प्रो. मृगेश पाण्डे

उत्तराखंड में परंपरागत तीर्थयात्रा पथ पर एक अति-महत्वपूर्ण लेख

ओ पृथ्वी! तुम्हारे पहाड़, हिमाच्छादित पर्वत, अरण्य प्रसन्न रखें. इसकी ऊंचाई, भव्यता और रहस्यात्मक सौंदर्य से उच्च विचार आयें, कल्पनाएं बलवतीं हों, सृजन की अनुभूतियों का संचार हो. यह धरती, यह वसुधा मेरे लिए आँगन के सामान सुलभ हो. यही वह शिखर हैं जिनसे जीवनदायिनी नदियाँ अपने पवित्र जल से सभ्यता का निर्माण करती रहीं. धरती को धन धान्य से पोषित करती रहीं ये नदियाँ, ये धरती ये शिखर मुझे अपनी ओर खींचते रहें. 
(Traditional Pilgrimage Path in Uttarakhand)

हिमालय इस आत्मिक निमंत्रण को स्वीकार करता रहा और आम जन, परिज्रावक, सन्यासी, भिक्षु, यात्रियों, पर्यटकों व तापसों के दल निकल चले यात्रा पर, सदियों से चले आ रहे. पुराने पथों पर चलते, नये यात्रा पथ बनाते.

हिमालय में उत्तराखंड की तीर्थ यात्राओं का ज्ञान पुराणों के भुवन कोशों में जनपदों के विवरण से प्राप्त होता है. जिसमें हिमालय का उल्लेख करते सात जनपद बताये गए. पाणिनि  का कथन है कि हिमालय में आयुध जीवी संघ रहते थे. उन्होंने “उत्तर पथ” का  उल्लेख किया जिसे मेगस्थनीज़ ने “नॉदर्न रूट” कहा.

वाल्मीकि रामायण में हिमालय “निरामय कारूपथ”  देश था. महाभारत में कहा गया कि हिमालय से पांडवों-कौरवों का गहरा सम्बन्ध रहा, उत्तराखंड की तीर्थ यात्रा करते पांडवों ने यमुनोत्तरी से यात्रा की थी और गंगोत्तरी से  केदारनाथ हो बद्रीनारायण को गए थे. इसे ही उत्तराखंड की “वामावर्त” यात्रा का आरम्भ माना जाता है. पांडवों की स्वर्गारोहण यात्रा का पथ भी हिमालय ही रहा.

बौद्ध धर्म में “दक्षिणावर्त” यात्रा चली. सम्राट अशोक की धम्मयात्रा में गंगा जल की शुद्धता-पवित्रता के प्रतिमान ने गंगा के स्त्रोत क्षेत्र को उल्लेखनीय बनाया. गुप्त काल व सम्राट हर्ष के समय में हिमालय की ओर यात्राएं हर परिज्रावक का लक्ष्य बनीं. बंगाल के नरेश देवपाल ने भी गंगा स्त्रोत की यात्रा की थी तो यशोवर्मन चंदेल ने भी गंगा यमुना प्रदेश में विजय प्राप्त की. चंद्र गुप्त मौर्य के समय में “हेमवत पथ” प्रचलित हुआ जो हिमालय की उपत्यकाओं से कामरूप तक विस्तृत था.
(Traditional Pilgrimage Path in Uttarakhand)

हेमवत में तीर्थ यात्रा गंगाद्वार या हरिद्वार से हो कर जाती थी. इसमें मुख्यतः दो पथ थे, पहला यमुना घाटी का जिसे “स्रुघ्न” कहा गया और दूसरा गंगोत्तरी होते बद्रीनाथ जाने वाला रास्ता जो इससे जुड़े अन्य रास्तों से केदारनाथ व बद्रीनाथ पहुँचता था. तदन्तर कई अन्य रास्ते खुले जिनमें हरिद्वार से गंगा नदी के किनारे जाने वाले रास्ते, हरिद्वार सोंग तट से दूनघाटी जाने वाले रास्ते, कोटद्वार से राजबाट-श्रीनगर गढ़वाल, रामनगर से भिकियासैण-कर्णप्रयाग, चिलकिया ढिकुली से कोसी तट, टनकपुर, चम्पावत-अस्कोट  के रास्ते थे. यह सभी रास्ते शिवालिक या वहिरगिरि से होते कई दर्रों से जाते थे जिनमें तिमली, मोहान, कैंसरो और गंगाद्वार या हरिद्वार मुख्य थे.

अन्य रास्ते वह बने जिनसे पहाड़ से तराई-भावर माल व मैदानी इलाकों का सफर तय होता था. ये उप हिमालय श्रेणी कोटद्वार, चौकीघाटा, चिलकिया, ढिकुली- रामनगर, कोटा भावर,  काठगोदाम, बमोरी और तिमली ब्रम्हदेव टनकपुर वाले पथों पर आवागमन बनाये रखी थी.

तीर्थ यात्रा का स्वरुप भी शनैः-शनैः बदलने लगा. मोक्ष की प्राप्ति का लक्ष्य चिरंतन था तो धार्मिक परम्पराएं कहीं न कहीं श्रृद्धा भक्ति के साथ उस रोमांच से भी जुड़ीं जो हिमालय के सुदूर नीरव एकांत रहस्मय प्रदेश की विशेषता थी.

आसमां छूते पहाड़ों को देख इन्हें छू लेने की इच्छा पैदा होते रही.  जहां घने बादलों की टकराहट होती है बिजलियाँ कडक़तीं हैं. कलेजा मुंह को आ जाता है. फिर बारिश कभी तेज कभी मध्यम. कभी मंद कभी फुहार. आसमां कभी फट पड़ता है. अभी-अभी ओले पड़े. अब सब ठहर गया है और शांति छा गई है. नीरव एकांत को तोड़ते. रूई के फाहे ऊपर से टपकने लगे  हैं. दूर-दूर पसरे हिमशिखरों पे लिपटा कोहरा धीरे धीरे छंटने लगा है. हिमशिखर दिखाई दे रहे हैं. सब ओर एक रहस्यमय चुप्पी पसरी है. ये धरती ये पर्वत ये आकाश और इनके  बीच अचानक ही दमकता इंद्रधनुष पेड़ों पर,  पत्तों पर ओस की टप टप. हर जगह एक अनूठा सौंदर्य है, सम्मोहन है जो पता नहीं कब से अपनी ओर खींचने की प्रक्रिया में लीन है. इनकी ओर बढ़े तो इनके और पास जाने की इच्छा जागती है. जो दिख रहा है उसमें कुछ तिलिस्म है.

ऐसा ही कुछ विशेष हो जिस जगह, जिस स्थान-स्थल में हो खींच लेने वाला आकर्षण. पर्वत, पहाड़, जंगल, घास के मैदान, नदी, झरने, झील, खाल, कुंड, सोते, नौले धारे. जहां प्रकृति ने ऐसा कुछ दिया हो कि वहीं रम गए ज्ञानी ध्यानी ऋषि मुनि. ऐसी कुछ भावना विकसित हो गई कि पर्वतों के सामीप्य और नदियों के संगम में कुछ नया कुछ अलौकिक प्राप्त होता है, ज्ञान बढ़ता है. ऐसे ही स्थान धीरे-धीरे तीर्थ स्थल बन गए.
(Traditional Pilgrimage Path in Uttarakhand)

पुराणों में कहा गया कि नदियों का संगम, कुंड, सरोवर ही तीर्थ हैं. यजुर्वेद कहता है कि कुछ पाने की आस में धरती को घर आँगन समझ अपने पांवों से नापते पर्वतों की छाँव में पसर और सरिताओं के संगम में नहा कुछ अपूर्व अनुभव होता है, ज्ञान बढ़ता है. वनपर्व में कहा गया कि तीर्थ के दर्शन से यज्ञ करने के समतुल्य फल मिलता है. फिर गव्यूति, नारायण क्षेत्र और तीर स्वरूपों की परिकल्पना हुई और तीर्थ का विधान बना कि  देव दर्शन कर प्रणाम करें, जलकुंड में स्नान करें और तीर्थ स्थल में रात्रि निवास करें. आरण्यक, उपनिषद के साथ जैन और बौद्ध ग्रंथों में तीर्थ प्रकृति के सहवास और अरण्य में जीवन बिताने के मह्त्व को रेखांकित करते थे. भिक्षु उसे कहा गया जो अनवरत चलता रहे, भ्रमणशील रहे. साहसी अन्वेषक और साधु संत ऐसे दुर्गम रास्तों से भी चल निकलने का साहस करते थे जहां हिम नदों से गुजरना होता. गहन वनों की छाया में चलते बढ़ना होता. ये छाया पथ कहलाते.
(Traditional Pilgrimage Path in Uttarakhand)

चारधाम की यात्रा में ऐसा ही एक छायापथ यमुनोत्री से गंगोत्री का रहा. यह यमुनोत्तरी से खरसाली होते बर्फ से ढकी पहाड़ियों को पार करता तीस मील की दूरी तय करता हर्षिल जाता था. हरसिल से आगे यह मुख्य रास्ते से गंगोत्तरी पहुंचाता था. दूसरा गंगोत्तरी से बद्रीनाथ का छायापथ नंदनवन, वासुकीताल, कालिंदी ताल होते बद्रिकाश्रम जाता जिसकी दूरी पचास मील थी. ऐसे यात्रा पथ के भी विवरण मिलते हैं जो बद्रीनाथ से तिब्बत में दावामंडी होकर कैलाश मानसरोवर जाता था.

उत्तराखंड के साथ हिमाचली संस्कृति की संगम स्थली है यमुना उपत्यका. दो सौ कि.मी. हिमालय का पश्चिमी पनढाल समेटे यमुना उत्तर से दक्षिण की ओर उत्त्तरकाशी, टिहरी, देहरादून जनपदों को कहीं बीच से और कहीं सीमाओं से चीरती प्रवाहित होती है. इसकी सहायक है टोंस या तमसा जो हिमाचल के सिरमौर और जुब्बल जनपदों से सीमा बनाते कालसी के पास यमुना में मिलती है. यमुना यहाँ दो हज़ार चार सौ गावों की दस लाख से अधिक आबादी का पोषण करती 9637 वर्ग कि.मी. का  जलागम क्षेत्र बनाती है.

यमुनोत्तरी कांठे को कालिंद पर्वत भी कहा जाता रहा. अब ऋषिकेश से यमुनोत्री का मोटर यात्रा पथ 222 कि. मी. तथा यमुनोत्री से गंगोत्तरी 226 कि. मी. है. गंगोत्तरी से उत्तरकाशी, टिहरी, घनशाली, तिलवाड़ा हो कर केदारनाथ का यात्रा पथ 348 कि. मी. है जबकि श्रीनगर गढ़वाल हो कर यह 343 कि. मी. है. सोनप्रयाग से केदारनाथ का पैदल यात्रा पथ 20 कि. मी.  है. केदारनाथ से बद्रीनाथ का प्राचीन यात्रा पथ नागपुर मण्डल कल्पेश्वर से बद्रीनाथ का रहा पर प्रमाणिक यात्रा पथ केदारनाथ से लौट रुद्रप्रयाग होते हुए सुमेरपुर, शिवानंद चट्टी, नगरासू, चटुआपीपल, कर्णप्रयाग, नंदप्रयाग, चमोली, पीपलकोटी, गरुड़ गंगा, टंगड़ी, जोशीमठ, विष्णुप्रयाग, पांडुकेश्वर, लामबगड़, हनुमानचट्टी, घोरसिल पुल, कांचनगंगा और देवदेखनी होते हुए 136 मील की  दूरी तय कर बद्रीनाथ पंहुचता था.
(Traditional Pilgrimage Path in Uttarakhand)

मध्य काल में केदारखंड की तीर्थ यात्रा में सहायक यात्रापथ प्रचलित रहे जो निम्नवत थे :

1. हरिद्वार से देवप्रयाग.
2. देवप्रयाग से टिहरी.
3. टिहरी से धरासू.
4. धरासू से यमुनोत्तरी.
5. यमुनोत्तरी से उत्तरकाशी.
6. उत्तरकाशी से गंगोत्तरी.
7. गंगोत्तरी से केदारनाथ.
8. केदारनाथ से बद्रीनाथ.

हरिद्वार से देवप्रयाग

हरिद्वार से देवप्रयाग का परंपरागत यात्रा पथ  64 मील था. यात्रा हरिद्वार से सत्यनारायण मंदिर होते ऋषिकेश (19 मील) से लक्ष्मण झूला (2 मील ) से गरुड़ चट्टी, फुलवाड़ी, गूलर चट्टी (8 मील), से महादेव सैणचट्टी (2 मील), से मोहनचट्टी, बैंजनीमुकाम (4 मील ) से कुणचट्टी, बंदरभेल (6 मील) से महादेव चट्टी, सेमल चट्टी (7 मील ) से कांडी चट्टी (3 मील )से व्यास चट्टी (4 मील) से राम मंदिर,  छालरी चट्टी, उमरासु चट्टी, सौड़ चट्टी (7 मील) से देवप्रयाग-भागीरथी और अलकनंदा नदी का संगम (2 मील) अलकनंदा नदी का पुल पार कर रघुनाथ मंदिर और आगे भागीरथी का पुल पार कर शांता बाजार देवप्रयाग पंहुचा जाता था.

ऋषिकेश से देवप्रयाग का दूसरा यात्रा पथ भी प्रचलित था जिसमें काफ़ी कठिन चढाई व उतार थे. इस मार्ग में ऋषिकेश से तपोवन (2 मील) से निगर्ड, ब्रह्मपुरी, शिवपुरी, वशिष्ठ गुफा, लोड़सी (7 मील) से पौकी  देवी, नाइ गाँव, चंद की पौ, मनभंग-चित भंग, राणी ताल, बौंठ, भाला की मांड, दनसाडा (8 मील) से तुठागी (2 मील) तुगणी से धोनार खोला गढ़ी होते हुए शांता नदी के समीप से देवप्रयाग पहुँचता था.

देवप्रयाग से टिहरी

देवप्रयाग से टिहरी का परंपरागत यात्रापथ 34 मील था. देवप्रयाग से खरसाडा (10 मील) से कोटेश्वर जिसे केदारखंड में प्राचीन शिवमंदिर कहा गया (4मील) से बंडरया, क्यारी (14) से होते टिहरी (6मील) पंहुचता था.

टिहरी से धरासू

टिहरी से धरासू का पथ टिहरी स्टेट बनने के बाद विकसित हुआ. इस मार्ग में टिहरी से पीपल चट्टी, भल्डियाना-सिरांइ (10 मील) से छाम, नगुण होते हुए धरासू (15 कि.मी.) पंहुचता था. नगुण तथा धरासू यात्रा पथों को जोड़ने वाले मुख्य स्थान थे. धरासू पहले ‘मंगलनाथ का थान’ नाम से भी जाना जाता था.

धरासू से यमुनोत्तरी

धरासू से यमुनोत्तरी तक का परंपरागत यात्रा पथ 52 कि. मी. था. इस पथ में चलते हुए धरासू से राजेश्वरी के प्राचीन मंदिर स्थल कल्याणी (4 मील) से ब्रह्मखाल, सिलक्यारा (10 मील) होते हुए राडीधार व डण्डाल गाँव (7 मील ) से सिमल, गंगनाणी (4 मील) से यमुना चट्टी (6 मील) से वजरी, डडोरी, रानागाँव (11 मील ) से हनुमान चट्टी, खरसाली (6 मील) होते हुए 4 मील चल यमुनोत्री पंहुचते हैं.

कालसी से यमुनोत्तरी तक 76 मील का प्राचीन पथ लखवाड़ होते हुए नागनाथ, विजनार, गौराघाटी, मानथात, लाखामंडल, चांदा डोखरि, बगासू, पौंठी, राजगढ़ी, परशुराम की  तपस्थली नगाण गाँव पहुँचता था. जो गुदडू जमींदार की घाटी, बजरी, गिट्ठ दुरवील से नीचे पिंड की बनास से आगे जानकी चट्टी में मिल जाता था. इस पथ में अनेक धार्मिक व ऐतिहासिक स्थल पड़ते हैं.
(Traditional Pilgrimage Path in Uttarakhand)

यमुनोत्री से उत्तरकाशी

यमुनोत्री से उत्तरकाशी की यात्रा पथ में यमुनोत्री से गंगनाणी (24 मील) फिर गंगनाणी से सिंगोट चट्टी (9 मील) नाकुरी (9 मील) होते उत्तरकाशी आते थे. ऐसे ही दूसरा रास्ता भल्डियाना में भागीरथी को बावड़ के पुल से पार कर मोटणा, चौंधार, भेलुंता, बौंसाड़ी, लंबगाँव, सेरा, बलडोगी, मुखमाल गाँव, गांजण, चौरंगीखाल, धनारी, बुंगाडी और लदाड़ी होकर 33 मील की पदयात्रा होती थी.

उत्तरकाशी या बाड़ाहाट या सौम्यकाशी से गंगोत्तरी

उत्तरकाशी या बाड़ाहाट या सौम्यकाशी से गंगोत्तरी का प्राचीन यात्रा पथ 55 मील की दूरी तय कर सम्पन्न होता था. उत्तरकाशी से मनेरी, मल्ला, भटवाड़ी (16 मील) से क्यार्क जहां नौ वीं सदी का बना मंदिर है, से ऋषिकुंड गंगनाणी (9 मील) होते हुए लोहारी नाग, सुखी, झाला (12मील) जो हरसिल, ओणीया पुल, थराली, जांघला चौकी (9 मील)फिर जाड़गंगा पार कर भैरों घाटी (2 मील) होते 6 मील की पद  यात्रा से गंगोत्तरी पहुंचा जाता है.

गंगोत्तरी से केदारनाथ

गंगोत्तरी से केदारनाथ के प्राचीन यात्रापथ की दूरी 122 मील थी जिसमें गंगोत्तरी से पहले भटवाड़ी मल्ला (40 मील) आकर  मल्ला से सेरा की गाड़ से प्यालू छूणा से बेलक (13 मील) होते पंगराणा, झाला, बूढ़ाकेदार (14मील) से टोलाचट्टी (4 मील) भैरव चट्टी-भौंटा चट्टी, घुत्तू चट्टी (13 मील) होते हुए गोमांडा, दुरपदा, पंवाली (9 मील) के आगे भंगू चट्टी, त्रिजुगी नारायण (15 मील) से शाकम्भरी देवी मंदिर (2 मील) होते हुए गोरी कुंड, राम पड़ाव की 12 मील यात्रा कर केदारनाथ पहुँचते हैं.

देवप्रयाग से अलकनंदा के किनारे होते हुए श्रीनगर, रुद्रप्रयाग, तिलवाड़ा, अगस्तमुनि, नाला, रामपुर, त्रियुगीनारायण, रामबाड़ा होते 134 मील की दूरी का पथ कमिश्नर ट्रेल व केदारनाथ के रावल द्वारा विकसित किया गया.
(Traditional Pilgrimage Path in Uttarakhand)

केदारनाथ से बद्रीनाथ

केदारनाथ से बद्रीनाथ का परंपरागत यात्रा पथ 136 मील लम्बा था जो रुद्रप्रयाग से सुमेरपुर, शिवानंद चट्टी, नगरासू, चटुआ पीपल, कर्णप्रयाग, नन्द प्रयाग, चमोली, पीपलकोटी, गरुड़ गंगा, टंगड़ी, जोशीमठ, विष्णुप्रयाग, पांडुकेश्वर, लामाबगड़, हनुमान चट्टी, घोरसिल पुल, रगड़पुल, कांचनगंगा व देवदखनी होते बद्रीनाथ पंहुचता था.

जिन्दा रखती हैं यात्राएं.

सन्दर्भ :
हरिकृष्ण रतूड़ी, गढ़वाल का इतिहास. जगदीश प्रसाद बिजल्वाण, गंगोत्तरी और उसके प्राचीन यात्रापथ. शिवप्रसाद डबराल, उत्तराखंड यात्रा दर्शन. स्वामी सुन्दरानन्द, गंगा का उदगम. शिव प्रसाद नैथानी, उत्तराखंड का सांस्कृतिक इतिहास. 

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जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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