सत्तर के दशक में एक किताब भारत जैसे देश के आर्थिक विकास के लिए चमत्कारी बूटी साबित होने जा रही थी. विशेष कर पहाड़ की अर्थव्यवस्था के लिए जहां पर्याप्त संसाधनों के साथ परंपरागत हुनर और मेहनत कर गुजरने का बूता था. इस किताब का नाम था – स्माल इज ब्यूटीफुल. इसके लेखक थे प्रोफेसर शूमाखर. इसमें आंचलिक संसाधनों के विवेक पूर्ण आवंटन पर जोर था. पूंजीगत आदाओं पर निर्भरता सीमित थी. स्थानीय रूप से मौजूद श्रम का प्रयोग इस तकनीक का मुख्य आधार था.
(Uttarakhand Mukhyamantri Swarojgar Yojana)
प्रकृतिदत्त संसाधनों की बहुलता के साथ अर्धकुशल व अकुशल श्रम की गहनता होने पर मध्यवर्ती तकनीक को बेहतर और कारगर बताया गया था. जिससे उत्पादन और रोजगार की संभावनाएं किस तरह लगातार बढ़ सकती हैं पर यह मध्यवर्ती तकनीक तंत्र और प्रबंध की सोच साफ करती थी.नीति नियंताओं को ग्रास रुट लेवल पर नीचे से नियोजन का रास्ता बताती थी.
तब के दौर में उत्तराखंड उत्तरप्रदेश का पर्वतीय हिस्सा था जहां हो रहा विकास देश और प्रदेश की विकास परियोजनाओं के सामान्यीकरण की बलि चढ़ता रहा था. स्थानीय संसाधनों की हित चिंता और पहाड़ की विशिष्ट भौगोलिक संरचना के पक्ष भुलाये जा रहे थे. आंचलिक उत्पाद स्थानीय ग्रामवासियों ने धरोहर की तरह सहेज रखे थे. फिर हरित क्रांति की आंधी आई जिसमें स्थानीयता को हाशिये पर रखा गया. लोकल प्रजातियां और इनके बीज सिमटते गए. फार्म तकनीक का जमाना आया. असंतुलित विकास के तनाव दबाव कसाव के साथ उत्तराँचल और उत्तराखंड के नाम के ठप्पे में विकास की आंधी आती रही. तब जा कर पता चला कि पहाड़ के कई गाँव गैर आबाद हो गए हैं.
पर्वतीय इलाके की भिन्नताप्रद विशेषताओं के नाम पर आनन फानन में बने राज्य के बनने के बाद रोजी रोटी और कुछ बेहतरी की आस में पलायन की गति भी बढ़ती रही. बेहतर अवसर, सुविधा के साथ ज्यादा कमा खाने और जीवन स्तर बेहतर बनाने का सिलसिला कुछ ऐसा विकराल हुआ कि पिछले एक दशक में ही पांच लाख से अधिक लोग पहाड़ से बाहर चल दिये.
ग्रामीण विकास व पलायन आयोग की रपट बताती है कि काम धंधे की तलाश में 53% लोग गाँव से बाहर चल दिये तो अपने बच्चों को पढ़ाने लिखाने के लिए 13.2% परिवार शहरों में गए. बीमारी व गाँव में इलाज की सुविधा न होना ऐसी तीसरी वजह थी जिस कारण 7.6% आबादी बाहर गई. वहीं खेती में नुकसान से 4.4 %तो जंगली जानवरों के आतंक और खेती पाती चौपट होने से 4.6% लोगों ने गाँव छोड़ दिया इनके अलावा बुनियादी सुविधाओं के अभाव के साथ अन्य कई वजहों से 11.3% लोग अपना घर बार छोड़ बाहर चले गए.अब करीब एक लाख बीस हज़ार लोग तो स्थायी रूप से गाँव छोड़ गए थे. इनमें पौड़ी जनपद में सात सौ से अधिक गाँव और तोक बंजर पड़े. अल्मोड़ा में पिछले दस सालों में सत्तर हज़ार से अधिक लोगों ने गाँव छोड़ा जिसमें 646 गांवों से सोलह हज़ार से अधिक लोग बाहर ही बस गए. स्याल्दे, सल्ट, चौखुटिया और भिकियासैण से सबसे ज्यादा लोग गए. सबसे अधिक गांवों से जाने वाले लोग पिथौरागढ़ के रहे. यहां नौसौ सत्तर से अधिक गावों से चालीस हज़ार लोग गए.
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कुल मिला कर उत्तराखंड से बाहर जाने वाले एक तिहाई से ज्यादा परिवार थे. करीब छः सौ गावों से तीस हज़ार से ज्यादा लोग रोजगार के साथ बाल बच्चों की पढ़ाई और ज्यादा सुविधाएँ पाने के लिए अपना पैतृक गाँव छोड़ गए तो चारसौ के करीब गावों से दस हज़ार लोग प्रदेश छोड़ बाहर ही बस गए. राज्य से बाहर पलायन करने वालों का प्रतिशत 29% था तो राज्य में ही पर दूसरे जिलों में 36% लोग रहने लगे. गाँव से बाहर निकट के कस्बों में 19% तो जिला मुख्यालयों में 15% लोग गाँव छोड़ रहने लगे. इनमें देश छोड़ने वाले 01% रहे. गोठों के दरवाजे भिड़े सांकल चढ़ी और नये नवेले ताले लटकते रहे. इतनी कुंडियां भिड़ गईं कि लोगों की सूरतें दिखना बंद हो गया. वीरानियाँ बढ़तीं रहीं. भूतिया गाँव पहाड़ में बढ़ते रहे.
अब कोरोना की आपाधापी में पहाड़ की तरफ साठ हज़ार लोग मई की शुरुवात तक लौट चुके. अनुमान है कि दो लाख लोग और लौटेंगे. लौटने वालों में सबसे अधिक पौड़ी, अल्मोड़ा व टिहरी से तो चम्पावत, पिथौरागढ़, रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी व नैनीताल में औसत एक जैसा रहा, बागेश्वर में लौटने वाले अभी सबसे कम रहे. स्वाभाविक है कि रिवर्स माइग्रेशन से पहाड़ के वीरान पड़े गावों में फिर से हलचल होगी.
करोना महामारी से वापस अपने गाँव लौट रहे प्रवासियों के लिए काम-धंधों का रास्ता खोलने के लिए उत्तराखंड सरकार ने आनन-फानन में मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना की मंजूरी भी दी. इसमें पंद्रह से पचीस प्रतिशत की सब्सिडी मिलेगी और सबसे अहम् बात यह है कि प्रवासी अपने कौशल और अनुभव के आधार पर लघु विनिर्माण और सेवा क्षेत्र के साथ ही छोटे व्यवसाय कर सकते हैं. छोटी दुकानें, मुर्गीपालन, पशुपालन, डेयरी, फ़ूड प्रोसेसिंग, मछली पालन, ब्यूटी पार्लर, होटल, बार, रेस्टोरेंट, लाइसेंस शुदा मीट की दुकान और पचीस लाख तक का विनिर्माण और सेवा क्षेत्र में दस लाख रुपये के काम धंधों की शुरुवात हो सकती है.
परियोजनाओं की स्वीकृति सरकार देगी तथा बैंकों को भी सरकार की ओर से आवेदन होगा. योजना के द्वारा जल्दी उद्योग लगें इसलिए नियत समय में आवेदन करने व परियोजना स्वीकृत करने को अनिवार्य किया गया है. साथ ही पचीस लाख से बड़ी परियोजनाओं को सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम या एमएसएमई नीति के अंतर्गत चालीस प्रतिशत तक का अनुदान देगी. साथ ही केंद्र सरकार की ओर से छोटे कारबार के लिए प्रधान मंत्री रोजगार सृजन योजना के अधीन भी अनुदान मिलेगा पर इसमें पशु पालन, मुर्गीपालन सहित बाकी रेड श्रेणी के कारोबार शामिल नहीं होंगे .
यह शुरुवात भी फौरी राहत की नीति पर आधारित है. कुछ कर देने की घोषणाओं के बीच मध्यवर्ती और छोटे उद्योगों के द्वारा भुगती जा रही समस्याओं का अफसरशाही के द्वारा आनन-फानन में हल निकाल दिया गया है. अब यह वास्तव में भुगती जा रही परिस्थितियों से कहीं मेल खाता है या नहीं यह तो व्यावहारिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है. वैसे उद्योगों के द्वारा जो परेशानियां भोगी जा रहीं हैं उनके निदान के लिए सरकार जनपद स्तर पर ऐसी कमेटियों को बनाने जा रही है. जिनमें उद्योगों से जुड़े अधिकारियों के साथ स्थानीय उद्योग संगठनों के नुमाइंदे भी शिरकत करेंगे. जनपद स्तर पर उद्योगों की समस्या व निदान के बीच अगर सही तालमेल रहे तो सूक्ष्म या माइक्रो स्तर पर लघु उद्योग न केवल बेहतर तरीके से चलाये जा सकते हैं बल्कि स्थानीय संसाधनों का बेहतर उपयोग भी कर सकते हैं. यही सबसे नाजुक व संवेदनशील पक्ष है.
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उत्तराखंड सरकार चाहती है कि इस योजना से अधिकाधिक लोगों को स्वरोजगार के अवसर मिलें. एमएसएमई की तुलना में प्रवासी स्वरोजगार योजना आरम्भ करने वाले उद्यमियों को अनुदान भी शीघ्र मिलेगा. मुख़्यमंत्री स्वरोजगार योजना को प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम की तरह ही डिज़ाइन किया गया है पर पीएमआरवाइ में अनुदान बाद में मिलता है जो पेंतीस प्रतिशत तक है. अब मुख़्यमंत्री स्व-रोजगार योजना भी छोटे उद्यमियों के लिए बनाई गई है. पहले से चल रहे उद्योगों को इस योजना का लाभ नहीं मिलेगा. दूरस्थ इलाकों में पचीस लाख तक की विनिर्माण इकाई पर छः लाख यानी बीस प्रतिशत का अनुदान मिलेगा. इन्हें बी श्रेणी के जिले कहा गया है तो मैदानी भागों में या सी श्रेणी में अनुदान दस प्रतिशत रहेगा. रिटेल कारोबार भी इस योजना में शुरू किया जा सकता है जिसकी अधिकतम सीमा दस लाख रुपये रहेगी.
कॅरोना संकट के बाद प्रदेश में उद्योगों के सामने श्रमिकों की भारी कमी की समस्या भी उभर गई है. पहले से काम कर रहे श्रमिक भी बाहर निकल गए हैं. ऐसी समस्याओं को सुलझाने के लिए सीआईआई ने प्रदेश में टास्क फ़ोर्स का गठन किया है.
विदेशी पूर्ण रोजगार मॉडल द्वारा विकास की प्रक्रिया में उत्तराखंड बनने के बाद से मध्यवर्ती तकनीक के सही व संतुलित उपयोग के बारे में विमर्श नहीं हुआ. जबकि पडोसी हिमाचल प्रदेश में स्वदेशी परमार मॉडल ने अल्पकाल में खेती, सब्जी तो मध्य अवधि में फल व प्रोसेसिंग उद्योग से स्थानीय निवासियों के जीवन स्तर को संवार दिया. उत्तरपूर्व के राज्यों में स्थानीय उत्पाद और शिल्प अपनी पहचान बनाये रखने में टिका रहा.
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उत्तराखंड की विकास सोच न तो स्थानीय संसाधनों का सही उपयोग कर पायीं और न ही अंचल विशेष में उपलब्ध श्रम को रोजगार दिला पायीं. वनसम्पदा व जड़ीबूटी विदोहन व इन पर टिके लघु उपक्रम इन्हीं के एकाधिकारी निजी उद्योगों के दबाव में टिक नहीं पाए. सरकार की हर मेहरबानी भी स्थानीय उत्पाद व संसाधन की बाहरी बिकवाली पर टिकी रही. दूसरा लघु उद्योग पैमाने की मितव्ययिताओं के अभाव से गुणवत्ता बना पाने में असफल होने के साथ बाजार की अपूर्णताओं से परेशान रहा. उद्यमी के नाम पर सटर पटर में माहिर बिचौलिया वर्ग पनपा जो सरकारी सुविधाएं खा पचा संसाधनों को लूट खसोट गायब भी हो गया.
स्थानीय रूप से बेहतर उत्पादन करने में समर्थ लोगों की सकसेस स्टोरी गुम ही रहीं. स्थानीय संसाधनों के नाम पर जमीन, बिजली पानी की छूट, कर रियायत, सब्सिडी व अनुदान के लाभ लेने में पारंगत ही वृद्धिदर का ग्राफ चढ़ाते सिमटाते रहे. फिर एक और समानान्तर वर्ग एनजीओ बन सामने आया जो देसी विदेशी रकम बटोरने और प्रदर्शन प्रभाव उपजाने की दक्षता रखता था. उसके सत्ता में रही हर पार्टी के साथ श्रृंखला सुगठित रहीं. नाबार्ड जैसी संस्थाओं के सहयोग से जब तक स्वयंसेवी संस्थाओं के गठजोड़ को मदद मिली तब तक ही कुछ होने का भ्रम रहा.स्वयं सहायता समूह अपंग ही बने रहे. स्थानीय संसाधनों के प्रयोग से जो उत्पाद लगातार छोटी इकाइयां बनाती रहीं उनके पीछे वस्तुतः वह निजी उपक्रमी ही थे जो हर हाल में घाटा सह कर के भी उत्पादन कर रहे थे.
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पहाड़ में हाट बाजार, क्लस्टर एप्रोच, सहकारी तालमेल की फुल झड़िया यदा कदा फूटती रहीं. स्थानीय उत्पादों में फलफूल, मसाले, सब्जी, जड़ी बूटी, वन उत्पाद के दोहन व उत्पादन के साथ स्थानीय शिल्प व थात में केरल, उत्तर पूर्व के सात जिले, गोवा, कश्मीर, हिमाचल ने अपनी विशिष्ट आंचलिक छाप वाली पहचान छोड़ी है. यदा कदा इनके अनुसरण के फरमान भी शासन स्तर पर काले सफ़ेद होते रहे. पर सफलता के लिए अनिवार्य कंसिस्टेंसी, ट्रांज़िटिविटी व लॉजिकल एप्रोच तो अफसरशाही व नीति नियंताओं की समझ और सोच से वाष्पन करती रही थी.
आज फिर सूक्ष्म उद्योग विकास की गति को बढ़ाने में प्रभावी भूमिका निभाने में सक्षम महसूस किए जा रहे हैं. पहाड़ में इन्हें फैलाया भी जा सकता है. स्थानीय संसाधनों से इनके कच्चे माल की आपूर्ति संभव भी है. स्थानीय निवासियों के पास जो अनुभव व कार्य दक्षताएं हैं उनका बेहतर समंजन किया जाना भी संभव है. परिस्थितियां भी ऐसी हैं कि बिना वृद्धि दर बढ़ाये विकास को पटरी पर लाना संभव नहीं.अभी स्थानीय संसाधनों के साथ आंचलिक विकास को बेहतर और कारगर गति देने की बड़ी वजह यह भी है कि देश में एक करोड़ से कम कर्ज वाले सूक्ष्म उद्योगों पर राहत अनुपात और एनपीए सबसे कम है. जो मौजूदा बैंकिंग परिस्थितियों में नये कर्ज देने में कोई संकोच नहीं करेगा.
प्रदेश में प्रवासियों की राय जानने के लिए सर्वेक्षण किया जाना तय हुआ है. इसकी जिम्मेदारी सरकार ने ग्राम प्रधान के साथ ही पंचायत राज विभाग के कर्मचारियों पर डाली है जो नियोजन विभाग का हाथ बटाएंगे. प्रवासी वापस लौट कर कौन से काम कर सकते हैं की जानकारी लेने को नियोजन विभाग ने ऑनलाइन फीडबैक भी शुरू किया. एक एप भी विकसित किया गया है.
सरकार की मंशा है कि स्वरोजगार का उचित माहौल बना ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाया जाए. अभी प्रदेश में काफ़ी भूमि बंजर है. सरकार सगंध पादप या एरोमेटिक खेती कि संभावनाओं पर ध्यान दे रही है. ऐसे ही ज्यादा से ज्यादा रिटेल आउटलेट वा अपना बाजार खोले जाने कि भी प्रस्तावना है जहां स्थानीय कृषि उत्पाद व दस्तकारी पंहुच सके. खेती बाड़ी, फल पट्टी, बागवानी, जड़ी बूटी, वन उत्पाद पर जोर है जिनके विकास की दुहाई अनगिनत बार दोहराई जा चुकी है पर हर बार इच्छा शक्ति और दृढ़ता की ढुलमुल से पुनर्मूषको भव की दशा ही दिखी है. संकट की घड़ी में न्यूनतम आवश्यक प्रयास से पहाड़ स्वयं स्फूर्ति अवस्था को प्राप्त कर पाएं यही ‘स्माल इज ब्यूटीफुल ‘की परिकल्पना थी जो बेहतर भी है और कारगर भी.
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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बदरपुर और विनोदनगर की तंग गलियों और खिड़की रहित घरों को स्वछंद विचरण के आदी उत्तराखण्ड के युवक तो छोड़ना चाहते हैं लेकिन उनकी वीरांगना पहाड़ी बहुऐं वापस पहाड़ जाने के नाम पर फांस खाने की धमकी दे देती हैं तो उनके कदम रुक जाते हैं। यह समस्या विकराल है। अच्छे स्कूलों अस्पतालों का न होना पलायन की वजह नही रही बल्कि शहरों में बसकर आरामतलब जीवन जीने की ख्वाहिश पलायन का सबसे बड़ा कारण रहा। क्योंकि इन बिदुओं पर बात करते हुुये स्त्री विरोधी होने का ठप्पा लग सकता है तो कोई नेता इस विषय पर बात नही करता। नौजवान पहाड़ी युवक किसी योजना के मोहताज नही हैं। बस मौकों की दरकार है और थोड़े से उत्साह वर्धन की।
अपने एक नया पक्ष दिया पड़ताल का.
अगर केवल मेदानी इलाकों से छोड़े बंदरों पर सरकार नियंत्रण कर दें तो फिर पहाड़ में खेती लहलहा सकती है