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कुमाऊनी बोली के प्रकार

ग्रियर्सन, गंगादत्त उप्रेती तथा बद्रीनाथ पांडे और राहुल सांकृत्यायन ने कुमाऊं में प्रचलित बोलियों के नमूने दिए हैं. एक उदाहरण द्वारा बोलियों का अंतर स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है. पंडित गंगादत्त उप्रेती जी ने भी कुमाउंनी बोलियों का अध्ययन किया है और इन बोलियों के भेद को एक उदाहरण देकर समझाया है. इसे हिंदी में नीचे दिया जा रहा है –
(Types of Kumaoni Language)

एक समय में दो विख्यात शूरवीर थे, एक पूर्व दिशा के कोने में, दूसरा पश्चिम दिशा के कोने में रहता था. एक का नाम सुनकर दूसरा जल-भुन जाता था. एक के घर से दूसरे के घर पहुंचने में बारह वर्ष तक चलना पड़ता था.

हिंदी के ही प्रभाव क्षेत्र में होने के कारण आज की कुमाउंनी में इस उदाहरण का परिनिष्ठित स्वरूप इस प्रकार होगा –

कै समय में द्वी नामी पैक छी. एक पूरब दिशाक कुंण में दुसर पछौंक कुंण में रौंछी. एकक नाम सुणिबेर दुसर रीस में भरी रौंछी और एकाक घर बटि दुसरक घर पुजण में बार वर्ष लागछी.

स्वाभाविक है कि ग्रियर्सन, गंगादत्त उप्रेती आदि ने विभिन्न बोलियों के जो रूप दिए हैं उनमें प्राचीन कुमाउंनी की छाप है. परंतु आज परिस्थिति बदल गई है. शिक्षा के प्रचार, हिंदी के प्रभाव तथा वैज्ञानिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में नवीनता ने कुमाउंनी को भी नया स्वरूप प्रदान किया है और यह भाषा अपनी परंपरागत विशेषताओं के साथ-साथ हिंदी के ही स्वरूप को अपनाती जा रही है. अब विभिन्न बोलियों का संक्षिप्त वर्णन तथा उपर्युक्त उदाहरण का विभिन्न बोलियों में परिवर्तित रूप देना समीचीन होगा.

खसपरजिया

कहा जाता है कि बारामंडल की खासपर्जा पट्टी के आधार पर इस बोली का नाम खासपर्जिया या खसपरजिया पड़ा. यह बोली बारामंडल और दानपुर के आस-पास बोली जाती है. इसे विद्वानों ने खास प्रजा की बोली माना है और कुछ लोगों ने ‘खस’ शब्द के साथ इसका संबंध जोड़ा है. खसपरजिया क्षेत्र के उच्च वर्ग के लोग परिनिष्ठित कुमाउंनी बोलते हैं. इसे अल्मोड़िया बोली भी कहा जाता है. ग्रियर्सन ने अपने भाषा सर्वेक्षण में इसके बोलने वालों की संख्या 75930 बताई है. इस बोली की विशेषता यह है कि इसको बोलने वाले कुमाउंनी शब्दों को हिंदी के अनुरूप बोलने का प्रयास करते हैं, उदाहरण के लिए हिंदी के अनेक शब्दों में प्रयुक्त ‘ल’ का ‘व’ और ‘लि’ का ‘इ’ कुमाउनी में हो जाता है. काव (काला), शाव (साला), ताव (ताला), इनका स्त्रीलिंग रूप ‘काइ’ (काली), शाइ (साली), ताइ (ताली) होता है. इसी आधार पर इस बोली में काव को कावो या कालो, शाव को शाल, शावो या शालो, ताव को ताल, तावो या तालो तथा काइ के लिए ‘कालि’, शाई के लिए शालि तथा ताई को ‘तालि’ कह का तात्का हिंदीकरण करने की प्रवृत्ति देखी जाती है. वैसे इसमें ‘णकार’ का बाहुल्य है जैसे खाण, प्यण, बैणि, सैंणि, पाणि, राणि आदि. इसी प्रकार लीबेर (लेकर), खबेर (खाकर), जैबेर (जाकर), का प्रयोग बेर प्रत्यय की ओर ध्यान दिलाता है.
(Types of Kumaoni Language)

“कै समय में द्वि नामि पैक छि. एक पूरब दिशा का कुण में दोहरौ पछौं का कुण में रौंछिया. याक को नाम सुणिबेर दोहरा रीस में भरिया रौं छियो, और एका का घर बटि दोहरा को घर 12 वर्ष को बाटो टाड़ छियो.”

चौगर्खिया

काली कुमाऊं के उत्तर पश्चिम से लेकर पश्चिम में बारामंडल परगने तक फैला हुआ क्षेत्र चौगर्खा कहलाता है. गंगोली का क्षेत्र इससे लगा है. च्यल, च्याला, आपण, आपणों जैसे शब्द इसमें विद्यमान हैं. यही प्रवृत्ति पछाई में भी पाई जाती है जैसे नाना, नान अथवा कयो-कय दोनों रूप पाए जाते हैं. परगना चौगर्खा में बोली जाने वाली इस बोली को परिनिष्ठित कुमाउंनी के निकट माना जाता है. इसके बोलने वालों की संख्या भारत का भाषा सर्वेक्षण में 37210 बताई गई. स्वाभाविक है कि अब यह बोली इससे भी बड़ी संख्या में लोग बोलते हैं. इसमें खसपर्जिया की लगभग सभी प्रवृत्तियां विद्यमान हैं –

‘कै समय द्वि नामि पैक एक पुरब काकुण में दूसरौ पछों का कुण में रौंछिया. यक कौ नाम सुणी दूसरौ रीस में भरिया रौंछियो और एका का घर बटि दूसरो को घर 12 वर्ष को बाटो टाड़ छियो.’

रौ-चौभैंसी (नैनीताल की कुमाउंनी) या रौ-चभैंसी

रौचभैंसी नैनीताल जिले में ‘रौ’ और चौभैंसी पट्टियों में बोली जाती है. ग्रियर्सन ने नैनीताल की विभिन्न पट्टियों में बोली जाने वाली बोलियों को नैनीताल की कुमाउंनी के अंतर्गत रखा है. जिसमें कुल 6800 लोग रौचभैंसी, 25800 चखातिया, 22545 रामगढ़िया और 2000 बाजारी बोलने वालों की संख्या है. चखातिया चखाता में, रामगढ़िया रामगढ़ में, और बाजारी नैनीताल के बाजार क्षेत्र में बोली जाती है. बाजारी को इन सभी का मिश्रित रूप कहा जा सकता है. इसे नैणतालिया भी कहा जाता है. यह भीमताल, काठगोदाम, हल्द्वानी आदि क्षेत्रों में बहुत प्रचलित है. यह बोली भी खसपरजिया, अल्मोड़िया तथा हिंदी के अधिक निकट है. इसके पश्चिम में पछाई उत्तर में खसपरजिया, पूर्व में कुमय्यां तथा दक्षिण में भाबरी बोली का क्षेत्र है. मैं छौं (मैं हूं), ऊ गोछ (वह गया), च्योलो आछ जैसे प्रयोग यहां हैं. ‘ह’ का ‘स’ में परिवर्तन होना भी देखा जाता है जैसे मेहुंणि (मेरे लिए) को मेसुणि कहा जाता है. उदाहरण –

‘कै जमाना माजी दुई नामवर पैक छिया. एक पूर्व दिशा का कूंणा माजी दुहरो पश्चिम दिशा का कूंणा माजी रौंछियो. एक को नाम सुणीबेर दुहरो रीश का मारा जल छिया. एक को घर बटी दुहरो को घर बार वर्ष का बाटा दूर मांजी छिया.’

पछाई

अल्मोड़ा जनपद के पाली पछाऊं क्षेत्र की बोली पछाई है. इसके पूर्व में खसपरजिया, दक्षिण में रौ-चौभैंसी तथा उत्तर और पश्चिम में गढ़वाली बोली क्षेत्र है. पाली इस क्षेत्र का मुख्य केंद्र है. चौखुटिया, द्वाराहाट, मासी, भिकियासैंण प्रसिद्ध स्थल हैं. यह हिंदी के अधिक निकट है जैसे बहिन (बहैणि), रहना (रहण), कहना (कहण/कण), प्रयोग मिलते हैं. खसपरजिया का ‘भय’ यहां ‘हय’ (हुआ) में बदल जाता है.

यह बोली अल्मोड़ा जिले के दक्षिणी भाग में बोली जाती है. इसका क्षेत्र गढ़वाल की सीमा तक है. मुख्य क्षेत्र के रूप में परगना पाली पछाऊं का नाम लिया जा सकता है. इस भाषा का खसपरजिया से भी बहुत संबंध है तथा इसका क्षेत्र भी बड़ा विस्तृत है. पछांई का क्षेत्र इधर नैनीताल जिले की सीमा से भी लगा है. ग्रियर्सन के अनुसार इसके बोलने वालों की संख्या 95750 थी. यह बोली हिंदी के अधिक निकट है. हिंदी शब्दों को कुछ परिवर्तन के साथ बोला जाता है जैसे ‘बहिन’ का ‘बहैणि’, भाई का ‘भै’, मां का मां, मामा का ‘मम’ आदि. खसपरजिया में ‘बहैणि’ का रूप ‘बैणि’ तथा अन्यत्र कहीं-कहीं ‘बैनि’ हो जाता है. उदाहरण –

‘क्वे दिना में द्वि गाहिन पैक छिया. एक पूर्व का कूणा में रहं छियो, दुसर पच्छिम का कूणा में रहं छियो. एक येकक नौ सुणिबेर जल छियो . एकक ध्याव दुहराक है बेर 12 वर्ष का बाट में छि.’
(Types of Kumaoni Language)

फलदाकोटिया

इसे पश्चिमी कुमाउंनी वर्ग की बोली के रूप में माना गया है. इस वर्ग में खसपरजिया, पछाई, चौगर्खिया, गंगोई, दनपुरिया और फल्दाकोटी हैं. पराना फलदाकोट बारामंडल के दक्षिण-पश्चिम में है. इसे कोसी नदी नैनीताल जिले के धनियाकोट परगने से अलग करती है. अतः फलदाकोटिया बोली नैनीताल और अल्मोड़े के इन भागों में बोली जाती है. परगना पाली के फलदाकोटियों के साथ मिले हुए क्षेत्र के कुछ गांवों में यह बोली जाती है. ग्रियर्सन के अनुसार नैनीताल में इसे बोलने वालों की संख्या 9440 है. फलदाकोट और पाली में 12488 लोग इसे बोलते हैं. अतः कुल मिलाकर इसे बोलने वाले 20900 लोग थे. इसका उदाहरण नीचे दिया जा रहा है –

‘कोइ दिना में द्वी गाहिन पैक छी. एक पूर्व का कुण में रौंछि, दूसर पच्छिम का कुण में रौंछि. एक एकक नौं सुणिबेर जलछी. एकक ध्याल दुसरक ध्याल हैबेर 12 वर्ष क बाट में छि.’

कुमैयां (कुमव्यां) कुमाई

यह बोली उत्तर में पनार और सरयू, पूर्व में काली, पश्चिम में देवीधुरा तथा दक्षिण में टनकपुर-भाबर तक फैले क्षेत्र परगना काली कुमाऊं में बोली जाती है. कुमाउंनी की यह बोली ग्रियर्सन के भाषा सर्वेक्षण के अनुसार 37696 लोगों द्वारा बोली जाती है. काली कुमाऊं का जो भाग नैनीताल से मिला है, वहां भी इसका प्रचलन है. यह बोली बड़ी मीठी लगती है. लोहाघाट और चम्पावत इस बोली के मुख्य केंद्र हैं. सोर्याली से इसका समीप का संबंध है. जानौ छु (जा रहा है), आन्नौहा (आ रहे हो), खान्नौहा (खा रहे हो), उइमैन्सा (उसी मनुष्य के) जैसे प्रयोग मिलते हैं. ण के स्थान पर ‘न’ के प्रयोग भी प्रवृत्ति जैसे कुण (कुन), सुणी (सुनी), जाणों (जानों) आदि पाई जाती है. पुराने अभिलेखों में भी इसकी झलक दिखाई देती है. जैसे –

‘कै वक्त में वी बड़ा वीर छ्या. एक जन पूर्व का कुना में, दोसरा पछीम का कुना में रोछो. एक को नाम सुनी बेर दोसरो भारी रीस को जलछौ. एक को घर है दोसरा का घर बार वर्ष का बाटा दूर छौ.’

दानपुरिया /दनपुरिया

परगना दानपुर की इसबोली के उत्तर में जोहारी, पश्चिम में गढ़वाली, पूरब में सोर्याली और सीराली तथा दक्षिण में खसपरजिया का क्षेत्र है. परगना दानपुर के उत्तरी भाग में और जोहार के दक्षिणी भाग में यह बोली जाती है. यह गंगोली बोली से भी संबंधित है. इस पर गंगोली, सीराली और भोटिया बोली का प्रभाव है. इसके बोलने वालों की संख्या ग्रियर्सन ने 23850 दी है. इसका प्रचलन परगना दानपुर की तीन पट्टियों मल्ला, बिचला तथा तल्ला दानपुर में, कत्यूर, कमस्यार, दुग और नाकुरी पट्टी में अधिक है.

उदाहरणः इसमें ‘भ’ का ‘ब’ होने की प्रवृत्ति जैसे भड़ से बड़, भितेर से बितेर आदि. इसी प्रकार ‘य’ का भी लोप देखने को मिलता है. जैसे आयान (आए) से आन, ग्यान (गए) से गान. पछाई की भांति इथां (इघर), उथां (उघर), कथां (किघर), जथां (जिधर) का प्रयोग मिलता है. ‘ना’ (निषेध) के लिए ‘मा’ जैसे न कर (मा कर) न बता (मा बता) आदि मिलना इसकी विशेषता है. ‘स’ के स्थान पर ‘ह’ का प्रयोग भी मिलता है –

‘पैल बखत माई दो देव्यां बड़छिलौ. येक डाहि पुर्व दिशोक छोड़ मां दूसरो पछिमा दिशाक छोड़ मा रौनिलो. याकाक नाम सुण बेर लौं दुसरौ आग जै लागि जानी हाड़ि. याका का घर लो दुसराक घरबटि बार वर्ष क बाटौ छिलौ.’
(Types of Kumaoni Language)

सोरिया (सोर्याली)

यह परगना सोर में बोली जाती है. ग्रियर्सन के अनुसार इस बोली पर नेपाली भाषा का भी प्रभाव पड़ा है. उन्होंने इसके बोलने वालों की संख्या 12481 बताई है. इसी क्षेत्र में ‘सोरयाली गोर्खाली’ भाषा का भी प्रयोग होता है क्योंकि जो नेपाली गोर्खे लोग कुमाऊं में बस गए हैं उनका प्रभाव यहां की भाषा पर पड़ने के कारण उसे एक नया ही रूप मिला है. दक्षिण जोहार तथा पूर्वी गंगोली परगने में भी इसका प्रचलन है. इस प्रकार पूर्व में काली, दक्षिण में सरयू, पश्चिम में पूर्वी रामगंगा और उत्तर में सीरा से घिरा क्षेत्र सोर्याली का है. यह पूर्वी कुमाउंनी की प्रतिनिधि बोली है.

इस पर नेपाली और कुमथ्यां का प्रभाव है. ओकारन्तता की प्रवृति के कारण बाजो (बाजा), चेलो (बेटा), मेरो (मेरा), आलो (आएगा) आदि रूप विद्यमान हैं. ‘ण’ के स्थान पर ‘न’ कार की प्रवृत्ति में जैसे बैनि, पानि, सैनि आदि. ‘व’ के स्थान पर ‘ल’ जैसे भोल (भोव), कालो (कावो), बेली (बेई), तालि (ताइ), गालि (गाइ), स्याल (स्याव), विराल (बिराव) आदि और ग्यो (गया), भ्यो (हुआ) जैसे प्रयोग भी मिलते हैं. उदाहरण –

‘कै बखत में द्वी बड़ा जोधा छ्या, एक पूर्व का कोन में दुसरो पच्छिम का कोन में रौंछ्या. एकको नाम सुनिबेर दुसरो जलछ्यो. एक को घर दुसरा का घर बटि 12 वर्ष को बाटो छ्यो.’

गंगोली/गङोई

यह गंगोली हाट की बोली है. पश्चिम में दानपुर, दक्षिण में सरयू, उत्तर में रामगंगा तथा पूरब में सोर तक फैले क्षेत्र परगना गंगोली तथा परगना दानपुर की कुछ पट्टियों में यह बोली जाती है. ग्रियर्सन ने इसके बोलने वालों की संख्या 37734 लिखी है. इसे गंगोई या गङोई भी कहते हैं. दानपुर की पट्टी दुग और बारामंडल की पट्टी कमस्यार में भी इसका प्रचलन है. इसमें णकार का बाहुल्य है. अनुनासिकता की प्रवृत्ति भी है जैसे रुणौछ से ‘रुंड़ौंछ’, ‘कुणौछ’ से कुड़ौंछ बन जाता है. र कभी-कभी ड़ में बदल जाता है जैसे परमेश्वर से पड़मेश्वर. ग्यो, भ्यो जैसे प्रयोग भी हैं. मंतारि, म्हैतारि, मैंण म्हैंण बन जाता है. छ के स्थान पर ‘ह’ की प्रवृत्ति भी है जैसे जाणौछा के स्थान पर ‘जाणौहा’ कहा जाता है. राम के लिए (राम हीं), आपको (आपू हीं) आदि की प्रवृत्ति भी है. उदाहरण –

‘कै बखत में दिय् बड़ा जोधा छंयां, एक पूर्व की कुड़ै में दुहरो पच्छिम का कुड़ै में रौं छि. एक को नाम सुड़ि बैर दुसरौजलछि. एक को घर दुहरा का घर बटि 12 वर्ष को बाटो छियो.’

जोहारी

यह बोली कुमाउंनी के रूप में मुख्य रूप से मुनस्यारी, तेजम, रांथी और मदकोट की बोली है. परगना जोहार में बोली जाने वाली इस बोली पर तिब्बती भाषा का प्रभाव है. भाषा सर्वेक्षण में इसके बोलने वालों की संक्या 7419 दी गई है. कुछ विद्वान इसे ‘भोटिया’ विभाषा का एक रूप मानते हैं. इसका दूसरा रूप दर्मियां माना जाता है. जो दारमा परगने में बोली जाती है. वैसे इन दोनों रूपों में थोड़ा बहुत अंतर है. इसीलिए यहां भोटिया जोहारी तिब्बती-वर्मी भाषा परिवार की बोली है और कुमाउंनी जोहारी में तिब्बती और कुमाउंनी का मिश्रण है. इसमें ‘र’ के स्थान पर ‘ड़’ के प्रयोग की प्रवृत्ति है जैसे म्यड़ (म्यर अर्थात मेरा), बाकड़ो (बाकरो अर्थात बकरी) आदि. गांव को ‘गूं’, नाम को ‘नूं’, मैं को ‘मी’, वे को ‘ऊं’ कहने का प्रचलन भी है. ‘स’ का ‘ह’ हो जाने की प्रवृत्ति जैसे दुसर (दुहर), तिसर (तिहर), कसूर (कहूर) आदि. कुछ विद्वान इसे कुमाउंनी के अंतर्गत नहीं मानते हैं. उदाहरण –

‘को दिनन मा बड़ा नामदार भड़ाछिया. एक पूर्व का काणा मा दुहरो पछिम का काणा मां रौं थी. एकक नौं सुणि बेर दुहरो जल थी. होर एकक कुड़ो बटि दुहरा को कुड़ो बार वर्ष टार थी.’

सीराली

सीरा क्षेत्र अस्कोट के पश्चिम और गंगोली के पूर्व में है. सीरा क्षेत्र की बोली ही सीराली कहलाती है. यह अस्कोटी, जोहारी और गंगोली से प्रभावित है. ‘न’ ध्वनि गंगोली के प्रभाव से ‘ण’ में बदल जाती है. जैसे वन का ‘वण’ . इस बोली में ‘स’ की ध्वनि ‘ह’ में बदल जाती है जैसे साग को ‘हाग’, मसूर को महूर और सकण को हगण कहा जाता है. अस्कोट के पश्चिम में परगना सीरा में बोली जाने वाली इस बोली के बोलने वालों की संख्या ग्रियर्सन सोर्याली की ही भांति 12481 मानते हैं. इसे अस्कोटी भी कहते हैं. उदाहरण –

‘कै बखत मा द्वि नामि पैक छ्यौ. एक पूरब का कोन में दुसरो पछिम का कोन में रंछ्यो. एक को नाम सुनिबेरि दुसरो जलछ्यो. एक को घर दुसरा का घर बटी 12 वर्ष को बाटो छ्यो.’

अस्कोटी

पिथौरागढ़ जनपद में सीरा क्षेत्र के उत्तर पूर्व में अस्कोट के आसपास बोली जाती है. परगना अस्कोट में बोली जाने वाली इस बोली पर भी नेपाली, जोहारी, सोर्याली और शौक बोली का प्रभाव भी पड़ा है क्योंकि अस्कोट, सोर और सीरा तीनों परगनों की भाषा पर नेपाली का प्रभाव पड़ा है. भाषा सर्वेक्षण में इसके बोलने वालों की संख्या 10964 बताई गई है. ‘ण’ के स्थान पर ‘न’ का प्रयोग, उकारान्त की प्रवृत्ति तथा व्यंजन द्वित्व की प्रवृत्ति इसमें हैं. जैसे जाण का जान, सुणि का सुनि हो जाता है. इसी प्रकार खानु, दानु जैसे शब्द तथा खुट्टो, सुप्पो, जोत्तो आदि शब्द मिलते हैं. राजी बोली के प्रभाव से जुड़ा, नङ, सीङ, नाङड़ आदि शब्द प्रचलित हैं. अस्कोटी और सोर्याली में कुछ प्रवृत्तियां एक सी हैं. थ्यो/छ्यो (था) अथवा ध्या/छ्या (थे) क्रिया रूप भी इसमें मिलते हैं. उदाहरण –

‘कै बखत मा द्वि नामि पैक छि. एक पूरब का कुन में दुसरौ पछिम का कुन में रौंछि. एक को नाम सुनिबेरि दुसरा जलछी. एकाका घर दुसरा का घर बटी 12 वर्ष को बाटो छियो.’
(Types of Kumaoni Language)

मंजकुमैयां या मनकुमय्यां

यह बोली कुमाऊं तथा गढ़वाल की सीमा के क्षेत्रों में बोली जाती है. इसे एक प्रकार से गढ़वाली और कुमाउंनी का मिश्रित रूप कहा जा सकता है. ग्रियर्सन ने इसके कुमाऊं में बोलने वालों की संख्या 4380 दी है. उदाहरण –

‘पहला जमाना मा द्वि नामी वीर छया. एक पूर्व की दिशा का कोणा, दुसरौ पश्चिम दिशा का कोणा मा रहंयौ छ्यो. एक को नाम सुणीक दुसरौ जल्दो छया. एक का घर दुसरा का घर ते बारा वर्ष को बाटो छ्यो.’

अन्य बोलियां

इन बोलियों के अतिरिक्त कुछ ऐसी भी बोलियां प्रचलित हैं जिन्हें अलग नाम दिया जाता है. यद्यपि ये उपर्युक्त किसी न किसी बोली से संबंधित हैं तथापि कुछ क्षेत्रीय विशेषताओं के कारण इनका रूप अलग सा हो गया है. इन बोलियों में तराई की बोक्सा, कुमाऊं के उत्तर में भोटिया, नैनीताल जिले की तराई में टनकपुर से काशीपुर तक भाबरी आदि आती है. इसमें हिंदी का प्रभाव भी है. उदाहरण –

‘यक लकम् द्वी परख्यात पैक छिय. यक पुरब का कुनम, दूसरौ पछिम का कनम रन छिया. यक को नौं सुनी दूसरो जली पाकी रंछिया. यक का घर हवे दूसरौ को कुड़ो बार वर्ष को बाटो छियो.’

गोरखाली बोली

एक प्रकार की नेपाली मिश्रित बोली है. गोरखा शासन से ही इसका प्रभाव रहा है. अब इसका रूप बदल चुका है.

‘कसेइ दिन मां द्विठा बतिया जोधा छे. ये बटा पूर्व दिशा मां अर्की पश्चिम दिशा मां रहन्थ्यै. एक एक कौ नाम सुनि अर्को रीश गरव्यो. एक बटा का घर अर्की का घर बाट बार वर्ष मां जुगय्यो.’
(Types of Kumaoni Language)

डोटियाली

डोटी में प्रचलित भाषा का प्रभाव अब लोकगीतों आदि तक सीमित रह गया है. डौटियाल लोग आज भी कुमाऊं के नगरों में मेहनत मजदूरी करते हैं. उनकी बोली का प्रभाव पारस्परिक संपर्क से कुमाउंनी पर पड़ना स्वाभाविक है.

‘कोई एक युग भई दुये पैकेला नाऊं चल्याका थ्या. एक पूरब दिशा का कौना थ्यो. दूसरो पैक्यालो पश्चिम दिशा का कौना मा रहन थ्यो. एक का नाऊं सुनी बैर दुसरौ रीस बरनथ्यो क्या. एक को घर हैबरे दूसरा को घर बार बरस को बाटो थ्यो क्या.’

टिहरी गढ़वाल की बोली

गढ़वाल-कुमाऊं में आदान-प्रदान भाषा के क्षेत्र में भी है. संपर्क दोनों को प्रभावित करता है.

‘पेला एक जमाना मा द्वि ख्यात भड़ थ्या. एक पूरब की दिशा का कोण मा और दूसरो पछिम दिशा का कोण मां रहंदो थयो. एक को नऊं सुणीक दूसरो जल्दो थयो. एक को घर दूसरा का घर ते बार वर्ष का रास्ता पर दूर थ्या.’

लोहबा गढ़वाल परगना चांदपुर की बोली

भाषाई आदान-प्रदान शब्दावली के साम्य का अवसर देता है.

‘के जमाना मा दुई आदमि बड़ा नामि भड़ छया. येक पूर्व दिशा का कोणा मा रनछ्‌यो. दोशरौ पश्चिम दिशा का कोणा मा रनछ्यो. येकाको नौं सुणि किन दोशरो जलछ्‌यो. येका डेरा ते दोशरो डेरो बार बरश का रास्ता छ्यो.’
(Types of Kumaoni Language)

बोगसा (तराई) बोली

कुमाऊं के लोग जाड़ों में मवेशी लेकर तराई भाबर आ जाते थे. इस प्रवास का भाषा पर भी प्रभाव पड़ा.

‘किशको जवाना में दो यशाहर पैक जवानी वीर थे. येक पुरब दीसा के कोने में दूसरा पछम दीसा के कोने में रहडो. येको नाम सुनकर दुसर जर हो. येक के घर से दुसरे का घर बार बरस राहौ दुरे पर था.’

थाडू बोली

पारस्परिक संपर्क के परिणामस्वरूप भाषाई आदान-प्रदान के अवसर आए.

‘एक समय में दो नामी देवता है. एक (ससुर) अगार की दिशा के कोने में राहत हो और एक पछार की दिशा के कोने में राहत हो. एक को नाम सुन के दूसरो गुसा ह्वैजात राहे. एक के घर से दूसरे को घर बार वर्ष की राह में ही.’
(Types of Kumaoni Language)

डॉ. नारायण दत्त पालीवाल

डॉ. नारायण दत्त पालीवाल का यह लेख उनकी ‘कुमाउनी संस्कृति एवं सम्पदा’ से साभार लिया गया है. डॉ. नारायण दत्त पालीवाल के विषय में अधिक जानिये :

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  • इतनी विविधता!! पढ़ के आनन्द आ गया

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