पलायन पहाड़ी गावों की संभवतया सबसे बड़ी समस्या के रूप में सामने है. इसके कारणों पर बड़े-बड़े विशेषज्ञ अपनी बात कहते हैं और समाधान के लिए बड़े भारी भरकम आयोग स्थापित हो गए हैं, लेकिन फिलहाल इसका कोई हल दिख नहीं रहा.
(Women and Migration in Uttarakhand)
इस उलझे हुए समाज में किसी भी समस्या का कोई एक कारण और कोई एक सर्वमान्य हल होना संभव नहीं. पलायन के साथ भी यही सब है. कितने ही कारक इस समस्या को जटिल बनाते जा रहे हैं. बहरहाल इसको देखने के बहुत से नजरियों में से एक यह भी है कि हम पलायन के लिए बाहरी समस्याओं को ही उत्तरदायी ठहराते आये हैं. बाहरी समस्याएं मतलब ये कि तन्त्र द्वारा यहाँ के विकास के प्रति की गयी अनदेखी. अधिकांश पलायन चिंतकों और पहाड़ प्रेमियों ने यहाँ के जीवन को बहुत आदर्श और परफेक्ट मान कर बात की है. कहीं भी हमारे समाज की सोच और आन्तरिक जटिलताओं से इस समस्या को जोडकर देखने के प्रयास बहुत ही कम दिखते हैं.
मैं जब छोटा था तो गाँव में ही रहता था, यहाँ पर मैंने गाँव की किसी भी लड़की को सूट पहने नहीं देखा, शादी से पहले भी उन्हें धोती या साड़ी ही पहननी होती थी. कोई अगर सूट पहनने कि सोच भी ले तो गाँव भर में हंगामा होना तय. यह मानसिकता ब्राह्मणों में तो बहुत अधिक थी. ऐसा भी नहीं कि चीजें बदली नहीं हैं लेकिन आज भी गाँव में कोई विवाहित महिला सूट या मनमाफिक कपड़े नहीं पहन सकती. उसे साड़ी ही पहननी है और मर्दों के सामने घुंघट डालना है. हालाँकि यहाँ भी दोहरा नजरिया होता है. लड़कियां मायके आकर सूट पहन लेती हैं.
इस बात का पलायन से क्या लेना देना? तो पालयन पर गाँव के लोगों के नजरिये को देखने की जरुरत है. कोई व्यक्ति बाहर नौकरी करता है तो इसे शायद ही कोई पलायन कहे लेकिन यदि वह अपने साथ अपने परिवार को लेकर जाता है तो यह पलायन बन जाता है. अक्सर ऐसे में लोग बहुओं के पढ़ने लिखने को दोष देते हैं. वह बताते हैं कि आजकल की बहुएं काम नहीं करना चाहती और शहर की आरामतलब जिंदगी के लिए गाँव उजड़ रहे हैं. यहाँ तक कि इस पर गीत तक रचे गए और गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी जी तक ने इस पर एक गीत गाया जिसमें ऐसी बहू को खलनायक बनाया गया है.
(Women and Migration in Uttarakhand)
क्या कभी हम सोचते हैं कि कोई बहू यदि गाँव छोड़कर जाती है तो वापस क्यों नहीं आना चाहती? क्या उसे सचमुच गाँव पसंद नहीं? तो फिर क्यों वह पूना और कोलकाता में भी भट की चुट्कानी और भांग की चटनी पर मरी जाती हैं? खेती से डरने वाली दो गमलों में ही सही धनिया, पुदीना उगाती है? काम से डरने वाली यह अधिकांश लड़कियां पूरे घर को संभालने के साथ ब्यूटी पार्लर में काम सीखने जाती हैं या किसी स्कूल में पढ़ाती हैं. देर रात तक जाग कर यू ट्यूब के लिए रेसिपी वीडियो बनाती हैं ताकि कुछ कमा सके और पहचान बना सके. फिर ऐसी लड़कियां हमें काम से डरने वाली क्यों लगती हैं? क्यों डराता है उनको गाँव का जीवन.
तो पहाड़ के मोह में आकंठ डूबे महात्माओं अपने नजरिये से हट कर उनके नजरिये से देखो तो समझोगे कि जब उनको पसंद के कपड़े पहनने पर टोका जाय तो वह क्या करेंगी. जोर से हंसने बोलने पर आपत्ति की जाय तो क्या करेंगी. थोडा सा मुखर होने पर चरित्र प्रमाणपत्र थमा दिया जाय तो क्या करेंगी? महीने में चार दिन अछूत बनाकर किनारे कर दिया जाय और ढंग से खाना भी ना पूछा जाय तो क्या करेंगी? उनको बच्चे पैदा करने कि मशीन माना जाय तो यहाँ रहने में उनको क्या चीज आकर्षित करेगी?
यहाँ के अधिकांश मंदिरों के अन्दर उनका जाना मना हो तो क्या होगा? प्रसव काल में, जब किसी भी महिला को सबसे अधिक केयर की जरूरत होती है उस समय वह अपने भारी भरकम कम्बल बिस्तर तक खुद धोने पड़ते हैं. और इस बहुत वाहियात महिला विरोधी परिवेश से जब कोई कुछ समय के लिए निकल पाती है तो वह वापस भला क्यों आना चाहेगी? शहर में उसे बहुत अच्छा जीवन भले नहीं मिलता लेकिन कुछ आजादी तो मिलती ही है. और आजादी वह चीज है जिसे पाने के लिए इंसान बड़ी बहुत बड़ी कुर्बानी दे सकता है. अगली बार पढ़ी लिखी बहुओं को नहीं अपनी निहायत पिछड़ी और घटिया सोच पर भी सवाल उठाओ देवभूमि के देवगणों. क्या आप तैयार हैं उन्हें वापस बुलाने के लिए?
(Women and Migration in Uttarakhand)
पिथौरागढ़ में रहने वाले विनोद उप्रेती शिक्षा के पेशे से जुड़े हैं. फोटोग्राफी का शौक रखने वाले विनोद ने उच्च हिमालयी क्षेत्रों की अनेक यात्राएं की हैं और उनका गद्य बहुत सुन्दर है. विनोद को जानने वाले उनके आला दर्जे के सेन्स ऑफ़ ह्यूमर से वाकिफ हैं.
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मुंह खोलने पर चरित्र प्रमाणपत्र थमाने वाले बंबई पूना दिल्ली नोयडा में भी नही चूकेंगे और बच्चे पैदा करने की मशीन अब पहाड़ी स्त्री रही नही और नही रहा पहनावे या खानपान पर रोकटोक का दौर। सुंदरचंद ठाकुर जी के कुछ दिन पहले छपे लेख "आओ अमीर बनें" में जवाब मिलता दिखता है कि हम जिसे संपन्नता मान बैठे हैं वह भ्राामक है। असली संपन्ननता भीड़ भाड़, प्रदूषण और जहरीले मिलावटी खाद्य पदार्थों से दूर पहाड़ों पर ही है। हर पहाड़ी जिले में पलायन आयोग दफ्तर खोलकर भी बैठ जाय फिर भी बिना मानसिकता बदले पलायन पर रोक नही लगेगा। रही विकास कार्यों की बात वह तभी होंगे जब वोटर अधिक होंगे।
उत्तराखण्ड मे सभी जगह ऐसे ही है इस चीज का मैं भी विरोध करता हूँ
लेकिन मैं आपसे ये पूछना चाहता हूं क्या आपके यहा इससे विपरित है! ये बात भी ध्यान देने वाली है. कि ये सब करवाने वाली भी एक औरत ही होती है तो हम दोष किसे दे आजकल तो युवा पीढ़ी ना तो ये छुवा-छूत मानती है और ना जात-पात
और रही कपड़े पसंदीदा कपड़े पहनने या नहीं पहनने उसे यहा के लोग संस्कृति(संस्कार) कहते है वो सब बताने वाली भी एक औरत ही होती है बहु कुछ भी कर ले उसे डांटने वाली कौन होती है सास जी भी एक औरत है
मेरे ये बात अगर किसी को कहीं से बुरी लगी तो माफी
मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं है कि जिससे एक औरत की मान का अपमान हो क्योंकि मेरी माँ भी एक औरत ही है
बस यही तो कारण हैं, और इसीलिए औरतों का ठेठ गांवों से पलायन न्यायोचित भी है।
आपका कथन थोड़ा बहुत ठीक है लेकिन पुरी तरह से नहीं मेंने देखा है जिनके गांव में ठाट बाट थे जिन्हें कोई कुछ भी कहने वाला नहीं था वो भी आज गांव छोड़ कर चले गये आज के समय में गांव की लड़कियों के इतने भाव बढ़ गये है की वह गांव में रहने वाले लड़कों से सादी करने को तैयार नहीं चाहे लड़के पूरी तरह से कमाने में सक्षम ही क्यों न हो । कोई दुकानदार है कोई खुद की गाड़ी चलाता है कोई बकरी पालन करता है लेकिन लड़कियों के दिमाग में एक ही बात बेठी है लड़का बाहर रहता हों चाहे वो रामनगर हल्द्वानी देहरादून दिल्ली में फेक्ट्रियों में दस बारह हज़ार रूपए कमा कर किराये पर रहता हों लेकिन लड़कियों को शादी करनी है तो बाहर रहने वाले लड़कों से इसलिए आपका लिखा कथन सिर्फ आपकी ही सोच है जों आप तक ही सिमित है ।।।
अबे! केवल एक पक्ष की बात करना आसान होता है, और पिछड़ी मानसिकता वाले कौन हैं ? अच्छी मानसिकता वाले महोदय केवल कुछ कारण गिनाकर, अपने स्वयं की मानसिकता सिद्ध की है, हां और बच्चे पैदा करने वाली बात से क्या सिद्ध करना चाहते हैं कि शहरों में बच्चे पैदा करने को तवज्जो नहीं दी जाती। ये लेख कितना पुराना है कह नहीं सकते, लेकिन लगता है केवल वाहवाही बटोरने को लिखा गया है।
पहाडों में घूँघट की प्रथा मैंने कहीं भी नहीं देखी है. आपने घूँघट किये हुए किसी पहाड़ी स्त्री की कोई तस्वीर कभी देखी हो तो साझा करें.