सादगी भरा जीवन जीने वाले पहाड़ी बाहर से जितने भोले दिखते हैं भीतर से उतने ही रंगीले भी हैं. तो यही वजह है कि उत्तराखण्ड के किसी न किसी कोने में हर रोज कोई न कोई उत्सव या मेला चल ही रहा होता है. वैसे उत्तराखण्ड को उत्सवों और मेलों की धरती कहा जाये तो बिलकुल भी गलत नहीं होगा.
(Traditional Kumaoni Wedding Customs)
पहाड़ियों के इन्हीं उत्सवों में से एक शादी समारोह भी है. अब इतना बड़ा देश है तो शादियाँ भी कई तरह की हैं. उत्तराखण्ड की रंगीली शादी भी इन्हीं में से एक है. ऐसा नहीं है कि उत्तराखण्ड में एक ही तरह से शादी होती हो. यहां शादी की कई रस्में और तौर तरीके चलन में रहे हैं. जैसे सरोल विवाह, ढाटा विवाह, डोला विवाह, मंदिर विवाह वगैरा. लेकिन सबसे लोकप्रिय विवाह अनुष्ठान है अंचल विवाह. कुमाऊं मंडल में आम तौर पर अधिकांश शादियाँ इसी अनुष्ठान से संपन्न होती हैं.
इस विवाह में वर पक्ष के लोग बारात लेकर कन्या के घर जाते हैं. दूल्हे व दुल्हन के अंचल को जो कि पीले रंग का लम्बा व पतला कपड़ा होता है आपस में बांध कर विवाह किया जाता है. यह विवाह वैदिक अनुष्ठान और स्थानीय रीति-रिवाजों के तालमेल के साथ संपन्न होता है.
इस विवाह में कई संस्कारों की भूमिका होती है, जिसमें पाणिग्रहण जिसे कन्यादान भी कहा जाता है, सप्तपदी और फेरों का महत्व सबसे ज्यादा है. इसके अलावा कुछ छोटे-बड़े संस्कार शादी से पहले और बाद में भी किये जाते हैं. विवाह के सभी संस्कार वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ संपन्न होते हैं. आज हम बात करने वाले हैं कुमाऊं मंडल में सबसे ज्यादा प्रचलित अंचल विवाह में किये जाने वाले अनुष्ठान, संस्कार और स्थानीय रीति-रिवाजों के बारे में.
तो शुरुआत होती है विवाह तय करने से. एक-दूसरे के घरों में वर-वधू के परिजनों के आपसी मेल-मिलाप के बाद ही विवाह तय किया जाता है. आम तौर से सजातीय और समकक्षी परिवारों के बीच वर-वधू की तलाश करने के बाद यह प्रक्रिया शुरू होती है. बात जमी तो वर-वधू की जन्म कुडंली का मिलान किया जाता है, मिल गयी तो शादी तय हो जाती है. इसे कहते हैं ‘ब्या ठैरीगो.’ इसके बाद पुरोहित शुभ मुहूर्त में विवाह दिन-तारीख तय कर देता है. जिसे ‘लगन सुझी गो’ कहते हैं. इसके बाद शुरूआत होती है शादी के लिए इष्ट-मित्रों को न्योता देने की. विवाह की तिथि तय हो जाने के बाद वर व कन्या दोनों पक्षों की ओर से अपने बिरादरों, नाते-रिश्तेदारों और परिचितों को निमंत्रण दिया जाता है.
(Traditional Kumaoni Wedding Customs)
कुमाऊं अंचल में अपने गांव और आसपास के गांवों में मौखिक निमंत्रण देने की परम्परा रही है इसे यहां न्यूत देना कहा जाता है. आजकल छपाई किये हुए निमंत्रण पत्रों को हाथों-हाथ या डाक के माध्यम से भेजने का चलन तेजी से इसकी जगह लेता जा रहा है. कुमाऊं अंचल के संस्कार गीतों में सुवा यानि तोते के माध्यम से लोगों को निमंत्रण पहुंचाने का वर्णन मिलता है.
वैवाहिक कार्य बिना किसी बाधा के सम्पन्न हों इस कामना के साथ अगला अनुष्ठान किया जाता है, गणेश पूजा. वर व वधू पक्ष के लोग अपने-अपने घर में विवाह से एक-दो दिन पहले सिद्धिकर्ता भगवान गणेश की प्रतिमा का पूजन कर उन्हें दूर्वा अर्पित करते हैं. जिसे कुमाऊं अंचल में गणेश में दुब धरण कहते हैं. इसी के साथ वैवाहिक कार्यों की विधिवत शुरुआत हो जाती है. आबदेव पूर्वांग, गणेश पूजन, मातृका पूजन, नंदीश्राद्ध, पुण्याहवा, कलश स्थापना, नवग्रह पूजन के बाद जलाया जाता है प्रधान दीपक.
अब गांव-घर की महिलाएं जुट जाती हैं विवाह की अगली तैयारियों में. अगला कार्यक्रम है सुवाल पथाई. विवाह से एक, तीन या पांच दिन पहले वर व वधू दोनों के घर में सुवाल पथाई का अनुष्ठान होता है. इस परम्परा में आटे से बने पापड़, जिन्हें सुवाल कहते हैं के साथ आटे, चावल व तिल के लड्डू भी बनाये जाते हैं. सुवाल पथाई के लिए आटा गूँधने के दौरान गाये जाने वाले गीतों के जरिये पितरों को भी इस विवाह का निमंत्रण दिया जाता है. भंवरे से पितृ लोक जाकर निमंत्रण पहुंचाने का अनुरोध किया जाता है. भंवरा कहता है कि मैं पितरों का नाम नहीं जानता… गांव नहीं जानता… पितरों का द्वार कहां होगा… जहां बादलों की रेखा होगी… सूरज, चन्द्रमा होंगे… सोने के दमकते द्वार होंगे उसी स्वर्ग में पितरों का द्वार होगा.
इन अनुष्ठानों के साथ ही वर और कन्या को उनके निकट संबंधियों द्वारा हल्दी लगायी जाती है और अपने हाथों से स्नान भी कराया जाता है. वर-कन्या के हाथों में कंकण यानि पीले कपड़े के एक टुकड़े में रखे सुपारी व मुद्रा की छोटी पोटली बांधी जाती है. इन विधानों के संपन्न होने के बाद से कन्या के माता-पिता उसकी विदाई होने तक व्रत रखते हैं.
अब बारी आती है तिलक की. विवाह लग्न के दिन से पहले या फिर बारात आने से कुछ समय पहले तिलक लगाने यानि पिठ्या लगूण की रस्म अदा की जाती है. इसमें वर पक्ष की ओर से पांच या सात लोग कन्या पक्ष के घर जाकर होने वाली वधू को टीका लगाते है और उसे वस्त्र, फल, मिष्ठान व नकद वगैरा तोहफे में देते हैं. इधर कन्या पक्ष की तरफ से भी रिटर्न गिफ्ट में उपहार में दिये जाते हैं. इस कार्यक्रम में भावी वर की उपस्थिति जरूरी नहीं होती. इस अनुष्ठान को मैदानी इलाकों की सगाई की ही तरह माना जा सकता है.
इसके बाद विवाह का अगला महत्वपूर्ण अनुष्ठान है धूलिअर्घ्य. गोधूलि की बेला में जब कन्या के घर के द्वार पर बारात पहुंचती है तो कुंवारी कन्याएं जल से भरे तांबे के कलश सर पर रखकर बारातियों का स्वागत करती हैं. इससे पहले वर पक्ष और कन्या पक्ष के बीच छाता की अदला-बदली की जाती है. कन्या का सबसे छोटा भाई दूल्हे की छाता से अपनी छाता बदलता है.
(Traditional Kumaoni Wedding Customs)
इसके बाद वर को कन्या के पिता हाथ पकड़कर आंगन में लाल मिट्टी और चावल के बिस्वार से बनी धूलिअर्घ्य की चौकी तक लाते हैं. इस चौकी के ऊपर लकड़ी से बनी दो अलग-अलग चौकियां रखी होती हैं, इन चौकियों में वर व आचार्य को सम्मान के साथ खड़ा किया जाता है. चौकी में खड़े वर को विष्णु का स्वरूप मानकर उसकी पूजा की जाती है. कन्या के पिता द्वारा वर और आचार्य के पांव धोने के बाद उन्हें तिलक लगाया जाता है और मुद्रा व वस्त्र भेंट किये जाते हैं. इस दौरान बारातियों का स्वागत करते हुए गिदारियां मांगल गीत गाती हैं.
धूलिअर्घ्य के बाद कन्या पक्ष की ओर से बारातियों और उपस्थित लोगों को सामूहिक भोज दिया जाता है. भोजन के बाद पुरोहित वर-वधू की कुंडली के अनुसार देर रात्रि कन्यादान का मूहूर्त निकालता है. इसके साथ ही विवाह के मुख्य संस्कार यानि कन्यादान की तैयारी शुरू हो जाती है.
देर रात शुरू होने वाले पाणिग्रहण संस्कार को कन्यादान के नाम से भी जाना जाता है. पारंपरिक तौर पर कन्यादान का अनुष्ठान घर के निचले तल गोठ में करने की रीति रही है. आजकल नए जमाने में बारातघरों, घर के आँगन और पंडालों में सजे हुए मंडपों में भी कन्यादान किया जाता है.
कन्यादान की शुरुआत कन्या की माता व अन्य महिलाओं द्वारा कन्या को अपने आंचल से ढंकते हुए अनुष्ठान स्थल तक लाने से होती है. इस दौरान वर पक्ष के लोग पूरब और कन्या पक्ष के लोग पश्चिम दिशा को मुंह करके बैठते हैं. गणेश की पूजा के बाद कन्यादान के अनुष्ठान की विधिवत शुरुआत हो जाती है. मांगल गीत गाये जाते हैं और कन्या का पिता वर के पांव धोकर उसे तिलक लगाता है. इसके बाद वर व कन्या पक्ष के लोग परस्पर छोली यानि फल, मिठाई, मेवे, वस्त्र, मुद्रा, स्वर्ण आभूषण व श्रृंगार सामग्री वगैरा का लेन-देन करते हैं.
अब कन्या को वर पक्ष की ओर से लाये गये वस्त्र व आभूषण पहनाये जाते हैं. इस दौरान दोनों पक्षों के पुरोहित एक दूसरे से बातचीत करते हैं. इस बातचीत में वर-वधू के गोत्र, प्रवर, शाखा व पूर्वजों का परिचय प्राप्त किया जाता है. कन्यादान का लग्न आते ही कन्या के पिता को उत्तर व कन्या को पश्चिम दिशा की तरफ मुंह कर बिठाया जाता है. इसके बाद पिता कन्या की हथेली अपने हाथ में लेता है और माता तथा परिवार के ताई, चाची लोटे से जल की धार पिता की हथेली व वर-वधू के अंगूठे पर धीरे-धीरे डालते हैं. इसे गडुवे की धार देना कहा जाता है. यह पल माता-पिता के लिए अत्यंत भावुक कर देने वाला होता है. माता के हाथ में गडुवा है. उसमें से पानी की धार गिर रही है. कन्या की हथेली थामे हुए पिता के हाथ कांप रहे हैं.
(Traditional Kumaoni Wedding Customs)
गडुवे की धार देने के बाद कन्या वर पक्ष की तरफ बैठ जाती है. इसके बाद ‘अंचल’ बन्धन का अनुष्ठान शुरू किया जाता है, जिसमें वर और कन्या के अंचल पट को आपस में बांध दिया जाता है. इस तरह कन्या अब वर परिवार की सदस्य हो जाती है. इसी बीच शय्यादान की रीति भी पूरी की जाती है और वधू व वर को लक्ष्मी-नारायण समान मानकर उनकी आरती की जाती है.
अब मौका है सप्तपदी का. कन्यादान सम्पन्न होने के बाद अगला अनुष्ठान सप्तपदी यानी फेरे लेने का होता है. फेरे लेने के लिए वर-वधू बाहर आते हैं. ख़ास बात यह है कि इस अनुष्ठान में कन्या के माता-पिता शामिल नहीं होते.
अग्नि प्रज्वलित कर होम किया जाता है फिर सप्तपदी विधान के अनुसार वर-वधू अग्नि के चारों ओर सात फेरे लेते हैं. फेरे के समय कन्या का भाई उसे सूप से खील देता है और वधू उसे गिराते जाती है. फेरों के बाद थाली में घी की सात बत्तियां जलायी जाती हैं और क्रमशः छः बत्तियां बुझाने के बाद सातवीं बत्ती की पूजा की जाती है. वधू की मांग में सिंदूर भरा जाता है व तिलक लगाया जाता है. इसके बाद वर-वधू को दही-बताशा खिलाया जाता है.
वैवाहिक संस्कार सम्पन्न होने के बाद अब बारी आती है विदाई की. कन्या को डोली में बिठाकर उसे ससुराल के लिए विदा कर दिया जाता है. कन्या की माता अत्यन्त भावविह्वल होकर वर पक्ष से अनुरोध करती है कि मेरी लाडली को किसी भी तरह दुःख मत देना. मैंने दूध की दस धार पिला, दस तुम्बी तेल से मालिश कर और दस गठरी कपड़े मोल लेकर अपनी लाड़िली को पाला-पोसा है. इस दौरान सभी के लिए भावुक कर देने वाला माहौल होता है, यहां तक कि वर पक्ष के लोग भी अपने आंसू नहीं थाम पाते.
जब वधू अपने ससुराल में पहुंचती है तो वर की मां या जेठानी उसे अपने साथ घर के भीतर प्रवेश कराती है. घर के लोगों, सम्बन्धियों और घर में अनाज रखने के भण्डार व भावी जिम्मेदारियों से उसका परिचय कराया जाता है.
वधू प्रवेश की रीति व पूजन के बाद होता है नौल सिवाने का कार्यक्रम. इसमें नई वधू घर की महिलाओं के साथ सिर में कलश लेकर गांव के नौले धारे में जाती है. ज्योति पट्टा और पूजा में इस्तेमाल हो चुकी सामग्री को वधू जलस्रोत में विसर्जित करती है. इसके बाद सभी लोग ईश्वर को धन्यवाद देते हुए सुखी जीवन का आर्शीवाद मांगते हैं.
(Traditional Kumaoni Wedding Customs)
कुमाउनी विवाह की कुछ खासियतें इसे अन्य विवाहों से अलग पहचान देती हैं. ये कुछ इस तरह हैं-
ग्रामीण कुमाऊं में विवाह संस्कार घर के आंगन, मकान के भूतल यानि गोठ और फिर घर के बाहर मण्डप में सम्पन्न किये जाते हैं. वर व वधू दोनों पक्ष सुवाल पथाई के दिन काले तिल से समधा-समधिन को प्रतीक स्वरूप बनाया करते हैं और छोली देते समय आपस में इनकी अदला-बदली की जाती है.
वैवाहिक कार्यक्रमों में घर की महिलाएं पारम्परिक रंगवाली पिछौड़ पहनती हैं. कुछ सालों पहले तक इन्हें सुवाल पथाई के दिन कपड़े को पीले रंग में रंगकर उसमें मेहंदी रंग के गोलाकार बूटों से सजाकर घर में ही बनाया जाता था, पर अब यह बाजार में आसानी से उपलब्ध होने लगे हैं.
कई जगहों पर बारात प्रस्थान से पहले वर पक्ष की ओर से शगुन भेजने की परम्परा निभाई जाती है. एक विशेष व्यक्ति मुसभिजै या जोली को दही की ठेकी और हरी पत्तेदार सब्जी के साथ वधू के घर भेजा जाता है. इससे यह पता चल जाता है कि वर पक्ष वालों की तैयारी पूरी हो चुकी है और वे बारात लेकर आ रहे हैं.
बारात में छोलिया गाजे-बाजे के साथ नृत्य करते हैं. बारात के साथ पहाड़ी ढोल, दमाऊ, रणसिंग और मशकबीन जैसे परमम्परागत वाद्य यन्त्रों को बजाने का चलन है.
जब बारात कन्या के घर पर पहुंचती है तो कन्या की बहनें चतुराई से वर के जूते छिपाने का यत्न करती है और वापिस करने के एवज में नेग मांगती हैं. वैवाहिक कार्यक्रमों में अनुष्ठान के समय गिदारियों, महिला गायकों द्वारा मांगल गीत भी गाये जाते हैं.
विवाहोत्सव में वर-वधू को देव स्वरूप माना जाता है, इसलिए इन्हें मुकुट पहनाने की प्रथा है. मुकुट में गणेश और राधा-कृष्ण के चित्र बने होते हैं. रोली और पीसे चावल के बिस्वार से वर के मुंह में कुरुमु का अंकन किया जाता है. कन्यादान के समय वर-वधू दोनों पक्ष के लोग एक दूसरे पर गीतों के माध्यम से चुटीले व्यंग्य और हास-परिहास भी करते हैं. इससे समूचे वातावरण में रंगत छा जाती है.
बारात की विदाई के समय कन्या पक्ष की ओर से बारातियों को तिलक लगाया जाता है और दक्षिणा भी दी जाती है. गांव-बिरादरी को शगुन के तौर पर सूखा गोला देने का रिवाज है. कन्या की विदाई के बाद दो-चार दिनों के अन्दर कन्या व वर दोनों शुभ-वार में अपने पिता के घर आते हैं जिसे दुबारा आगमन या दुर्गुण कहा जाता है. विवाह के बाद वर की मां वधू के मायके आकर उसकी मां से जब पहली बार भेंट करती है तो इसे समध्यौण भेंटण कहा जाता है.
(Traditional Kumaoni Wedding Customs)
-काफल ट्री डेस्क
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