बालम उर्फ बाली के पास बैलों की एक जोड़ी थी. वह मेहनती था और व्यवहार कुशल भी, जिसके चलते वह गांव ही नहीं आसपास के गांवों का भी चहेता था. रोजगार के नाम पर उसके पास काम की कमी नहीं थी. उसके पास बैलों की जोड़ी तो थी ही. इसके अलावा वह सीजनल कामों जैसे मशकबीन बजाना, लकड़ी काटना, चिरान और भी कामों, मतलब पहाड़ के हर काम में माहिर था. कम पढ़ा-लिखा होने के बावजूद उसकी अक्लमंदी ने उसे होशियार बना दिया. हर परेशान आदमी की मदद करना मानो उसका शौक रहा हो. इस शौक ने उसे सबका चहेता बना दिया था. An inspiring story of reverse migration
लोहाघाट से महज दस किमी दूर एक गांव पड़ता है बचकड़िया. उसी का तोक है, गंगनौला. बचकड़िया करीब पंद्रह-बीस परिवारों की अनुसूचित बस्ती है. इस बार लॉकडाउन में लौट रहे प्रवासियों की भीड़ को फिर से बालम याद आ गया. An inspiring story of reverse migration
वो 1990 से 2000 तक का दौर था, जब पलायन ने मैदानों की ओर कदम बढ़ाए. बालम को गेहूं, धान, मडुवा आदि की बुआई के समय फुर्सत नहीं होती थी. यहां तक कि उसे पहले बुलाने के चक्कर में कभी- कभार बिरादरी में झगड़े की नौबत तक आ जाती. वजह होती थी, उसका काम, काम के प्रति समर्पण व व्यवहार कुशलता. जरा भी नखरे नहीं दिखाता था, हरगिज अधूरा काम नहीं छोड़ता था. तब एक दिन की दिहाड़ी बैलों की जोड़ी के साथ बुआई के पहले सौ रुपये हुई, फिर तीन सौ तक पहुंच ग ई. आजकल 700 है. खेतीबाड़ी के सीजन में बालम ठीक ठाक कमाई कर लेता था. फिर बारात में मशकबीन बजाना, छोलिया दल के ठेके लेना तक करने लगा. 12 मास मेहनत करता. इतनी कमाई कि घर छोड़कर महानगरों को गए भी हैरत में पड़ जाते थे. मगर जब प्रवासी छुट्टी लेकर गांव आते तो उनकी शानो शौकत, रहन सहन, ठाठ बाट देख उसका भी मन अब घरेलू रोजगार के कामों में कम होने लगा.
उसके साथ के जब छुट्टी आकर कहते कि दिल्ली में ऑफिस में हूँ तो, उसके मन में भी विचार आने लगा कि बैल बेचो और चल दो दिल्ली. फिर उसने बैल बेच दिए और चल दिया दिल्ली. राजधानी की चकाचौंध, सरपट दौड़ते लक्जरी वाहनों को देख उसे भी लगा कि मैं तो खाली बैलों के पीछे लगा रहा. इससे तो पहले ही आ जाता. खैर वह एक परिचित के यहां गया तो नौकरी की तलाश आरंभ हुई. दिल्ली के तंग गलियों के साथ ही बड़े बाजारों की चकाचौंध देखी, पर उसे अपने हुनर के हिसाब से काम नजर नहीं आया.
साथ वालों के साथ रोजगार की खोज चलती रही कि तभी एकाएक इलाके का ही युवक, जो खुद को दिल्ली के ऑफिस में काम करना बताता था, वह होटल में प्याज काटता नजर आया तो उसकी नजर ठहर गई. बोला यार तू तो प्याज काट रहा है. ये दिल्ली में तो प्याज काटने के ऑफिस हैं. उसे अपने घर का बना बनाया रोजगार जाने का गम तो था ही, साथ में अपने निर्णय पर पछतावा भी होने लगा. एकाएक बालम का माथा ठनका, उसके पास जेब खर्च भी सिमटने लगा था और करीब एक माह में ही वह साथ वालों को भला बुरा कह वापस गांव लौट आया. An inspiring story of reverse migration
लौटने के बाद जब गांव के मैदान में जब शाम को क्रिकेट खेला जाता तो गेम खत्म होने के बाद खिलाड़ी सब बालम के दिल्ली के किस्से सुनने के किस्से सुनने को झुंड में बैठ जाते और खूब चटकारे लेकर खूब आनंदित होते. मगर बालम भी इत्मीनान से बात बताता, फिर सब घर को चले जाते. अब बालम ने फिर से बैल खरीदे, स्वरोजगार शुरू किया. कृषि सिमटी , बंजर भूमि का दायरा बढ़ा तो आजकल उसने आफर भी बना दिया. मिस्त्री काम हो या मजदूरी, कृषि व उससे जुड़े कामों से संबंधित घरेलू उपकरण बनाना उसके लिए बांये हाथ का खेल रहता है. यही रोजगार का जरिया. मेहनत की बदौलत वो किसी का कर्जदार नहीं, बल्कि उसके कर्जदार हो गए . कोरोना के संक्रमण काल के बाद लॉकडाउन में अब प्रवासी लौटने लगे हैं तो हर किसी को बालम बनने की ललक पैदा हुई है. मगर बालम अपने काम में मस्त होने के साथ-साथ बेटों का भविष्य सुनहरा बनाने के लिए दिन-रात काम में जुटा है.
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किशोर जोशी दैनिक जागरण में ब्यूरो प्रभारी हैं. पहाड़ की परंपरा, लोकसंस्कृति, लोकजीवन को जीने और ग्रामीण प्रतिभाओं को उभारने का शौक रखते हैं. पलायन जैसी समस्या के समाधान के प्रयास को गति देने की चाह रखते हैं. मूल निवासी लोहाघाट, जिला चम्पावत. काली कुमाऊं.
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