अल्मोड़े में कांग्रेस का जन्म 1921 में हुआ. इससे पहले जब 1905 में बंग भंग आन्दोलन का प्रारम्भ हुआ, उससे कुछ बच्चों और नवयुवकों के सुकुमार मन में अंग्रेजी राज के प्रति घृणा के भाव उत्पन्न हो गए. लोकमान्य तिलक बहुत पहले से शिक्षा दे रहे थे कि अपना राज्य ही किसी देश के लिए अति उत्तम होता है. अल्मोड़े में लोकमान्य के उपदेशों ने लाला बद्री शाह ठुलघरिया पर अमिट छाप लगा दी. वे कुछ वर्ष रैमजे हाईस्कूल में मास्टर रहे. उन्होंने यह पद इस लिए स्वीकार किया कि छात्रों में अंग्रेजों के प्रति विद्वेष के भाव फैला सकें. उन्हें मैंने गुरु माना और लोकमान्य को परम गुरु.
(Freedom Struggle Almora)
कुछ छात्रों में अपने देश को दासता के बंधन से मुक्त कराने का पागलपन चढ़ गया. राष्ट्रीयता ने जड़ पकड़ ली. उस समय ‘वन्दे मातरम’ और उसका पहाड़ी अनुवाद ‘जय जय माई जन्म भूमि धन्य धन्य तुम’ गाना महान अपराध समझा जाता था. कुछ नवयुवक साधना कर रहे थे कि उनका शरीर जेल में देशभक्तों को दी जाने वाली यातनाओं को झेलने में समर्थ हो सके. मुझे स्मरण है कि हम कुछ लड़के और नवयुवक अपने अपने अंग कटवाते थे और उनमें नमक भरवाते थे. जाड़े के दिनों में जब बर्फ पड़ती थी तो उसमें सोने का अभ्यास करते थे आदि आदि.
छोटी-छोटी मंडलियों में गीता पढ़ी जाती थी और उसके उपदेशों का अमल किया जाता था. इतने में अमेरिका से स्वामी सत्यदेव आ गए. स्वामी जी गुलामी के जी-जान से दुश्मन थे, उनसे मेरा पत्र-व्यवहार था. निमंत्रण देने पर वह मेरे यहाँ आये. उन्होंने जो शंखनाद किया उससे बरिश अफसर और पुलिस घबरा गयी. मेरा घर पुलिस द्वारा घेर लिया गया. स्वामी के पीछे पुलिस पड़ गयी. धन्य है जौहरी मोहल्ला और जौहरी मोहल्ले वाले नवयुवक जिन्होंने मेरा पूरा साथ दिया. स्व. चेतराम वर्मा, गंगाराम प्रधान (श्री श्यामलाल के पिता), श्री बद्री लाल जी आबकारी ठेकेदार आदि ने तन, मन और धन से राष्ट्रीयता का बीड़ा उठाया. सभी बाजार वालों ने स्व. सत्यदेव के उत्तेजनाकारी उग्र भाषण करवाए. धन्य हैं स्वामी जी के भाषण जिनकी स्मृति आज भी मेरे मन में ताजी है और हृदय को आज भी उत्तेजित कर रही है. उनके भाषण से हजारों श्रोता देशभक्ति के भावों में डूब जाते थे और विदेशी साम्राज्य के विरुद्ध उत्तेजित हो उठते थे. 1912 ई. से 1921 तक स्वामी जी ने भी कुमाऊँ में राष्ट्रीय चेतना को जागृत किया.
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1921 में मैं बस्तर रियासत के राजा के साथ एडीसी था. वहां स्वामी जी का मेरे पास पत्र आया कि अब कांग्रेस में गांधीजी ने नई जान फूंकी है. मैं अल्मोड़े गया और वहां कांग्रेस के प्रति जनता में फुर्ती लानी है, इसलिए आप तुरंत नौकरी छोड़िये और अल्मोड़ा आइये. मैंने तुरंत नौकरी पर लात मारी और अल्मोड़ा पहुँच कर कांग्रेस की स्थापना का काम बढ़ाया. उस समय अल्मोड़े में थोड़ी बहुत चेतना विद्यमान थी. सर्व श्री ठा. मोहन सिंह, हयात सिंह आदि नौ सज्जन जेल में बैठे थे. श्री मधुसूदन गुर्रानी आदि कई सज्जनों ने मेरा साथ दिया. नैनीताल में स्वर्गवासी बन्धु श्री किशोरीलाल शाह, श्री गंगाराम प्रधान आदि ने बड़े उत्साह के साथ कांग्रेस की स्थापना की. गढवाल में परम मित्र अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने इस उत्साह से काम किया कि घर-घर सन्देश पहुँच गया.
अल्मोड़े से अधिक से अधिक सहायक जुट सकें इसलिए मैंने उग्र देशभक्त श्री मोहन जोशी जी को पत्र लिखा कि वह मेरा हाथ बंटाएं. वे उस समय इलाहाबाद में मजदूर आश्रम से कुछ प्रकाशन कर रहे थे. उसमें उन्हें कुछ विशेष सहायता नहीं मिल रही थी. थोड़ी बहुत सहायता उनके इस काम में मैं भी कर आया था. इसलिए उन्हें मैंने अल्मोड़े आने का निमंत्रण दिया था और लिखा मेरे पास जो भी रुपया-पैसा है उसे सब भाई बाँट कर खाएंगे. यह त्यागी वीर बिना किसी संकोच के अल्मोड़े आ गया और उसका त्याग आज आदर्श बन गया है. उस समय के कांग्रेस के स्वयं सेवक सर्वश्री गोपाल भट्ट, चन्द्र सिंह बोरा आदि ने बड़ी लगन से कांग्रेस की सेवा की और कांग्रेस के किसी काम में आनाकानी नहीं की. सब जी-जान से और त्याग की भावना लेकर काम करते रहे. श्री देवकीनन्दन पांडे जी बनारस में पढ़ते थे वे भी कांग्रेस का काम करने अल्मोड़ा आ गए और लगन से कांग्रेस का काम करने में जुट गए.
1922 में पं. मोतीलाल नेहरू स्वास्थ्य सुधारने अल्मोड़ा आए. उन्हें दमा था. डाक्टरों ने उन्हें बतलाया था कि अल्मोड़ा की जलवायु से आपको फायदा होगा. वे अल्मोड़ा के जिला मजिस्ट्रेट श्रीधर नेहरू के यहाँ ठहरे. इस पर भी मैं तथा कुछ कांग्रेसी साथी नित्य वहां जाते थे और अल्मोड़ा की कांग्रेस पर जो संकट पड़ते रहते थे उन पर परामर्श होता था. मैं, विक्टर मोहन जोशी, मधुसूदन गुर्रानी आदि 1921 में जेल जा चुके थे. मेरी धृष्टता के कारण मुझे तन्हाई की सजा भी मिल चुकी थी. 1922 में कांग्रेस के सामने जेलों को भरने का प्रश्न आया. श्री केदारदत्त शास्त्री आदि कई कांग्रेसी मित्रों को जेल जाने का महान उत्साह था किन्तु यह साहस नहीं हो रहा था कि अपने बाल-बच्चों को भगवान के सहारे छोड़ जेल में कैसे बैठा जाए.
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इन मित्रों को पांच-पांच सौ रूपये देने का वचन देकर तथा उन्हें यह दिलासा देकर कि आपके बच्चों की परवरिश आपकी अनुपस्थिति में होती रहेगी, इन वीरों को पं. मोतीलाल जी के पास ले जाता था. उन्होंने इन सब वीरों में जेल जाने का परम उत्साह भर दिया. यह अल्मोड़ा कांग्रेस का परम सौभाग्य था कि कई वीर बिना हिचके जेल चले गए और इन वीरों ने अल्मोड़ा के नवयुवकों में जेल चले जाने की प्रेरणा भर दी. देश के काम में, अल्मोड़ा के नवयुवक 1922 के बाद जेल जाने से कभी नहीं डरे और अल्मोड़ा जिला जेलों को भरने में भी बाजी मार ले गया.
1923 ई. तक अल्मोड़ा कांग्रेस कमेटी की मैंने सेवा की. 10-15 हजार रुपया गाँठ से भी लगाया. पर जो आनंद उस समय देश की सेवा में मिलता था वह किसी भी मूल्य में नहीं खरीदा जा सकता. उस समय के कांग्रेसी व्यक्तियों का जो स्नेह मेरे ऊपर रहा वह आज भी महान संपत्ति के रूप में मौजूद है. उनको मैं कहाँ तक धन्यवाद दे सकता हूँ!
सर्वश्री परम त्यागी रामसिंह धौनी, मित्रवर दुर्गासिंह, देवीसिंह कुवार्बी, रानीखेत के नेता श्री भट्ट जी, हरी कृष्ण पांडे, ताड़ीखेत के देवकी नंदन पांडे जी तथा रामदत्त पांडे आदि का कहाँ तक धन्यवाद दे सकता हूँ. उनकी मुझे आज तक याद है पर बहुतों के नाम भूल गया हूँ. उनसे मैं क्षमा प्रार्थी हूँ और उनका भी बहुत बड़ा आभारी हूँ. यह चालीस वर्ष पुरानी एक स्मृति है जिसके पुण्य स्मरण से मेरा वृद्ध मन आज भी यौवन के मद में मत्त हो रहा है और वह इसलिए कि देश ने स्वतंत्रता का जो संग्राम लड़ा उसमें देश की पूरी विजय हुई. आज हम स्वतंत्रता का उपभोग कर रहे हैं.
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–डॉ. हेम चन्द्र जोशी
अब दिवंगत हो चुके स्वतंत्रता संग्रामी, भाषाओं के विद्वान् और सम्पादक रहे डॉ. हेम चन्द्र जोशी का यह आलेख 1960 -61 में लिखा गया था और हमने इसे ‘पहाड़’ पत्रिका के दूसरे अंक से साभार लिया है.
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लेख पढ़कर रौगटे खड़े हो गये हैं। हर दुख- दर्द को भारत माता आशीर्वाद मान कर देश को दासता से मुक्त कराने वाले मनीषियों के कारण ही आज हम आजाद होकर स्वच्छंद जीवन बिता रहे है। वीर सपूतों को नमन।