समाज

‘ह्यून’ पहाड़ों में सर्दी का मौसम

ह्यून यानि कि सर्दी का मौसम. पहाड़ों के मुख्य तीन मौसम – रूड़, चौमास, ह्यून में सबसे अच्छा मौसम ह्यून का ही होता है. हालांकि इस मौसम में कुछ जटिलतायें भी हैं. मंगसीर, पूस और माघ का महिना अमूमन ह्यून का मौसम माना जाता है. मंगसीर यानि मार्गशीष का महिना शादी विवाह लगन का महिना होता है. लगभग हर गांव में ब्याह शादी होती है. असोज के काम के बाद लोग ब्याह शादी के बहाने ही सही कुछ उत्सव के मूड में आ जाते हैं. कभी कहीं न्यूत कभी कहीं. कुछ फलां तारीख को बरेति जाने की तैयारी में रहते हैं तो कुछ ब्वारियां अपने मायके किसी की शादी में जाने के खयाल भर से रोमांचित रहती हैं. आज के जैसा संचार के साधनों से सम्पन्न नहीं था तब समय और न ही मनोरंजन के साधन ही थे. मनोरंजन के नाम पर होली, कहीं मन्दिर की यात्रा या रामलीला देखने जाना, गांव के कौतिक ही थे. इन सबके बीच शादियां भी मनोरंजन का ही एक माध्यम हुआ करती थी.
(Winters in Uttarakhand)

पुरुष बरेति जाने को लालायित रहते तो महिलायें रत्याली के लिए. बरेति के न्यूत का इन्तजार रहता महिलायें अपने मायके या रिश्तेदारी में शादी ब्याह के निमन्त्रण पत्र की बाट जोहती. आज की तरह नये कपड़े कहां बन पाते थे तब. महिलाओं की ब्या दिन की साड़ी कई काम काजों में चल जाती थी पुरुषों के शादी के दिन का कोट भी. लोग बिना किसी संकोचवश एक दूसरे से कपड़े जूते वगैरह माग लिया करते. मी मैत जाणयू तेर लाल साडि भली छ मेके दिये. या आपुण ज्वात देलै कि मेर पास नहातिन बरेति जांण छ.

महिलायें पूछती- यो तेरि ब्या दिनै धोति छै, भली लागणै. बताने वाली भी ठाट से बताती होय. मतलब आज की तरह की सोच नहीं थी कि ये तो कल पहनी थी या ये उसकी शादी में पहन रखी है या ये तो महिला संगीत में पहन ली. ब्या दिन के कपड़े और पिछौड़ा तो वीआईपी थे. आज हम कितना आगे चले गये सभ्य हो गये या हमारा वो लाटापन ही ठीक था आज मैं इसी में झूल जाता हूं.

मैंने तो वो समय भी देखा है कि महिलायें आपस में जेवर भी मांग कर ले जाती थी. नथ, मंगलसूत्र वगैरह भी पहनने को दे दिये जाते थे. कई ब्याह शादी में तो ब्योली के जेवर अड़ोस-पड़ोस से मांगकर भी काम चलाया जाता था. आपस में एक दूसरे को दिखाने की होड़ नहीं थी. प्यार था सामाजिकता थी भरोसा था परोपकार की भावना थी. शादी ब्याह तो और मौसम में भी होते थे पर गृहणियों को काम की वजह से पटन ही नहीं हुआ. ह्यून में किसी को बोल दो कि गाय भैंस को चारा डाल देना बस हो गया काम. खैर अब ये तो इतिहास ही बन गयी बातें. वापस आते हैं ह्यून की मुख्य बातों पर.
(Winters in Uttarakhand)

ह्यून के मौसम में पहाड़ में खाने-पीने की बहार ठहरी. बाड् यानि कि क्यारियों में हरे साग पात खूब हुआ रहता है. किसी दिन पालक का कापा बना लो साथ में भुनी खुश्याणी, झोली, दाल बनाओ तो गडेरी डाल लो. रात को गडेरी की सब्जी. असल बात यह है कि इस मौसम में पहाड़ के लोगों को साथ बैठकर तसल्ली से खाना खाने का समय मिल जाता है. खाना खाने के बाद आंगण में धूप में बैठ जाओ कुछ देर नींद निकाल लो. सभी बैठकर धूप में नीबू सान लो. किसी दिन माल्टा काटकर खा लो. नारंगी छीलकर खा लो. फसक मारो. एक तरफ धूप में गद्दे बिस्तर सूख रहे होते. बच्चे उन पर ही कूदते. छोटे बच्चों की धूप में मालिस की जाती. आंगन में सभी बैठे हों बीच में डलिया में नानू भौ को सुलाया हो. कितना अच्छा लगता होगा शाम के समय की या दोपहर की चाय तो हर पहाड़ी ह्यून में लगभग बाहर भिड़ यानि दिवार में बैठकर ही पीते हैं. कुछ पास पड़ोस के लोग भी आ गये और जम गयी महफिल. इस मौसम में काम तो कम ही हुआ पर फिर भी लकड़ी लाना, गाय भैंस के लिए चारा-पानी वगैरह का इन्तजाम तो करना ही हुआ.

पहाड़ में ह्यून में एक चीज जिसके बिना ह्यून अधूरा हुवा वो है आग तापना. बांज के मुन या लकड़ी के क्वैल जल रहे हों और परिवार घेरकर सगड़ (बरौस) के चारों तरफ बैठ जाते थे आग शाम को रौन में भी जलती थी. कुछ लोग तो रौन या सगड़ में ही साग पका लेते.

यही समय होता था जब सगड़ या रौन के चारों तरफ बैठे परिवार जन बातें करते, आपस में आँण काथ किस्से कहानियां चलती. बड़े बुजुर्ग, आमा-बूबू अपने अनुभव साझा करते थे. यही उस समय का टी.वी., सास बहू सीरियल थे. किसी-किसी के ही पास रेडियो होता था. यदि सच कहूं तो हमारे सस्कारों की प्राइमरी पाठशाला ये रौन के पास बैठे आमा-बुबू, ईजा-बाबू ही थे. किसी भी जिज्ञासा के गूगल यही लोग थे.

शाम के समय की ये सगड़ या रौन की आग तापने के बहाने कई घरों के चाख (बैठक) में बुजुर्गों का जमावड़ा भी लगा रहता था. आग तापने के बाद कोयले राख में ढक दिये जाते सुबह या शाम ये कोयले नई आग जलाने के काम आते. एक छोटी सी चीज माचिस की तीली की मितव्ययिता से अपनाते थे लोग. क्या समय रहा होगा दुर्भाग्य से इन छोटी छोटी चीजों को जीवन में उतारने के बजाय हम बुजुर्गों को ही कटघरे में खडा करते हैं. बूंद-बूंद से सागर की कहावत तो हमारे बुजुर्गों ने ही उतारी अपने जीवन में.
(Winters in Uttarakhand)

बस एक ही चीज जो इस ह्यून की परेशान करती थी वो थी ह्यूं पड़ना यानि बरफबारी. बरफ पड़ने पर काम करना मुश्किल हो जाता था जानवरों की देखभाल, छोटे बच्चो बुजुर्गों के लिए आफत आग तापने की लकड़ियां न हो, भीतर कूटा पीसा न हो तो जीवन दुस्वार समझिये. बरफ के बाद पाला पड़ने पर महिलाओ के पैर तो फटकर ऐसे हो जाते थे मानो पहाड़ों के बीच गधेरे हो. इन फटी एड़ियों के साथ काम करना जंगल से लकड़ी लाना कितना कठिन होता होगा यह वही समझ सकता है जिसने यह भोगा हो. कई बार ठंड में काम करने पर हाथ पैर ऐसे लकड़ि जाते थे चूल्हे की आग में हाथ डाल दो पता न चले. बिस्तर तो अधरात तक कैलाश ही पहुंचा रहता कितने ही कम्बल ओढ लो टंणक जाती न थी.

फिर भी कहना पड़ेगा कि ह्यून में बर्फ न पड़े तो मजा क्या. इसी ह्यू यानि बर्फ के कारण ही तो मौसम का नामकरण ह्यूंन हुआ. फिर पहाड़ी तो अपनी जीवटता के कारण ही तो जाने जाते हैं बर्फबारी में भी आनन्द के क्षण निकालना दुश्वारियों से लड़ना भली भांति जानते हैं. कभी गरम हलवा, गुडझोई बनाकर, भंगझावा पीकर सर्दी से लड़ ही लेते हैं. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि सने हुए नीबू की तासीर भी बहुत गर्म होती है ये पहाड़ के मौसम में ठन्ड से लड़ने का कारगर हथियार है. यही बात भांग डली सब्जी पर भी लागू है.

बाहर बरफ पड़ रही हो तो अन्दर आग तापते हुए कभी भट भून लिये. कभी सिरौले, खाजे खा लिये, गुड़ की टपकी चाय पी ली ज्वांण की चाय पी ली. कभी पिनालू के स्यावे खाकर घर के अन्दर ही पिकनिक मना ली. पिनालू के स्यावे, गेठी या आलू को रौन या सगड़ की गरम राख में पकाकर खाने का सीजन भी तो यही हुआ जिसका हर पहाड़ी दीवाना हुआ. अखरोट फोड़कर खाना भी वो भी सिरोल या च्यूडों के साथ, इस मौसम की हाईलाइट हुई.

हम बच्चे भी इस मौसम में किसी के गोठ या गोठमाव में घुस गये वहीं खेलने लगे. घर वाले ढूंढते कहते बीमार पड़ोगे फटे पुराने कपड़े पहने हाथ का बना बनैन, हाथ की बनी फूलदार टोपी, पैर में टूटी चप्पलें पहने हम कहां मानने वाले थे. ठंड तो हमें लगती ही नहीं थी. पहाड़ी कहावत है न – नानतिनक जाड़ ढूंग में.
(Winters in Uttarakhand)

विनोद पन्त खन्तोली

वर्तमान में हरिद्वार में रहने वाले विनोद पन्त ,मूल रूप से खंतोली गांव के रहने वाले हैं. विनोद पन्त उन चुनिन्दा लेखकों में हैं जो आज भी कुमाऊनी भाषा में निरंतर लिख रहे हैं. उनकी कवितायें और व्यंग्य पाठकों द्वारा खूब पसंद किये जाते हैं. हमें आशा है की उनकी रचनाएं हम नियमित छाप सकेंगे.

इसे भी पढ़ें: असल पहाड़ी ही जानता है भांग के ऐसे गुण

काफल ट्री के फेसबुक पेज को लाइक करें : Kafal Tree Online

Support Kafal Tree

.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Kafal Tree

Recent Posts

नेत्रदान करने वाली चम्पावत की पहली महिला हरिप्रिया गहतोड़ी और उनका प्रेरणादायी परिवार

लम्बी बीमारी के बाद हरिप्रिया गहतोड़ी का 75 वर्ष की आयु में निधन हो गया.…

1 week ago

भैलो रे भैलो काखड़ी को रैलू उज्यालू आलो अंधेरो भगलू

इगास पर्व पर उपरोक्त गढ़वाली लोकगीत गाते हुए, भैलों खेलते, गोल-घेरे में घूमते हुए स्त्री और …

1 week ago

ये मुर्दानी तस्वीर बदलनी चाहिए

तस्वीरें बोलती हैं... तस्वीरें कुछ छिपाती नहीं, वे जैसी होती हैं वैसी ही दिखती हैं.…

2 weeks ago

सर्दियों की दस्तक

उत्तराखंड, जिसे अक्सर "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है, अपने पहाड़ी परिदृश्यों, घने जंगलों,…

2 weeks ago

शेरवुड कॉलेज नैनीताल

शेरवुड कॉलेज, भारत में अंग्रेजों द्वारा स्थापित किए गए पहले आवासीय विद्यालयों में से एक…

3 weeks ago

दीप पर्व में रंगोली

कभी गौर से देखना, दीप पर्व के ज्योत्सनालोक में सबसे सुंदर तस्वीर रंगोली बनाती हुई एक…

3 weeks ago