प्रो. मृगेश पाण्डे

भागीरथी के जीवनदायिनी गंगा में रूपांतरित होने की कथा

गंगोत्तरी हिमनद में गोमुख से निकलती है भागीरथी. यह हिंवल, नयार, पिंडर, नंदाकिनी व धौली के साथ अलकनंदा की प्रमुख सहायक है. भागीरथी नदी की मुख्य सहायक सरिता जाह्नवी, जलकुर एवं भिलंगना हैं.  जाह्नवी  जाड़गंगा के नाम से भी जानी नाती है. पूर्ववत इसे नीलगंगा के नाम से भी जाना जाता रहा. ऋषि जह्नु ने इसकी खोज की. इसलिए इसे जाह्नवी कहा गया. जाड़गंगा का स्त्रोत भारत -तिब्बत सीमा में थांगला के  दो शिखरों की बीच है. जिसके दक्षिण भाग का पानी जाड़गंगा में मिलता है. यह मुख्यतः माणा गाड़, जादुंग गाड़ और सुमाला गाड़  की अविरल धाराओं से वेग ग्रहण करती है. इसका पथ त्रिपानी, जादुन्ग, सोनम, जालंग, कुबासा तथा नेलांग के  इलाकों की 40 किलोमीटर की दूरी पार कर भैरोघाटी में भागीरथी में विलीन होती है. All about The Ganga River In Uttarakhand

भागीरथी नदी जब गंगोत्तरी से 115 किलोमीटर की दूरी तय कर लेती है तब भल्डियाना में उसमें जलकुर नदी भी मिल जाती है. जलकुर नदी नेड के डाँडे  से निकलती है जिसमें नौगड़ा, चवड़, सौंद, भदूरा, भेलुंता, सिलोड़ा  और रावत गाँव गाड़ मिलती है. अब यह लंब गाँव, जोक्वाणी से प्रवाह बढ़ाते हुए भल्डियाना के पास भागीरथी में मिल जाती है. दूसरी तरफ सहस्त्रताल व खतलिंग हिमनद से निकल गंगी गावं से आगे चिल्ला परगना में यह घनसाली पहुँचती है. अब इसमें बालगंगा मिलती है व लगभग 140 किलोमीटर का सफर तय कर यह टेहरी में भागीरथी में समाहित हो जाती थी. भिलंगना की सहचरी है बालगंगा जिसमें धर्मगंगा तथा नैलचामी, हिंदाव, गोनगढ़, कौनती, कोटा, पगराना,  अगुण्डा, मरधारी, बढियार जैसे छोटी बड़ी गाड़ व नाले मिलते हैं. All about The Ganga River In Uttarakhand

भागीरथी की इन तीन मुख्य सहायक नदियों भिलंगना,जलकुर व जाह्नवी या जाड़ गंगा के साथ अन्य नदियों में अस्सी  गंगा व वरुण गंगा, देव गंगा, जलंधरी , विष्णु गंगा, हनुमान गंगा, हत्याहारिणी , केदारगंगा, पिलंग, इंद्रावती, जलकुर, मुख्य हैं. इनमें सबसे महत्वपूर्ण केदारगंगा है. ‘केदारखंड’ में कहा गया कि  अस्सी गंगा व वरुण गंगा के कारण ही बाड़ाहाट को उत्तरकाशी कहा गया. जबकि गज़ेटियर में इन्हें कालडी व स्याळां गाड़ कहा गया है. भागीरथी में जो छोटी या लघु सरिता व गाड़ मिलती हैं उनमें झाला, कंडोलिया, पापड़ी या माहेश्वरी, भटवाड़ी, राणो, नाकुरी, धरासू, नगुण, भल्डियाना, स्यांसू, छोरया, क्यारी, भेतोगी, गूलर, कौडियाला, नागणी, ब्रह्मपुरी, भरपुर, जौरासी, थन्युल, खोला व  थौलधार गाड़ मुख्य हैं जो भागीरथी के दाएं तट  से मिलती हैं. दूसरी तरफ भागीरथी के बाएँ तट की नदियों में केदारगंगा,  पिलंग, इंद्रवती, जलकुर व भिलंगना मुख्य हैं.यहाँ सहायक सरिता व गाड़ में पलेठी, खिटबिडी, गमरी, धनारी, सौरा, सालंग, हिरा व किरगाड़ मुख्य हैं.

अनुयासन पर्व में वर्णित है कि चौखम्बा के तेईस हजार फ़ीट ऊँचे शिखरों के तल से इस पर्वत के पूर्वी ढाल से बीस किलोमीटर में पसरा गंगोत्तरी हिमनद भागीरथी का उदगम स्त्रोत बनता है. गोमुख 12960 फ़ीट ऊँचा है जो चौखम्बा शिखर से गोमुख तल तक विस्तृत है.  गंगोत्तरी हिमनद 24 कि. मी. लम्बा तथा 8 कि .मी तक चौड़ा है. इसके घेरे में सतोपंथ, भरतखूंट, केदारनाथ व चौखम्बा हिमश्रृंखलायें हैं. हिमालयन गज़ेटियर में एटकिंसन(1873) ने गोमुख से गंगोत्तरी के मध्य  दस मील  का फासला बताया था. तो  राजशेखर ने अपनी काव्य मीमांसा (880-920 ई ) में 2 मील, जब इसका स्त्रोत बिन्दुसर कहा  गया था.

गोमुख से आगे शिवलिंग शिखर है. फिर वह  चार किलोमीटर घेरा  बनता  है जिसके विस्तृत फैलाव को  तपोवन कहा जाता है .यहाँ प्रकृति अपने नयनाभिराम अभिनव मनोहर स्वरुप में  है. कोई विकार नहीं. कोई तनाव नहीं. जो थोड़ी बहुत थकान है. शहरों की दिनचर्या से उपजे तनाव दबाव कसाव हैं. कृत्रिम आहार से उपजा शारीरिक असंतुलन और असाम्य  है भी, तो  वह  पहाड़ी नागिन से घूमते पथों  पर चलते, खोह -चट्टानी रैनबसेरों की  छांव पर मिलती  विश्रांति  और स्थानीय जनों के  चेहरों की सहज़ सरल मुस्कान और दिल को छू लेने वाली आत्मीयता से यही धरा तिरोहित कर लेती है. गंगोत्तरी से गोमुख के बीच की  दूरी के अनुमान समय -समय पर भिन्नता दिखाते हैं. जिसका कारण हिमनदों का लगातार संकुचित होना है.

रैपर ने लिखा कि विशाल हिमनद से गंगा की धारा दिखाई नहीं देती थी. हिमनद के मध्य काले पाषाण  की मूर्ति गोमुख सी प्रतीत होती थी. गोमुख का वर्तमान रूप तीन गुफाओं के आकार सदृश है जिनमें मध्य गुफा लगभग दस मीटर चौड़ी व दो मीटर गहरी है. इसके पार्श्व  से अविरल जलधार  निकलती है.अब गोमुख का पथ बाएँ तट से बढ़ते हुए पुनः हिम आच्छादित पथ व पुलों से भागीरथी पार करता  हुआ गैंगवान के बुग्यालों से जाता है. तब आती है अर्धमर्दिनी शिला. तदन्तर कैल के वृक्षों से घिरा चीड़वासा है.आगे बढ़ते हुए भोज वृक्षों का वन भोजवासा कहलाता है. यहीं भृगुपंथ शिखरों से निसृत सरिताएं हैं. बर्फीले पुल हैं. जिनके मध्य  गुफा द्वारसे वेगवती भागीरथी  धरती का स्पर्श करती प्रकट होती है. हिमनद में रंगों की विविधता  हिमनद को कभी  हरी तो  कभी नीली  दूधिया  आभा प्रदान करती है. हिमनद मौसम के अनुकूल खिसकते रहते हैं अतः  जल का आरम्भ स्त्रोत भी विवर्तित होता रहता है. सब कुछ प्रकृति ने बनायाहै, रचा है. ना कोई मूर्ति  ना मंदिर बस अपूर्व शांति, मंद जल प्रवाह का निनाद, हिम सी शीतल मंद वायु और दूर तक दृश्य डालने पर असीमित रंगों से चुनचुन कर  खिल उठे नील श्वेत पुष्प. प्रकृति की इस सज्जा में नन्दन  वन की कल्पना सजीव होती है. 

गो अर्थात धरा के मुख से निसृत जलराशि जिसे पहली बार सूर्य रश्मियां अपना प्रारंभिक स्पर्श देती हैं . यही है गोमुख  4255 मीटर ऊंचाई पर जिसकी जलधार लगभग दस मीटर चौड़ी  और डेढ़ मीटर गहरी  है. इसे गाय  के मुंह की अनुकृति में देखे जाने का विश्वास व लोक धारणा है. अब इसके  सम्मोहक विस्तार में पुष्पवासा, चीड़वासा व भोजवासा जैसे सुरम्य  स्थलों से करीब 18 किलोमीटर पैदल यात्रा करते हुए  आप गंगोत्तरी पहुंचेंगे. सन 1816 में  जेम्स वेली फ्रेजर ने लिखा  था कि “इस पवित्र स्थान गंगोत्तरी की  दृश्यावली उस रहस्यात्मक पावनता सी हैं जो इसे प्रदान की जाती रही. यहाँ ना तो भैरों घाटी की भयावहता है और नहीं जाड़गंगा का प्रकम्पित करने वाला गर्जन -तर्जन. पूर्व दिशा को छोड़ यहाँ चारों  ओर आकाश को छूने  वाले चट्टानी पहाड़ों की विश्रांति है. निस्तब्धता को भंग  करते हवा के शीतल झोंके हैं. फ़्लोरा -फोना की दुर्लभ सम्पदा है. मन और मस्तिष्क को नयी नवेली रागिनियों  से भर देने वाली विराट अनुपम अनुभूति है. 

शिव प्रसाद डबराल ने उत्तराखंड यात्रा दर्शन में लिखा है कि गंगा के उदगम को खोजने के प्रयास प्राचीन समय से चलते  रहे हैं. इनमें से कई मिथक हैं. लोकमान्यताएं हैं. पीडियों से संचित लोकथात है. और भी जो है  उसकी उत्कंठा  के लिए कष्टभरे प्रयास भी समय समय पर किये जाते रहे हैं.खोजी, यायावर, चिंतक, प्रकृति प्रेमी सबकी अपनी तलाश है.   सम्राट अकबर का खोजी  दल तो गंगा के उदगम की तलाश में  कैलाश मानसरोवर तक पहुँच गया था.

ईस्ट इंडिया कंपनी के अन्वेषकों ने भी अलग अलग  धारणाएं  प्रस्तुत की थीं. ऐसे तथ्यों की  जांच के लिए 1808 में सर्वेयर जनरल ले. कर्नल कोलब्रुक ने कैप्टेन  रैपर को यह जिम्मेदारी सौंपी. पौराणिक मान्यताओं का खंडन रैपर ने किया. 1815 में  इस खोज में  फ्रेज़र  शामिल हुए. उत्तराखंड के सांस्कृतिक इतिहास में डॉ. शिव प्रसाद नैथानी लिखते हैं की उत्तरकाशी से गंगोत्तरी जाने का प्राचीन पैदल मार्ग इतना भयावह था कि 1808 में कैप्टेन रैपर के अन्वेषक दल को उत्तरकाशी से गंगोत्तरी के बीच की 55 मील  की दूरी तय करने में आठ दिन लगे और सात  बार भागीरथी को पार करने में संकरे झूलते पुलों व रातों को तलाशते आगे बढ़ने  में प्राणों को संकट में डालना पड़ा था. रहस्य -रोमांच से भरी  इस धरा में नित नये अनूठे अनुभव थे जो मनुष्य की कल्पना से परे थे.

महाभारत उद्योग पर्व (106-6) में वर्णन है कि यहीं शिव ने आकाश से निसृत गंगा को जटाजूट में धारण कर फिर धरती पर छोड़ा था. वाल्मीकि रामायण के अनुसार पहले शिव ने गंगा को बिन्दुसार में प्रवाहित किया जहां से वह सप्तधाराओं में बंटी. सातवीं धारा  प्रथमतः जान्हवी व तदन्तर भागीरथी नाम से सगरपुत्रों का उद्धार करते गंगासागर में समा  गयी.

केदारखंड में  गंगा की महिमा चौदह अध्यायों में वर्णित है. स्वामी सुन्दरानन्द ने गंगा का उदगम में यह तर्क दिया कि गंगोत्तरी हिमानी में गोमुख ही इसका स्त्रोत है. जहां सूर्य रश्मियों से हिमनद पिघल अनेकों लघु धाराओं के समावेश से अंततः गोमुख से भागीरथी सरिता का स्वरुप लेता है. 

विष्णु प्रभाकर की दिलचस्प किताब है, ‘ज्योतिपुंज हिमालय’ जिसमें अपने तीन बार के यात्रा विवरणों में उन्होंने गोमुख के बदले हुए रूप पाए.1958, 1970व 1981 में लगातार यहाँ अवक्षय हुआ हैऔर कम से कम एक किलोमीटर पीछे तो यह खिसक ही गया है.  शिव प्रसाद डबराल यह संकल्पना लेते हैं कि  गंगोत्तरी कभी गंगनाणी  के समीपस्थ रही होगी. इससे यह अनुमान लगाया गया कि पूर्ववत गंगोत्तरी के पास ही गोमुख रहा होगा. अभी गोमुख के दर्शन तीन गुफाओं के स्वरुप में होते हैं. मध्य की गुफा लगभग 10 मीटर चौड़ी तथा 1.5 मीटर गहरी हैं जिसके एक कोने से जलधार निसृत होती है. देहरादून के वाडिया भूगर्भ संस्थान के वैज्ञानिकों के अध्ययन भी पुष्ट करते हैं कि अपरदन की तीव्रता बढ़ रही है.

गोमुख हिमनद के दर्शन प्रकृति के विराट मनोहारी व सुरम्य स्थली के सान्निध्य स्वरुप के साथ हिमसरिता  में पसरे पथरीले चट्टानी दुर्गम रौखड़ पर चलने का भय, कष्ट व धैर्य की भी परीक्षा लेता है. गोमुख से गंगोत्तरी की दस किलोमीटर की यात्रा जिस आस्था उत्साह और मौसम की अनुकूल दशा के संयोग से संलिप्त है वह बहुत कुछ अनुकूल संयोगों पर निर्भर करती है.

हरिवंश पुराण (1, 15-16)तथा  नारद पुराण (1, 15) में गंगा को भगीरथ की पुत्री माना गया जिससे उसका नाम भागीरथी पड़ा. केदारखंड (पृष्ठ 74-76)में वर्णन है कि  नंदन के समीप सुमेरु पर्वत से प्रकट हुई  गंगा अलकनंदा, सीता, भद्रसोमा व चक्षुष्मती की  धाराओं  में विभाजित हुई.अलक  से निकली अलकनंदा और शिव की जटाजूट से जो जलप्रवाह श्रीमुख पर्वत में प्रवाहित हुआ उसे भागीरथी या गंगा कहा गया. भगीरथ की  तपस्थली गंगोत्तरी महाक्षेत्र रहा जहां ब्रह्मा से वर  प्राप्त कर उन्होंने श्रीमुख पर्वत  केंद्र में तप  किया. लोकविश्वास है कि  श्रीमुख पर्वत ही श्रीकंठ पर्वत है. तीन धाराओं में भगीरथ की पीछे  चलती सरिता भागीरथी कहलायी.

गंगोत्तरी से देवप्रयाग तक भागीरथी उपत्यका 235 किलोमीटर लम्बी है यह गोमुख से पश्चिम,  हरसिल से दक्षिण,  मनेरी से पुनः पश्चिम,मातली से आगे दक्षिण को बहती हुई नगुण में उत्तरकाशी को अभिसिंचित करती टेहरी पहुँचती है. फिर दक्षिण – पश्चिम होते छजुला से देवप्रयाग में दक्षिण की ओर से आती है.यहां इसका संगम देवप्रयाग में अलकनंदा से होता है. भागीरथी का जलप्रवाह क्षेत्र 6430 वर्ग किलोमीटर है. यह देवप्रयाग में अलकनंदा से मिल गंगा नाम से जानी जाती है. यही है भागीरथी की  जीवनदायिनी गंगा में रूपांतरित होने की कथा.

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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषद अधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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  • माँ भागीरथी व माँ गंगा के बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध कराने के लिए श्री मृगेश पाण्डेय जी का तहे दिल से आभार। आपकी दीर्घायु की कामना करता हूँ।

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