समाज

दूनागिरी पर्वत पर बसा द्वाराहाट का विभाण्डेश्वर महादेव तीर्थ

दूनागिरी पर्वत उपत्यका में बसी द्वाराहाट की नयनाभिराम कौतुक भरी पर्वत घाटी धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि से समृद्ध होने के साथ ही सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से भी विशिष्ट बनी रही है. महाभारत कालीन इतिहास बताता है कि उत्तराखंड में उस काल  में पांच मुख्य हाटक गणराज्यों की  शासन व्यवस्था रही थी जिन्हें वैराट या विरहहाट, गंगोलीहाट या गंगावलीहाट, डीडीहाट, द्वाराहाट व गरुड़हाट कहा गया. द्वाराहाट के चौदह सौ वर्षों के बसाव में कत्यूरी राजा शालिवाहन का विशेष योगदान रहा. (Vibhandeshwar Temple Dwarahat Almora)

द्वाराहाट में ग्यारहवीं से सोलहवीं शताब्दी में निर्मित तीस मंदिर हैं तो तीन सौ पैंसठ नौले, प्राचीन शालदेव का पोखरा और इन के साथ कत्यूरी नरेशों के किलों के अवशेष जो उस काल के वैभव की कहानी सुनाते  हैं.

दूनागिरी पौराणिक दृष्टि से उन सात कुल पर्वतों में एक है जिसका उल्लेख विष्णु पुराण, वायु पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण , मतस्य पुराण,  कर्म पुराण,  श्री मदभागवत -पुराण एवं देवी पुराण में मिलता है. इन सात कुल पर्वतों में द्रोणागिरी वह  चौथा पर्वत है जिसे औषधि पर्वत कहा गया.

कुमुदषचौन्नतश्चेव तृतीयश्च बलाहकः
द्रोणो यत्र महौषसध्य स चतुर्थो महीधरः

 द्रोणागिरी रामगंगा के बायीं ओर स्थित है जिससे द्रोणी, वैताली व नंदिनी नदियाँ निकलती हैं. सुरभि और नंदिनी नदी के संगम स्थल पर स्थित है विभाण्डेश्वर महादेव.

विभाण्डेश्वर महादेव तीर्थ  द्वाराहाट के दक्षिण पांच कि.मी. दूरी पर स्थित रमणीक आध्यात्मिक स्थल है. स्कन्दपुराण के मानसखंड में इसकी अवस्थिति वर्णित है :

द्रोणाद्रिपादसम्भूता नन्दिनीति महानदी
सुरभि संगमे पुत्र ययौ  तीर्थें विराजिता.
तयोमध्ये विभाण्डेशं  जानिहि मुनिसत्तम.
 सुरभीनंदिनी मध्ये विभाण्डेशं महेश्वरं.

नागार्जुन पर्वत श्रृंखला से निकलती है सुरभि सरिता तथा द्रोणागिरी की तलहटी से निसृत है नंदिनी सरिता. सुरभि और नंदिनी के संगम पर स्थित विभाण्डेश्वर महादेव कुमाऊं में काशी की तरह मोक्षदायिनी मानी जाती है. मान्यता है कि  नागार्जुन स्थल में देवधेनु सुरभि गऊ माता अपना रूप परिवर्तित कर सरिता बन प्रवाहित हुईं.

विभाण्डेश्वर महादेव मंदिर शक सम्वत 376 (सन 301) में स्थापित हुआ. चंद राजाओं के शासन में मंदिर में नियमित पूजा अर्चना अनुष्ठान होते रहे. तदन्तर स्वामी लक्ष्मी नारायण महराज द्वारा यहाँ जीर्णोद्धार किया गया व अनेक मूर्तियां स्थापित की  गईं.

चैत्र माह के मासांत की रात्रि विमाण्डेश्वर महादेव मंदिर में ढोल, नगाड़ों और छोलिया नर्तकों के निनाद से गुंजायमान हो उठती है. शिव की भक्ति में रमे श्रृद्धालु समीपवर्ती ग्रामों से टोलियां बना अपने अपने निशान व झंडे लिए अगले दिन से शुरू बट पूजें के मेले में भागीदारी करने विमाण्डेश्वर में आ पहुँचते हैं.

शिव के साथ ही ईष्ट की पूजा अर्चना कर भोग चढ़ा, भंडारे के प्रसाद व भोजन से तृप्त हो रात्रि भर कीर्तन भजन होते हैं. झोड़ा, चांचरी और भगनौला में अंचल  के स्वर गूंजते हैं. सबमें स्याल्दे बिखौती के मेले में झूम जाने अपनी भक्ति की शक्ति से देवता को जाग्रत कर देने की ललक है. मेले में नौज्यूला आल और गरख दल के ग्रामवासी अपने नगाड़े निशान के साथ ओड़ा भेंटेंगे. मीना बाजार लगेगा. शीतला पुष्कर मैदान में खूब रौनक रहेगी. Vibhandeshwar Temple Dwarahat Almora

स्याल्दे बिखौती के मेले के साथ ही विभाण्डेश्वर महादेव में महाशिवरात्रि, जन्माष्टमी तुला संक्रांति और होलिका चतुर्दशी के साथ अन्य अवसरों में संस्कृति के संस्कार पूरी  धूमधाम से परंपरागत छवि लिए संपन्न होते रहे हैं. लोक विश्वास है कि सूर्य उगने पर जिस प्रकार उसकी ऊष्मा से हिम पिघलता है वैसे ही विभाण्डेश्वर महादेव के दर्शन, उसकी कृपा से मानव मन के पतित भाव तिरोहित हो जाते हैं.

तस्य कुक्षौ महादेवो विभाण्डेशेति  विश्रुतः
तस्य सन्दर्शनात पुत्र मनुष्याणां दुरात्मनाम
पातकानि  विलीयन्ते हिमवद  भास्करोदयो.

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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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