाहरण के लिए किसी शराब के लती का जिक्र करने हुए हम कहते हैं- वीलै शराब छोड़ि हाली बल. तो सामने का व्यक्ति ’द्’ कहकर उपेक्षा का भाव व्यक्त कर देता. यानि ऐसा संभव नहीं है. एक हृस्व अक्षर ही पूरे वाक्यांश का भाव रखता है. शब्द वही है लेकिन यही शब्द यदि दऽऽऽ स्वर के साथ दीर्घ रूप उच्चरित होता है तो इसका भाव एकदम बदल जाता है. दीर्घ रूप में यही एकाक्षर दुख अथवा सहानुभूति व्यक्त करने के लिए प्रयुक्त हो जाता है. यथा- कोई व्यक्ति किसी के साथ किसी दुर्घटना अथवा अनहोनी का जिक्र करता है तो सुनने वाला दऽऽऽ कहकर केवल एक अक्षर में अपनी सारी संवेदना व्यक्त कर देता है.
(Beauty of Kumaoni)
इसी तरह एक शब्द है – पै. पै का प्रयोग सामान्यतः स्वीकारोक्ति का सूचक है. बिल्कुल वैसा ही जैसा हिन्दी में किसी की बात को सुनकर हम अच्छा अथवा हां के लिए किया करते हैं. जैसे- आजकल ठण्ड भौत हैगो हो. उत्तर मिलता है- पै यानि आपकी बात पर वह भी इत्तेफाक रखता अथवा रखती है. लेकिन यही शब्द जब दीर्घ रूप में पैऽऽऽ के रूप में प्रयोग किया जाता है तो उसका भाव बदल जाता है. हालांकि रहती तब भी उसमें स्वीकारोक्ति ही है, लेकिन इसके साथ वक्ता के भावों के प्रति सम्बद्धता झलकती है, वक्ता के भाव खुशी के हो सकते हैं, गम के हो सकते अथवा हास-परिहास के हो सकते हैं. एक प्रकार से पैऽऽऽ कहना श्रोता द्वारा वक्ता के भावों को बात्मसात् करने का संकेत भी है.
‘द’ और ‘पै’ शब्द अधिकांशतः महिलाओं के द्वारा ही प्रयुक्त होते हैं. लेकिन आज के शहरी समाज में जो कुमाऊनी बोल भी रहें हैं, तो उन्होंने लोकभाषा को अपने परिवेश के अनुसार परिमार्जित कर लिया है, जिनके संवादों में इन शब्दों का प्रयोग लुप्त होता जा रहा है.
‘ऐं’ शब्द भी ऐसा ही एकाक्षरी शब्द है, जो श्रोता द्वारा पूरी बात न सुनने पर पुनः कहने का संकेत देता है. श्रोता द्वारा मैंने सुना नहीं कहने के बजाय ‘ऐं’ कह देना वक्ता के लिए पर्याप्त संकेत है कि उसने आपकी बात अच्छी तरह सुनी नहीं. इसी तरह किसी अन्य की बात को उद्धरित करना हो तो वाक्य के अन्त में ‘बल’ शब्द जोड़ देना इंगित कर देता है कि यह कथन मेरा नहीं बल्कि किसी के माध्यम से सुना गया है. इससे फायदा यह भी होता है कि आप किसी तरह के विवाद से बच निकलते हैं क्योंकि यह कथन आपका नहीं बल्कि किसी से सुना है.
अब बात करते हैं कुछ उन कुमाऊनी शब्दों की जिनकी वर्तनी तो एक ही होती है लेकिन अन्तिम वर्ण के हृस्व होने से उसका अर्थ ही एकदम बदल जाता है. जैसे- आम्-आम (दादी और आम फल) काव्- काव (कौआ और काल) नाव्- नाव (संकरी घाटी और कश्ती) डाव्- डाव (पेड़ और ओले), फाव्- फाव (हल का नीचे का फल और कूदना) खाव्- खाव (आंगन का खलिहान और तालाब) दाव्- दाव (दावा पेश करना और दाल) आदि आदि ऐसे कई शब्द है जो अन्तिम वर्ण के हृस्व अथवा दीर्घ होने पर अर्थ बदल देते हैं. प्रायः देखा जाता है कि अधिकांश इन शब्दों का अन्तिम वर्ण ’व’ होता है.
इसी प्रकार कुमाऊनी शब्द सम्पदा का स्वाद, गन्ध, ध्वनि के लिए जितना समृद्ध भण्डार है, ऐसा शायद ही किसी दूसरी भाषाओं में उपलब्ध हो. हर वस्तु के स्वाद के लिए अलग शब्द, हर गन्ध के लिए अलग शब्द और हर ध्वनि के लिए अलग शब्द प्रयोग करके सुनने वाले को यह पूछने अथवा समझने में देर नहीं लगती कि वक्ता किस ध्वनि, किस गन्ध अथवा किस वस्तु के स्वाद का जिक्र कर रहा है.
हन्तरैन कहॅू तो जाहिर है सूती कपड़ा जलने की गन्ध है और किहड़ैन कहने पर ऊनी कपड़ा अथवा बाल जलने की, खौंसेन कहें तो मिर्च जलने की गन्ध, पड़पड़ाट से कागज के मोड़ने से निकलने वाली ध्वनि, टौटेन है तो खाने में हल्दी की मात्रा अधिक होने का अहसास, सितड़ैन कहें तो सीलन की गन्ध, मछवैन मछली की गन्ध.
(Beauty of Kumaoni)
इसी तरह मनोभावों के लिए अलग शब्द गढ़े गये है यथा- अलबलाट, कचकचाट, सटबटाट, फड़फड़ाट आदि आदि. गन्ध, स्वाद, ध्वनि अथवा मनोदशा को व्यक्त करने के लिए कुमाऊनी का विपुल साहित्य भण्डार है और कुछ शब्द तो ऐसे हैं जिसका हिन्दी में कोई सटीक शब्द मिल भी नहीं पाता. जैसे ’खवाई’ एक ऐसा ही शब्द है, जो कुमाऊनी भाषी ही भाव समझ सकता है.
इस तरह के व्यापक शब्द भण्डार को समेटे कुमाऊनी भाषा के प्रति अगर आज की युवा पीढ़ी में उदासीनता है, तो इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता है? यदि हम अपनी आने वाली पीढ़ी को इस समृद्ध भाषा को हस्तांतरित नहीं कर पाये तो शनैः-शनैः इसे विलुप्त होने से कोई नहीं बच सकता.
(Beauty of Kumaoni)
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online
Support Kafal Tree
.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
मौत हमारे आस-पास मंडरा रही थी. वह किसी को भी दबोच सकती थी. यहां आज…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…
उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…
पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…
आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…
View Comments
बहुत अच्छा लेख । बधाइयाँ । जब हम बच्चे थे यानी सन १९७०-८० के आसपास - काली कुमाऊँ में "डाव्"- पेड़ के लिए "डालो" या डाल और ओले के लिए सिर्फ़ "डाल" का इस्तेमाल होता था यानी "ल" का पूरा उच्चारण करते थे । ऐसे ही " हल क फालो लाग्गौ " (got hurt), खल में भट्ट चूटन्योंन आदि ।