उत्तराखण्ड में 500 से 2200 मीटर की ऊॅचाई पर बहुतायत से पाये जाने वाले चीड़ के पेड़ों की पत्तियों को पिरूल नाम से जाना जाता है. उत्तराखण्ड वन सम्पदा के क्षेत्र में समृद्ध तो है ही, साथ ही चीड़ के वन भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं. 3.43 लाख हैक्टेयर क्षेत्र में फैले चीड के वनों से ग्रीष्मकालीन सीजन में पतझड़ के समय लगभग 20.58 लाख टन पिरूल इनसे गिरता है. 20 से 25 सेमी लम्बे नुकीले पत्ते तीन पत्तियों के गुच्छ में सूखे पत्ते अत्यन्त ज्वलनशील होते हैं. पर्वतीय क्षेत्रों में वनाग्नि के मुख्य कारणों में पिरूल भी एक कारण है, जिससे प्रतिवर्ष कई जंगल वनाग्नि के भेंट चढ़ते हैं. (Advantages of professional use of Pirul)
चीड़ के पेड़ पर लगने वाले ठीटे का थोड़ा बहुत व्यावसायिक उपयोग शो पीस बनाकर किया जाता रहा है, जो मैदानी क्षेत्रों के पर्यटकों को काफी लुभाते है. लेकिन अभी तक पिरूल इस्तेमाल थोड़ी बहुत मात्रा में मवेशियों के बिछावन के रूप में पशुपालकों द्वारा अवश्य किया जाता है, अन्यथा या तो पिरूल वनाग्नि की भेंट चढ़ता है अथवा जंगलों में ही सड़गल कर नष्ट हो जाता है. (Advantages of professional use of Pirul)
इसके व्यावसायिक प्रयोग पर न तो आज तक कोई अनुसंधान हुआ और यदि सीमित मात्रा में हुआ भी है तो उसको धरातल पर नहीं उतारा जा सका. सन् 1970 के दशक में नैनीताल जिले के कैंची नामक स्थान में ‘नवीन पाइनैक्स’ नाम से नवीन नाम के एक उद्यमी ने पिरूल से रेशा तैयार कर वस्त्र उद्योग में इसका इस्तेमाल किये जाने हेतु पहल की. कुछ महीनों तक नवीन पाइनैक्स ने स्थानीय लोगों से पिरूल एकत्र करवाकर इस दिशा में काम भी किया लेकिन इस पाइलट प्रोजैक्ट को उत्पादन शुरू करने से पूर्व ही बन्द करना पड़ा. इसके पीछे शासन स्तर की उदासीनता रही या उद्यमी की अपनी कोई परेशानी, लेकिन इस दिशा में भविष्य में कोई प्रोजैक्ट शुरू करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया.
पिछले दिनों ल्वेशाल की स्कूली छात्रा का एक जिक्र जरूर काफल ट्री पर देखने को मिला, जिसमें स्कूली छात्रा ने पिरूल की हरी पत्तियों से टोकरी, बैग आदि बनाकर प्रेरक कार्य किया है यदि इस दिशा में लोगों में जागरूकता आये तो ये पहाड़ में प्लास्टिक के विकल्प के रूप में कैरी बैग का स्थान ले सकते हैं, जो पूर्णतः इको फ्रेंडली भी होगा और ग्रामीणों को रोजगार भी देगा.
खैर इधर अब उत्तराखण्ड सरकार पुनः इस दिशा में सक्रिय होती दिख रही है. गैर पारम्परिक ऊर्जा के क्षेत्र में इसके उपयोग पर काम शुरू भी हो चुका है. श्यामखेत (भवाली) तथा ग्राम चोपड़ा (ज्योलीकोट) में पिरूल संग्रह का कार्य किया जा रहा है, जिस के तहत 3 रूपये प्रति किग्रा की दर से ग्रामीणों से पिरूल क्रय करने की योजना है, जिसके लिए पिरूल इकट्ठा करने हेतु आवश्यक उपकरण आदि भी ग्रामीण महिलाओं/ बेरोजगारों को उपलब्ध कराये जा रहे हैं. उपलब्ध पिरूल से ब्रिकेट बनाने की योजना है, जिसका इस्तेमाल ईंधन के रूप में किया जायेगा.
इसके इस्तेमाल के लिए विशेष तरह के चूल्हे बनाने पर भी काम हो रहा है जो उपभोक्ताओं को निःशुल्क दी जानी है. अगर यह योजना सफल रही तो ग्रामीणों महिलाओं को रोजगार मिलने के साथ ही ईधन का एक बेहतर विकल्प भी साबित हो सकती है. सबसे बड़ा फायदा तो यह होगा कि सड़कों के आस-पास के क्षेत्रों से यदि पिरूल संग्रह होगा तो वनाग्नि से बहुत हद तक नियंत्रण पाया जा सकेगा. वनाग्नि से जो वनस्पतियां, पेड़ तथा दुर्लभ वन्य जीवों को जो नुकसान होता है उससे सुरक्षा होगी तथा पिरूल की मोटी तह जम जाने से उसके नीचे वनस्पतियां नहीं उग पाती वे भी उगेंगी. ब्रिकेट के निर्माण में स्थानीय बेरोजगारों को रोजगार के अवसर भी मुहैय्या होंगे.यानि कुल मिलाकर पिरूल का उपयोग होने पर फायदे ही फायदे. निश्चित रूप से वनाग्नि को रोकने की दिशा में यह कदम काफी उपयोगी होगा.
इधर अपने अल्मोड़े दौरे के समय प्रदेश के माननीय मुख्यमंत्री पिरूल से विद्युत उत्पादन की ओर भी ईशारा कर चुके हैं. यदि इस दिशा में सरकार द्वारा सकारात्मक पहल की जाती है तो उत्तराखण्ड के लिए सुखद ही होगा.
भुवन चन्द्र पन्त
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भवाली में रहने वाले भुवन चन्द्र पन्त ने वर्ष 2014 तक नैनीताल के भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय में 34 वर्षों तक सेवा दी है. आकाशवाणी के विभिन्न केन्द्रों से उनकी कवितायें प्रसारित हो चुकी हैं
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पिर्यूल का यदि कारगर हल ढूंढ़ लिया जाए, तो यह जंगलों को अग्नि से बचाने में सहायक हो सकता है