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कुमाऊंनी लोक साहित्य में नारी का विरह

सामान्य जनों या आशुकवियों द्वारा मौखिक परम्परा के रुप में अभिव्यक्त साहित्य लोक साहित्य कहलाया. परिवेश के अनुसार उसकी अभिव्यक्ति विरह और मिलन दोनों रुपों में हुई है. नारी यों तो सृष्टि की वह रचना है जो प्रकृति के अनुरुप अपने को ढाल लेती है. जिसका जीवन कभी सुख के हिण्डोलों पर झूलता है जो कभी विरह की उर्मियों पर तैरता है. उसमें भी कुमाऊँ जो वीरों की भूमि रही है जहाँ की नारी डाकिये को प्रतीक्षारत रहकर प्रियतम के पत्र के स्नेहित शब्दों से अपने उफान को ठण्डा करती है. दुर्भेद्य पर्वत शिखरों में काम करती हुई जो चीड़ की सनसनी हवाओं को प्रियतम के पावों की आहट समझ बैठती है और कन्दराओं की प्रतिध्वनि को प्रियतम का उत्तर !
(Woman & Kumaoni Folk Song)

परम्पराओं एवं मर्यादाओं का दुशाला ओड़कर वह लोकलाज को मद्देनजर रखते हुए अपने यौवन को विरह की शय्या में अर्पित कर देती है. जहाँ खेतों में काम करते हुए घाम, पूष की लम्बी रातें, बिना आँगन का घर उसे प्रताड़ित करते हैं. वहीं लुप्या-लुप्या हौल, च्यूड़े-विरुड़े पर्वत शिखरों पर लगने वाले मेले उसे प्रियतम से संयोग होने की आशाएं दिलाते हैं.

नवेली! जिसका प्रियतम चन्द दिनों के मिलन के बाद सीमा में ड्यूटी पर चला गया हो, नया घर, माँ बाप भाई बहिन से दूर वह अकेली नितान्त अकेली मिट्टी में प्रियतम का चित्र खींचती हैं और स्वप्न में प्रियतम को पाकर उससे आलिङ्गन वद्ध हो जाती है. अपने तन को उसको समर्पित करते ही उसे मिलता है शून्य गगन! लोक गायकों के मुख से सुने हुए कुछ विरह के पदों को प्रस्तुत करते हुए मैं कुमाऊँनी नारी के विरह को प्रकाश में ला रहा हूँ.
(Woman & Kumaoni Folk Song)

कुमाऊँनी पतिव्रता नारी पर पुरुष के प्रेमपाश में नहीं बँधती हैं. वह रात और दिन अपने ही प्रियतम की आशा में समय व्यतीत करती है.

बेलि मेरी नींन टुटी फिनि खसरा ले.
रात काटी दिन काट्यो, तेरा आसरा ले..

विरह में उसे जड़ और चेतन का आभास तक नहीं हो पाता, वह ऊँचे पर्वत से कह बैठती है ओ पर्वतराज! तुम जरा नीचे हो जाओ मैं अपने प्रियतम को देख लूंगी.

ला दवात ला कलमा, मैं चिठी लेखूँछुं.
ऊँची डाना नीचा हैजा, मैं सुवा देखछुं..

अपने प्रियतम के प्रति विश्वास प्रकट करते हुए वह कहती है कि मैंने तो तुझ में घनी प्रीति लगा रखी है मगर तेरी प्रीति कहाँ है.

धोगि बन सिदसिद, मूली बन धाँच.
मेरि माया तेरी तिर, तेरि माया काँछ.
(Woman & Kumaoni Folk Song)

अपने प्रिय के प्रति वह नाराजी का भाव किसी भी प्रकार से नहीं रखती है. कहती है तुम्हें मेरी माया होगी तो पत्र देना यदि पत्र नहीं भी दे पाओगे दिल में मेरे प्रति मेहरबानी तो कम से कम बनाये ही रखना.

चापाई का चार ठोका, छट्को मछानी.
माया होली चिट्ठी दिये, नदि मेहरबानी..

जिस जगह वह अपने प्रियतम के साथ कभी बैठी थी उसे उस स्थान से भी मोह हो गया है. वह उस जगह की मिट्टी को पवित्र समझकर उठा ले आई है.

साँइ को घोड़ो दाँण खाँछो, भुटिया भरै को.
माटो उचै खल्दि हालो, वैठिया ठौरै को…

दिन भर काम में व्यस्त रहने के कारण रात्रि में सोते ही नींद उसे अपने आगोश में ले लेती है परन्तु अर्धरात्रि में जब नींद खुलती है तो वह प्रियतम से स्वप्न में आने को कहती है.

त्वीले काटो मालू बेलि, मैंलि काटो ऊना.
दिन भेट नि हुँणकि, राति आये स्वीना.

हितकारी और मनोहर स्वप्न दुर्लभ तो होते ही हैं. प्रिय की कुशलता की खबर देने वाले के मुँह में मीठा घी भरा रहे, वह ऐसी कामना करती है.

सानण की हलिमाणी, क्वेरालु को जु छ.
सुवा की खबर दिया, त्यार मुखा ध्यु छ.
(Woman & Kumaoni Folk Song)

वह कहती है प्रियतम! तुम कहते हो आज आऊँगा कल आऊँगा आखिर कब आओगे. मेरी तो सारी उमर ऐसे ही बीत जायेगी.

काल्कुड़ी का काला बण, लागि गई कुमर.
ऐ घुलो ऐ ज़ैलो कँछ, बिति गे-उमर..

वन प्रान्तरों में काम करती हुई वह सोचती है आहो! मैं कब अपने प्रियतम को इन जंगलों में देखूंगी.

गाड़ की चिफलि दुङि, कै ढुडी टेकूँलो
पुतई जसो सुवा कणी कै डाना देखलो.

गाँवों में दुकानें दूर होने और प्रियतम के घर न होने के कारण माँग में भरने के लिए सिन्दूर भी समाप्त हो चुका है.

अस्कोट दिवालि गड़, सेठलि कमायो,
सिन्दुर पैरनी ख्वरा, विभूत रमायो…

चारपाई में अपने को अकेले पाकर वह यह कहे हुए बिना नहीं रुकतो अहो! तुम्हारे चले जाने के बाद में चारपाई में अकले लेटी हूँ.

सौकयानी ध्वैछी कपाड़ा, गंगज्यू घाट में.
सुवा त्वै जाइयाँ वटी, यकली खाट में…
(Woman & Kumaoni Folk Song)

प्रिय के बिना उसे पूरा घर उजाड़खाना लगता है. सारा मकान काट खाने को आता है.

ठुलिगाड़ लागी गोछ, सिल्यर बगान.
यकली घर में सुवा, काटि खाँछ मकान…

आकाश में पंछी को उड़ते देखकर वह भी इच्छा करती है कि मुझ पर भी पंख होते तो मैं भी उड़कर अपने प्रिय के पास चली जाती.

कलकाता जहाज उडो, रंगून डाकै की.
पंखा हना उडि जान्यूं मैं बिन फाकैं की…

मेघाच्छन्न आकाश उसे अतीत में छेड़छाड़ की याद दिलाये बिना नहीं रहते, वह प्रियतम से कह उठती है, प्रियतम ! या तो बाटुली लगाकर इन बादलों को हटा दो या फिर तुम स्वयं आकर दर्शन दे जाओ.

सर्ग लाग्यो काला बादल, थिट्की लै मिटै दे.
कित दीजा दरसन, या बादल फिटै दै..

उसकी मिलन की आशाएं क्षीण होती जा रही हैं. वह कह बैठती है शायद तुम्हारे मेरे क्रीड़ा के क्षण अब लौटकर नहीं आयेंगे.

पार भटी भैसि को खर्क, भैंसि खाला की.
त्यार मेरा खैल्ल्या दीन, आजि फर्काला की…

प्रियतम के हाथों से लगाये गई फुलवारी में फूल आ चुके हैं फूलों की सुवासित गन्ध उसके यौवन तरंगों को बेगवान कर देती है, विरह में वह कहे बिना नहीं रहती

भोट्या ले बाकारा लाया, धार्चुला की झाड़ी.
कैका लिजी छाड़ी गेछ, लैंगी फुलवाड़ी…
(Woman & Kumaoni Folk Song)

विरह की ज्वाला को सहन करती हुई वह नारी अपनी प्रिय से प्रेमपाश में बँधकर मुझ पर ही आशक्त न होने के लिये कहती है कि प्रिय तुम अपना स्नेह मुझे देना लेकिन अपने माँ, बाप एवं गाँव को भूल मत जाना पत्र तो मेरे नाम से भेजना लेकिन मनीआर्डर घर के पते पर ही करना.

आदु माया मैंहुँ राखो, आदु माया गौं कि.
मनिआर्डर घर भेजे, चिठि म्यरा नौं कि.

वह अपने पति के साथ परदेश गमन के लिए जबरदस्ती नहीं करती है. प्रेमपूर्वक यह कहती है कि प्रिय! क्या तुम्हारे साथ आकर दोनों लोगों का भरणपोषण हो पायेगा.

घार में देबि के थानों, वुड़ छ पुज्यारो.
त्यार संग मैलेऊँछ्यो, होलो के गुजारो.

पति का जूठन खाने के लिए वह लालायित है और उसके कपड़ों को धोने के लिए उसे इन्तजार है.

तुमरि जुठी थाली में, कै दिन मैं खूलो.
आङ की लुकुड़ि सुवा, कै दिन मै धूलो…
(Woman & Kumaoni Folk Song)

योगेन्द्र प्रसाद जोशी ‘नवल’

पुरवासी के चौदवें अंक से साभार.

इसे भी पढ़ें: देशभक्त मोहन जोशी: स्वतंत्रता सेनानी जो अंग्रेजों की मशीनगन के सामने भी नहीं झुके

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