चातुर्मास से आरम्भ खेती के काम रवि की फसल बो लेने के बाद ढीले पड़ जाने वाले हुए. चातुर मास खत्म होने पर ‘मेफाड़ा’  त्यार मनता जो यह संकेत देता कि अनाज की खेती बाड़ी के काम बहुत कुछ निबट गए. अब तो आ गयी हेमंत ऋतु. जाड़ों के दिन मतलब ह्यून. अब दिन छोटे होते जायेंगे. हवा ठण्डी होती जाएगी. कुहरा लगेगा. पहले पतली परत सा.फिर घनेरा. आमा कहेगी कस हौल लग गो यो रंकर! बजजर पड़ो यमें! पुर आंग अरड़ी गो. अब ब्वारी मर्चवानी बना लाएगी. साथ में गुड़ की डली भी या मिश्री का ठेपुक थमाएगी सास जु के साथ जेडजा,काखी सब को.बुड बाड़ों की चहा की कितली दिनमान भर चुड़कन ही रहने वाली हुई.
(Uttarakhand in the Winter Season)

पूस में सूरज का ताप कम चिताया जाएगा. कोहरा जरा छटेगा तो आसमां में लहर-लहर आयेंगे बादल. कभी पट्टियां सी बना देंगे. कभी रुई के छोटे -छोटे गोले और इनके बीच सूरज भगवान आँख मिचौली खेलेंगे. हौला धीरे धीरे दूर के पहाड़ों को पूरा ढकने की कोशिश करता दिखेगा. अब बस एक सबसे बड़ी चोटी को छोड़ सब ओर हौले यानी कुहरे की चादर फैली है.ये हौल बस तभी भागेगा जब हौ चलेगी खूब तेज. पर हवा चलना तो और कुड़कुड़ाट करता है.हाथ मुंह अलग फाड़ देता है. सफ़ेद जर्ज़रा बना देता है. फिर कभी मोम घी चुपड़ो या एकबट्या के रखा च्युर वाला घी.

गरम ऊनी कपड़े लन्तरे काले लोहे के संदूकों से निकल गए हैं. कई लकड़ी वाले भारी बक्सों में भी ठूंस रखे हैं काले-भूरे-काईया रंग के भेड़ के ऊन से बने स्वीटर, बनेन, फतुई, बंद गले वाले कोट, गरम टोपी जो जर्ज़रे तो होते पर बदन को सेक भी देते. इससे मुलायम होता सफ़ेद और राख के रंग वाला ऊन जो खूब मुलायम होता और गरम भी. मारछा, भोटिया और सीमांत की रक्षक जनजाति इन्हें कात बुन नाना रूपों में समेट सर गला बदन हाथ पाँव को ढकने लायक कर पहाड़ का हीटर बनाती. जुराब, अंगुस्ताने, मफलर, टोपी, कँटोपी, बंदर टोपी, स्वेटर, बनेंन के साथ शौल भी. पहाड़ी बकरी व भेड़ के बहुत नाजुक मुलायम बालों के रेशे से बुना पशम जो खूब ही गरमी छोड़ता.पशम होना हैसियत भी जताता.

ओढने बिछाने के भी पूरे जतन होते. कहाँ-कहाँ खोंसे दबे चुटके,तह किए कम्बल निकाले जाते. पांच -सात किलो वाली रजाई धूप में डाल पटपटा ली जाती. उधर उनके खोल खूब रगड़ धो -धा सफ़ेद दिखने के पूरे जतन होते. यहाँ वहां टांज में पतेड़े ऊनी शौल जनाना मरदाना पंखी लोई निकाल लिए जाते. काम के लायक बाहर कर बाकी वापस पुंतुरे में लपेट दिए जाते.बारिश के मौसम से ही ऊनी कपड़ों में जो सिलाप जैसी बास आती धूल गर्द सिमट जाती उसकी झाड़ पोंछ जरुरी होती. सबसे आसान यही होता कि धूप दिखते ही छत पे डाल दो और ढलते ही उठा भीतर कर दो नहीं तो शाम से ही झरने वाला पाला अजीब स्योदेंन कर देगा.फर्श पर पुआल के गद्दे बिछाए जाते इनके ऊपर ऊनी दरी और दन.अब ये सब बदन को ताप देने वाले हुए. पर जाड़े का चिताया जाना तो बाहर धम धुकुड़ी कर होने वाला हुआ. इसके लिए गिंडे पहले से ही काट कूट एकबटया दिए जाते. सग्गड़ भी सुलगते. अब सामने की तरफ तो आग आंग सेक देती पीछे पीठ को भी बीच बीच में आग की तरफ फरका लिया जाता. इसके आगे की ठंड तो बस जाड़ों में खाये भोजन पदार्थों से ही मिटती.

जाड़े लगते ही खाने-पीने का स्वाद भी बदल जाता. जाड़ों में खाया पिया सब बदन को खूब लगता जो साल भर दुरुस्त भी रखता. घी दूध दन्याली के इंतज़ाम होते. अब हरी सब्जियों की बहार होती. फसल का काम तो धीमा ही समझो पर सब्जी की क्यारियों में खूब मेहनत की जाती. हरे साग के लिए गोबर के थूबड़ों में बांज के पत्तों की अधिकता वाली खूब गली सड़ी काली भुरभुरी खाद डाली जाती जो सबसे बढ़िया मानी जाती.
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खेतों में छोटी-छोटी क्यारियां बना कुटले से खोद इन्हें एकसार किया जाता. फिर इनमें पहाड़ी पालक, मेथी, लाई, धनिया, हालंग या चमसूर बोई जाती. मोटा लाषण उगाने का भी सही टैम होता. पालंग के कंटीले बीज पहले गुनगुने तात पानी में भिगा दिए जाते.फिर क्यारी में डाल मिट्टी में एकसार कर बोरी- कट्टे या घास -पूस से तब तक ढके रहने दिए जाते जब तक अंकुवे न फूट जाएं. पालक मेथी जरा घने ही बोये जाते इससे इनके बीच घास फूस भी नहीं जमती. ऐसे ही हालंग या चमसूर भी बोया जाता. ये भी खूब गरम तासीर का होता. बदन पैर जोड़ दर्द और प्रसूत की दवा भी मानी जाती.

लाई की भी अलग -अलग किसम हुई. वो लाई सबसे अच्छी मानी जाती जिसके डंठल भी मुलायम हों और पत्ते झुरमुरि गए हों.बढ़िया लाई में तो ज्यादा तेल डालने की भी जरुरत न पड़ती. क्यारियों में टाइम टाइम पर राख भी डाली जाती. इससे रात में गिरने वाला छारा तुषार भी पौंधे सहन कर लेते.नहीं तो ठंडे में जल जाएं. जड़ काटने -कुतरने वाले सफ़ेद कुरमुले भी न पनपते राख से. गोबर की खाद और राख से इन सागों की हरी पत्तियां भी काला पन लिए उगती. लाई तो पकाते समय धोने में ही पानी काया बैगनी कर देती. इन सब्जियों में लोहे की कढ़ाई में बस कडुआ तेल, लाल खुस्याणी के कोसे और डले वाला लूँण ही गज़ब स्वाद पैदा कर देता. आटे या चावल का बिश्वार डाल पालक का कापा भी खूब धोट कर बनता तो मेथी दही, छांछ के साथ बनाई जाती.

धान्य फसलों में कितना ही जाड़ा पड़ जाए गरम गुण वाली दालों के साथ मोटा गुलगुला भात खाना नहीं छूटता.फिर चावल की अलग अलग किस्मों से खीर, खिचड़ी, जौला, चीला और चावल की रोटी तो बनती ही, खाजा, सिरोले, च्यूड़े, खजिया भी बना लिया जाता. मादिर या झिंगोरा का भात, जौला और खीर की बारी भी बीच बीच में लगती. ऐसे ही कभी कभार कौणी का भात और जौला भी जिसकी तासीर बहुत गरम होती.कोई भी पर्व या भला काज हो तो पुए सिंगल तो बनने ही हुए.

असली ताकत तो फिर ग्युं से ही मिलने वाली हुई जिसे टेक कहते. सुबे शाम रोटी ही चलने वाली ठहरी. रोटी के साथ कभी -कभार पूड़ी, लगड़, कचौड़ी परांठा तो हुए ही.लेसु रोटी, बेडुआ रोटी, छोली रोटी भी बनने वाली हुई. आंग तताने को आटे का हलुआ भी. तो सेणियों के ज्यादा ही पुठपीड़,आंग -पीड़ होने पे घी में मडुआ भून गुड़ पड़ा “ल्योट” जो नस नस फड़का देने वाला हुआ. इसके वास्ते बस फट फट काम वाला चुस्त आंग होना जरुरी, ल्यांग पड़ी काया तो खाते ही छेरी जाए.
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बच्चों के लिए गेहूं भून दरदरा देने के बाद दड़बड़ दलिया भी बने.पर उन्हें गुड़ पापड़ी अच्छी लगे.कभी झुरमुरि और पुरचंटी भी बने ग्युं से, पर सबको इनका सीप नहीं आने वाला हुआ. कभी जौ की रोटी भी,पर इसकी तासीर ठण्डी हुई इसलिए बुड बाड़े मना करते हैं खाने को. अब जिनकी पिशाब में चींटी चले,यानी चीनी वाली बीमारी या हर बखत मुतभरीने का रोग पकड़ ले तो उनके लिए जौ की रोटी और काले भूरे तिल के लड्डू का मेल दवाई का काम करे.जुनले या भुट्टे के आटे की रोटी भी बने. यह गरम तासीर का हुआ इसलिए इसका जौला और हलुआ गरमागरम खाया जाए.

सबसे अधिक पसंद तो मडुआ हुआ. दोण की छाल मिला इसकी रोटी बनाने में टूटती भी नहीं व फूल भी जाती. घी चुपड़ गुड़ के साथ दबा लो. मडुवे की लेसु रोटी, बेडू रोटी भी बने तो फाना और हलुआ भी.चुए के बीज भून कर जब ये फूल फरफरा जाएं तो इनमें गुड़ का पाग मिला लड्डू बना खाये जाऐं. उगल के आटे की छोली रोटी, पुवे और पकोड़ी भी बने.

 सबसे अधिक गरम और जाड़ों में ताकत बनाये रखने को दालों का योग हुआ. इनमें भट्ट का भटिया, रस और चुड़कानी, चावल के मेल से भट्ट का जौला और डुबके बनते हैं. गहत की दाल अन्य दालों के साथ मिश्रण में, गड़ेरी मिला कर ज्यादा बनती है. अकेले में तो छितरी जाती है.ऐसे ही रेंस, ग्रूँस, राजमा, उर्द, लोबिया, चना, मोठ सुट्टा आदि दालें जाड़ों में ज्यादा खायी जातीं हैं.दाल सब्जी में दुन, जम्बू, दालचीनी-तेजपत्ता, कलोंजी, भंगीरा, बड़ी इलायची, गंद्रेणी का प्रयोग बढ़ता है. इन मसालों की खुशबू ही तात बढ़ा देती है.

रातें लम्बी होती हैं तो टैम -बेटेम और कौतुकों की भी गुंजाईश हुई. ब्याल हुई नहीं कि ढोलक मजीरे पर भजन ठुनकने लगते हैं. नतियों के साथ बैठी आमा पुरानी काथ सुनाते अपने बीते दिन याद करती है. कथाएं भी चलतीं हैं, आण भी.पहेली भी. यही वो सही समय होता है जब ठंड में खूब गड़ोद -गादोड़ कर लोक गाथाओं के वाचन से भीतर भी शौर्य जगा लिया जाए. वैसे तो यह खर मास हुआ पर मंद पड़े सूर्य देव के साथ भगवान जी पुज पाति से खूब खुश हो जाने वाले हुए. देव दर्शन भी फल दाई हुआ. सो आसपास के देबता थान चहल- पहल से भरे होते हैं.

पूस के माह इतुवारों को उपवास रखे जाने की रीत हुई अब जो कर सके उसके लिए तो बहुत नियम हुए.कहीं कहीं ढील भी दी जाने वाली हुई. सूर्य देव की पूजा भी सूर्योदय के समय ही की जानी इष्ट मानी जाए. इतुवारों को किए जाने वाले बर्त में दूध पीना और नमक -लूँण खाना भी वर्जित हुआ.सूर्योदय के बाद जब तक उनकी पूजा न हो, जल न चढ़े सूर्य देब पर तब तक गरम पानी छूना, चाय पीना और आग सेकना भी मना हुआ.

पूस की ही रातों में कांसे की थाली, ढोल-हुड़के की थाप पे देबता भी अवतरित किए जाते. कहीं गंगनाथ जू तो कहीं भोलानाथजी. भोल ज्यू तो जब आ गए तो बड़े शांत, बोलते भी धीरे-धीरे, कुछ बतायें तो जैसे सलाह दे रहे हो. वहीं गंगनाथ फटाफट सवाल-जवाब करें. निबटारा भी वहीं. छुरमल, गणमेश्वर ज्यादा चीख पुकार से आते. उग्र हुए ये. गुस्सैल भी.

तो मसाण, देबताल के आगमन पे कम्प-डर-भय. कम्प में गणमेश्वर की टांगे तो लकड़ी के गिंडे जैसी स्थिर हों पर धड़ से ऊपर का बदन सर हाथ इतनी तेज हिलें जैसे आंधी में जवान पेड़. अभी घात वाले देव-देवता भी होने वाले हुए. लाग डांठ भी पहाड़ में हुई ही किसी न किसी से मन मोसियाया ही रहने वाला हुआ. सो अपने बैरी के छल बल को मिटा डालने के लिए देबता से पुकार लगानी हुई. यही घात हुई. जिनमें क्षेत्रपाल या खेतर पाल, कालिका और नरसिंग खट्ट से बिनती सुन लेने वाले हुए.
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नरसिंग भी दो टाइप के हुए, पहला दुध्या जो रोट-दूध से खुश हो जाता है और थाली डमरू से नाच जाता है. नाचने वाला लोहे की सांकल को अपने बदन में मारता है बस. अब अगर किसी को अचानक कोई कष्ट विपदा आ जाए तो उसे नर सिंग को दोष या गोरिल समझा जाता है अब जिस परिवार में इसका दोष सपड़ गया तो ये फिर बलि लिए बिना मानता भी नहीं दूसरा खैराड़या हुआ जो भयानक माना जाता है. अब किसी से किसी मामले में जबरदस्त ठन जाए तो इन्हीं की शरण हुई. इनमें मशाण तो बहुत ही तंग कर देने वाला हुआ. इसमें एक जल मशाण हुआ जो छोटी लड़कियों पर चिपटता है. तब जब वो पानी वाली जगह पर गिर गुरा जाएं. अभी हंतया की भी झसक होती है जो अपने ही परिवार राठ पे चिपटता है.

कोई देबता जगरिये को शांत भाव देते तो कई सर्वांग हिला नचा देते. जहां अक्षत पड़ गए वहां पूछ भी शुरू. अभी ऐसे ही मौकों में परी-चरी की फसक भी शुरू हो जाने वाली हुई. इनमें एक दुध परी भी होने वाली हुई. बर्दानी हुई ये. आंचरियों के भी किस्से हुए. अब जो बिन ब्याही कन्याएँ बेटेम ही भगवान जी की प्यारी हो जाएं वो ही आंछरी बनी. बताते हैं ये सब अपना गुट बना समूह में इकट्ठा हो जातीं और अपनी मनपसंद चीज हर लेतीं. पीले कपड़े पहनतीं और पीले फूल पसंद करतीं. दूसरी ओर लाल कपड़े और लाल फूल पसंद करने वाली मांतरी कहलाती. जब कोई लड़की या सैणी चटक कपड़ों में होतीं तब ये उस पर अपना प्रभाव डाल देतीं हैं उसका दिमाग मून देती. और पूजा में मुर्गा पा खुश हो जातीं.

बरफ से लकदक पहाड़ में लाल कपड़े पहिन कर न जाने पर बुड बुड़े खूब रोक-टोक भी लगाने वाले हुए.वहीं से चढ़ जातीं हैं परी आंचरी. अभी डागिनी या डेणी भी हुई जो डायन कहलाती. अभी जाड़ों की ऐसी ठण्डी में जब मौसम साफ हो तो दूर जंगलों में अँधेरी रात में टोले भी दिखने वाले ठेरे. आग का पीला सा गोला घुप्प अंधियारे में चम्म चमकेगा फिर गायब. अब ज्यादातर तो इसे भूत पिशाच मानने वाले हुए पर जरा समझदार कहते हैं कि फोस्फोरस हुआ ये. जानवरों की हड्डियों में.जब हवा का झोंका इससे टकराये तो धप्प करेगा. आग जैसी सुलगाएगा. दूर से देखने में हिलता डुलता नजर आएगा.कुछ भी हो नानतिन तो क्या कमजोर दिल वालों के तो फड़फडेट होइ जाने वाली हुई.

अब ह्यून के दिनों में खेती पाति सिमटी रहती, लूटों में घा पहले से जमा. इतनी अरड़ में लुकुड़े लत्ते भी थोड़ी कम ही धुलने वाले हुए. सूखें भी कहाँ तो कुल जमा काम- धाम कम ही हुआ सो जाड़े में आग जला सग्गड़ सुलगा फसक बाजी काथ कहानी गीत संगीत की बहार हुई. साथ में टाइप टाइप की चहा, आद वाली, काली मर्चा वाली अज्वाइन वाली जो कितली में ख़ौलते रहे घुटुकी लगती रहे.

पूस के माह के आखिर की रात मकर संक्रांति की पुस्यूड़िया मनाई जाती है. यही हुआ घुघुतिया. ये ऐसा त्यार जिसका साल भर से बाल -गोपाल इंतज़ार करने वाले हुए. पूस के मासांत की रात को आटे में गुड़ डाल उसे थोड़े दूध पानी के साथ गूँध फिर बनाये जाते घुघुते. शाम से ही और काम निबटा आराम से फर्श पे दरी फीणा बिछा आलथी पालती मार बैठे, सग्गड़ में भी क्वेले डाल दिए ताकि कमरा गरम रहे. अब बड़े हाथ बना रहे ढाल तलवार दाड़िम का फूल और हुड़का और छोटे हाथ देखादेखी अपना डिज़ाइन बना रहे. टुकाई भी खा रहे.

घुघुते अनेक आकारों में बनते हैं. आटे में घी का मोयन डाल गुड़ के पानी से गूँथ फिर हथेली में गोल लम्बाई में ले कर सांकल जैसा आकार देकर मोड़ दिया जाय तो यही घुघत हुआ आमा ईजा की नज़र इस बात पे भी है कि संक्रांति का भोग बनाते कोई नानतिन की ऊँगली नाक का पोछा न लगा रही होमाल मसाले में. ब्वारियां भी अनजाने यहाँ वहां खुजा फिर आटे की लोई पे हाथ धर देने वाली हुईं. सो साफ सफाई पे जोर बहुत हुआ.अब इन्हीं के साथ बड़ी मोटी लोई बेल उसे लोहे के चक्कू से काट खजुरे भी बनेंगे. सब बड़ी थाली या परात में थोड़ी देर सूखने के लिए धरे जाते हैं. उड़द की डाल पीस उसमें हींग अज्वाइन मिरच लूँण डाल छेद वाले बड़े भी तलेंगे. ये सारी तैयारी के बाद बड़ी कढ़ाई में घी तेल डाल तलने का काम चलेगा. कई बार तो सग्गड़ में ही जांती लगा वहीं गोठ या चाख में सब माल तला जाएगा. सबसे पहले एक डाला जाता वो जब सही टाइम में सिक जाए तो अंदाज हो जाता कि घी तेल सही गरम है. डालडा भी तलने के लिए बहुत सही होता इससे खजुरे कुरकुरे बनते. अब जो पहला खजुरा तल गया उसे पणयू से निकाल वहीं अग्नि को समर्पित कर देते. एक दो खजूरों कि टेस्टिंग भी होती. अगर मुलायम हैं तो ठीक, कड़कडे सिके तो जिस ब्वारी बेटी ने आटा गूंथा उसकी शामत कि सही अंदाज से घी मोयन नहीं मिलाया. पता नहीं कब आएगा सीप. कुछ पूरियाँ भी तली जाती और सुबे कववे को देने के लिए एकबटया ली जांती. अब लम्बी मोटी सुई भी ऊन या मोटे धागे को दुहरा कर माला बनती.कहीं कहीं इन्हें भाँग के रेशों से बनी डोरी में पिरोया जाता था.
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ये मालाएं 11,21,51,108 के अंकों में घुघुतों से बनती हैं. हर माला में खजुरा, ढाल, तलवार, दाड़िम फूल, घुघुते थोड़ी साबुत मूम्फ़ली, गोल सफ़ेद तालमखाना के साथ बीच में छोटी नरंगी गछयाई जाती. कभी कभी नरम नाजुक वाली बिलेती मिठाई भी रैपर सहित.परिवार में जितने बच्चे हैं उतनी मालाएं तो हर हाल में बननी ही हैं. अब मकर संक्रांति मनाने और काले काले कर कौवों को बुलाने में सरयू वार और सरयू पार का भी भेद हुआ.सरयू नदी जो बागेश्वर में संगम में मिलती है उसके उत्तर में जो इलाके हैं गंगोली, सोर और कुमू वहां मासांत को त्यार मना संक्रांति के दिन कौवा बुलाया जाता है. दूसरी तरफ सरयू के दक्षिण वाले भाग में संक्रांति को त्यार मना दो गते माघ की सुबे काले काले घुघता खाले की पुकार होती है. कौवे से मन्नत भी मांगी जाती है.ले कौआ पुलेणी मैकें दे भल भल धुलेणी.ले कौवा पूलो मैकें दे भल भल धूलो.

ये भी कहा जाता है कि कउवा बागेश्वर में संगम पर नहा धो के आता है. अब पुस्यूड़िया के दिन हर घर में सुबह सबेरे उसे धाल लगती है इसलिए इंतज़ार बहुत कराता है. संक्रांति के दिन का भात और बड़ा भी कौवे के लिए रखा जाता है.

घुघूती त्यार जाड़ों का सबसे महत्व पूर्ण त्यौहार हुआ. इसके मनाने के पीछे एक कथा यह सुनायी जाती है कि कुमाऊं के राजा कल्याण चंद के मंत्री ने राज्य हड़पने के लिए राजकुंवर निर्भय चंद जिसे लाड़ से घुघूती कहते थे का अपहरण करा दिया. तब एक कौवे ने कांव कांव कर खोजबीन में लगे परिजनों को घुघूती का सुराग दे दिया. राजा कौवों से इतना खुश हुआ कि उसने संक्रांति पर इनका मुहं मीठा कराने का त्यार ही घोषित कर दिया. नाम भी इसी लिए घुघूती त्यार पड़ा. सामाजिक राजनैतिक दृष्टि से भी यह दिन उत्तराखंड के इतिहास में महत्वपूर्ण बना.14 जनवरी 1921 को कुमाऊं केसरी बद्री दत्त पाण्डे के नेतृत्व में कुली बेगार प्रथा का अंत बागेश्वर के सरयू घाट पर किया गया.

मकर संक्रांति पर सूर्य देव मकर राशि में प्रवेश कर जाते हैं इसलिए इसे सूर्य पूजा की मान्यता के रूप में मनाये जाने का चलन है. गढ़वाल में टिहरी -उत्तरकाशी इलाके में इसे ‘खिचड़ी संक्रान्त ‘के रूप में मनाया जाता है. लाल चावलों में उड़द की दाल के साथ खूब घी डली गीली गीली खिचड़ी बनाने का चलन हुआ.साथ में भुटी लाल मर्चा भी पड़ती है. वहीं भागीरथी उपत्यका के सीमांचल में ग्रामवासियों के द्वारा काले -भूरे तिल का बकरा बनाने का रिवाज रहा. इसे काट कर अपने नाते रिश्तेदारों में बाँटा जाता है. मकर संक्रांति से मिलती जुलती यह रीत कई अन्य भू भागों में भी प्रचलित है. सिंध में इसे ‘तिलमुली’, पंजाब में ‘लोहड़ी ‘और बंगाल में ‘लोहड़ी’ कहा जाता है.असम में इसे बिहू व तमिल में पोंगल कहा जाता है. टकनौर के इलाके में सिंध और बंगाल के रीत रिवाज का असर दिखाई देता है. ठीक वैसे ही जैसे इस अवसर पर बागेश्वर में उत्तरायणी का मेला लगता है मकर संक्रांति पर उत्तरकाशी, देवप्रयाग और टिहरी गढ़वाल में भी मेले लगते हैं.इस पर्व में हरिद्वार, प्रयाग, काशी, अयोध्या, पुष्कर, नासिक के साथ ही अरुणाचल में परशुराम कुंड व बंगाल में गंगा सागर जैसे तीर्थों में स्नान -दान व सूर्य पूजन किया जाता है

रवाईं -जौनपुर इलाके में पूस के त्यौहार की शुरुवात ‘लटका’ से होती है.इस दिन बाड़ी का पकवान बनाया जाता है. रंवाई -जौनपुर में ही सत्ताइस गते को ‘बंधान’ मनाते हैं जिसमें छानियों में जानवरों के साथ रहने वाले पशुचारक खीर बनाते हैं और नागराजा की पूजा प्रार्थना कर उन्हें अर्पित कर भोग लगाते हैं. अब महा मकर -संक्रान्त से एक -दो दिन पहले मासांत के दिन या एक दिन पहले ‘मरोज’ मनाया जाता है. इसमें हर परिवार अपनी हैसियत के हिसाब से एक से लेकर चार खस्सी काटता है. अनाज की शराब बनाई जाती है. ग्रामवासी खूब रंग बिरंगी भड़कीली वेशभूषा धारण कर ढोल बजा सामूहिक नृत्य करते हैं. बकरे काटने के बाद उनका शिकार घर -घर बनता है और रात होने पर अपने बिरादरों खास लोगों के यहाँ जा कर सामूहिक पंगत बैठती है. इसे ‘बाई दूज’ भी कहा जाता है.

मरोज के आठवें दिन खस्सी बकरे का सिर पकाया जाता है इसे ‘अट्ठा खोड़ा’ कहते हैं. यहाँ बकरे को काट कर नमक और विशेष मसाले लगा लटका दिया जाता है जब यह सूख जाए तो साल भर तक छोटे टुकड़े कर पकाने के बाद इसे खाया जाता है. मसालों के साथ लम्बे समय तक रखने पर इसमें हल्का च्यूं व खमीर चढ़ जाता है जिससे इसका स्वाद बढ़ जाता है. रवाईं -जौनपुर में ये आयोजन पौष माह के अंतिम दिन से शुरू किऐ जाते है और पूरे माघ मास तक चलते रहते है.

पूस के आखिरी दिन मकर संक्रांति को लाल वस्त्र बिछा कर उसमें अक्षत का अष्टदल बना कर सूर्य देव को मंत्रोचारण द्वारा स्थापित करते हैं. षोंडशोपचार पूजा की जाती है. आदित्य ह्रदय स्त्रोत का पाठ किया जाता है, ” ॐ नमो भगवते सूर्याय, ॐ सूर्याय नमः ” मंत्र का जाप करते हैं. तिल घृत मेवे का हवन किया जाता है. बस माघ लगेगा तो पहाड़ का शीत भी कम होने लगेगा. फिर नये काज होंगे.
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प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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  • 'हेमंत ऋतु में पहाड़' क्या बात है! आंचलिक भाषा और जानकारी का खजाना पहली बार देखा।
    मृगेश को दिल से आशीर्वाद!

  • 'हेमंत ऋतु में पहाड़' क्या बात है! आंचलिक भाषा और जानकारी का खजाना पहली बार देखा।
    मृगेश को दिल से आशीर्वाद!

  • ह्यून के महिने की रौनक को आँचलिक शब्दों के साथ पिरो कर जिस तरह से परोसा गया है उसका जवाब नही।
    मुझे तो मेरा बचपन याद आ गया, वो पुराने लोग भी याद आ गए जो आज भी मेरे जीवन का अनमोल हिस्सा हैं, लेकिन वो अब इस दुनिया में नहीं हैं, उनमें से एक मेरी आमा थी और उन यादों के साथ आँखों में कुछ आँसू भी आ गए।
    🙏

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