गायत्री आर्य

वहां प्रेग्नेंट औरतें बत्तख और प्रसव कर चुकी औरतें घायल सिपाही जैसे चलती थीं

4G माँ के ख़त 6G बच्चे के नाम – 52 (Column by Gayatree Arya 52)
पिछली किस्त का लिंक: जब नई-नवेली मां को मदद की ज्यादा जरूरत होती है, तब वह बिल्कुल अकेली होती है

ओ.टी. से निकलने के पांच दिन तक तो समस्या उतनी गंभीर नहीं थी, क्योंकि पेशाब की नली लगी थी, सो कहीं आना-जाना नहीं था. पर जब-जब भी, जिस भी कारण से मुझे बैठना होता था, तो यूं समझों मौत ही आती थी मुझे मैं तकिये का सहारा लेकर थोड़ा तिरछा सा होकर बैठती थी जैसे-तैसे, क्योंकि सीधा बैठने में मुझे तेज दर्द और खिंचाव होता था एनस में लगे टांकों में. बावजूद इसके कि मैं हाई डोज पेनकिलर ले रही थी. डॉक्टर ने बाद में बताया था, कि मेरा एनस 80 प्रतिशत तक फट गया था. इसलिए मैं ठीक से बैठ नहीं पाती थी दर्द के कारण. तुम्हें दूध पिलाना मेरे लिए एक नई समस्या बन गया था. एक तो मैं बैठ ही नहीं पा रही थी, दूसरा दाहिनी तरफ के निप्पल में दूध पिलाने में इतना तेज दर्द होता था, कि मन बहुत पक्का करने पर भी मैं तुम्हें उससे दूध नहीं पिला पाती थी.

लेकिन दूध बनने लगा था इसलिए उसका निकलना बेहद जरूरी था, नहीं तो गांठें पड़ जाती. सो दर्द से बचने के लिए मैं जैसे-तैसे कुर्सी पर बैठकर देर तक उंगलियों से अपना निप्पल दबाकर, अपना दूध कटोरी में निकालती थी. फिर कभी चम्मच, तो कभी बोतल से तुम्हें पिलाती. पर ये तरीका भी ज्यादा कारगर नहीं हुआ, क्योंकि अपने निप्पल को दबाकर दूध निकालने में मेरी उंगलियां दुखने लगती थी बुरी तरह से और उतनी देर बैठने में भी जान निकल जाती थी. हर दिन ऐसे लगता था रंग, जैसे नई परीक्षा देनी है. हर दिन एक नई जंग के मैदान में मैं खड़ी होती थी, जिससे लड़ने का न हथियार थे मेरे पास न ही कोई सहयोग.

हर रोज दर्द का नया दरिया मुझे पार करना था. जैसे कोई मेरे सब्र का इम्तिहान ले रहा हो. ऊपर से एम.एच. की नर्सों का व्यवहार इतना गंदा, इतना बेरूखा. यूं समझ लो कि बस गालियां देने की ही कमी थी. उनमें ज्यादातर नर्सें केरल की थीं. सिर्फ एक नर्स थी ‘देविका’ जो काम और व्यवहार दोनों में चुस्त थी. रात भर की डयूटी में भी वो ऐसी फ्रेश रहती थी, जैसे कोई सुबह-सुबह सो के उठा हो और तमाम नर्से तो सुबह काम पर आने से पहले ही थकी हुई, चिड़चिड़ी, पस्त लगती थी. उनके मुंह खोलते ही, उनके गाल पर एक तमाचा रसीद करने का मन हर बार होता था! सभी दाईयां भी बहुत ही रूखी थीं.

ऐसा लगता था रंग मानो वहां के डॉक्टरों, नर्सो और दाइयों को पेशेंट के साथ बुरा व्यवहार करने की ही ट्रेनिंग दी जाती हो. दाइयों को अक्सर एक-दूसरे से काम की शिकायत रहती थी, कि किसी और के हिस्से का काम उन्हें करना पड़ता है. साफ-सफाई, नाश्ता, खाना, बच्चे पैदा करवाना, छोटे बच्चों को दूध पिलाना, रूई के पैड़ बनाना, बिस्तर ठीक करना आदि काम दाईयां करती थीं. बाकि कामों से फुरसत पाते ही दाईंया रूई और पट्टियों के बड़े-बड़े थान लेकर नैपकिन बनाने बैठ जाती थी. लेकिन नैपकिन थे कि हमेशा ही खत्म रहते थे.

हॉस्पिटल में एडमिट सारी औरतें तो वहां पूरे दिन-रात खून ही बहाती रहती थीं, तो नैपकिन कैसे कम न पड़ते भला. दिन में दो बार दाई मेरा नैपकिन बदलती थी, दोनों बार डाक्टर के राउंड से पहले. इस बीच में यदि उनसे नैपकिन मांगे जाते तो ‘खत्म हो गए’ का ही जवाब मिलता था. कैसे उस गीले, गंदे, लाल सुर्ख, चिपचिपे नैपकिन में समय काटती थी मैं उफ्फऽऽ डाक्टर ने मुझे जख्म पूरे भरने तक हाथ से बने नैपकिन ही प्रयोग करने को बोला था. बाकि सबको लगभग दूसरे दिन ही अपने नैपकिन लाने का कह दिया जाता था. फिर भी उन पैड्स पर ऐसी मार थी, जैसे राहत कोश की सामग्री पर पड़ती है.

खैर, कुछ दिन बाद तो जब मैंने अपनी सास से इस बारे में कहा, तो वे ही नैपकिन घर से बनाकर लाने लगी थी, काफी राहत मिली थी मुझे.

नौ दिन मैं मिलट्री हॉस्पिटल में एडमिट रही, नौ दिनों तक मुझे हाई डोज एंटिबायोटिक चढ़ते रहे. पांच-छः जगहों से मुझे ड्रिप चढ़ी, क्योंकि बार-बार उन जगहों पर सूजन आ जाती थी. एक जगह तो पक भी गया था, पर बदतर होने से पहले संभल गया. लगातार एंटिबायोटिक और ग्लूकोज चढ़ाने के कारण मेरे दोनों हाथ हर जगह से बिंध चुके थे. अपने बैड से उठकर टॉयलेट तक जाना-आना जैसे सजा थी मेरे लिए मेरे बेटे! टॉयलेट  जो कि मुश्किल से 30-40 कदम दूर होगा. मैं लगभग घिसट-घिसट कर चलती थी, धीरे-धीरे…. वो 30-40 कदम का रास्ता भी कितना लंबा लगता था. तुम्हारी मां जो कि कॉलेज के समय में इतना तेज चलती थी कि कॉलेज में मेरा नाम ‘गांधी जी’ पड़ गया था, मेरी तेज चाल के कारण. आज वही गांधी जी जैसी तेज चाल वाली लड़की 30-40 कदमों का फासला ऐसे तय कर रही थी मानो चांद तक पैदल चलके जाना हो और चलते-चलते थक गई हो.

टॉयलेट, बाथरूम और वहां के पानी को देखकर लगता था, कि वो मिलट्री हॉस्पिटल नहीं बल्कि सार्वजनिक शौचालय है. पानी की गंदगी देखने के लिए किसी लैंस की जरूरत नहीं थी. लगता था जैसे जच्चाओं को कैदियों की तरह सजा मिली है, गंदा पानी प्रयोग करने की. औरतों की इज्जत का दिखावा करने वाली मिलट्री की असली पोल वहां खुल रही थी. ऐसी ही इज्जत करता है मिलट्री हॉस्पिटल अपनी महिलाओं की, नवजात शिशुओं की और नवप्रसूताओं की! ऐसा इसलिए था क्योंकि वहां अक्सर मिलट्री या एअरफोर्स के निचले रैंक वालों की पत्नियों की डिलीवरियां होती थी, ऑफिसरों की बीवियों की नहीं.

इस देश में रिचले रैंक वालों को, सबसे कम पैसे वालों को; निम्न आर्थिक तबके के लोगों को जीने का, सम्मान का, सुविधा का अधिकार नहीं है मेरे बेटे! पैसे और पहुंच वाला तबका जो हर चीज को खरीद सकने में, हर सुविधा को जुटा सकने में सक्षम है; सारी की सारी सुविधाएं, संसाधन, आराम सिर्फ उन्हीं के लिए बिछे रहते हैं और जो बुनियादी जरूरतों के लिए भी घिसटते रहते हैं, जिन्हें सुविधाओं की, सामान की, सम्मान की सबसे ज्यादा जरूरत है, उनसे सारी सुविधाएं और आराम हमेशा छीना जाता है. कितनी अंधरेगर्दी है न मेरी जान? भयानक अंधेरगर्दी और आंखें चुंधिया देने वाली रौशनी से भरी इस दुनिया में तुम्हारा स्वागत है मेरे बेटे!

वो मैटरनिटी वार्ड बड़ी ही अजीब जगह थी मेरे बच्चे. सुबह डिस्चार्ज के बाद जो बैड खाली हो जाते थे, दोपहर या शाम होते-होते वे सारे बैड फिर से भर जाते थे. चारों तरफ अलग-अलग रंग, रूप, आकार, धर्म, संप्रदाय, शक्ल की औरतें, लेकिन सबमें एक समानता थी. सबके पेट फूले हुए, सब मातृत्व के सागर में डुबकी लगाई हुई, सबको मां बनने की बेसब्री. किसी को पहली बार, किसी को दूसरी बार, किसी को तीसरी बार और सबके चेहरों पर प्रसव पीड़ा से गुजरने के भयंकर दर्द की एक समान छाया और डर.

नर्सें अक्सर कहती रहती थीं, ‘दर्द के वक्त सब कहती हैं कि अब और बच्चे पैदा नहीं करेंगी लेकिन फिर आ जाती हैं.’ मैटरनिटी वार्ड में सिर्फ डॉक्टर,  नर्सं और दाइयां ही थे, जो कि अपनी-अपनी सामान्य चाल से चलते थे. बाकि वहां भर्ती औरतों की चाल दो तरह की थी. जो प्रेगनेंट थी उन सबकी चाल बत्तख जैसी थी और जिनकी डिलीवरी हो चुकी थी, उन महिलाओं की चाल घायल सिपाही जैसी. धीरे-धीरे चलती, सरकती, तड़पती, लंगडाती. किसी के भी चेहरे पर किसी दूसरे से कोई हमदर्दी नहीं थी. सबकी सब बस खुद के लिए हमदर्दी चाहती थीं, क्योंकि सब एक ही अनंत दर्द की नैया में सवार थीं. या शायद सबको एक-दूसरे प्रति उतनी हमदर्दी थी, जितनी वे अपने लिए चाहती थी. या शायद उन सबकी गोद में जो नन्हें फरिश्ते थे, उसके कारण उन्हें किसी हमदर्दी की जरूरत नहीं थी. सच क्या है मैं नहीं जानती मेरे बच्चे. सच इन सबका मिला-जुला भी हो सकता है.

तुम्हारी मां का सच ये था कि वह दर्द के भयानक समंदर में डूबी थी, न जिंदा ही थी और न मरी ही थी! पता नहीं मातृत्व की रोशनी फूट चुकी थी या नहीं पर, मैं उस रौशनी में नहा नहीं पा रही थी.क्योंकि दर्द और जख्म का भयानक अंधेरा था, जो कि छंटने का नाम ही नहीं ले रहा था. मैं बस अपने लिए बेहद प्यार, तसल्ली, साहनुभूति और मदद चाहती थी. मैं चाहती थी की कोई जादू की छड़ी घुमाकर मेरे सारे दर्द भगा दे, ताकि मैं तुम्हारी ममता में डूब सकूं. मैं चाहती की कोई मेरे बालों में हौले-हौले से हाथ फेरता रहे, मुझे चूमता रहे, ताकि मेरे दर्द पर प्यार का मरहम लगे. मैं चाहती थी कि कोई हर समय मेरे पास हो मेरी मदद के लिए, तुम्हें देखने के लिए, संभालने के लिए. पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. जिस समय तुम्हारी मां को मदद की, प्यार की, चूमे जाने की, सांत्वना की, हमदर्दी की सबसे ज्यादा जरूरत थी; उस समय तुम्हारी मां बिल्कुल अकेली थी.

वहां दाइयां थीं मदद के लिए. पर सारी औरतें तो जख्मी ही थी, दर्द में डूबी थी, नवजात शिशुओं के साथ थी, फिर किसी एक जख्मी मां को भला ज्यादा मदद कैसे मिल सकती थी? और साहनुभूति के लिए वहां कोई जगह नहीं थी, क्योंकि दाइयों और नर्सों, सभी का मानना था कि औरतें खुद इस दर्द और जख्म के लिए जिम्मेदार थी. वे खुद मां बनने के लिए प्रसव कराने वहां आई थी, तो हमदर्दी की भला क्या जरूरत? जो दर्द हमने खुद चुना हो उसके लिए कोई भला क्यों हमदर्दी जताएगा? पर ये आधा सच है मेरी जान, हर बार मां बनने के लिए प्रसव के दर्द से गुजरने का चुनाव मांओं का नहीं होता मेरे बच्चे!

हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें: Kafal Tree Online

उत्तर प्रदेश के बागपत से ताल्लुक रखने वाली गायत्री आर्य की आधा दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. विभिन्न अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं में महिला मुद्दों पर लगातार लिखने वाली गायत्री साहित्य कला परिषद, दिल्ली द्वारा मोहन राकेश सम्मान से सम्मानित एवं हिंदी अकादमी, दिल्ली से कविता व कहानियों के लिए पुरस्कृत हैं.

काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री

काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें

Sudhir Kumar

Recent Posts

स्वयं प्रकाश की कहानी: बलि

घनी हरियाली थी, जहां उसके बचपन का गाँव था. साल, शीशम, आम, कटहल और महुए…

22 hours ago

सुदर्शन शाह बाड़ाहाट यानि उतरकाशी को बनाना चाहते थे राजधानी

-रामचन्द्र नौटियाल अंग्रेजों के रंवाईं परगने को अपने अधीन रखने की साजिश के चलते राजा…

23 hours ago

उत्तराखण्ड : धधकते जंगल, सुलगते सवाल

-अशोक पाण्डे पहाड़ों में आग धधकी हुई है. अकेले कुमाऊँ में पांच सौ से अधिक…

2 days ago

अब्बू खाँ की बकरी : डॉ. जाकिर हुसैन

हिमालय पहाड़ पर अल्मोड़ा नाम की एक बस्ती है. उसमें एक बड़े मियाँ रहते थे.…

2 days ago

नीचे के कपड़े : अमृता प्रीतम

जिसके मन की पीड़ा को लेकर मैंने कहानी लिखी थी ‘नीचे के कपड़े’ उसका नाम…

2 days ago

रबिंद्रनाथ टैगोर की कहानी: तोता

एक था तोता. वह बड़ा मूर्ख था. गाता तो था, पर शास्त्र नहीं पढ़ता था.…

2 days ago