ताँबे के बर्तन में रखा पानी शुद्धता और स्वाद के लिहाज से सबसे अच्छा माना जाता. वहीं लोहे की कढ़ाई साग पात, जौला, भटिया झोली बनाने में रोज ही काम में लायी जाती. बर्तन को पोछ कर खाने की होड़ भी मची रहती जिसका कारण लोहे के बर्तन में बने खाने के अद्भुत स्वाद के साथ मिलने वाले लोहे की लुएंन भी होती. Traditional Utensils in Uttarakhand
दूध, दही, न्योणि, मट्ठा, घी रखने के लिए सानन, विजयसार और गेठी से बने बर्तन और पात्र पाली, ठेकी, कुमली, हड़पी, बिनार, नकई, द्वाब होते जो वनस्पतियों के औषधीय गुणों से भरे होते.
गेठी और शीशम की लकड़ियों से बने दूध घी के बर्तन गढ़वाल में पारी, फुर्रा, परौठी कहे जाते. चारधाम की तीर्थ यात्रा करने गए तीर्थ यात्री कालीफाट मैखंडा में बने काष्ठ बरतन खरीद कर लाते. टिहरी गढ़वाल की दोगी पट्टी व कुंजणी पट्टी के वेमुण्डा में बने काष्ठ बर्तन खूब चलते थे. इन्हें चुनारा जाति के लोग बनाते थे. बांस के बर्तन रुडिया लोग बनाते थे.
पहाड़ों में लम्बे समय तक एक अनाज के बदले दूसरा अनाज देने का रिवाज चलता रहा. इसे वस्तु विनिमय के रूप में देखा जा सकता है. बदले में कुछ न दे पाने की दशा में पेंस या उधार पर वस्तु ली जाती जिसे बाद में वापस कर दिया जाता.
लोहे, ताम्बा, पीतल, लकड़ी या रिंगाल के पात्र अनाज की माप-तोल के लिए बनते. यह तामी, विशी, विशोध, कुड़ी, माणा के नाम से पुकारे जाते. इनमें, विशी एक मन के बराबर, कुड़ी एक सेर की, माणा आधे सेर का व तामी एक पाव के बराबर होती थी.
सोलह मन की एक खार होती थी. गढ़वाल में भूमि की नाप के लिए चौखुंटा ज्यूला तथा चक्र ज्यूला का उपयोग होता था. टिहरी -उत्तरकाशी इलाके में यह ज्यादा प्रचलित थी.
सामान्यतः पहाड़ में हर जगह अनाज को मापने व खेत में बीज बोने के लिए नाली का प्रयोग किया जाता था. इन्हें जिसे शौका लोग खं कहते, लकड़ी से बने तरल पदार्थ नापने के लिए अलग-अलग माप के पारी होते जिनसे पौवे, अद्धा, बोतल की नाप होती. Traditional Utensils in Uttarakhand
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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.
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