अंग्रेजी वर्तनी के अनुसार भोवाली, अतीत में भुवाली और अब भवाली नाम से जाना जाने वाला यह छोटा सा कस्बा नैनीताल से 11 किमी पूर्व में राष्ट्रीय राजमार्ग 109 (पूर्व में हाईवे 87 के नाम से) पर स्थित है. स्वयं किताब के लेखक ने भवाली को ’गेट वे’ कहकर पुकारा है. जाहिर है कि कुमाऊॅ के किसी भी कोने पर जाने के लिए यह एक मुख्य जंक्शन है. कैंचीधाम की लोकप्रियता से इस कस्बे को स्वतः ही और अधिक पहचान मिली. अगर कस्बे के अस्तित्व में आने की बात करें तो पहले दुगई इस्टेट या दुगै नाम से पुकारे जाना वाला यह स्थान उत्तरवाहिनी शिप्रा नदी के पवित्र तट पर श्मशान घाट के रूप में जाना जाता था और नैनीताल के लोग भी शवदाह के लिए यहॉ लाया करते थे. 1897-98 में लीसा फैक्टरी की शुरूआत तथा 1912 में भवाली सेनेटोरियम की स्थापना से इसे एक नई पहचान मिली और क्षयरोग से ग्रसित राष्ट्रीय स्तर के व्यक्तित्वों का स्वास्थ लाभ के लिए यहॉ आना इस कस्बे को पहचान देता चला गया.
(Badlon Main Bhowali Book)
भवाली कस्बे के विविध पक्षों को समाहित करते हुए सद्य प्रकाशित ‘बादलों में भवाली’ पुस्तक पर नजर डालने से पहले पुस्तक के लेखक की संक्षिप्त जानकारी देना स्थान विशेष की जानकारी प्राप्त करने में ज्यादा रूचिकर होगा. पुस्तक के लेखक शैलन्द्र प्रताप सिंह, उ.प्र. के पुलिस महानिरीक्षक पद से सेवानिवृत्त हैं और 2014 में सेवानिवृत्ति के बाद भवाली के पास ही घोड़ाखाल में अपनी कुटिया (उनके द्वारा अपने निवास का स्वयं दिया गया नाम) बनाकर रहते हैं. मूल रूप से रायबेरली के बैंसवाड़ा से ताल्लुक रखने वाले शैलन्द्र प्रताप सिंह ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त कर पुलिस सेवा में प्रवेश किया और उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों में पुलिस अधीक्षक, क्षेत्रीय पुलिस उपमहानिरीक्षक तथा अन्त में पुलिस महानिरीक्षक(रेलवे) से सेवानिवृत्ति ली. बौद्ध दर्शन के अध्येता हैं. उन्हें एक हरफनमौला इन्सान कहें तो ज्यादा उपयुक्त होगा. कई पुस्तकों के लेखक, शेरो-शायरी के शौकीन, विभिन्न व्ंयजनों व खाने-पीने की चीजों के तलबगार, यायावरी की वृत्ति और वर्तमान को खुलकर जीने तथा यारों के यार शैलेन्द्र प्रताप सिंह एक मस्तमौला व बेतकल्लुफ इन्सान हैं.
भवाली में अपने अल्पप्रवास के बाद ही भवाली के प्रति उनका याराना , उनका मोह ही है, जिसने उन्हें भवाली के अतीत की जानकारी हासिल कर लिखने को विवश किया होगा. उल्लेखनीय है कि शैलेन्द्र प्रताप सिंह अपने पैतृक गांव के इतिहास व संस्कृति पर तीन पुस्तकों सहित विविध विषयों पर लगभग दर्जन भर पुस्तकें लिख चुके हैं. पिछली 29 मई 2022 को उनकी नई किताब ‘बादलों में भवाली’ का लोकार्पण उन्हीं के आवास पर एक संक्षिप्त लेकिन भव्य समारोह के साथ इतिहासकार पद्मश्री शेखर पाठक की अध्यक्षता में उ.प्र. के पूर्व डीजीपी ओम प्रकाश सिंह के द्वारा किया गया.
पूर्व से ही विख्यात जगह पर लिखना तो आसान है, वहॉ के इतिहास की जानकारी के लिए आपको कई सूत्र मिल जायेंगे, बुजुर्गों के किस्से कहानियां, सन्दर्भ पुस्तक और लोकज्ञान. लेकिन भवाली जैसे छोटे कस्बे के इतिहास को समेटने में जानकारियां हासिल करना बहुत दुश्कर कार्य है. भवाली के अतीत के बारे में जो जानकारियां इस पुस्तक में दी गयी हैं, ताज्जुब होता है कि केवल 7-8 साल के भवाली प्रवास के दौरान कैसे उन्होंने इतनी जानकारियां हासिल की, जिनसे पैदाईशी भवाली नगर के वाशिन्दे भी वाकिफ नहीं थे.
पुस्तक के प्रारम्भ में ’अपनी बात’ शीर्षक के अन्तर्गत लेखक लिखते हैं – इतिहास खंगालने में मुझे बहुत मजा आता है. कैसे नाम पड़ा भुवाली का नैनीताल/अल्मोड़ा की ऐतिहासिक कहानी में भुवाली की महत्ता, जहॉ 1903 में गवर्नर जनरल लार्ड कर्जन भी आये थे.
प्रख्यात लेखक एटकिंसन ने पहाड़ के हर पहलू पर कलम चलाने से उन पर ये आरोप भी लगे कि उन्होंने सब कुछ जूठा कर दिया. भवाली के सन्दर्भ में भी समीक्षित पुस्तक पर गौर करें तो इसमें अतीत के कई रहस्यों को शोधपरकता, प्रामाणिकता व गम्भीरता से उद्घाटित करने के साथ-साथ भवाली से संबंधित सारी छोटी-छोटी घटनाओं व व्यक्तित्वों को भी सतही तौर पर ही सही, लेखक ने उनमें मुंह अवश्य मारा है, जिसके बाद भवाली के संबंध में कुछ नयी बात कहने को रह नहीं जाती, सिवाय इसके कि पुस्तक में यहॉ के फ्लोरा एण्ड फ्यूना का जिक्र करना लेखक शायद चूक गये, जिस ओर पुस्तक के विमोचन के समय उ.प्र. के पूर्व डीजीपी ओ.पी.सिंह ईशारा भी कर चुके हैं.
इतिहास में झांकते हुए लेखक कहते हैं- 1891 में ब्रेवरी से नैनीताल को जाने के लिए बुलक कार्ट रोड बनी जिस पर वर्ष 1893 में तांगे भी जाने लगे… नैनीताल और भवाली के बीच मात्र 6 किमी का पैदल रास्ता था. ब्रिटिश शासन प्रारम्भ होने से पूर्व कुमाऊॅ में केन्द्रीय न्याय व्यवस्था नहीं थी. कुमाऊॅ में थोकदारी (जमींदारी) प्रथा मुगलकाल से चली आ रही थी, जिसमें भूमि का स्वामित्व उस पर काम करने वाले का न होकर थोकदार का होता था.
आगे वे लिखते हैं- भवाली के विकास में दुगई इस्टेट का विशेष योगदान है. 1874 में ब्रिटिश अधिकारियों ने आज के भवाली इलाके में जनरल पेट्रिक व्हीलर की एक बहुत बड़ी जागीर सेक्रेटरी ऑफ स्टेट के डिसपैच सं. 14, दिनांकित 9 जुलाई 1862 और तदनुसार कुमाऊॅ कमिश्नर के सरकुलर 20 जुलाई 1866(नियम) के तहत उसकी कर्ज अदायगी कर करारनामा द्वारा दी गयी जो दुगई इस्टेट के नाम से आज भी याद की जाती है. आज के भवाली का तीन चौथाई भाग इस जागीर का हिस्सा थी.
कुल 15 अध्यायों में बंटे, 169 पृष्ठों की इस पुस्तक में हर मिजाज के इन्सान को उसके पढ़ने के लिए अपनी रूचि के अनुरूप रोचक जानकारी मिल ही जायेगी. यदि आप इतिहास जानने की ललक रखते हैं तो कैसे यह कस्बा निरन्तर विकास की ओर अग्रसर हुआ, कब मोटरमार्गों का निर्माण हुआ, जवाहर लाल नेहरू, कमला नेहरू, इन्दिरा गान्धी, यशपाल, सुभाष बोस जैसी शख्सियतों का किन कारणों से भवाली आना हुआ और वे कहॉ ठहरे और किन-किन लोगों के सम्पर्क में आये? इन्दिरा गान्धी व फिरोजगान्धी के बीच प्रेम के बीज यहॉ कैसे अंकुरित हुए और देश के संयुक्त प्रान्त के मुख्यमंत्री तथा स्वतंत्र भारत के चौथे गृहमंत्री एवं प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री पं. गोबिन्द बल्लभ पन्त ने किस तरह स्वतंत्रता आन्दोलन की योजनाऐं भवाली के समीप निगलाट नामक गांव में तैयार की. स्वतंत्रता आन्दोलन के नेताओं में भगवती चरण वोहरा, उनकी पत्नी दुर्गा भाभी और सत्येन्द्र नाथ सान्याल के भवाली कस्बे से रहे रिश्ते की जानकारी भी आपको इस पुस्तक में मिल पायेगी.
उस समय के अधिकांश स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का प्रवास भवाली के कांग्रेस नेता स्व. हीरालाल साह का भौनियाधार स्थित चन्द्रभवन हुआ करता. चन्द्रभवन फिल्मांकन के वक्त फिल्म मधुमती के कलाकारों के रहवास के साथ राजनैतिक गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र हुआ करता. फिल्मी कलाकारों के ठहरने से स्वाभाविक है कि उस समय भवाली का यह आलीशान बंगला रहा होगा, जिसका उल्लेख प्रस्तुत पुस्तक में विस्तार से किया गया है. यदि आप की रूचि साहित्य के प्रति है तो शिवानी का भी इस कस्बे से नजदीकी रिश्ता रहा है. प्रो0 पुष्पेश पन्त व उनके भाई मुक्तेश पन्त का बचपन भी यहॉ बीता है. लेखक बताते हैं-शिवानी (प्रसिद्ध लेखिका) का भी भवाली से नजदीकी नाता था. शिवानी की बड़ी बहन जयन्ती भवाली के (हैरिटेज काटेज) के डॉ. के.सी. पन्त के साथ ब्याही थी, जिनके पुत्र जेएनयू प्रोफेसर पुष्पेश पन्त हैं… जयन्ती जी का घर शिवानी और उनके बच्चों का घर जैसा ही था और उनका भवाली खूब आना जाना रहा.
लेखक बताते हैं कि साहित्यकार व क्रान्तिकारी यशपाल के तो बेटे का जन्म यहीं हुआ. ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखिका कृष्णा सोबती से कौन परिचित नहीं, कृष्णा सोबती ने भवाली प्रवास के दौरान साहित्य सृजन किया और ’बादलों के घेरे’ नाम से संस्मरणात्मक पुस्तक लिखी, जिसमें भवाली के आस-पास के रोचक संस्मरण हैं. लेखक बताते है कि इस किताब का शीर्षक भी उन्हीं की किताब से प्रेरित है.
फिल्मों में रूचि लेने वालों के लिए अपने समय की हिट फिल्म मधुमती के शूटिंग की मीठी यादें और फिल्म का कथानक भी इसी कस्बे के समीप श्यामखेत, जिसे फिल्म में श्यामगढ़ी नाम दिया गया है. बताते हैं कि फिल्म के दृश्यों का एक बड़ा हिस्सा भवाली के समीपवर्ती स्थानों के इर्द-गिर्द ही घूमता नजर आता है. लेखक ने मधुमती फिल्म की शूटिंग के कुछ यादगार लम्हे अपने मित्रों की स्मृतियों के हवाले साझा करते हुए लिखा है- सुहाना सफर और ये मौसम हसीं गाना रामपुर नवाब की घोड़ाखाल इस्टेट की गढ़ी के अलावा उसके आस-पास ही कई अन्य स्थानों पर भी, विशेषकर उस स्थान पर जहॉ से घोड़ाखाल मन्दिर की चढ़ाई का रास्ता शुरू होता है और दूसरा जहॉ आजकल उत्तराखण्ड जूडिशियल एण्ड लीगल एकेडेमी है, वहॉ के ऊपरी क्षेत्रों में भी फिल्माया गया था. इस गाने में ही वह दृश्य आता है , जहॉ पहाड़ी महिलाएं सर पर घड़ा रखकर पानी लेने स्रोतों तक जाती हैं. इस स्रोत का नाम ही आजकल हम साथियों ने मधुमती प्वाइन्ट रख दिया है. पुस्तक में इसी तरह की फिल्म शूटिंग की कई गुदगुदाने वाली यादें अतीत से नाता जोड़ लेती हैं.
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कभी अपने समय के दुर्दान्त डाकू, जिसे लोग सुल्ताना डाकू के नाम से आज भी नहीं भूले हैं, सुल्ताना डाकू की अन्तिम डकैती की रोमांचक दास्तां भवाली शहर से जुड़ी हैं और सुल्ताना डाकू के बहाने प्रख्यात शिकारी व पर्यावरण प्रेमी जिम कार्बेट को भी शिद्दत से याद किया गया है. पुस्तक में उल्लेख है- सैम्युएल साहब की डायरी से स्पष्ट है कि सुल्ताना का अन्तिम अपराध 14 नवम्बर 1923 कर भवाली का जजधावा/डकैती है. सुल्ताना को पकड़ने के लिए फ्रेडरिक यंग (एसपी) के नेतृत्व में बनायी गयी करीब तीन सौ सिपाहियों, पन्द्रह इंसपेक्टर, दो डिप्टी एसपी की स्पेशल ड्यूटी फोर्स की गुप्तचर टीम व उनके सहयोगियों ने उनका नैनीताल झील के पश्चिमी सिरे तक पीछा किया जहॉ जंगल में सुल्ताना और उसके साथी गुम हो गये… सुबह (15नवम्बर) नैनीताल में चीनापीक की तरफ बने उसके अस्थायी कैम्प से सुल्ताना को पकड़ा गया… अगले वर्ष 8 जुलाई 1924 को फांसी दी गयी. सुल्ताना ने अर्थाभाव में भवाली की यह डकैती सुल्तान की तरह डाली. दो तीन घण्टे भवाली बाजार में वह रहा और लूटा गया सारा माल वहीं लुटाया. लेखक ने सुल्ताना के डाकू बनने से लेकर , उसके अन्त तक के इतिहास को किताब में रोचकता से पिरोया है.
धर्मप्राण लोगों के लिए इसमें क्षेत्र के प्रख्यात सन्तों नानतिन महाराज, सोमवारी बाबा और नीम करौली बाबा के चमत्कारों पर भक्तों के रोचक संस्मरण व प्रमुख धर्म-स्थलों की जानकारी तथा लोकपर्व, लोकसंस्कृति व स्थानीय खानपान का भी उल्लेख है. भवाली शहर की कुछ नामी हस्तियों की पारिवारिक पृष्ठभूमि, उनकी कस्बे में रही पुश्तैनी सम्पत्ति का ब्यौरा, खास के अलावा कस्बे के पुराने आम शख्सियतों की दास्तानें पुस्तक को रोचक बना देती हैं. फिर चाहे वह कुंवर राम जी के चर्चित ट्रक का किस्सा हो या आर्य समाजी भूमित्र आर्य, उस समय के लोकप्रिय चिकित्सक डॉ. आन सिंह बिष्ट की लोकप्रियता का जिक्र हो अथवा विक्षिप्त सी महिला ब्लोसम की यादें. बहुत पुरानी घटनाओं से लेकर चाय बागान विकसित होने तक की दास्तां और आज के भवाली के प्रसंगों में शिप्रा कल्याण समिति के अध्यक्ष जगदीश नेगी के पर्यावरण संरक्षण के प्रयासों को भी प्रमुखता से स्थान दिया गया है.
कुल मिलाकर हर मिजाज के इन्सान को इसमें अपनी पसन्द की कुछ न कुछ पठनीय सामग्री अवश्य मिल जायेगी. कस्बे के मूल निवासी को यह नोस्टालजिया (अतीत मोह) में जाने को मजबूर करती है तो बाहरी लोगों को कस्बे को अन्दर से जानने व समझने का मौका देती हैं. कुल मिलाकर पुस्तक पठनीय व भवाली के ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में संग्रहणीय पुस्तक है.
पाठक के जेहन में एक विचार आना स्वाभाविक है कि मूलतः यहॉ का न होते हुए भी लेखक ने ये शोधपरक जानकारियां कैसे जुटाई होंगी. लेखक पुस्तक में एक जगह स्वयं लिखते हैं- मैं कोई तथ्य तभी लिखता हूँ जब वह किसी अधिकृत नींव पर खड़ा होता है. जाहिर है कि किताब कोई किस्सागोई या किसी घटना का अतिरंजित उल्लेख इसमें नहीं किया गया होगा. घुमक्कड़ी प्रवृत्ति के लेखक ने कस्बे के बड़े बुजुर्गों से कुछ सूत्र लेकर विभिन्न सन्दर्भ पुस्तकों को आधार बनाकर ही लिखा गया है. जिन सन्दर्भ पुस्तकों व व्यक्तियों का उल्लेख लेखक ने बेवाकी से पुस्तक में किया है.
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पुरातन इतिहास के संकलन में मामूली सी त्रुटियां होना स्वाभाविक है, लेकिन इतिहास पर आधारित इस पुस्तक को यदि भविष्य में कोई शोधार्थी सन्दर्भ ग्रन्थ के तौर पर लें तो ये त्रुटियां गम्भीर भी हो सकती हैं. जैसे कि लेखक ने कुंवर मिष्ठान्न भण्डार के स्व. चन्दन सिंह बिष्ट के हवाले से बताया है कि भवाली में हाईस्कूल को 63-64 में मान्यता मिली और 65-66 में वह इण्टर भी हो गया. जबकि हकीकत ये है कि जी.बी. पन्त इन्टर कालेज भवाली को इन्टर कक्षाओं की मान्यता 1972 में मिली और 1974 में इन्टर का पहला बैच निकला. इसे आगामी संस्करण में संशोधन की अपेक्षा के उद्देश्य से उल्लिखित किया जा रहा है.
पुस्तक की भूमिका लिखते हुए उत्तराखण्ड राज्य के पूर्व मुख्य सचिव नृप सिंह नपलच्याल़ लिखते हैं कि इस पुस्तक को पढ़ने के बाद मैं पूर्ण दावे के साथ कह सकता हॅू कि ऐसी पुस्तक शैलेन्द्र जी के द्वारा ही लिखी जा सकती थी. कोई दूसरा इसे इतनी शिद्दत और तन्मयता से नहीं लिख पाता. शैलेन्द्र जी ने भवाली में अपनी कुटिया बनाई है और काफी समय से यहॉ रहते भी आये हैं. परन्तु भवाली का कोई मूलवासी भी इतनी गहनता और आत्मीयता से नहीं लिख पाता… भवाली के इतिहास, भूगोल, संस्कृति, अध्यात्म, राजनीति, उद्योग और वाणिज्य, शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, खानपान, स्थानीय विभूतियों, राष्ट्रीय विभूतियों जिनका भवाली से सम्पर्क रहा, साहित्यकार जो भवाली से प्रभावित हुए तथा सामान्यजन के साथ लोकजीवन का जितना शोध और अध्ययन कर उन्होंने चित्रण किया है, ऐसा वही कर सकता है, जिसमें भवाली अच्छी तरह से रच-बस गया हो.
पुस्तक का आवरण पृष्ठ सईद शेख द्वारा तैयार किया गया है, जो मूलतः भवाली से ताल्लुक रखते हैं और वर्तमान में फिनलैण्ड में रहते हैं. लेखक ने पुस्तक को प्रकाशित करने के लिए किसी बड़े प्रकाशक की तलाश न करके स्थानीय उद्यमी संजीव भगत को यह जिम्मेदारी सौंपी और जहॉ तक मैं समझता हॅू, बतौर प्रकाशक, फ्रूटेज हाउस, फरसौली, भवाली का यह सबसे पहला प्रकाशन होगा.
कुल मिलाकर पुस्तक भवाली के इतिहास की दृष्टि से संग्रहणीय व रोचक इतिहास को समेटे भवाली का अच्छा दस्तावेज बन पड़ा है, जिसे कस्बे के लोगों को तो पढ़ना ही चाहिये. भवाली कस्बे के दस्तावेजीकरण के लिए भवाली के रहवासियों का उनके प्रति आभार तो बनता ही है.
(Badlon Main Bhowali Book)
पुस्तक का शीर्षक- बादलों में भवाली
पृष्ठ सं0 169
प्रकाशक- फ्रूटेज हाउस, फरसौली भवाली
मूल्य- 250 रूपये
पुस्तक प्राप्ति का सम्पर्क सूत्र – 75054 39662 (संजीव भगत, प्रकाशक)
भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं.
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बादलों में भवाली - लेखक ने लिखा है भवाली में हाईस्कूल को 63-64 में मान्यता मिली ! यह जानकारी शायद अतीत के गर्व में चली गई हो, तब भवाली केवल जूनियर हाई स्कूल था ! भवाली की प्रबुद्ध लोगों ने फैसला किया कि यहाँ हाई स्कूल होना चाहिए ! इसलिए प्राइवेट हाई स्कूल खोला गया, इसमें में भी एक छात्र था ! 1954 में पहला बैच प्राइवेट छात्रों के रूप में हाई स्कूल परीक्षा देने हेतु नैनीताल केंद्र में गया ! तब भवाली में बिजली नहीं होती थी ! हमें फ्लैट में स्थित हॉल में ठहराया गया ! पहली रात्रि हम सो नहीं पाए क्योंकि बिजली की रोशनी चारों ओर उजाला कर रही थी ! इस पहले बैच में केवल 4 छात्र पास हुए थे ! रघुबर दत्त. दौलत सिंह, भुवन चन्द्र और मैं ! स्कूल के पास एक पगडंडी थी उसमें सिसूणा का झाड़ के पौधे थे ! अंग्रेजी के क्लास में मार के डर से हाथों में सिसूणा लगाकर बहादुरी से मार झेलते थे ! पर हेड मास्टर साहब को यह सब पता चला तो उन्होंने सिसूणा का झाड़ हमारे ही हाथों से हटवा दिया था ! बचपन के दिनों की मस्ती याद करके बड़ा आनंद आता है ! आज मैं 83 साल का हूँ ! मुझे गर्व हैं मेरा बचपन भवाली में बीता !!