रानीखेत में हाईस्कूल बोर्ड के इम्तहान के बाद मुझे चौखुटिया से मासी वाली रोड पर एक गांव ‘फाली‘ में अपनी छुट्टियां काटने के लिऐ भेज दिया था. ‘फाली‘ में मेरी मौसी रहती है. वहां दिन में कोई साथी नही होने के कारण तथा गर्मी के कारण बाहर एक पेड़ के नीचे बैठना मुझे ज्यादा अच्छा लगता था, जिससे सामने की पहाडियों के कई दृश्य दिखायी देते थे उन गावों से रेडियो पर बजते गीत की दूर से आती धुन भी प्रिय लगती थी. सामने कुछ गांव – जैसे भेल्टा, सुनारी, कुशगांव, कांवलधार आदि दिखायी देते थे. इसी तरह कुछ दिनों बाद ‘चीटियों वाली बारात‘ को देखना मेरी दिनचर्या का हिस्सा बन चुका था. (Wedding in the Mountain)
उस दिन एक बार फिर से पहाड़ के नीचे ढलानों में उतरती औरतों के काफिले मुझे दूर से ही नजर आ रहे थे. घास और लकड़ी के गठ्ठरों को लेकर नीचे उतरती औरतें एक हाथ से गठ्ठर संभालती और दूसरे हाथ से मुंह पर सीधे पल्ले की धोती के अगले आंचल से मुंह ढकती थीं. वे तेज कदमों से जल्दी- जल्दी नीचे उतर जाना चाहती थी. ये शायद पहाड़ी के दूसरी छोर की महिलाऐं थीं, जो इस गांव की ओर पड़ने वाली दिशा के जंगल से काम कर वापस लौट रही थी. वे शीध्र घर पहुंचना चाहती थी. नीचे उतरते हुऐ वे किसी भी हालत में बारात के सामने नही आना चाहती थी. ऊपर से ही वे देख चुकी थी कि एक बारात भी नीचे कच्ची सड़क से ऊपर की ओर चढ़ रही थी. बारात उनके ही रास्ते से ऊपर की ओर आ रही है इसलिऐ कुछ दूरी तक नीचे जाने पर उनके गांव की ओर मुड़ने वाला मोड़ आने वाला था, अतः मोड़ पर मुड़ते ही वे आराम से चलना शुरु कर देंगी क्योंकि तब वे सब अपने रास्ते पर आ जाएंगी. मुझे बारातियों का तेजी से ऊपर चढ़ना और घसियारियों का तेजी से उतरना दिखायी दे रहा था. उस बखत यह मेरे लिए टीवी में दिखाऐ जा रहे किसी लाइव मैच से कम नहीं था.
खुबानी़ के पेड़ के नीचे बैठी मैं देर तक उनको देखती रही, ऊपर से नीचे घास सर पर रखकर उतरती औरतों को भी और नीचे से मसकबीन, नगाड़े बजाते निसाण ले जाते, छोलियों, ढाल तलवार नर्तकों के साथ ऊपर गांव में चढ़ती बारात को भी. जून की तप्त गर्मी की दोपहरी में चमकीले कोट, पैंट, टाई लगाए पुरुषों की शहरी बनने की भरसक कोशिश के बावजूद अपनी चाल, ढाल तथा नृत्य शैली अथवा घास या ढांग में उगी घास को पकड़ कर ऊपर चढ़ने में कई बार थकान मिटाते हुऐ देखने पर वे निरपट अपने पहाड़ी लगते थे. सबसे आगे पंडित जी, फिर संतरगी छाते में चमकीले कोट-पैंट और टाई में ब्यौल अथवा बर और उसके पीछे बाराती और नगाड़े-निशाण, छोलियों ढाल तलवार नर्तक के टोले चल रहे थे. मुझे लगा ये घास लाती हुयी महिलाएं उस गांव के आसपास की तो बिल्कुल नहीं हो सकती, वरना वे आज के दिन घास लकड़ी लेने नहीं जाती और अगर जाती भी तो बारात आने से पहले ही काम निपटा चुकी होती. क्योंकि तब वे बारात जरूर देखती. इस तरह एन बारात के आते वक्त तो घास लेकर बिल्कुल नहीं आती.
अकसर पहाड़ में आसपास के सभी लोग बारात से पहले ही बारात वाले घर पंहुच चुके होते थे क्योंकि असली न्यौत्येर इसी समय मौजूद रहते हैं ऐसा माना जाता रहा है. मुझे ये घसियारियां तथा बारात दूर से पहाड़ में चढ़ती चीटियों सी नजर आ रही थी. सब एक के बाद एक लाइन में चल रहे थे. ऐसी कई चीटियों वाली बारात की लाइन शादी वाले सीजन में दिखायी देती थी. कभी-कभी मैं बारात की संख्या की गिनती करती थी, तो कभी उन पहाड़ चढ़ती चींटियों के मानिंद दिखने वाले बारातियों की संख्या को गिनने लगती थी.
बारात लाइन से ही चलती थी, इसका कारण था पगडंडियों में एक आदमी के चलने लायक ही जगह होना. अकसर पहाड़ में पगडंडियों के एक तरफ पहाड़ी और दूसरी तरफ खाई अथवा तीव्र ढलान होता है. मैं उस बारात वाली पहाड़ी के बिलकुल सामने वाली पहाड़ी के एक गांव में थी और दोनों पहाड़ियों के बीच एक नदी और नदी के दोनों ओर खेत थे तथा मेरी वाली पहाड़ी के निचले छोर पर सड़क थी. बारात की सभी गाड़ियां इसी तरफ खड़ी थी. जाहिर सी बात थी कि इतनी दूरी से सामने वाली पहाड़ी से ऊपर जाने वाली बारात दूर से चीटियों की लाइन ही नजर आती थी. ये चीटियों की लाइन बीच-बीच में कभी-कभी तब बिखर जाती थी जब कुछ बाराती कहीं-कहीं पहाड़ों की घास पकड़कर दूसरे बरातियों से आगे निकलने का प्रयास करते थे या डान्स करते हुऐ लुढ़ककर और भी पीछे आ जाती थी.
मेरे लिऐ एक हफ्ता उस गांव में काटना अब कुछ आसान हो गया था वह बारात का सीजन था ऐसी कई बारातें सामने वाले गांव से ऊपर नीचे उतरती रहती थी. इन चीटियों की बारात में ढोल-दमाऊ, मसकबीन, नगाड़े तथा नृत्य टोलियों में बाजे की धीमी पहाड़ी धुन के अलावा कोई अन्य संगीत नहीं होता था. मैं मन-ही-मन सोचती थी कि ये चीटियां कितनी रंगीन हैं. अलग-अलग रंग और उनके आगे अथवा पीछे चलते एक से रंग की चीटियां – जो बाजे बजा रही थी. बेहक मनमोहक दृश्य होता था. खामोश पहाड़ियों में इन्हीं बारातों का मघ्यम स्वर आज भी कानों में गूंज उठता है, जब कान फोडू संगीत के साथ बारात जाते देखती हूं. आज की बारात के संगीत और शोर-शराबे को बुजुर्ग उतना पसंद नहीं करते हैं किन्तु तब आसपास की पहाड़ियों से आती-जाती बारात को देखकर वे अपने घर से ही मांगल गीत गाने लगते थे – …शकुना दे …शकुना दे काजौ यो अति नीको.
मुझे इन्तजार रहता था, उसी बारात के दूसरे दिन ढलान में नीचे उतरने का. मेरी कोशिश रहती थी कि सुबह जल्दी उठकर इसी बारात को नीचे उतरकर लौटता देखूं. क्योंकि तब इनमें एक दो चीटियां की संख्या अधिक हो़ जाती थी. डोली में बैठी रानी चींटी यानि ब्योली (दुल्हन) और चमकीले कोट, लाल टाई और चमकीली पैंट में सजा उसका भाई. दूर से रंग खूब दिखते थे और खिलते भी थे. दुल्हन को लेकर लौटने वाले मसकबीन बाजे तथा नगाड़े की धुन और निशाण की चमक अलग ही होती थी. नगाड़े की धुन के साथ डोली में कभी दायीं ओर झूलती और कभी बांयी ओर. गठरी बनी विदा होती ब्योली की रुलाई उउउउउउउउउउउ… हूहूहूहू… ओ इजा… ओ बाबू… उउउउउउउउउउउ… हूहूहू… की आवाज दूर की पहाड़ियों तक और मुझ तक भी पंहुचती थी. जो सुनता उसकी आंख नम हो जाती थी, मेरी भी होती थी.
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नीलम पांडेय ‘नील’ देहरादून में रहती हैं.
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