बरसों से पहाड़ में सड़क बनाने में रास्ते में आती चट्टानों की बाधा को दूर करने के लिए डायनामाइट का बेरोकटोक इस्तेमाल किया जाता रहा. इसके खतरे के प्रति नामचीन और पहाड़ के भूगर्भ की पड़ताल कर चुके भू-गर्भ शास्त्रियों व वैज्ञानिकों के लगातार चेतावनी भी दी. पारिस्थितिकी और पर्यावरण के संवेदनशील ज्ञानियों ने भी सरकार पर दबाव बनाया. अखबारों में कुछ समय तक सुर्खियों में बारूद के प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाने की खबरें उभरतीं रहीं सिमटतीं रहीं. इन सब के बीच बरसों से अपने कस्बे और गाँव के पास तक सड़क आने का इंतज़ार करते लोग अपने कानों में हाथ लगाए उस धमक को सुनने के लिए मजबूर थे जिसके बाद उनके उपजाऊ खेत लगातार गिरते बोल्डरों की जद में आने लगे. रहे-सहे आड़ू-पुलम-खुबानी के बोट पत्थरों की मार से छिलने लगे.
(Ban Explosives Mountain Roads)
जहां कहीं सड़क बननी शुरू होती, उसके ऊपर-नीचे की हरियाली की परत पहले धूल-धूसरित दिखती और फिर जैसे उन इलाकों में बांजा ही पड़ जाता. इनमें ऐसे इलाके भी होते जहां चढ़ औरतें अपने पशुओं के लिए घास ला उनके साल भर का इंतज़ाम करने को लूटा बनाती. न जाने कितने किसम की स्थानीय पेड़-पौध ,जड़ी-बूटी, भेषज इस सड़क के बनने के निर्मम प्रहार से उजड़ गई. फिर जब चौमास आये तो वो पहाड़ जिसे वहाँ उगने वाली घास-फूस-वनस्पति अपनी जड़ों से बाँधी रखतीं थीं, एकबारगी ही स्खलन की रोगी बनी पाई गईं. पानी के कई सदानीरा स्त्रोत सूख गए. बड़ी संख्या में वन्यजीव कालकालवित हुए. कई अपने बसाव इलाके से छिटक गए. उनका अवलम्बन क्षेत्र सिकुड़ता चला गया. अपने भोजन शिकार की तलाश में वह ग्रामीण आबादी के समीप देखे जाने लगे. जंगली जानवरों के हमले बढ़ने लगे.
हिमालय देश की सबसे ऊँची पर्वत श्रृंखला है. यह भारतीय व यूरेशियन प्लेट के टकराव से बनी है. यह अभी अपने उठान के दौर में है. इसकी पारिस्थितिकी बड़ी नाजुक है. भारतीय विवर्तनीय परत का चीन की तरफ उत्तरी दिशा में विचलन इसकी चट्टानों में लगातार दबाव डालता रहा है. इससे वह भीतर से कमजोर, चूर-चूर और भू स्खलनों के प्रति संवेदनशील हुई हैं. भारतीय क्रस्ट की धीमी गति जो लगभग 5 सेंटीमीटर वार्षिक है से पड़ने वाला दबाव भूस्खलन व हिमस्खलन को जन्म देता है. इसका प्रभाव भारतीय भू-भाग के लगभग 15% भाग में पड़ता है जिसके अधीन हिमालय पर्वत श्रेणी भी शामिल है.
उत्तराखंड में भूस्खलन के कई बड़े व दुखद हादसे हुए हैं जिनमें उत्तरकाशी जिले का वाणावत भूस्खलन, पिथौरागढ़ का मालपा हादसा, उखीमठ का भूस्खलन, केदारनाथ आपदा सहित अनेकों उदाहरण जिनमें इन इलाकों की भंगुर भूगर्भीय संरचना के साथ विकास की अवस्थापना के लिए किये जा रहे मानवीय कारकों की बड़ी भूमिका है. 7 फरवरी 2021 को चमोली में हुई जानलेवा आपदा हिमनद के साथ चट्टानी टुकड़े के भूस्खलन जिसे “रॉक-आइस एवलॉन्च” कहते हैं के साथ एक कृत्रिम अस्थायी डैम बन जाने के कारण हुई. रॉक मास्स और हिमनद के टुकड़े के साथ आये मलवे ने ऋषिगंगा के पास जहाँ रौंथी नाला मिलता है वहां एक अस्थायी कृत्रिम झील बना दी जो टूट गयी और जिससे भारी नुकसान हुआ. हिमस्खलन के कारण रांथी पर्वत से 2.7 करोड़ क्यूबिक मीटर की चट्टान और हिमनद टूट कर गिर गए. इस आपदा में 200 से ज्यादा लोगों के लापता होने व कालकलवित होने की पुष्टि हुई.
यह पाया गया कि पिछले दो दशकों में हिमनदों में जमा बर्फ तेजी से पिघल रही है. यह तापमान में होने वाली वृद्धि का परिणाम है. यह महसूस किया गया कि उत्तराखंड के उच्च हिमालय में स्थित पर्वतों में दोपहर का तापमान सामान्य से पांच डिग्री तक ज्यादा होने लगा है. इसके साथ ही बादल फटने की घटनाओं में पिछले एक दशक में तेजी से वृद्धि बनी हुई है. ऐसी पहली बड़ी घटना 1952 में पौड़ी जिले के दूधातोली इलाके में तेज बारिश से हुई थी जब इससे नयार नदी में बाढ़ आ गयी जिसने सतपुली कस्बे में तबाही मचा दी. 1954 में रुद्रप्रयाग जिले के ददुआ गांव में अतिवृष्टि के पश्चात् हुए भूस्खलन से पूरा गांव ही दब गया. फिर 1975 के बाद तो लगातार ही हर साल पहाड़ इस आपदा से जूझते रहे. सीमांत के इलाकों में जो सड़कें भी इस दौर में डीजीबीआर और फिर बीआरओ के द्वारा बनीं उनमें विस्फोटकों का प्रयोग जारी रहा.एनएचपीसी ने भी सीमान्त में अपनी जिन जल विद्युत् परियोजनाओं के लिए मार्ग को चौड़ा करने का काम किया उनमें भी पर्यावरण संवेदनशीलता हेतु निर्धारित मानकों की उपेक्षा ही हुई.
2013 में उत्तराखंड में आयी भीषण बाढ से 4000 से अधिक लोग काल-कलवित हुए. इसने भी पहाड़ में बन रही जलविद्युत योजनाओं के सामने कई सवाल खड़े किये जिनके निर्माण में प्रयुक्त तकनीक पहाड़ की धारक क्षमता की उपेक्षा ही करती थी. 2006 से 2011 के बीच अकेले जोशीमठ ब्लॉक में ही सड़क निर्माण में बढ़ा बनी चट्टानों को उड़ाने के लिए 20,632 किलोग्राम विस्फोटक और 1,71,235 डेटोनेटरों का प्रयोग किया गया था. हिमालय की भूगर्भ समस्याओं पर गहरी पड़ताल कर रहे भूगर्भशास्त्री प्रोफ़ेसर खड्ग सिंह वल्दिया ने बार-बार चेताया था कि “इन विस्फोटों के कारण धरती में छोटे छोटे भूकंप या माइक्रोअर्थ क्वेक आते हैं. जब बड़ी-बड़ी गाड़ियां, ट्रक व बसें पहाड़ के इन कमजोर रास्तों पर चलतीं हैं तो भी धरती की पुरानी दरारें इन माइक्रो भूकम्पों से थरथरातीं हैं. हर रोज लाखों की संख्या में उठने वाले ये माइक्रो भूकंप पहाड़ों को कमजोर करते चले जाते हैं.“
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सन 2000 में उत्तराखंड में मात्र 8 हजार किलोमीटर सड़क थी पर अब यहाँ सड़कों का निर्माण 25,000 किलोमीटर तक फैल चुका है. साथ ही उत्तराखंड में 12 बिजली परियोजनाएं जारी हैं जिनकी कुल उत्पादन क्षमता 500 मेगावाट से ज्यादा है. ये सभी परियोजनाएं पिछले दो दशकों के भीतर की हैं. केदारनाथ की त्रासदी को छोड़ पहाड़ में आपदा के तांडव का बड़ा कारण पनबिजली योजनाओं से निकला गाद या मलवा भी था. केवल श्रीनगर गढ़वाल के बांध से पांच लाख घनमीटर मलवा सीधे नदी में डाला गया जो अलकनंदा नदी के साथ बहते निचले इलाकों में जमा होते रहा. अभी भी करीब 70 नए बांध उत्तराखंड की विभिन्न नदियों में निर्माणाधीन हैं. उत्तराखंड सरकार द्वारा निर्मित, निर्माणाधीन व अनुमोदित 51 जलविद्युत परियोजनाओं में सबसे ज्यादा 31 परियोजनाओं में सर्वाधिक 31 परियोजनाएं गढ़वाल मंडल के चमोली, उत्तरकाशी, टिहरी, रुद्रप्रयाग एवं पौड़ी इलाके में विद्यमान हैं. विचारणीय है कि संवेदनशील इलाके के पारिस्थितिकी तंत्र में बिना व्यापक अध्ययन के बड़ी योजनाओं का निर्माण कितना युक्तिसंगत है तथा ऐसी घटनायें भविष्य में होने वाली किसी भयावह दुर्घटना की चेतावनी हो सकतीं हैं.
पूर्ववत टिहरी बांध के निर्माण व इससे बनी विशाल झील ने भी अप्रत्यक्ष रूप से आपदा के संकट को बढ़ाया. झील से हुए वाष्पीकरण के कारण वर्षाकाल में बड़ी मात्रा में बादल बने जिनसे अतिवृष्टि हुई. इन घटनाओं से कोई सबक नहीं लिया गया तथा भारत-नेपाल के बीच पंचेश्वर बांध जैसी बड़ी विशालकाय योजनाएं परवान चढ़तीं रहीं. इनके साथ ही ग्लोबल वार्मिंग ने भी कुछ नए अचीन्हे संकेत दिए. ये देखा गया कि साल भर में ज्यादातर समय तो सूखा पड़ा रहता है पर कुछ ही दिनों के भीतर इतनी वर्षा हो जाती है जो जनधन की भारी हानि कर देती है. उत्तराखण्ड के तीव्र ढाल वाले व भंगुर इलाके इनसे ग्रस्त ही बने रहे हैं. वहीँ उत्तराखंड में वनों का वितरण भी असमान है. यद्यपि पहाड़ में 70% से अधिक भू भाग में वन हैं पर तराई-भाबर में वनों का इलाका नाममात्र का ही है. ऐसी दशा में मानसूनी हवाओं को मैदानी इलाकों में बरसने के लिए जरुरी वातावरण नहीं मिल पता और वह पहाड़ों में ही अति वृष्टि का रूप लेते हैं.
इन समस्याओं के प्रबंधन के लिए ऐसे संवेदनशील स्थलों को चिन्हित भी किया गया है तथा पूर्व-चेतावनी प्रणालियों व मॉनिटरिंग के साथ विशेष सरकने वाली जगहों, सतहों व स्लाइडों को स्टेबिलाइज या स्थिर करने व व्यवस्थित करने को आवश्यक सावधानी व दिशानिर्देश जारी होते रहे. इन सबके बावजूद दशकों से इन इलाकों में सड़क बनाने में विस्फोटकों का प्रयोग होता रहा. जिससे चट्टानें और कमजोर पड़ गईं. हर बारूदी धमाके के साथ बोल्डर गिरते हैं, मलवा खिसकता है, पेड़ टूटते हैं. जमीन में दरारें पड़तीं हैं. पूरे इलाके में हलचल मचती है जिसके दुष्परिणाम दीर्घकाल तक भुगतने पड़ते हैं. धरती की सतह के पदार्थ टकराव व सामंजस्य के साथ सतह पर एक-दूसरे के साथ जुड़े होते हैं, किसी भी कारण से यदि इनमें छेड़-छाड़ हो या इसे हटा दिया जाय तो यह एक स्खलन या क्षरण को प्रेरित करता है जिसमें टूटफूट होती है. यह धरती की सतह पर स्थित पदार्थों के लुड़कने की स्थिति पैदा कर देता है. किसी भी उपद्रव जिसमें इंसानी गतिविधियों के अविवेक पूर्ण निर्णय शामिल हों और या फिर बारिश, बादल फटना व हिमपात जिनसे जलस्तर में बदलाव हों, धरा का कटाव हो, भूजल में परिवर्तन हो, जंगल में आग भड़के इन घटनाओं की तीव्रता को बढ़ाते जाता है. इन सबसे खड़ी ढलानों व घाटियों के तलहटी के साथ धरा या नदियों के किनारे वाले इलाके जहां इंसान की हरकतों के चलते रोक टोक के अंकुश न रखे गए हों, पहाड़ की रीढ़ को लगातार खोखला व दुर्बल बनाते जाते हैं.
अब जलवायु परिवर्तन की, बदलते मौसम की अप्रत्याशित घटनाएं भी जुड़ गयीं हैं. हिमालय की चट्टानें दरारों से भरी पड़ीं हैं इनमें पानी घुसने से ढलानों पर दबाव और अधिक बढ़ जाता है.ऊपर की सतहों के क्षरण व भीतरी हलचल समूचे इलाके को प्रभवित कर देतीं हैं. यही वह कारण हैं जिनके चलते पहाड़ी इलाकों से वन की कटाई और कंक्रीट का जंगल बिछाने के लिए वनस्पतियों का विनाश समस्या की बड़ी वजह बन गया है.
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उत्तराखंड के सीमावर्ती इलाके में हाल के वर्षों में लैंडस्लाइड 30 से 70% की बढ़ोत्तरी दिखा रहे हैं. हिमालयी इलाकों में भारी बारिश और जलवायु परिवर्तन से इन घटनाओं को और बढ़ाया है. ये उच्च सीमांत क्षेत्र हिमनद व हिमनद झील वाले इलाके हैं जहाँ अधिक लैंड स्लाइड होना बाद जैसे आपदा का खतरनाक संकेत है जिसका खामियाजा सैकड़ों किलोमीटर दूर तक पड़ता है. यहीं वह हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट, सुरंग और सड़कों के निर्माण के लिए तेज विस्फोट, ड्रिलिंग व मानव की बढ़ती हुई आवाजाही बढ़ रही है जिससे इन पहाड़ों की ऊपरी सतह और पत्थर हिलने लगते हैं. यह भी पाया गया है की सड़कों के निर्माण के लिए उच्च गुणवत्ता की दीवारें नहीं बनीं व न ही बोल्डर्स और गिरते पत्थरों को रोकने के लिए मजबूत जाल बिछाए गए. अतिवृष्टि और हिमालयी क्षेत्रों में अक्सर आने वाले भूकम्पों से मानसून के मौसम में पहाड़ी इलाकों में जहाँ सड़क निर्माण कार्य तेजी से बढ़ाये गए हैं वहां भूस्खलनों की आवृति बढ़ती हुई पायी गयी है. खड़ी पहाड़ी ढलानें सबसे अधिक क्षति ग्रस्त हुईं हैं. इनके समीपवर्ती घरों और बुनियादी ढांचों को व्यापक नुकसान हुआ है. सड़कों के टूट-फूट जाने से आवागमन बुरी तरह प्रभावित रहा है. पहाड़ी इलाके खेती-पाती के चौपट होने से अति आवश्यक उपभोग की वस्तुओं, राशन रसद के लिए मैदान की मंडियों पर आश्रित रहते हैं. यह पाया गया कि वह इलाके जहाँ पुरानी सडकों की चौड़ाई बढ़ाई गयी तथा वह जहाँ नयी सड़कें बनी, उनमें भूक्षरण सबसे अधिक हुआ. स्थानीय निवासियों के लिए भूस्खलन के खतरे को ले कर न तो त्वरित योजनाएं बनतीं हैं और आपदा निवारण के त्वरित कार्य विलम्बित ही रहते हैं.
अब केंद्र सरकार फिर चेती है. उसने चिंता की है कि उच्च हिमालयी इलाकों में, हिमाचल व उत्तराखंड सहित अन्य पर्वतीय राज्यों में सड़कों और पुलों का निर्माण करने में चट्टानों के अवरोध को हटाने के लिए भारी मात्रा में अनियंत्रित रूप से विस्फोटकों का प्रयोग होता रहा है. इससे आसपास की चट्टानों में दरारें पड़ जातीं हैं. विस्फोट वाले इलाके की काफी बड़ी परिधि इसके कम्पन का शिकार बनती है. वर्षाकाल में जब इनमें पानी भरता है तो अपरदन और धंसाव शुरू होता है जिससे लम्बे समय तक उस इलाके में भूस्खलन की प्रक्रिया बनी रहती है.
विस्फोटकों के अंधाधुंध प्रयोग पर ग्रीन ट्रिब्यूनल की ओर से पहले भी अनेकों बार असहमति की गई. पर्यावरण मंत्रालय की ओर से सख्त निर्देश जारी हुए. हाल के वर्षों में जिस तरह से जलवायु में अप्रत्याशित परिवर्तन देखे जा रहे हैं उससे पहाड़ों का जन जीवन खतरों में पड़ता जा रहा है. निर्माण के नाम पर जिस तरह से कार्य किये जा रहे हैं उन्हें देख भू वैज्ञानिक चेतावनी देते रहे हैं कि भविष्य में ऐसी घटनाओं की बारम्बारता और अधिक बढ़ेगी जिनसे स्थानीय आबादी के संकट और अधिक बढ़ेंगे.
अकेले उत्तराखंड में पिछले 20 सालों में करीब 50 हजार किलोमीटर सड़कों का निर्माण हुआ है. चार धाम व सीमांत की सड़कों जैसे राष्ट्रीय राजमार्गों के निर्माण से अवस्थापना विकास और अधिक तीव्र किया जा रहा है. 889 किलोमीटर लम्बी ऑल वेदर रोड को २०१७ में मंजूरी मिली जिसे मार्च 2022 तक पूरा किया जाना था. आल वेदर रोड के इस परियोजना का नाम तदन्तर चार धाम प्रोजेक्ट कर दिया गया. अब यह चारों धामों को सड़क से जोड़ने का प्रोजेक्ट है जिसका पहला रास्ता ऋषिकेश से धरासू, दूसरा धरासू से एक यमुनोत्री व दूसरा गंगोत्री तीसरा ऋषिकेश से रुद्रप्रयाग तक जो केदारनाथ के लिए गौरीकुंड तक और चौथा बद्रीनाथ के लिए माणा गांव तक जायेगा. इस प्रोजेक्ट को रणनीतिक रूप से भी अहम बनाया गया है जिसके जरिये सीमांत तक लिपुलेख तक पहुंचा जायेगा. सड़क परिवहन अवं राजमार्ग मंत्रालय ने इस परियोजना के कार्यों को कुल 53 भागों में बांटा था जिनमें 38 भागों में काम पूरा हुआ पर इसके 165 किलोमीटर के 13 प्रोजेक्ट्स पर सुप्रीम कोर्ट की रोक लगी. जिनका सीधा सम्बन्ध ऐसे निर्माण से था जिनकी तकनीक पहाड़ की भूगर्भ दशाओं से छेड़छाड़ कर उसे और दुर्बल बना रहीं थीं. इस परियोजना के विरोध में जो तर्क दिए गए वह पर्यावरण के लिहाज से नाजुक हिमालय में जारी भारी निर्माण कार्यों के विपरीत कार्यों व वातावरण पर पड़ गए प्रभावों से उत्पन्न संकटों की संवेदनशीलता से तो सम्बंधित थे ही परियोजना बनाने के लिए हज़ारों पेड़ों की बलि के दुष्प्रभाव को भी रेखांकित करते थे. मार्ग को डबल लेन करने के कार्य से भूस्खलन का खतरा बढ़ने व लाखों टन मिटटी नदियों में बहने ने अलग समस्या पैदा कर दी थीं. उत्तरकाशी से गंगोत्री, पालीगढ़ से यमुनोत्री ऋषिकेश, जोशीमठ, चम्पावत, लोहाघाट, पिथौरागढ़ बाईपास व केदारनाथ मार्ग पर फाटा के पास ट्रीटमेंट कार्य में रोक लगने से यह निर्धारित समय पर पूरी नहीं हो पाई. अब कुछ शर्तों के साथ रोक हटने के बाद इस परियोजना के 2024 तक पूरा होने की उम्मीद है.
यह ध्यान रखा जाना जरुरी है कि एक किलोमीटर सड़क के बनने में अमूमन 25 से 40 घन मीटर मलवा तो निकलता ही है. इस हिसाब से पिछले बीस वर्षों में लगभग 200 करोड़ घन मीटर मलवा तो खुदा ही जो पहाड़ के ढालों से सरकता नालों के माध्यम से नदियों में गया. स्पष्ट है कि निस्तारण के तरीके भी तर्कसंगत व वैज्ञानिक नहीं रहे. यह मलवा पहाड़ी ढलानों में भी पड़ा रहा और फिर तेज वर्षा होने पर बहते हुए निचले इलाकों में पहुँच जानमाल के नुकसान के साथ कई समस्याएं पैदा कर गया. नदी का विस्तार भी बारिश से ज्यादा इस अवशिष्ट मलवे व गाद से बढ़ा जो विशुद्ध रूप से अवैज्ञानिक तरीकों के प्रयोग से पैदा हुआ. प्रायः पहाड़ की भंगुर दशाओं को ध्यान में रखे बिना ही लक्ष्य-आपूर्ति के खेल में पहाड़ में सड़कें तो बना दी गयीं पर बाद में यही सड़कें हमेशा के लिए समस्या पैदा करने वाली हो गईं.
केंद्रीय सड़क, परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय ने अब राज्यों के मुख्य मंत्रियों एवम मुख्य सचिव को पत्र भेज कर विस्फोटकों का नियंत्रित प्रयोग करने की सलाह दी है. इस सन्दर्भ में मंत्रालय के अधिशासी अधिकारी (एस एंड आर) संतोष प्रकाश की ओर से जारी पत्र में गृह मंत्रालय की संसदीय स्थायी समिति की सिफारिश का उल्लेख किया गया है. गृह मंत्रालय की संसदीय स्थायी समिति ने हिमालय क्षेत्र की भंगुर भौगोलिक दशाओं के सन्दर्भ में अंतरसंरचना विकास हेतु चलायी जा रही सड़क परियोजनाओं के लिए विस्फोटकों के निरन्तर प्रयोग में तत्काल रोक लगाने के साथ ही उच्च हिमालय के सीमांत क्षेत्रों में प्रोद्योगिकी का विवेकपूर्ण उपयोग करने की अनुशंसा की है जिससे परिस्थितिकी के सामने उभर रहे गंभीर संकटों से बचाव संभव हो.
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अब यह सिफारिश की जा रही है कि यथासंभव सड़कों के निर्माण में रॉक ब्रेकर और एक्सकेवेटर का उपयोग किया जाये. अपरिहार्य परिस्थितियों में यदि विस्फोटक जरुरी ही हों तब समीपवर्ती इलाकों में पड़े इसके अवक्षय कारी प्रभावों को ध्यान में रख नियंत्रित उपयोग किया जाय. केंद्र सरकार के विस्फोटकों पर प्रतिबन्ध लगाने के आदेशों के बाद हिमालय के पर्वतीय इलाकों में सड़कों के निर्माण में खोदने वाली मशीन के प्रयोग की अनुशंसा की गई है और यह सुझाव दिया गया है कि नियंत्रित तरीके से ब्लास्टिक डेटोनेटर, वाटर जेल एक्सप्लेासिव जैसी तकनीक का इस्तेमाल किया जा सकता है.
ब्रिटिश काल में पहाड़ में जो सड़कें बनी उनमें ‘कट एंड फिल तकनीक’ का इस्तेमाल होता रहा. मलवे को ढलानों में न फ़ेंक डंपिंग स्थल में डाला जाता रहा. ऐसी तकनीकों पर ही अधिक ध्यान देने की जरुरत है जिसमें डंपिंग स्थल इस तरह चुने जाएं कि अनुपयोगी स्थलों में नयी जमीन तैयार हो जाये जिसका प्रयोग वनीकरण के लिए किया जा सके. इससे वर्तमान में सड़क बनाने पर अतिरिक्त व्यय जरूर बढ़ेगा पर दीर्घकाल में उसकी खर्च से ज्यादा भरपाई हो जाएगी. जब यह ध्यान रखा जा रहा हो कि पहाड़ों में सडकों का अर्थ टिकाऊ सड़क होना चाहिए. छोड़ी सड़क भी यदि भूस्खलन के कारण खतरनाक और कभी भी बंद हो जाने वाली हो तो उसका क्या लाभ. फिर सकल पर्यावरण उत्पाद (जी ई पी) के द्वारा हिमालयी क्षेत्र देश को प्रकृति के अनमोल उपहार देता रहा है जिसके बिना पारिस्थितिकी के गंभीर संकट उत्पन्न हो जायेंगे. यह पक्ष सुप्रीम कोर्ट ने भी स्वीकार किया है.
विकास के लिए अवस्थापना निर्माण हिमालय की भौगोलिक संरचना के अनुरूप होना चाहिए. ऐसी परियोजना जिससे मिट्टी और पानी की सबसे अधिक बर्बादी हो, जंगल कटें, निश्चय ही समेकित विकास के लक्ष्य निर्धारण पर खरी नहीं उतरती. इसीलिए जल, जमीन और जंगल की क्षति का ऑडिट तो होना ही चाहिए. इसीलिए सकल राष्ट्रीय उत्पाद के चार क्षेत्रों में कृषि, उद्योग, अवस्थापना और सेवा में सकल पर्यावरण उत्पाद को भी समाहित करना मुख्य प्रतिमान बने. इकॉनमी और इकोलॉजी दोनों के समावेश से समेकित विकास की नीतियों का क्रियान्वयन संभव बनाया जाय.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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