अमित श्रीवास्तव

एक दुनिया जो रोज़ बनती है उसके कवि का जन्मदिन है आज

अब जब कविता के रूप, उसके प्रतिपाद्य, उसकी भाषा से ज़्यादा उसके होने, न होने पर ही चौतरफा हमले हैं, आलोक धन्वा की कविता इस पूरे परिदृश्य पर एक चाँद के जैसे टँकी हुई दिखती है. आज जब कविता पर तात्कालिकता का गम्भीर आरोप है, आलोक धन्वा की कविता, कविता के बचाव में एक स्पष्ट बयान है. इसमें एक सुविचारित वर्तमान है, शोषण के इतिहास पर निगाह है और आने वाले कल की आहटें हैं. इस समकालीन अँधेरे में कवि, इससे गुज़रते हुए कविता के दिशा भ्रम से निकल सकता है.

आलोक धन्वा कविता के उन सवालों से जूझते हैं जो वास्तव में ज़िन्दगी के सवाल हैं. उनकी कविताओं से गुजरना मात्र कविता का आस्वादन नहीं रह जाता वरन् उस गुस्से और बगावत का निर्निमेष अवलोकन बन जाता है कि पाठक कविता और क्रान्ति के बीच के अन्तर को गुनने बैठ जाता है. ये अकारण नहीं है कि अपने अल्प लेखन और उससे भी कम प्रकाशन के बावजूद आलोक धन्वा ऐसे कवियों में शुमार हैं जिनकी ओर समकालीन जनवादी पीढ़ी निराला-नागार्जुन-मुक्तिबोध की तरह कृतज्ञ भाव से देखती है. यह भी अकारण नहीं है, कि ‘जनता का आदमी’, ‘गोली दागो पोस्टर’, ‘भागी हुई लड़कियां’ और ‘ब्रूनों की बेटियां’ सरीखी कविताएं मुक्तिबोध, नागार्जुन, रघुवीर सहाय तथा चन्द्रकान्त देवताले की काव्य उपस्थितियों के समान्तर हिंदी कविता तथा उसके आस्वादकों में कालजयी जैसी स्वीकृत हो चुकी हैं. 

     अकारण नहीं है कि उनकी कविता ‘सफेद रात’ अमरीकी साम्राज्यवाद के खिलाफ लिखी गई शुरुआती और अब तक की सबसे महत्वपूर्ण कविताओं में से एक है. अकारण नहीं है कि ‘1970 के दशक का एक दौर ऐसा था जब आलोक धन्वा की गुस्से और बगावत से भरी रचनाएं अनेक कवियों और श्रोताओं को कंठस्थ थीं तथा उस समय के परिवर्तनकामी आन्दोलन की सर्जनात्मक देन मानी गयी थीं.

     इन सबके कारण हैं और गंभीर कारण हैं. सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण कारण है कविता पर उनका आत्मसजग आत्मविश्वास. कविता स्वयं में आन्दोलन नहीं है, लेकिन आन्दोलन के आगे या साथ में चलने वाली चीज़ है. आलोक धन्वा के बारे में यह निश्चित करना मुश्किल हो जाता है कि वो कवि ज्यादा हैं या एक्टिविस्ट, क्योंकि दोनों ही जगहों पर आत्म-परीक्षण से गुजरती हुई उनकी कविता ये साबित करने की चाह रखती है कि वो महज़ कागज़ी सौन्दर्य नहीं है. ये एक कवि का आत्मविश्वास और एक्टिविस्ट की सजगता है जो यह कह सकता है-

       जलते हुए गांवों के बीच से गुजरती है मेरी 
       कविता
       तेज आग और नुकीली चीखों के साथ
       जली हुई औरत के पास
       सबसे पहले पहुंचती है मेरी कविता

     यह आलोचनात्मक अश्लीलता ही होगी यदि यहां ‘मेरी’ शब्द पर जोर डालते हुए आत्ममुग्धता अथवा अतिआत्मविश्वास के आरोप लगाए जाएं. ऐसा कोई पैमाना अब तक तो बना नहीं जो यह माप सके कि कविता में एक्टिविज़्म और एक्टिविस्ट में कविता का अनुपात क्या हो. ज़रूरी भी नहीं यह जानना. दरअसल जानना यह ज़रूरी है कि

       यह कविता नहीं है
       यह गोली दागने की समझ है
       जो तमाम कलम चलाने वालों को
       तमाम हल चलाने वालों से मिल रही है.       

     यह एक एक्टिविस्ट का आत्मविश्वास है जो कविता को भी संघर्ष के लिए हथियार के रूप में इस्तेमाल करता है. ‘एक बिलकुल नई बन्दूक की तरह.’ आलोक धन्वा के गुस्से और बगावत में बाजार की धूल नहीं है, बल्कि, व्यवस्था के विद्रूप को बहुत गहरे उतरकर उसे आमूल चूल बदल डालने की इच्छा है जो एक ‘ईमानदार आदमी के पैदा होने को लेकर उतना ही चिंतित है जितना कि एक ईमानदार कविता की रचना को लेकर. चिंता इतनी बड़ी है कि आदमी के पैदा होने से लेकर ‘जिसकी नाभि में सिर्फ इसलिए गोली मार दी गयी कि कहीं एक और ईमानदार आदमी पैदा न हो जाए’, उसके जिंदा रहने और सही सलामत रहने की पूरी जद्दोजहद आलोक धन्वा की कविता का पूरा सरमाया है. इसीलिये उनका प्रश्न सीधा है-   

       आदमीयत को जीवित रखने के लिए अगर
       एक दरोगा को गोली दागने का अधिकार है
       तो मुझे क्यों नहीं?    

     प्रश्न दिखने में जितना मासूम और सीधा दिखता है अपने अर्थ विन्यास में उस मामूली आदमी के पूरे संघर्ष को समेटता है जो आलोक की नजर में ‘किसी भी देश के झण्डे से बड़ा है’ और जिसके संघर्ष के प्रति प्रतिबद्वता आलोक धन्वा की कविता का पहला और सबसे महत्वपूर्ण प्रतिपाद्य है. आलोक आम आदमी के संत्रास को बहुत शिद्दत से महसूस करते हैं और उतनी ही जिम्मेदारी के साथ उसके कारणों की पड़ताल भी. ‘जिलाधीश’ जैसी कविता कोई ऐसा कवि ही लिख सकता है जिसने शोषण के सभी हथकण्डों पर शोध किया हो. अब जब हम आधुनिक हैं, आज़ाद हैं, हमारी अपनी संसद और हमारी अपनी सरकार है, आम आदमी की बुनियादी सुविधाओं से महरूम रखने के लिए वही सरकार जिम्मेदार है जिसे जनता चुनती है और वही संसद जिम्मेदार है, जिसने ‘विरोध की भाषा और सामग्री को वैसा ही नहीं रहने दिया जैसी वह राजाओं के ज़माने में थी’. वही सरकारी तंत्र और नुमाइंदा जिम्मेदार है जिसके कन्धों पर जनता के विकास का जिम्मा है और जो इतना शातिर है कि       

      यह ज्यादा भ्रम पैदा कर सकता है
       यह ज्यादा अच्छी तरह हमें आजादी से
       दूर रख सकता है

     आलोक की कविताएं मात्र गुस्से, खीज और बगावत की कविताएं नहीं हैं. इनका उद्देश्य मात्र उन रास्तों की ओर संकेत करना भर नहीं है जिन पर चलकर शोषण के तंत्र को छिन्न-भिन्न किया जा सके बल्कि वहां पहुंचना भी है, जहां ये ले जाना चाहती हैं. मात्र राहों का अन्वेषण नहीं, वरन, एक साफ सुथरे भविष्य की मंजिल की ओर पहुंचने की कवायद भी है इन कविताओं में. भले ही वो रास्ता बगावत का रास्ता है जिसकी ओर ये कविताएं संकेत करती हैं, लेकिन उस रास्ते की जरुरी जमीन तैयार करने का भी काम ये कविताएं ही करती हैं.

       कविता की एक महान संभावना है यह
       कि वह मामूली आदमी अपनी कृतियों को   
       महसूस करने लगा है
       अपनी टांग पर टिके महानगरों और
       अपनी कमर पर टिकी राजधानियों को
       महसूस करने लगा है वह
       धीरे-धीरे उसका चेहरा बदल रहा है
       हल के चमचमाते हुए फाल की तरह पंजो को
       बीज, पानी और जमीन के सही रिश्तों को
       वह महसूस करने लगा है

     लंबी कविताएं आलोक की उपलब्धि हैं. जिस प्रकार मुक्तिबोध अपनी कविताओं में एक लंबी अंतर्यात्रा पर निकल जाते थे वैसे ही आलोक भी अपनी लंबी कविताओं में एक लंबी दूरी तय करते हैं, समय की अनन्तता को मामूली आदमी की उपस्थिति से नापते हुए. इस यात्रा में मानवीय सरोकार उनसे कहीं नहीं छूटते हैं. ‘समय की अनन्तता से चलकर वे समकालीनता को पहचानते हैं, और इसी तर्क से, समकालीनता से चलकर समय की अनन्तता तक जा पहुंचते हैं. अनन्तता पर भी उनका एकाधिकार नहीं है वहां भी वे शेष समाज के साथ हैं, या होना चाहते हैं

      और प्राचीनता एक ऐसी चीज है
       जिसे अपने घुटने में जगह दो
       ताकि ये घुटने किसी तानाशाह के आगे न झुक 
       सकें
       क्योंकि भय भी एक प्राचीन चीज है
       लेकिन हथियार भी उतने ही प्राचीन हैं

     भूमण्डलीकरण के इस दौर में जब परिवार का टूटना और बिखरना नियत बात है, समाज के अन्तव्र्यवहार गन्दे और गलीच होते जा रहे हैं, ढंकी तुपी सामाजिक व्यवस्था में जातिवाद, धार्मिक कठमुल्लापन, उत्तर-दक्षिण का विवाद जैसे कोढ़ फूट-फूट कर निकल रहे हैं, आलोक धन्वा की कविता ‘सफेद रात’ अपने सारे प्रतिकार्थों के साथ बेहद प्रासंगिक हो जाती है. आलोक की कविताओं में ‘काली रात’, ‘सफेद रात’ और ‘चांद’ बार-बार, बहुतायत से आते हैं. ‘काली रात’-‘सफेद रात’ का द्वन्द्व एक स्तर पर अमावस्या और पूर्णिमा का द्वन्द्व है, आशा-निराशा का द्वन्द्व है वहीं दूसरी ओर एक असहायता-नाउम्मीदी के बरक्स उम्मीद का द्वन्द्व है. शोषण और दमन की व्यवस्था ऐसी है कि आज सब अच्छा, सफेद प्रतीत होते हुए भी बेतरह काला है और इसलिये असहायता के विरुद्व जो उम्मीद जगती है, उसमें भी एक तकलीफ है. ‘चांद’ आलोक की कविताओं का प्रधान बिम्ब है. लगभग हर कविता में एक चांद आलोक को देखता रहता है. किसी-किसी कविता में तो कई-कई बार. ये शायद एक सांत्वना या आश्वस्ति का प्रतीक है, जो आलोक के सुन्दर भविष्य के सपने देखने से उपजती है या समतामूलक समाज के लिए बगावत की सफलता की आशा से निकलती है. इस पूरे चांद की सफेद रात में जंगल के बहाने बारहसिंगे, पीली मिट्टी के रास्ते, खरहे, महोगनी के घने पेड़, तेज महक वाली कड़ी घास, रखवारे की झोपड़ी जैसी चीजें क्यों याद आती हैं. क्या ये उसी भावना का पुष्टिपेषण है जिसमें अज्ञेय को सजे धजे बाग बगीचों से ज्यादा जंगल की स्वच्छन्दता और बेतरतीबी आकृष्ट करती है? क्या ये एक प्रकार का नोस्टाल्जिया है? निस्संदेह ‘अपने विशेष अर्थ में आलोक धन्वा सभ्यता समीक्षा के कवि हैं जिसमें न रोमांस और राग वर्जित है, न आत्मपीड़ा को छिपाने का कौशल शेष रह गया है.

       क्या है चांद के उजाले में
       इस बिखरती हुई आधी रात में
       एक असहायता
       जो मुझे कुचलती है और एक उम्मीद
       जो तकलीफ जैसी है

     जंगलों से शहर की यात्रा के बहाने वस्तुतः आलोक सभ्यता के विकास की यात्रा पर निकलते है. जंगल से शहर तक सभ्यता ने समाज की जो शक्ल अख्तियार की है उसमें परिवार, गांव, जंगल या जानवर किसी का शामिल न होना व्यक्ति के स्तर पर जितना पीड़ादायक है समाज या सभ्यता के स्तर पर उतना ही विनाशकारी. पुरखों का इस शहरी समाज में शामिल न होना उस परिवार की अनुपस्थिति है, जो एक बेहतर समाज का मूलाधार है और जो बाहर की हर लड़ाई के लिए आदमी को भीतर से तैयार करता है. गांव का शामिल न होना उस संस्कृति की अनुपस्थिति है जो पिछली कई शताब्दियों से नैतिक-भौतिक मूल्य-मान्यताओं की वाहक थी, जिसके होने भर से आधारभूत मानवीय संस्कार जिंदा थे. जंगल और जानवरों का इस समाज में शामिल न होना उस अर्थव्यवस्था की अनुपस्थिति है जो सब्सिस्टेंट लेवल की थी लेकिन फिर भी ‘सबका पोषण’ के सिद्धांत पर चलती थी. ‘बार्टर सिस्टम’ पर थी लेकिन बाजार के, उपभोक्तावाद के असंतुलित मूल्यनिर्धारण के सिद्वान्त से चालित नहीं थी, हर प्रकार के छलछन्द, धोखे और दिखावे से परे थी. कुल मिलाकर इन सबका आज के समाज से गायब हो जाने से समाज की जो तस्वीर उभर रही है उसमें सहजीवन, सौहार्द, बराबरी की जगह हिंसा और बाजार ने ले ली है.

       अब इन्हीं शहरों में
       कई तरह की हिंसा कई तरह के बाजार
       कई तरह के सौदाई
       ….
       हिंसा
       और हिंसा की तैयारी
       और हिंसा की ताकत

     विद्रोह और विवेचना के सारे रास्ते बंद हैं. स्थिति इतनी भयावह है कि इस परिस्थिति के बारे में बात करना भी खतरे से खाली नहीं है. क्योंकि ‘फिर जो बहस चलती है उसका भी अन्त हत्याओं में होता है’. एक बात बहुत काबिले गौर है कि आलोक हिंसा और बाजार को बराबर पर रखते हैं. उन्हें पता है कि बाजार की हिंसा भी उतनी ही खतरनाक है जितनी कोई और. यह कविता 1997 में आई थी इसके लिखने के दो दशक बाद जब भूमण्डलीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति ने अपने पूरे पर फैलाकर अर्थव्यवस्था के साथ-साथ पूरे समाज, पूरी राजनीति, यहां तक कि पूरे जीवन को घेर लिया है, इस घेराव की गूंज उसकी आहट ‘सफेद रात’ में भरपूर सुनाई पड़ती है. आहट की क्यों, एक भरा पूरा शोर सुनाई देता है.

     आलोक धन्वा कविता में एक और यात्रा तय करते हैं. एक साम्राज्यवादी ताकत से दूसरी साम्राज्यवादी ताकत तक की यात्रा. जब वो लाहौर की बात करते हैं, तो राष्ट्र निर्माताओं से पूछते है क्या लाहौर फिर बस पाया? भारत और पाकिस्तान दो मुल्क तो राजनैतिक शक्ल में आ गये लेकिन उसमें रहने वालों की मानवीय शक्लों का जो विनाश हुआ उसका क्या? इसी तरह वो युद्व सरदारों से पूछते हैं कि क्या वे बगदाद को फिर से बना सकते हैं.

      क्या वे एक ऊंट बना सकते हैं?
       एक गुम्बद एक तरबूज एक ऊंची सुराही
       …..
       और गली में
       सिर पर फीरोजी रुमाल बांधे एक लड़की
       जो फिर कभी उस गली में नहीं दिखेगी

     ‘राष्ट्र निर्माता’ और ‘युद्द सरदार’ पद प्रयोग अद्वितीय हैं. राष्ट्र निर्माता जहां एक ओर ब्रिटिश साम्राज्यवाद और तत्कालीन देसी राजनैतिक नेतृत्व के लिए प्रयुक्त है वहीं युद्ध सरदार सीधा-सीधा वर्तमान अमरीकी साम्राज्यवाद को इंगित करता है, जो, एक ध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था होने के बाद से विश्व राजनीति का इकलौता निर्णायक और भाग्य विधाता बन चुका है. रात की सफेदी के पीछे कोई भौगोलिक कारण नहीं वरन् ये अमरीका द्वारा पोती गयी सफेदी है जो कहीं पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के रुप में उधड़ रही है, वहीं उपभोक्तावादी संस्कृति के रुप में तो कहीं बड़े कारपोरेट घरानों, मौद्रिक संगठनों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों के गठजोड़ की राजनीति के रुप में. कुल मिलाकर एक ऐसी व्यवस्था जिससे आम आदमी धीरे-धीरे रोज उधड़ने-मरने के लिए अभिशप्त है.

प्रिय कवि को जन्मदिन मुबारक़ !!

सन्दर्भ-

  1. दुनिया रोज बनती है: आलोक धन्वा: राजकमल प्र0
  2. कविता का अर्थातः परमानंद श्रीवास्तव

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अमित श्रीवास्तव

उत्तराखण्ड के पुलिस महकमे में काम करने वाले वाले अमित श्रीवास्तव फिलहाल हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक के पद पर तैनात हैं.  6 जुलाई 1978 को जौनपुर में जन्मे अमित के गद्य की शैली की रवानगी बेहद आधुनिक और प्रयोगधर्मी है. उनकी दो किताबें प्रकाशित हैं – बाहर मैं … मैं अन्दर 

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