इस बार पुट्टन चाचा पहाड़ से वापस आए तो उनके कैमरे में गदेरों से ज्यादा धुंआ भरा था. फोन गैलरी में कहीं लंबा जाम लगा था तो कहीं जंगलों का मसान लगा था. (Uttarakhand Devastated by Silly Practices)
घर में घुसते ही पुट्टन चाचा ने ऐलान कर दिया कि बस, हो गया पहाड़! मैंने पूछा क्या हुआ तो बोले, पहाड़ों को स्पेस चाहिए. मेरा माथा ठनका. मैंने पूछा कि पहाड़ में तो पहले ही इतना स्पेस है कि इस साल हर पांचवा मैदानी वहां जाकर घुस गया है. पुट्टन चाचा गंभीर हुए और पूछा- ‘प्यार करते हो?’ मैंने कहा – ‘बिलकुल. बल्कि बार-बार करता हूं.’ ‘तो प्रेम में स्पेस देने का मतलब जानते हो?’ चाचा ने पूछा. मैंने कहा, ‘हां, स्पेस नहीं देंगे तो प्रेम खिलेगा कैसे?’ ‘तो पहाड़ों से प्यार करते हो, तो उन्हें सांस लेने दोगे या वहां घुसकर उनकी हर गुफा-गदेरे भर दोगे?’ चाचा की इस बात पर मैं चुप. (Uttarakhand Devastated by Silly Practices)
पुट्टन चाचा और पाउट्स वाली चाची
केदारनाथ में रोजाना लगभग सत्तर हजार लोग पहुंच रहे हैं और पहुंचकर ढोल बजाकर भांगड़ा कर रहे हैं. देखने वाले देख रहे हैं, हंसने वाले हंस रहे हैं और कोसने वाले कोस रहे हैं जिससे नाचने वालों को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है. इस बंदरपने के बाद लोग वहां आलू का जला हुआ पराठा ठूंस रहे हैं जो इन दिनों डेढ़ सौ रुपये प्रति पीस बिक रहा है.
वैसे पुट्टन चाचा की बात और उनका दुख, दोनों सही है. हल्द्वानी से मेरे मित्र अशोक पांडे बताते हैं कि हालात यह हैं कि नैनीताल से हल्द्वानी आने में इस वक्त चार से छह घंटे लग रहे हैं, जबकि यह रास्ता घंटे भर का ही है.
आसनसोल में पढ़ाने वाले राजेश कुमार की चिट्ठी आई है. वे उत्तरी सिक्किम में साढ़े पांच हजार मीटर की ऊंचाई पर गुरु डोंगमर झील पर पहुंचे. ऊंचाई के कारण यहां इंसान सामान्य से 50 फीसद कम ऑक्सीजन खींच पाता है. लेकिन उन्होंने पाया कि वहां की भी आबोहवा में जाम और डीजल भरा है.
एवरेस्ट पर तो हमने जाम लगा ही दिया है, अब चांद की भी तैयारी है. इस जाम में दो-चार निपट जाएं, तो कोई गम नहीं, बस मजा आना चाहिए.
मजा बड़ी चीज है, और मजे के सिवाय जीवन में अब बचा क्या है? मजे-मजे में इंसान स्लॉथ से लेकर मैमथ तक खा गया. धरती के 195 टुकड़े कर दिए. इसी मजे के लिए सरकार जंगल काट रही है, पहाड़ खोद रही है, ऑल वेदर रोड बना रही है और दांव बैठ गया तो किन्हीं गुप्ता जी को किराए पर दे दे रही है.
मुख्यमंत्री कहते हैं कि पहाड़ मजे के लिए हैं! कोर्ट कहती है कि मजा कर रहे हैं तो फाइन भरिए! लोग कहते हैं कि फाइन लीजिए और चुप रहिए. मैं चुप हूं. पुट्टन पहले ही चुप हैं. पता नहीं मजे में वे चुप क्यों नहीं हो पाते?
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बिल्कुल वाजिब कहा आपने। मजा - मजा के चक्कर में अब कुछ भी बहुमूल्य सहेज कर रखने का आग्रह गायब हो चुका है। हिमालय पूरी दुनिया में साहब एक ही है, न चेते और विकास वादी अहंकार से बाहर न निकले तो एक दिन कुछ नहीं बचेगा। हिमालय बचेगा तो बचेगी मानवता। राहुल आपके दुख से में भी इत्तफाक रखता हूँ।