छानपुर और जोहार घाटी के मध्य लगभग 18000 फिट ऊॅंचे गिरिपथ को पार कर तिब्बत व्यापार हेतु सुगम मार्ग खोज निकालने के उद्देश्य से दानपुर क्षेत्र के सूपी ग्राम निवासी मलूक सिंह का प्रयास सन् 1830 में तब सफल हुआ, जब कुमाऊॅं कमिश्नर जार्ज विलियम ट्रेल ने मलूक सिंह की सहायता से नन्दा देवी और नन्दा कोट उच्च हिम शिखरों के मध्य एक गिरिपथ को पार करने में सफलता प्राप्त की. तब से इस गिरिपथ का नाम ट्रेल पास पड़ा. जी.वी. ट्रेल ने पिण्डारी गलेशियर के दायीं ओर घास वाली ढलान पर तीन फुट चौड़ा एक ट्रेक रूट भी बनवाया था.
(Trail Pass Campaign)
सन् 1855 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के सहयोग से प्रशिया के स्लाघइटवाइट बन्धु चुम्बकीय सर्वेक्षण हेतु हिमालयी क्षेत्र में भ्रमण कर रहे थे. दल का एक सदस्य एडोल्फ पिण्डर घाटी से 18550 फिट ऊॅंचे ट्रेल पास पार कर 4 जून 1856 को मिलम पहुंचा था, जबकि राबर्ट सहित दल के अन्य सभी सदस्य मनुस्यारी होते हुए 21 मई को ही मिलम पहुंचे थे. एडोल्फ के पश्चात इस अभियान पर आने वाले पर्वतरोहियों ने पिण्डारी हिमनद के दायीं और 14180 फिट की ऊॅचाई पर जिसि गुफा में एडोल्फ ने रात्रि विश्राम किया था, स्लाघइटवाइट केभ और वर्तमान तख्ता कैम्प के ठीक ऊपर जहां नन्दा खाट से आने वाली पर्वत श्रेणी समाप्त होती है, उसे स्लाघइटवाइट कोल नाम दिया था, परन्तु वर्तमान समय में ग्लेश्यिर के इस भाग में बहुत ही अधिक लम्बे – चौड़े दरार पड़ने से पार कर पाना सम्भव नहीं है.
सितम्बर 1861 में कर्नल एडमण्ड स्मिथ, जो कि उस समय कैप्टन के पद पर नियुक्त था, मलूक सिंह के पुत्र दरवान सिंह के साथ पिण्डर घाटी से ट्रेल पास पार कर मरतोली पहुंचने में सफल हुआ था. इसके पश्चात् 1883 में टी.एन.कैनौडी ने भी ट्रेल पास पार करने का असफल प्रयास किया. सन् 1893 में जर्मन यात्री डॉ. कुर्ट बुच को भी इस गिरिपथ को पार करने में सफलता मिली थी. ये सभी यात्री पश्चिम में पिण्डारी से अभियान प्रारम्भ कर जोहार घाटी पहुंचे थे.
मई 1926 में डिप्टी कमिश्नर ह्य रटलेज पिण्डारी से ट्रेल पास पार कर मरतोली और रालमधूरा पार कर दारमा पहुंचना चाहता था परन्तु उस वर्ष भारी हिमपात के कारण उन्हें ट्रेल पास का अभियान स्थगित करना पड़ा और वे 13 जून को गोरी नदी घाटी से मरतोली पहुंचे. जहां से पूर्व में 15566 फिट ऊॅंचे ब्रिगिगाङ धूरा पार कर रालम और 16230 फिट उंचे सिपाल धूरा पार कर दारमा तथा 18030 फिट ऊॅचे सिनल्हा पार कर व्यास से लीपू लेक होते हुए 10 जुलाई को तकलाकोट पहुंचे. चार सप्ताह तक तिब्बत भ्रमण करने के पश्चात् ऊॅटाधूरा पार कर रटलेज का दल 8 अगस्त को पुनः मरतोली पहॅुंचा. वे नन्दाकोट उत्तर-पश्चिम की ओर से ल्वॉं ग्लेशियर को पार कर 11 अगस्त को 18700 फिट ऊॅंचे ट्रेल पास को पार करने में सफल हो गये. ह्य रटलेज के साथ इनकी श्रीमती रटलेज और बिग्रेडियर आर.सी. विलसन भी थे. श्रीमती रटलेज इस उच्च गिरिपथ को पार करने वाली प्रथम महिला थी. उत्तर-पूर्व से इस गिरिपथ को पार करने वालों का यह प्रथम अभियान दल था. इनका मार्गदर्शन मरतोली निवासी दीवान सिंह ने किया था.
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अगस्त 1936 में स्विस पर्वतारोही गैन्सर ने जोहार घाटी के मरतोली गॉव से प्रवेश कर ट्रेल पास पार किया था. उनके पास केवल दो नेपाली कुली थे, जबकि सामान अधिक होने के कारण उन्हें मरतोली से तीन अन्य कुलियों की व्यवस्था करनी पड़ी. मार्ग दर्शक के रूप में दीवान सिंह मरतोलिया भी साथ था. 27 अगस्त को इन्होंने 18400 फिट ऊॅंचे गिरिपथ को पार किया. 1936 में ही ओलम्पिक स्कीरनर टाकेवीसी के नेतृत्व में होटा, यामागाटा, योसा और हमानो पांच जापानी युवकों ने रिको यूनीवर्सिटी माउन्टेनियरिंग क्लब की ओर से इस गिरिपथ को पार करने में सफलता प्राप्त की. लगभग चालीस दिन तक नन्दा देवी और नन्दाकोट के मध्य उच्च हिमानी क्षेत्रों का अध्ययन करने के पश्चात 5 अक्टूबर को ट्रेल पास पार कर वे पिण्डारी पहुंचे थे. इनका मार्ग दर्शन भी दीवान सिंह ने किया.
सितम्बर 1941 में एस.एस. खैरा, जोहार के दीवान सिंह और कपकोट के महेन्द्र पाल को साथ लेकर पिण्डर घाटी से ट्रेल पास को पार कर केवल 13 दिन में वापस कपकोट पहुंचा था. पिण्डारी ग्लेशियर के हिमनद को दायीं और से पार कर मोरेन होते हुए इन्हेंने नन्दाकोट के पदतल पर 14000 फुट से पुनः ग्लेशियर पार किया और लगभग 17000 फुट ऊॅचे एक टीले को पार कर बर्फ के मैदान में पहुंचे. जहॉं से उत्तर-पूर्व की आरे बढ़ते हुए च्यॉंगुज के पर्वत बाहु पर स्थित ट्रेल पास के 19000 फुट ऊॅंचे टीले को पार का ल्वॉं घाटी पहुंचे.
इसी वर्ष जून में डिप्टी कमिश्नर धर्मवीर ने भी पिण्डारी की ओर से इस गिरि पथ को पार किया था. 1941 के पश्चात् इस गिरि पथ को पार कर पिण्डारी से जोहार घाटी और मरतोली ग्राम से पिण्डर घाटी पहुंचने के अनेक असफल प्रयास हुए. क्योंकि हजारों वर्षों से एकत्रित ग्लेशियर और उन पर पड़े असंख्य दरार और दोनों ओर के लुजरौक्स तथा ग्लेशियरी चट्टानों के लगातार टूटते रहने के कारण यह गिरिपथ जन साधारण के आवागमन के लिए अगम्य से अगम्यतर होता रहा. हां मलूक सिंह के प्रथम साहसिक प्रयास से प्रसन्न होकर जार्ज विलियम ट्रेल ने उसे मल्ला दानपुर क्षेत्र का प्रधान नियुक्त कर दिया था. जिसका लाभ उसके वंशज कई पीढ़ी तक उठाते रहे. इसी प्रकार 1926 में डिप्टी कमिश्नर ह्मू रटलेज ने भी दीवान सिंह मरतोलिया के कुशल मार्ग दर्शन से प्रभावित होकर उसे एक इटैलियन बन्दूक तथा र्यूगैर नामक स्थान में लगभग 5 एकड़ भूमि पुरूस्कार स्वरूप प्रदान की थी.
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1950 में स्कोटिश हिमालया एक्सपीडीशन दल के सदस्य डब्ल्यू.एच.मूरे और टौम मैकीनन मलारी से ऊॅटाधूरा होते हुए 18 जुलाई को मिलम पहुंचे थे. मैकीनन एक कुशल माउन्टिनियर था. ट्रेल पास पार कर रानीखेत पहॅुंचने के उद्देश्य से जब वह ल्वॉं के भदेली ग्वार तक पहुंचा, अत्याधिक वर्षा के कारण चार दिन पश्चात् उसे वापस लौटना पड़ा. सन् 1970 में माउन्टिनियरिंग क्लब इलाहाबाद विश्वविद्यालय के दो सदस्य ए.आर. चन्द्राकर अपने साथी सहित नन्दाकोट अभियान से वापस लौटकर जब ट्रेल पास की ओर बढ़ रहे थे, 26 मई को बर्फानी तूफान में दब कर हताहत हो गये थे. क्लब के सचिव ने खाती विश्राम गृह के लौग बुक में लिखा है कि यद्यपि उनके सदस्य पूर्ण प्रशिक्षित एवं साज-सामग्री से सुसज्जित थे, परन्तु ट्रेल पास अभियान वास्तव में एक कठिन प्रयास है और मौसम का अनुकूल होना बहुत आवश्यक है.
पहली जून 1994 को जब अस्कोट-आराकोट अभियान दल मुनस्यारी पहुंचा, दल के अधिकांश सदस्य मेरे पूर्व परिचित मित्र थे. उनके आवास तथा भोजन की उचित व्यवस्था की गई. मैंने लेह-लद्दाख भ्रमण का कार्यक्रम बना लिया था. अन्यथा मैं भी इस अभियान में सम्मिलित हो जाता. स्नेही डॉ. ललित पन्त से ज्ञात हुआ कि अनूप शाह जी आगामी 2-3 माह में ट्रेल पास अभियान की योजना बना रहे हैं. विगत 10-12 वर्षों के अपने ट्रेकिग अनुभवों पर प्रकाश डालते हुए इस अभियान में सम्मिलित होने की इच्छा से मैंने शाहजी को तुरन्त पत्र लिख डाला. जुलाई प्रथम सप्ताह में लद्दाख से वापस लौटने तक शाहजी का कोई उत्तर न आने पर पुनः पत्र लिखकर मैं दो सप्ताह के लिए एक ब्रिटिशनर पार्टी के साथ मिलम-रालम ट्रेकिंग पर चला गया था. 17 सितम्बर को रूपकुण्ड के भ्रमण पर जाने की तैयारी में था. सांय नैनीताल माउन्टिनियरिंग क्लब का एक आवश्यक डाक प्राप्त हुआ, पत्र ट्रेल पास अभियान पर जाने के लिए मुझे 15 सितम्बर को नैनीताल पहुंचने को लिखा गया था. साथ में ऐसे साहसिक अभियान पर जाने के लिए राज्य सरकार के स्पोर्ट्स अनुभाग द्वारा एक माह तक के लिए विशेष अवकाश की सुविधा प्रदान करने सम्बन्धी आदेश की सत्य प्रति भी संलग्न थी. अतः प्रधानाचार्य को इस आशय से अवगत कराकर मैंने 18 सितम्बर को प्रातः नैनीताल के लिए प्रस्थान किया. सायं अल्मोड़ा से टेलीफोन द्वारा पूछने पर ज्ञात हुआ कि पार्टी 20 की अपेक्षा 22 सितम्बर को इस अभियान पर निकलने वाली है.
दूसरे दिन चेतराम शाह ढुलधरिया इण्टर कालेज मल्लीताल स्थित नैनीताल माउन्टिनियरिंग क्लब पहुंचने पर क्लब के कार्यकर्ताओं और सदस्यों से मेरा परिचय हुआ. क्लब के विशेष सचिव सेवा निवृत कर्नल जे.सी. जोशा ने ट्रेल पास सम्बन्धी आवश्यक प्रपत्र तथा मानचित्रों से मुझे अवगत कराया. कर्नल जोशी सेना से सेवा निवृत होने के पश्चात नेहरू माउन्टिनियरिंग इन्स्टीटयूट, उत्तरकाशी में प्रधानाचार्य भी रह चुके हैं. जिससे पर्वतरोहण सम्बन्धी इन्हें अच्छा अनुभव है. मुझे भी इस अभियान दल में शामिल कर आकस्मिक बीमा करा लिया गया और मैंने सदस्यता शुल्क का डेढ़ हजार रूपया भी क्लब में जमा कर दिया.
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मेरी पुस्तक ’मध्य हिमालय की भोटिया जनजाति’ के भौगोलिक अध्याय में ट्रेल पास अभियान पर दिये गये संक्षिप्त विवरण को पढ़ने के पश्चात् अपून शाह जी के पिता चन्द्रलाल शाह जी पुस्तक में दिये गये परिशिष्ट जोहार की वंशावली को देखकर बहुत प्रभावित हुए थे और अब ढुलघरिया शाह कुटुम्ब की भी वंशावली तैयार करने हेतु अपनी उत्सुकता प्रकट करने लगे.
उत्तराखण्ड जन आन्दोलन के कारण नैनीताल के सभी कार्यालय बन्द पड़े थे. उत्तरकाशी नेहरू माउन्टिनियरिंग इनस्टीटयूट से पर्वतरोहण सम्बन्धी आवश्यक उपकरण भी नहीं पहुॅच पाये थे. बैंक से लेन-देन भी नहीं हो पा रहा था. अतः 20 की अपेक्षा अब 25 सितम्बर को प्रस्थान करने का निश्चय किया गया था. परन्तु अधिक विलम्ब करना उचित न समझकर कर्नल जोशी और अनूप शाह ने दौड़-धूप करके धन की व्यवस्था कर ली तथा 23 को प्रस्थान करने की तैयारी होने लगी. दिन भर कभी तल्लीताल तो कभी मल्लीताल फ्लैट पर आन्दोलकारियों के उत्तर-प्रदेश सरकार के विरूद्ध आक्रोश भरा भाषण सुनता रहा. नैनीताल समाचार द्वारा प्रसारित सांय 6 बजे का सान्ध्य बुलेटिन आकर्षण का विशेष केन्द्र बिन्दु था. 22 के सांय में डॉ. पाठक के घर पर रहा. इस जन आन्दोलन में सक्रिय भाग लेने के कारण वे बहुत व्यस्त थे तथा देर रात में घर वापस लौटे. उनका पुत्र सौमित्र भी हमारे साथ उत्सुकता से व्यस्त था.
23 सितम्बर के प्रातः 6 बजे हम तल्लीताल डाट पर पहुंचे, राजकीय इण्टर कालेज मुनस्यारी के भूतपूर्व भौतिक प्रवक्ता किशन लाल शाह जी भी इस अभियान दल में सम्मिलित होने हेतु डाट पर बस की प्रतीक्षा में थे. विगत 12-13 वर्षों के पश्चात पुनर्मिलन से बड़ी प्रसन्नता हुई. साढ़े छः बजे पार्टी की बस पहुंची, फोटोग्राफी की गई और पाठक जी आदि स्नेही लोगों ने अपनी शुभ कामनाओं सहित अभियान दल को विदाई दी.
दस बजे हम अल्मोड़ा पहुंचे. ग्लोरी रेस्टोरेन्ट में दही-पराठे का नास्ता किया गया. एक अन्य सदस्य प्रसिद्ध छायाकार थ्रीश कपूर भी दल में सम्मिलित हो गये. 12 बजे बागेश्वर स्थित कुमाऊं विकास मण्डल के टूरिस्ट होटल से एक किचन टैन्ट उठाकर हमने किंगकॉंग नाम के एक रेस्टोरेन्ट में भोजन किया. दल के कई सदस्यों द्वारा कुछ आवश्यक व्यक्तिगत वस्तुओं की खरीददारी के कारण बागेश्वर में बहुत विलम्ब हो गया और साढ़े पॉंच बजे हम अन्तिम बस स्टेशन सौंग पहुंचे, जहां खच्चर वाले पहले से ही प्रतिक्षा में थे. आठ नेपाली कुली 22 को ही नैनीताल से भेजे जा चुके थे. कुलियों ने आवश्यक सामान उठाया. दो सदस्य अन्य सामान के साथ वहीं रूक गये तथा अन्य 22 सदस्य अंधेरे में ढाई कि.मी. दूर लोहार खेत से कुमाऊॅं विकास मण्डल के टूरिस्ट रेस्ट हाउस में पहुंचे. वहां मैकतौली ग्लेशियर के नन्दा कुण्ड से वापस लौट रहे एक विकलांग सहित कुछ बंगाली पर्यटक भी थे. हमारे दल के सदस्य बी.सी.पाण्डे और खुशाल सिंह ने बढ़ी तत्परता से स्वादिष्ट खिचड़ी बनाकर खिलाई. हम सब तो सो गये और वो रात भर दूसरे दिन के लिए रोटी बनाते रहे.
24 सितम्बर के प्रातः 4.30 बजे चाय की सीटी लगी और दो-दो उबले अण्डे तथा रोटी नास्ते के रूप में सबको दी गई. तीन सदस्य एक कुली को साथ लेकर आगे बढ़ गये थे तथा पांच बजे मुंह अंधेरे में ही सभी सदस्यों ने प्रस्थान कर लिया. प्रातः कालीन चांदीन रात, उषाकाल की ठण्डी-ठण्डी वायु प्रवाह और घने जंगलों के मध्य हल्की सी चढ़ाई में टेड़े-मेढ़ पथरीले अश्वमार्ग पर डा. रघुवीर चन्द और किशन लाल शाह जी के साथ बातें करते हुए हम 9 बजे धाकुरी शिखर से दो किलो मीटर पूर्व एक खुले चौरस मैदान में पहुंचे. जहॉं अग्रिम दल ने चाय-दलिया बनाकर तैयार किया था. नास्ता लेने के पश्चात् साढ़े ग्यारह बजे हम धाकुरी रेस्ट हाउस पहुंचे. लोहार खेत से धाकुरी दस किमी दूर और समुदतल से 8737 फिट ऊॅचाई पर स्थित है. सन् 1992 में मैकतौली हित शिखर पर चढ़ते समय अल्मोड़ा अभियान दल के चार सदस्यों रतन सिंह, दीपक नेगी, त्रिभुवन सिंह कोरंगा और जगदीश सिंह बिष्ट का दुर्घटना में निधन हो गया था. उनकी स्मृति में यहां ग्रेटाइट के पत्थर पर नाम अंकित किया गया है. हमारे अभियानद दल के लिए एक रेस्टोरेन्ट में भोजन की व्यवस्था की गई थी. सौंग से खच्चर वाले भी पहुंच गये थे. भोजन के बाद धीरे-धीरे नीचे उतरने लगे, अब हम सरयूघाटी छोड़कर पिण्डर घाटी में प्रवेश कर रहे थे. नीचे उम्ला गांव के एक युवक ने ककड़ी खिलाई. उम्ला से एक मार्ग करमी के लिए है. पिण्डारी खण्ड के बुग्यालों से भेड़-बकरी वाले अब नीचे गरम घाटियों की ओर आ रहे थे. डा. चन्द और अनूप शाह जी फोटोग्राफी में वयस्त थे. मैं अकेले आगे बढ़ते हुए चार बजे खाती गॉव पहुंचा. वहॉ च्यूरियाधार निवासी उमेद सिंह मरतोलिया मिला, जो अल्मोड़ा के लामचूर अभियान दल के सदस्यों को पहुंचाकर वापस लौट रहा था. उसकी इच्छा हमारे साथ ट्रेल पास अभियान में आने की थी. परन्तु इस क्षेत्र के सम्बन्ध में विशेष जानकारी न होने के कारण शाह जी ने उसे साथ ले जाना उपयुक्त नहीं समझा.
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सन् 1830 में जार्ज विलियम ट्रेल के साथ मार्गदर्शक के रूप में गये सूपी गांव निवासी मलूक सिंह की छठी पीढ़ी में उत्पन्न राम सिंह के साथ ट्रेल पास सम्बन्धी अनेक बातें हुई. परन्तु सभी लोग मनगढ़न्त बातें कहते हुए इस अभियान की कठिनाई और असम्भावना पर ही अधिक सन्देह प्रकट करते रहे. वास्तविकता का ज्ञान किसी को नहीं था. खाती गांव पिण्डर घाटी में धाकुरी से 8 किमी दूर 7370 फिट की ऊॅंचाई पर स्थित है. यहॉं से मैकतौली और सुन्दर बूंगा जाने के लिए लोहे के पुल द्वारा पिण्डर नदी को पार करना पड़ता है. पीले, गुलाबी और लाल रंग की बालियों से लहलहाते चौलाम की फसल से मल्ला दानपुर का यह क्षेत्र बहुत ही आकर्षक लग रहा था. चौलाम की नकदी फसल इस क्षेत्र के लोगों के आय का मुख्य स्रोत है. यहां के अधिकतर लोग भेड़ पालक हैं.
दूसरे दिन प्रातः चाय के पश्चात् शाह जी थ्रीश कपूर और मैं पुनः खाती गांव गये. कुलियों के लिये राशन तथा आलू खरीदा गया. कपूर साहब विडिया फिल्म लेना चाहते थे. परन्तु बैट्री डाउन होने के कारण दुबारा चार्ज करने के लिए भराड़ी भेजना पड़ा. नास्ता लेने के पश्चात 9 बजे द्वाली के लिए प्रस्थान किया. ग्यारह बजे हम मल्या धौड़ पहुंचे. यहां से लोहे के पुल द्वारा नदी पार कर अब पिण्डर नदी के दायें किनारे चलना पड़ता है. स्वभावतः कुछ तेज गति से चलने के कारण मैं आगे बढ़ता जा रहा था. निगाले की घनी झाड़ी और घने जंगल के मध्य अकेले चलने पर मुख्यतः जंगली सुअर और भालू के भय से सशंकित होते हुए मैं 1 बजे पिण्डर नदी और कफनी गाड़ के संगम पर खाती से ग्यारह किमी दूर 9133 फीट की उंचाई पर स्थित द्वाली पहुंच गया. द्वाली में लकड़ी के कच्चे पुल द्वारा नदी पार कर अब नदी के बायें किनारे चलना पड़ता है. मैंने नहाने के पश्चात् भोजन किया, कर्नल साहब पहले ही पहुंच गये थे. अन्य सभी सदस्य करीब 3 बजे पहुंचे. 4 बजे नैनीताल के कुछ सदस्य नामिक ग्लेशियर से कफनी होते हुए द्वाली पहुंचे.
अपनी इस सफलता पर वे बहुत हर्षित हो रहे थे. हमारे अभियान दल के युवा सदस्यों के आग्रह पर एक भेड़ काटी गई. परन्तु रोटी के साथ केवल भुटवा बना. अल्मोड़ा अभियान दल के प्रमुख भारद्वाज कर्नल साहब से मिलने आये. परन्तु उनके कथानुसार लास्पाधूरा पर आरूढ़ होने की बात से हम लोग आश्वस्त नहीं थे. क्योंकि मानचित्र के अनुसार लास्पाधूरा की स्थिति कपनी ग्लेशियर और जौहार घाटी के लारया गांव के मध्य है न कि नन्दा भनार और लामचीर के मध्य. सुरा खड़क की ओर से एक सप्ताह तक दूरबीन से देखने पर किसी प्रकार के पद चिन्ह इस दिशा की ओर हमें दिखाई नहीं दिये. अतः पिण्डारी की ओर से लास्पाधूरा अभियान पर सन्देह होना स्वाभाविक है. धाकुरी से द्वाली तक के निकटवर्ती सभी पहाड़ रागा और खरसू के ऊॅंचे-ऊॅचे वृक्षों तथा नदी घाटी का क्षेत्र पॉंगर, अखरोट और खामिया के वृक्षों एवं रिंगाल की झाड़ियों से आच्छादित है. द्वाली से फुरकिया के मध्य भोजपत्र और तुनेर के वृक्ष पाये जाते हैं. तुनेर जिसका स्थानीय नाम ल्वेंट है की छाल के चूर्ण से नमकीन चाय ( ज्या ) बनाई जाती है. जिसके प्रयोग से रक्त विकार दूर होता है.
26 सितम्बर को हम ग्यारह बजे द्वाली से 6 किमी दूर 10870 फीट उंचाई पर स्थित फुरकिया पहुंचे. यहां पर भी लोक निर्माण विभाग और कुमाऊॅं विकास मण्डल के रेस्ट हाउस हैं. अग्रिम दल के सदस्यों ने खिचड़ी बनाई थी. तीन सदस्य खच्चर वालों के साथ आगे बढ़ गये क्योंकि उन्हें पिण्डर नदी पार शिविर स्थापित करने के लिए सुरक्षित स्थान पर खच्चरों का बोझ उतारना था. खिचड़ी खाने के पश्चात् हम भी आगे बढ़े. लगभग पांच किमी जाने के पश्चात् मुख्य मार्ग छोड़कर पिण्डर नदी पार जाना था. दल के कुछ सदस्य नदी पार भेड़ वालों के छप्पर तक पहुंच गये थे. अजपथ का सहारा लेते हुए हम भी नदी किनारे पहुंचे. पिण्डर नदी में दो विशाल पत्थरों के मध्य दो मीटर की दूरी को लकड़ी के सहारे पत्थर पाटकर पुलिया बनाई गई थी. परन्तु दूसरे पत्थर से नदी किनारे लगभग तीन मीटर ऊॅचाई से कूदकर उतरा जा सकता था. कुछ सदस्य खच्चरों का बोझ उठा-उठाकर नदी पार उतार रह थे. करीब दो घंटे पश्चात् अल्यूमिनियम की सीढ़ी के पहुंचने पर यह समस्या दूर हुईं. मरतोली सड़क में आधार शिविर स्थापित किया गया. सात टैन्ट लगाये गये. कुछ सदस्य और कुली भेड़ वालों के खाली छप्परों में रहे. एक सदस्य राजीव शाह द्वारा बनाये गये स्वादिष्ट मांस के साथ खूब रोटी खाई गई.
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27 सितम्बर के प्रातः चाय के पश्चात् अनूप शाह जी डॉ. चन्द के साथ पुल पार कर ‘जीरो प्वाइंट’ की ओर जाते हुए दिखाई दिये. धीरे-धीरे सभी लोग उनके पीछे जाने लगे. किशन लाल शाह जी और मैं एक साथ जा रहे थे. सन् 1992 में मेरियानो नाय के एक स्पेनिस के साथ में नामिक, मिकला, कूनी होते हुए खाती से पिण्डारी तक आया था. आज हम जीरो प्वाइन्ट से दायीं ओर पहाड़ की ऊंचाई पर चढ़ते गये. लगभग चौदह हजार फिट की ऊंचाई पर अमेरीकन पर्वतरोही और उससे एक किमी आगे अल्मोड़ा के लामचीर अभियान दल वालों का कैम्प लगा था. हमारा लक्ष्य देवीताल तक पहुंचना था. परन्तु इस तालाब की स्थिति का ज्ञान किसी को नहीं था. अलग-अलग दिशा से सभी सदस्य पहाड़ की चढ़ाई चढ़ते जा रहे थे. कर्नल साहब और कुछ अन्य सदस्य नीचे से ही वापस लौट गये. हम 1 बजे सोलह हजार फिट की ऊंचाई पर स्थित देवीताल पर पहुंच गये. वहां से लामचीर शिखर के लिए ठोस ग्लेशियर आरम्भ होता है. आधा कि.मी. आगे अल्मोड़ा अभियान दल के सदस्य अपना अग्रिम शिविर स्थापित कर रहे थे. तीन ओर से मोरेन से घिरे एक चौरस खाई में ग्लेशियर के पिघले पानी के एकत्र होने से एक छोटी सी झील ही देवीकुण्ड कहलाती है. इस बुग्याल से पिण्डारी कांठा की स्थिति स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है. बलचूरी से लामचीर तक के सभी उच्च हिम शिखर तथा उनके मध्य भाग का भली-भॉति अवलोकन किया जा सकता है. अनूप शाह जी ने बताया कि पिण्डारी ग्लेशियर की अपेक्षा बायीं दिशा की ओर चट्टान और बुग्याल से होकर ट्रेल पास अभियान पर जाना अधिक उपयुक्त होगा, क्योंकि पिण्डारी ग्लेशियर पर हजारों क्रभासेज दिखाई दे रहे थे और लगातार ग्लेशियर टूटने की भयंकर आवाज आ रही थी. चाय-बिस्कुट लेने और अनेक फोटोग्राफी करने के पश्चात् हम 3 बजे वापस लौटे तथा पांच बजे कैम्प में पहुंचे, आज दल के सभी सदस्य दिन भर भूखे रहे.
28 सितम्बर हमारा विश्राम का दिन था, कर्नल जोशी का आदेशा था कि नहाने-धोने से लेकर नाखून काटने तक का सभी प्रकार के व्यक्तिगत कार्य आज सम्पन्न हो जाना चाहिए. कल से एक्सपीडिशन प्रारम्भ हो जाने पर इस प्रकार के कार्य करने का अवसर नहीं मिल पाएगा. दिन में ग्रुप फोटोग्राफी की गई. पर्वतारोहण में प्रशिक्षण प्राप्त युवक आवश्यक उपकरण का वितरण करने लगे. चार बजे नीरज कुमार ने हमें इन उपकरणों की उपयोगिता बताते हुए रॉक क्लाइम्बिंग तथा रैप्लिंग की ट्रेंनंग भी दी. पर्वतरोहण सम्बन्धी किसी प्रकार के प्रशिक्षण और अनुभव की दृष्टि से मैंने इन उपकरणों का नाम तक नहीं सुना था. मेरी ही भांति कुछ अन्य सदस्य भी थे, जो ठुराखड़क के निकटवर्ती खड़ी चट्टान पर रस्सी द्वारा चढ़ने से घबरा कर वापस लौटने का निश्चय करने लगे. परन्तु मेरा एक ही संकल्प था, अन्तिम क्षण तक आगे बढ़ता रहुंगा.
29 सितम्बर के प्रातः ही पैक – लंच लेकर सभी सदस्यों को पिण्डर नदी के दायें किनारे होते हुए बुढ़िया गल कैम्प तक रूट सर्वे तथा इस नयी जलवायु में अभ्यस्त होने के लिए दस किलो सामान उठा कर ले जाने का आदेश हुआ. अनूश शाह जी इससे पूर्व 1972 में बलजूरी शिखर और पौलीद्वार शिखर अभियान पर जा चुके थे, अतः वे इस ट्रेक रूप से परिचित थे. परन्तु उनके पहुंचने से पूर्व चार सदस्यों के साथ मैं भी आगे बढ़ता हुआ दिशा भटक गया. जबकि पीछे से शाह जी सीटी देते हुए ऊपर चढ़ाई चढ़ते जा रहे थे. अतः हमें भी फींची घास और जूनीपर की झाड़ी पकड़ते हुए अन्त में खड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ी, 11 बजे हम सब एक साथ मिल गये. अब हम एक हरे-भरे चरागाह में पहुंच गये थे, यह स्थान कैम्प के लिये उपयुक्त है, परन्तु यहां पानी का अभाव था. यहां से लगभग पांच सौ मीटर की चढ़ाई के पश्चात् बुढ़ियागल नाले की एक छोटी सी पठारी शृंखला है. इस शृंखला के दो सौ मीटर उत्तरी ढलान पर बुढ़ियागल नाले में बड़े-बड़े पत्थर डाल कर चार सदस्य नाला पार उतरने का प्रयास कर रहे थे, परन्तु ग्लेशियर पिघलने से नाले का पानी बढ़ता जा रहा था, अतः उन साथियों को वापस बुलाया गया, शाह जी ने उन चार सदस्यों और दो कुलियों के साथ बुढ़ियागल के निकट ही कैम्प लगाने का निश्चय किया. लंच लेने के पश्चात् अन्य सभी सदस्य आधार शिविर की ओर लौट आये, छः बजे कैम्प में पहुंचने के पश्चात् ही रात्रि भोजन की तैयारी हो पायी.
30 सितम्बर के प्रातः एक नेपाली कुली को अल्यूमीनियम की सीढ़ी के शीघ्र बुढ़ियागल के नाले तक पहुंचाने हेतु भेजा गया, साथ में दो सदस्य भी सहायक के रूप में गये. राजेश शाह, राकेश शाह और किशान लाल शाह सहित आठ सदस्यों ने यहीं से वापस लौटने का निश्चय कर लिया था. इन सदस्यों से विदाई लेकर अन्य सभी सदस्यों ने पूर्ण तैयारी के साथ 9 बजे कैम्प से प्रस्थान किया. प्रातः काल ग्लेशियरी नाले का पानी कम होने के कारण शाह जी अन्य साथियों सहित नाला पार कर ठुरा खड़क जा सकते थे. परन्तु कर्नल जोशी के आदेश से अन्य सभी साथी पुनः आधार शिविर को लौट गये. कर्नल जोशी, थ्रीश कपूर और मैं तीन व्यक्ति टैन्ट लगाकर बुढ़ियागल कैम्प में रूक गये, गत रात्रि की बनी पकौड़ी और पूड़ी खाकर रात्रि आराम से बीती, निकट ही बुढ़ियागल और पिण्डारी ग्लेशियर के टूटते रहने से रात भर भंयकर आवाज आती रही थी.
पहली अक्टूबर को करीब साढे आठ बजे सुरा खड़क से दो कुलियों के आने पर मैं भी कर्नल साहब से अनुमति लेकर उनके साथ आगे बढ़ गया. 11 बजे सुराखड़क के टीले पर पहुंचा, जहां शाह जी प्रतिक्षा में थे, आम का जूस पीकर हम कैम्प की ओर बढ़े. अनिल बिष्ट, सुभाष चन्दोला, नवीन तिवाड़ी और नीरज कुमार रूट सर्वे करने तखता कैम्प की ओर गये थे और वे वहीं रूक गये, 4 बजे तक आधार शिविर से अन्य साथी भी पहुंच गये. अब हम लगभग 15510 फिट की ऊंचाई पर स्थित ठुरा खड़क में थे. यह एक सुरम्य स्थल है. निकट ही पानी का नाला है, परन्तु लकड़ी का अभाव है. माह जून-जुलाई में सम्भवतः यह स्थल बर्फ से आच्छदित रहने के कारण बहुत नम रहता होगा. इससे ऊपर किसी प्रकार की वनस्पति न उगने के कारण मोरेन है.
(Trail Pass Campaign)
दो अक्टूबर के प्रातः शाह जी एक कुली को साथ लेकर तख्ता कैम्प की ओर बढ़े. सुरा खड़क से सीधी चढ़ाई चढ़ते हुए लगभग 16550 फिट की ऊंचाई के पथरीले गिरी श्रृंखला पर टैन्ट लगाकर कैम्प स्थापित किया गया था. इसके दोनों और ग्लेशियर हैं परन्तु पानी का अभाव है. 1972 में नन्दा खाट अभियान के अवसर पर पूर्व अभियान दल द्वारा छोड़े गये तख्ते को अनूप शाह जी ने इस टीले पर खड़ा कर दिया था, तब से यह तख्ता सुरक्षित खड़ा रह कर अभियान दल के सदस्यों के लिए सकेतक का कार्य कर रहा है. आज दिन भर हम लोग दूरबीन से अपने दल के अग्रिम सदस्यों की कार्यविधि और पूर्व की ओर लामचीर में अमेरीकन दल के सदस्यों के अभियान को देखते रहे. इस शिखर पर अल्मोड़ा के सदस्यों द्वारा पांच दिन पूर्व किए गये अभियानद का पद चिन्ह एक पंक्ति के रूप में स्पष्ट दिखाई दे रहा था. इसी का अनुशरण कर अमेरीकन दल के सदस्य भी पंक्तिबद्ध होकर शिखर की ओर बढ़ रहे थे. आज का दिन पूर्ण विश्राम के साथ बीता कर्नल जोशी ने गजेन्द्र बोरा, अशरफ अली और कीर्ति चन्द को आधार शिविर जाकर रोटी सब्जी बना लाने का आदेश दिया. क्योंकि वहां पर्याप्त मात्रा में जलाने की लकड़ी उपलब्ध थी और राशन भी शेष पड़ा था. पहली अक्टूबर से रसोई का दायित्व कुमारी लता ने सम्भाला था, वह लगन और तत्परता से भोजन बना कर सबको बड़े प्रेम से खिला रही थी.
तीन अक्टूबर के प्रातः कर्नल जोशी और कपूर साहब ने एक कुली को साथ लेकर तख्ता कैम्प के लिये प्रस्थान किया. साढ़े ग्यारह बजे खिचड़ी खाने के पश्चात् डॉं. चन्द, कु. लता और मैं भी कुछ आवश्यक राशन आदि लेकर अग्रिम कैम्प के लिए चले. दो बजे कैम्प में पहुंच कर हम कुछ आगे की ओर बढ़े थे कि थोड़ी देर पश्चात् रोप फिक्स करके शाह जी वापस लौटते हुए मिले. उन्होंने बताया कि रोप फिक्स तो हो चुका है, परन्तु लूज रौक्स में पत्थर गिरने का भय है और रस्सी के सहारे 75 डिग्री अंश के ढलान पर 600 फीट ऊपर चढ़ना प्रत्येक सदस्य के वश की बात नहीं है, तथा कर्नल साहब को तो वापस लौटना ही पड़ेगा. परन्तु उन्हें ऐसा कौन कह सकता था. हम तीनों ठुरा खड़क के लिये वापस लौट आये, क्योंकि अधिक ऊंचाई पर नयी जलवायु में अभ्यस्त होने के लिए एक्लटाइजेशन के रूप में इस प्रकार लौटा-फैरी करना भी आवश्यक होता है.
बी.सी. पाण्डे के पास एक छोटा सा ट्रान्सिस्टर था, उसने बी.बी.सी. न्यूज के अनुसार देहली जा रहे उत्तराखण्ड आन्दोलनकारियों पर 2 अक्टूबर को मुजफ्फरनगर में पुलिस द्वारा गोली चलाये जाने तथा पूरे उत्तराखण्ड में तनावपूर्ण स्थिति होने के कारण कई नगरों में धारा 144 लगाये जाने के समाचार से अवगत कराया. शाम को नीरज कुमार भी वापस लौट आया था, वह इस अभियान की व्यवस्था से कुछ असन्तुष्ट था और अप्रशिक्षित सदस्यों के साथ आगे बढ़ने पर कठिनाई अनुभव कर रहा था. इस पर डॉ. चन्द कुछ नाराज भी हो गये, परन्तु नीरज कुमार, बी.सी.पाण्डे और राजेश जोशी अपनी व्यक्तिगत समस्याओं के कारण वापस लौटना चाहते थे. आधार शिविर से बन कर आई कुछ रोटी और सब्जी ठुराखड़क में रखकर शेष रोटी-सब्जी तख्ता कैम्प को भेज दी गई. सात सदस्यों के लिए केवल नौ रोटी भेजे जाने पर कर्नल जोशी का रोष भरा पत्र आया. पत्र में सभी सदस्यों को आगे बढ़ने का आदेश था, परन्तु मेरा और कु.लता का नाम विशेष रूप से उल्लखित होने के कारण डॉ. चन्द असमन्जस में पड़ गये कि उन्हें अब क्या करना चाहिए. वे रात भर इसी उधेड़ बुन में रहे.
चार अक्टूबर के प्रातः चार कुलियों को जलाने की लकड़ी लाने हेतु आधार शिविर भेजा गया. नीरज पाण्डे और जोशी कैम्प में ही रहे. हम तीनों सदस्य पूर्ण तैयारी के साथ 1 बजे पुनः तख्ता कैम्प पहुंचे. आज शाह जी ने अग्रिम दल के साथ रिज कैम्प पहुंचना था, परन्तु ज्ञात हुआ कि रिज कैम्प पर चढ़ने की कठिनाई से अवगत होकर कर्नल जोशी के आदेश से वे लोग दिन भर पिण्डारी ग्लेशियर के मध्य रूट सर्वे करते रहे, परन्तु ग्लेशियर के विशाल हिम खण्डों और लम्बे-चौड़े क्रेमासेज तथा 4-5 मीटर तक लम्बे लटके सीरेक्सेज को पार कर आगे निकल पाना बहुत कठिन था. उन्हें इन क्रेमासेज में पूर्व अभियान दलों के हेलमेट, आइसएक्स, रस्सियां और कपड़े आदि पड़े हुए भी दिखाई दिये. इस प्रकार आज का दिन व्यर्थ व्यतीत हुआ. दो बजे से मौसम प्रतिकूल होने से सिलिट की तेज बोछार पड़ने लगी और धीरे-धीरे 10 से.मी. तक बर्फ की मोटी तह जम गई. सब लोग टेन्ट के अन्दर दुबके पड़े थे. साढ़े तीन बजे डॉ. चन्द ने आकर मुझे अवगत कराया कि कर्नल जोशी और शाह जी अनुमति लेकर वे वापस लौट रहे है. अपने एक स्नेही साथी के बिछुड़ने से मन में ग्लानि अवश्य हुई. परन्तु मैं किसी भी स्थिति में वापस लौटना नहीं चाहता था.
(Trail Pass Campaign)
पांच अक्टूबर के प्रातः ही चाय के पश्चात् चन्दोल, तेवारी, शाहजी और कीर्तिचन्द दो कुलियों को साथ लेकर आगे निकल गये. ग्यारह बजे हमने भी प्रस्थान किया. तख्ता रिज से ग्लेशियर आरम्भ हो जाता है. इस ग्लेशियर पर जापानी दल के हथोड़ा, आइस पीटन, रस्सी आदि पड़े हुए हैं. हमने अपने जुतों पर क्रेमापौनं बांध लिया और परस्पर रस्सी से संलग्न होकर आगे बढ़ने लगे. कर्नल जोशी के जूतों से बार-बार क्रेमापौनं निकलने के कारण विलम्ब होने लगा था. लगभग चार सौ मीटर आगे बढ़ने से करीब 6 मीटर चौड़ा क्रेमास को पार करने में हमें एक घण्टा लग गया. अब पचास मीटर ग्लेशियर पर ऊपर चढ़ने के पश्चात् रस्सी के सहारे चट्टान पर चढ़ना था. एक कुली के पश्चात् असलम और दूसरी कुली के पश्चात् मुझे रस्सी पर चढ़ने का आदेश हुआ.
अनिल बिष्ट ने अयापना हारनेस और कैरावाइनर मुझे दे दिया, मैं रस्सी के सहारे ऊपर चढ़ता गया. रॉक क्लाइंबिंग का यह मेरा पहला अवसर था. परन्तु मुझे किसी प्रकार की कठिनाई नहीं हुई. राजेन्द्र वोरा और अशरफ ने कर्नल साहब और थ्रीश कपूर को विले करके ऊपर खींचना प्रारम्भ किया. कुछ दूरी पर मुझ से आगे बढ़ने वाला कुली हताश होकर खड़ा था, मैंने उसे पीछे हटा कर स्वयं आगे बढ़ना आरम्भ किया. 80 डिग्री तक की खड़ी चट्टान पर आगे बढ़ते हुए में लगभग 400 फिट तक ऊपर चढ़ चुका था. आगे कुछ खुले स्थान पर मैं रस्सी से पृथक होकर चट्टान पकड़ते हुए ऊपर चढ़ने लगा. इतने में पहाड़ की चोटी से आवाज आई कि बिना रस्सी के सहारे पहाड़ पर चढ़ने से दुर्घटना होने का भय रहता है.
4 बजे से सिलिट गिरना आरम्भ हो गया था, दस्ताने गीले हो गये थे. हाथ अकड़ने लगे, मैं पुनः रस्सी से संलग्न होकर लगभग छः बजे ऊपर चोटी पर पहुंच गया. शाह जी तथा अन्य सभी सदस्य 17560 फिट ऊंचाई पर ग्लेशियर में टेन्ट लगाकर बैठे थे. चाय बनी थी. अंधेरा भी हो चुका था. पीछे छूटे अन्य साथियों के सम्बन्ध में आशंका व्यक्त की जा रही थी कि वे नीचे चट्टान के सहारे या ग्लेशियर के किसी समतल भाग में आसरा लेकर बैठे होंगे. इस रिज पर नन्दाखाट अभियान दल के सदस्यों द्वारा पूर्व में छोड़े गये रिंगाल, फल और दूध के खाली डिब्बे यत्र-तत्र पड़े हुए थे. आज हम आठ व्यक्तियों को थ्रीमैन टेन्ट के अन्दर सिकुड़ कर आरे-तिरछे लेटना पड़ा. गैस सिलण्डर के गैस के गन्ध से जी मचलने के कारण एक कुली रात भर उलटी करता रहा.
छः अक्टूबर की प्रातः सूर्योदय के पश्चात् ही हम टेन्ट से बाहर निकल पाये. दूर धांकरी तक पिण्डर घाटी और द्वाली तक पिण्डर नदी के बहाव के साथ-साथ अश्व मार्ग का दृश्य बहुत मनोहरी लग रहा था. जीरो प्वाइन्ट, पाइलट बाबा के शिष्य का आश्रम और मरतोली खड़क आदि हजारों फिट नीचे खाई में दिखाई दे रहे थे. बलजूरी, पौलीद्वार, नन्दाखाट, च्यांगुच, नन्दाकोट, नन्दा भनार और लामचीर आदि उच्च हिम शिखर तथा नन्दा देवी पूर्व और नन्दा देवी मुख्य का दृश्य बहुत ही निकट से अति आकर्षक लग रहा था. इस स्थल से हमने अनेक फोटो चित्र लिये हैं.
दूरबीन से देखने पर पता चला की कर्नल साहब की पार्टी कख्ता रिज पर बैठी हैं. गत रात में ही शाह जी ने निश्चय कर लिया था कि कर्नल साहब को अब आगे न बढ़ने की सलाह दी जाय, इस आशय से एक कुली को नीचे भेजा गया. वह कुली इस अभियान से बहुत घबराया हुआ था और वापस लौटना चाहता था. दूसरे कुली प्रेम बहादूर को शुष्क मेवा और टेन्ट लाने के लिए भेजा गया. चाय लेने के पश्चात् 8 बजे चन्दोला और तेवारी रूट सर्वे करने आगे बढ़े. शाहजी और मैं एक टीले से दोनों और देखते रहे. दूरबीन से देखने पर ज्ञात हुआ कि कर्नल जोशी और कपूर साहब तख्ता रिज से नीचे वापस लौट रहे हैं तथा अन्य पांच सदस्य ऊपर की ओर बढ़ रहे हैं. चन्दोला और तिवारी भी रूट सर्वे करके वापस लौट आये थे. साढ़े नौ बजे दलिया खाकर हमारा कैम्प उठ गया. कुली के न पहुंच पाने के कारण गैस सिलेण्डर मैंने उठाया और टेन्ट, राशन आदि आवश्यक सामग्री अन्य सदस्यों को लेना पड़ा. चन्दोला, तेवारी और कीर्तिचन्द एक रस्सी पर तथा शाहजी, मैं और असलम दूसरी रस्सी पर संलग्न होकर एक दूसर के मध्य 15-20 फिट का अन्तर रखते हुए आगे बढ़ते रहे. पिण्डारी ग्लेशियर के अग्र भाग से ट्रेल पास तथा नन्दा खाट और च्यांगुच के मध्य ढलान में लगभग 15 वर्ग किलोमीटर के विस्तार में फैला यह क्षेत्र पिण्डारी कांठा के नाम से जाना जाता है. नन्दा खाट के पूर्वी और च्यांगुच के पश्चिमी ढाल से हजारों वर्ष पूर्व से एकत्रित हिम खण्डों से बने पिण्डारी कांठा के इस चौरस ग्लेशियर में हजारों क्रेमासेज हैं. बड़ी सावधानी पूर्वक आड़े-तिरछे चलते हुए लगभग तीन किमी चलने पर हम 1 बजे एक समतल ग्लेशियर पर पहुंचे. यहॉं से नीचे की ओर भयंकर केमासेज थे. अतः क्रेमपौंन बांध कर एक ग्लेशियरी टीले के 60 डिग्री ढलान पर चढ़ने का प्रयास किया गया. शाहजी और मैं पीछे रहे गये थे. आधे घण्टे के पश्चात् कीर्तीचन्द ने आकर सूचित किया कि आगे भी भयंकर क्रेमासेज हैं.
(Trail Pass Campaign)
हिम शिखरों पर कोहरा घिरने के साथ ही सिलिट गिरने लग गया था. ऐसे में आगे बढ़ना उचित न समझ कर हम सभी वापस लौट आये और एक समतल ग्लेशियर में टेन्ट लगाकर विश्राम करने लगे. राशन की कमी थी, चाय पीने के पश्चात् दो पाकेट मैगी उबाल कर हम छः सदस्यों ने खाया. टेन्ट से लगभग 20 मीटर की दूरी पर ऊपर की ओर विशाल हिमखण्ड पर्वताकार खड़े थे, जिसके टूटने की आशंका से रात भर मन में भय समया हुआ था.
सात अक्टूबर को प्रातः चाय के पश्चात् चारों सदस्य पुनः उसी दिशा की ओर रूट सर्वे पर निकल गये. असलम बीमारी के बहाने लेटा रहा, 8 बजे मैंने दूरबीन से रिज कैम्प के एक टीले पर बिष्ट-बोरा दल के सदस्यों को देखा आशा हुई कि वे लोग भी शीघ्र पहुंच जायेंगे, परन्तु साढ़े ग्यारह बजे तक वे लोग फिर कहीं नहीं दिखाई पड़े .तब तक रूट सर्वे करने वाले भी वापस लौट आ गये. दलिया खाकर कैम्प उठा लिया गया. परन्तु पीछे के सदस्यों के न आने से मन में झुझलाहट थी तो राशन की कमी के कारण निराशा भी. लेकिन अति निकट ही ट्रेल पास दिखाई देने के कारण उत्साह भी बढ़ता जा रहा था कि भूखे-प्यास रहकर भी हम सफलता की सीढ़ी पर उतर ही जायेंगे. पूर्व की भांति रस्सी में संलग्न होकर हम आगे बढ़ते गये. ट्रेल पास एक दम निकट था.
नन्दा देवी का विहंगम दृश्य दिखाई दे रहा था. मन में उल्लास छाया हुआ था, परन्तु ग्लेशियर पर पड़े ताजे बर्फ पर क्रेमासेज के कारण आड़े तिरछे चलते-चलते थक चुके थे. मेरे पांव ठण्ड से अकड़ने लगे. चार बजे ट्रेल पास से लगभग पचास मीटर की दूरी पर एक समतल ग्लेशियर के ऊपर कैम्प लगाया गया. मैंने तौलिया से तुरन्त पांव साफ कर वासलेन मला और पशमीना लपेट कर स्लीपिंग बैग के अन्दर घुस गया. आधे धण्टे के पश्चात् कुछ आराम अनुभव किया. चाय लेने के पश्चात् हम ट्रेल पास कर जाना चाहते थे. टैन्ट से बाहर आने पर दूर क्षितिज पर पीछे के सदस्यों को आते हुए देख कर बड़ी प्रसन्न्ता हुई. वे हमारे पदचिन्हों और झण्डियों के सहारे आ रहे थे. चार बज कर पचपन मिनट पर हम 17707 फिट ऊंचे ट्रेल पास पर पहुंचे.
जोहार घाटी के उच्च पर्वत श्रेणियों और बुग्यालों तथा निकट ही ल्वां ग्लेशियर को देखकर हम हर्ष से उछल पड़े. एक दूसरे के गले मिले. मानों हमें सफलता मिल गई हो. पूरब की ओर निकट ही के दूसरे टीले का 1992 में जोहार घाटी की ओर से केदार सिंह मरतोलिया की पार्टी द्वारा लिये गये फोटो चित्रों का मिलान किया गया. वे भदेली ग्वार से नदी किनारे न आकर दायें च्यागुंच की ओर ऊपर बढ़ने के कारण सफल नहीं हो सके थे. हमने इस टीले से सीधे नीचे उतरने का निश्चय किया, 6 बजे तक पीछे से आने वाले सदस्य भी पहुंच चुके थे. कुली प्रेम बहादुर सहित हम ग्यारह सदस्य थे. दो गैस सिलेण्डरों में गल(बर्फ) पिघलाकर मैगी बनाई गई.
(Trail Pass Campaign)
पिण्डारी कांठा की ओर ग्लेशियर से ट्रैल पास के मध्य लगभग 30 फिट ऊंचाई तक मोरेन और पथरीली भूमि है. ट्रेल पास की श्रेणी के पूर्व की ओर लाल-भूरे रंग का नंगा पहाड़ देवी कुण्ड से भी दिखाई देता है. आठ अक्टूबर के प्रातः हम सभी सदस्य ट्रेल पास पर गये, अगरबत्ती जलाई गई नन्दामाई की जयघोष के साथ कु. लता ने सब को शुष्क मेवा वितरित किया. एन.टी.एम.सी. के बैनर के साथ राष्ट्रीय ध्वज फहराते हुए ग्रुप फोटो चित्र लिया गया. हमने इस स्थल पर अपने इस अभियान के प्रतीक स्वरूप पत्थर खड़ा करके छः कैरन भी बनाये हैं.
(Trail Pass Campaign)
ट्रेल पास से नन्दा देवी के पदतल से शिखर तक का सम्पूर्ण दृश्य बहुत ही आकर्षक दिखाई देता है. नन्दा देवी और नन्दा खाट के मध्य में लौंग स्ट्राफ कौल भी सम्मुख ही दिखता है. ग्यारह बजे तक टीले पर रोप फिक्स कर अनिल बिष्ट, नवीन तेवारी, असलम अली और प्रेम बहादुर रस्सी के सहारे नीचे उतर गये. चन्दोला और शाह जी ने बेश सम्भाला, गजेन्द्र बोरा मध्य भाग में सदस्यों को रैप्लिंग करने में सहायता कर रहा था. पांच रस्सी और रौक पिटन तख्ता कैम्प के चट्टान पर ही छोड़ आये थे. अब हमारे पास केवल पांच सौ फिट लम्बी रस्सी थी. जबकि हमें सीधे नीचे ल्वां ग्लेशियर पर उतरने के लिए दो हजार फिट लम्बी रस्सी की आवश्यकता थी. अतः पांच सौ फिट नीचे उतर कर बिष्ट और तेवारी मुख्य नाले से हट कर मोरेन होते हुए बायीं और चट्टान के पीछे रूट सर्वे करने चले गये. मैं गजेन्द्र बोरा को अपना हार्नेस तथा कैरावाइनर मुझे देने के लिए बार-बार आग्रह कर रहा था. ताकि मैं भी नीचे उतर कर रूट सर्वे करने जा सकूं.
छः सदस्य नीचे उतर चुके थे, ढाई बजे से सिलिट की वर्षा के साथ बहुत ठण्डी हवा चलने लगी. तीन बजे नीचे से सूचना मिली की वहां से नीचे उतर पाना सम्भव नहीं है और न चट्टान के मध्य कहीं टैन्ट लगाने के लिए पर्याप्त स्थान ही है, अतः ऊपर के सदस्य नीचे उतरने का प्रयास न करें. अब शाह जी का कहना था कि पुनः गत कैम्प की ओर लौट चलें और मेरा आग्रह था कि हम उसी टीले कहीं टैन्ट लगाकर दुबके पड़े रहें. जबकि उस स्थल पर हवा की गति बहुत तेज थी, अतः कीर्तीचन्द, कु. लता और मैं पुनः पूर्व कैम्प की ओर लौट आये ग्लेशियर पर टैन्ट खड़ा कर लिया. चन्दोला चाय, चीनी आदि खाद्य सामग्री लेकर नीचे उतर गया, वहां से एक गैस सिलेण्डर लाकर पांच बजे कैम्प में वापस पहुंचा. शाहजी तब तक ऊपर टीले से दोनों ओर के घटना क्रमों का अवलोकन करते रहे. आज इस प्रकार वापस लौटने तथा मौसम प्रतिकूल होने के कारण मन में क्षोभ हो रहा था कि यदि इसी प्रकार मौसम प्रतिकूल होता रहे या अधिक हिमपात हो जाये तो हम ऐसे विकट स्थल में फंस जायेंगे. जबकि हमारा लक्ष्य दो अक्टूबर तक मुनस्यारी पहुंच जाना था. अतः घर के लोग इस विलम्ब के कारण बहुत चिन्तित होंगे.
कॉफी और दलिया लेकर हम नौ बजे सो गये. कुछ देर पश्चात् मैं सीटी की आवाज सुन कर चौंक पड़ा. कुछ देर पश्चात् दूसरी सीटी लगने पर सभी सदस्य घबरा गये और चन्दोला तथा कीर्तीचन्द टार्च लेकर टीले की ओर बढ़े. वहां से भी स्पष्ट आवाज आने लगी. किसी आकस्मिक दुर्घटना की आशंका से हम बहुत भयभीत हो उठे. दस बजे असलम और अशरफ दोनों भाई ठण्ड से बुरी तरह अकड़ कर हॉंफते हुए टैन्ट में पहुंचे. उनका जूता उतारा गया. हाथ पॉंव सहला कर गरम किये. उन्हें चाय पिलाई गई. तब उन्होंने बताया की नीचे चट्टान में छः व्यक्तियों के लिए पर्याप्त स्थान न मिलने के कारण उन्हें ऊपर वापस जाने हेतु विवश किया गया. अतः अंधेरे में प्राण हथेली पर रख कर जुमारिग करते हुए आये हैं. वे चारों सदस्य सुरक्षित हैं. आज का दिन इस अभियान अवधि का सबसे निराशाजनक दिन था.
(Trail Pass Campaign)
पुरवासी के सोलहवें अंक में डॉ एस. एस. पांगती का लिखा लेख ‘ट्रेल पास अभियान‘
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