समाज

विरासत है ‘खन्तोली गांव’ की समृद्ध होली परम्परा

मुझे पहला मंच मेंरे गांव खन्तोली की होली में मिला. गांव के लोगों के प्रोत्साहन और शाबासी ने ही कुछ लिखने की प्रेरणा दी. मेंरे गुरु वास्तव में मेंरे गांव के लोग हैं, गाँव की होली है. क्या शानदार होली होती है हमारे गांव की. एक अलग ही परम्परा है. सारे साल की थकान मिटा देती है होली. आज मनोरंजन के इतने साधन होने के बाद भी सामूहिक मनोरंजन कला सस्कृति का यह माध्यम उतना ही लोकप्रिय है जितना पहले हुआ करता था. जब से होश संभाला तब से इस समृद्ध परम्परा के साथ जुड़कर गौरवान्वित हूं.
(Traditional Kumauni Holi Khantoli Village)

शिवरात्रि के दिन धपोलासेरा के गोपेश्वर मन्दिर में- अरे हां रे शम्भो… तुम क्यों न खेलो होली लला, से शुरुआत हो जाती है. आसपास के सभी गांवों के लोग इस होली में भाग लेते हैं. फिर एकादशी के दिन गांव के होलीखाला में विधिवत चीर बांधी जाती है. सभी लोग अपने घरों से कपड़े के रिबन जैसे लगभग एक मीटर का टुकड़ा, रोली चावल, अबीर गुलाल रंग, गुड़ लेकर आते हैं. मन्त्रोच्चार के साथ चीर (ध्वजा) बांधी जाती है. कुछ गाँवों में चीर की जगह निशान होता है. फिर सिद्धि को दाता बिघन बिनासन, होली खेले गिरिजापति नन्दन और तुम बाँधो कन्हैय्या ध्वजा चीर… होली गाकर होली की शुरुआत हो जाती है. उसके बाद पांच दिन तक गांव के घर-घर जाकर होली गायी जाती है.

हमारे यहां पहले दिन कुचौली बलगड़ी चौनी (खन्तोली के बिरादरी के गांव) जाती थी होली. अब कुछ समय से दूरी के कारण यहां जाना सम्भव नहीं हो पाता. आजकल शुरुआत हथरसिया से होती है. होली विभिन्न रसों और रागों पर आधारित होती है. अधिकतर श्रृंगार रस प्रधान गायी जाती हैं. जिनमें देवर भाभी की छेड़छाड़, नायक नायिका का प्रेम, राधा-कृष्ण का प्रेम, कृष्ण भक्ति प्रमुखता लिए होते हैं.

जब आँगन में होलियार होली गाते हैं तो परिवार का मुखिया सबसे पहले चीर की पूजा करता है. आरती और शंखध्वनि के बाद चीर पर रोली चावल रंग चढाया जाता है फिर मुखिया सभी हो पिठ्या लगाता है. गुड़ बांटा जाता है, सौंफ सुपारी बांटी जाती है, रंग छिड़का जाता है, बीडी सिगरेट बांटा जाता है. कुछ जगहों पर पहले हुक्का भी गुड़गुड़ाया जाता था. पन्द्रह बीस घरों के बाद चाय पिलाई जाती है. आलू के गुटके खिलाये जाते हैं. होली गाने के बाद प्रमुख होलार आशीष देता है. सुख समृद्धि की कामना के साथ अगले बरस फिर आने का वादा होता है. यदि किसी साल किसी परिवार में किसी की मृत्यु हो गयी हो तो उसके आंगन में होली से श्रृंगार रस गायब रहता है. वहां पर इस प्रकार शरीर की नश्वरता को दर्शाती होली गायी जाती है-

बंगला ऐसो अजब बनो मेरो बंगला…
ऐसो अजब बनो है  
इस बंगले के नौ दरवाजे बीच पवन को खम्बा…
आवत जावत कोई नही देखे…
निकसि गयो निरमोहिया

बंगला शरीर का प्रतीक है. नौ दरवाजे, आंख, कान, नाक, मुंह और इन्द्रिय द्वार हैं, बीच पवन का खम्बा प्राण वायु है. काफी भावुक करने वाली होली है. इन घरों में पिठ्या लगाना. रंग गुलाल नहीं डाला जाता है. न ही गुड़ बांटा जाता है. सिर्फ सौंफ सुपारी बांटी जाती है.

हमारे यहां पहले दिन होली आजकल तोली से शुरू होकर हथरसिया होते हुए बिजयपुर पूरनका के बंगले पर समाप्त होती है. कुछ वर्षों पूर्व ये रेखाड़ी-आगर से शुरू होती थी फिर धपोलासेरा पार करते हुए भुगल्यां, टिटोली गांवों से होकर तोली पहुंचती थी.

गांव की होली जब दूसरे गाँवों से होकर गुजरती थी तो चीर की विशेष सुरक्षा की जाती थी. गांव के एक पहलवान टाइप के व्यक्ति के हाथों में चीर दी जाती थी. कारण था चीर लुटने का भय. चीर बांधने की एक विशेष परम्परा होती थी. जिन गांवों में होली किसी कारणवश नहीं होती थी वो दूसरे गांव की चीर को लूट लिया करते थे तब उनके यहां चीर बांधने की प्रथा चालू हो पाती थी या आपको मथुरा जाकर चीर लानी होती थी.

जब मैं छोटा था तो धपोलासेरा गांव की चीर नहीं होती थी. हमारा गांव उनके गांव से चीर ले जाते समय विशेष एहतियात बरतता था. चीर को लगभग घेर कर पार कराया जाता हालाकि धपोलासेरा के ठाकुर लोग हमारे यजमान थे और ब्राह्मण समुदाय की विशेष इज्जत किया करते थे. इसलिए उनके मन में ब्राह्मणों की चीर लूटने का खयाल भी नहीं रहा होगा फिर भी खोज करने से पहरा भला वाली कहावत ठहरी. यदि चीर लुट जाय तो या तो तुम भी किसी की चीर लूटो या मथुरा से चीर का कपड़ा लेकर आओ. पुराने समय में मथुरा जाना दुश्कर होगा इसलिए लोग लूटने का विकल्प चुनते थे. एक खास बात और है कि दिन भर होली में चीर होली के आगे-आगे चलती है और रात को होलीखाला में रख दी जाती है यदि यहां से कोई चुरा ले तो तब होली खंडित नहीं मानी जाएगी. सिर्फ लुट जाने पर ही खंडित होती है .

रेखाड़ी-आगर तोली होकर जब होली हथरसिया पहुंचती तो एक अलग ही रंग हो जाता था होली का. सयाने लोग जो रेखाड़ी-आगर का लम्बा सफर तय नहीं कर पाते वो सीधे हथरसिया पहुंचते थे. वहां पर आपस में अपनी उम्र और दोस्ती के हिसाब से लोग एक दूसरे के यहां जाते. आसल कुशल होती, तम्बाकू हुक्का चलता. किसी के यहां साग पात हुवा तो झोले में रख दिया जाता. मेरे पिताजी भी सीधे हथरसिया जाकर अपने नामराशी स्व. रामदत्त बडबाज्यू के यहां जाते. वहीं पर गप्पें होती. चायपानी बीड़ी सिगरेट का दौर चलता. फिर पिताजी जमनादत्त बडबाज्यू और केसव बजबाज्यू से मिलते.
(Traditional Kumauni Holi Khantoli Village)

हथरसिया की होली में मुझे स्व. देबकिसन बडबाज्यू बहुत याद आते हैं. होली के बड़े शैकीन थे. पहले दिन से पहले घर से अन्तिम घर तक हर होली में डटे रहते. खूब समर्पित थे. आज के दौर की बात कहूं तो हथरसिया के भुवन दा भी पांचों दिन एक अलग ही तरह की रौनक लगाये रहते हैं.  भुवन दा एक विशेष हास्य कलाकार भी रहे हैं.

पुराने समय में देवकीनन्दन चाचा जी साड़ी पहनकर नाच किया करते थे- तू किलै नी आई धाना डाकै की गाड़ी में…

ईष्टदेव धौलीनाग जी की कृपा का ही परिणाम है कि हमारे गाँव में होली बगैर किसी हुड़दंग के सम्पन्न होती है. छोटे-बड़े का सम्मान, लिहाज, बुजुर्गों का मार्गदर्शन कुछ ऐसी चीजें हैं कि आधुनिक युग में भी शान्त होली होती है.

सबसे कठिन तपस्या मुख्य होलार की होती है. पूरे पाँच दिन तक चीर के पीछे-पीछे चलकर हर घर तक होली को पहँचाना, होली गाना और सकुशल निभाना मुख्य होलार ही का दायित्व होता है और होलार तो बीच में ब्रैक ले सकते हैं, उठकर घूम सकते हैं, ढोल के साथ नाच सकते हैं पर मुख्य होलार एक मर्यादा में बंधा होता है.

पहले तल्लागाँव के भैरवदत्त बडबाज्यू होलार थे. होलार के सिर पर पगड़ी बंधी होती है. सबसे पहले घर पर होली आने पर उसे ही टीका किया जाता है. फिर होली की भेंट स्वरूप कुछ रुपये दिये जाते हैं. इन्हीं रुपयों से होली के पूजापाठ, कन्यापूजन, भण्डारा, प्रसाद वितरण किया जाता है. यह दायित्व भी मुख्य होलार का होता है. एक तरह से पूरे पाँच दिन वही गाँव की होली का मुखिया होता है. जब से मुझे होश फाम आई तब से तल्लापोली के उमेशका मुख्य होलार थे. उनके बाद से अब तक तल्लापोली के ही मोहन दा मुख्य होलार का कर्तव्य बखूबी निभा रहे हैं. खास बात ये हैं कि मुख्य होलार किसी तरह की नशा पत्ती नहीं करते. पहले मुख्य होलार के अलावा दो चार और वरिष्ठ होलार भी पगड़ी में रहते थे और अन्य होलार गाँधी टोपी में. नाघर कर्ताखाली के मेहनका अपने मफलर से ही पगड़ी बांधकर होली की पक्ति में बैठते थे. मैंने इतने समर्पित होलार नहीं देखे. दिन रात हर होली में चाहे गरमी हो बरसात हो ये कोई होली नहीं छोड़ते थे. बेहद शौकीन थे. कपड़े सबके सफेद होते हैं.

हमारे गाँव की विशेषता अभी तक भी ये है कि रंग डालना, अबीर गुलाल लगाना सभी सभ्य तरीके से होता है. च्यूंकि हर घर में रंग डाला जाता है. अबीर लगता है किसी को असहजता हो तो वो हाथ उपर कर दे तो उस पर गुलाल जबरदस्ती फिर नहीं लगाया जाएगा. एक बात और है यदि कोई ब्यक्ति बरसी वाला हुआ तो वह भी होली गा सकता है पर वह लाइन में तभी बैठेगा जब रंग गुलाल डालने का काम सम्पन्न हो चुका हो क्योंकि बारसी वाले को रंग वर्जित होता है उसे पिठ्या भी नहीं लगता.
(Traditional Kumauni Holi Khantoli Village)

हमारे यहां खड़ी होली प्रमुखता से गायी जाती है पर गायी बैठकर जाती है. दो पक्तियों में आमने सामने हालियार बैठ जाते हैं बीच में ढोल बजाने और मजीरे वाला बैठता है. कुछ लोग भिंड (दीवार) में बैठते हैं, सब पक्तिबद्ध. जो खड़े होकर गोल घेरा बनाकर गाते हैं उसे हमारे यहां बन्जार कहते हैं. इसमें गोलाकार वृत्त में घूमते हुए और अपनी जगह पर ही गोल घुमकर गाया जाता है. किसी घर में होली गायन के बाद ढोल वाला नगाड़ा बजाता है. जिसे पहाड़ी में नंगाड हाणण कहते हैं. यहां पर ढोल वाले को रुपये मेहनताना जैसा हर घर से मिलता है. एक घर से दूसरे घर तक जाने पर ढोली छलरिया बाजा बजाता है. जिसमें सभी होलार नाचते हुए पूरी मस्ती में जाते हैं जिसमें बीच-बीच में- होय-होय-होय… खेल-खेल-खेल… का सामूहिक नारा जैसा लगाया जाता है. ढोल के साथ नाच के बीच में- छाय हौ रधुलि छाय… जैसे उत्साहवर्धक स्वर निकाले जाते हैं ताकि जोश और मस्ती कायम रहे. पहाड़ों में एक किस्सा है- होलिनक बामण और बरेतिक ठाकुर.

आप कल्पना कर सकते हैं कि कितनी मस्ती होती होगी. छोटा-बड़ा, अमीर-गरीब, चाचा-भतीजा, बुबू-नाती सब बराबर. कौन किसकी टांग खींच दे पता नहीं अनलिमिटेड मस्ती. माहौल ऐसा कि कूप ही में यहां भंग पड़ी है, की कहावत चरितार्थ. पर सब कुछ मर्यादा के अन्दर. हमारे यहां एक कहावत प्रचलित है – होइनैकि खाप (होली की जुबान). कोई छोटा किसी बड़े की मजाक कर दे या कोई किसी से कुछ बोल दे तो यह सोचकर दूसरा सह लेता है कि होली की खाप ठहरी. सब चलता है.

मजाक देवर भाभी के बीच भी खूब होती है. महिलाओं की होली अलग होती है. अगर होली भरनौला की तरफ हो तो महिलाओं की पारगांव की तरफ होगी. देवर भाभियों में मजाक खूब होगी पर उसमें गरिमा का पूरा खयाल रखा जाता है. राह चलते टकरा गये तो मेरे जैसा कोई खाप कुखाप कहकर आगे निकल जाएगा, वहां से भी भरपूर जवाब आएगा पर शारीरिक स्पर्श अश्लीलता आदि से अभी भी हमारा समाज कोसों दूर है. अगर कभी किसी भाभी के साथ उनकी सास यानि हम लोंगों की काकी हो तो फिर मजाक भी नहीं. कोई भी अकेली भाभियां कहीं गांव में आये-जाये कोई देवर लोग बदतमीजी कतई नहीं करेंगे. पूरा मजाक ठिठोली एक सीमा में होता है.
(Traditional Kumauni Holi Khantoli Village)

विनोद पन्त_खन्तोली

वर्तमान में हरिद्वार में रहने वाले विनोद पन्त ,मूल रूप से खंतोली गांव के रहने वाले हैं. विनोद पन्त उन चुनिन्दा लेखकों में हैं जो आज भी कुमाऊनी भाषा में निरंतर लिख रहे हैं. उनकी कवितायें और व्यंग्य पाठकों द्वारा खूब पसंद किये जाते हैं. हमें आशा है की उनकी रचनाएं हम नियमित छाप सकेंगे.

इसे भी पढ़ें: ठेठ पहाड़ी खेलों की याद

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