कौतिक का मतलब होता है मेला. मेले तो हर जगह लगते हैं और हर मेले का अपना सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और व्यापारिक महत्व रहा है. कुमाऊं गढ़वाल के कई मेले प्रसिद्ध हैं. इन मेलों पर शिरकत करके पहाड़ के कई प्रबुद्ध लोगों ने ऐतिहासिक निर्णय लिये जो आगे जाकर मील का पत्थर साबित हुए.
(Traditional Fairs of Uttarakhand)
पिछले दिनों जब हमारे गांव खन्तोली में ऋषि पंचमी के अवसर पर श्री धौलीनाग देवता के प्रांगण में एक विशाल मेला लगा तो मेले के कुछ वीडियो और फोटो देखने को मिले. मन में पुरानी यादें ताजा हो गयी. आज तो पहाड़ में भी मैदान की चीजें दिखाई देती हैं. कहीं झूले लगे हैं, कहीं एक कूदने वाला सा खेल है, बच्चों की आधुनिक फिसलपट्टी जैसा खेल है, चरखी वाला झूला है, गुड़ियां के बाल बिक रहे हैं, चांदनी से आच्छादित दुकानें हैं. एक बार तो लगा ही नहीं कि यह मेरे गांव का मेला है अगर मंदिर न दिखता तो मैं तो पहचान ही नहीं पाता. बचपन से लेकर अपनी किशोरावस्था तक मैंने जो मेले देखे हैं उनकी छाप तो अभी भी है ताजा है और रहेगी. मैं उन चीजों को ढूंढ रहा हूं, चित्र में ही सही पर उन पर तो वैसे ही बदलाव आ चुका है जैसे मुझमें या मेरे हमउम्र लोगों में आया है.
हमारे गांव या इलाके में धौलीनाग मन्दिर, फेड़ीनाग मन्दिर (कमेड़ीदेवी) भद्रकाली मन्दिर (भदैं) काण्डा कासिण में, गोपेश्वर मन्दिर (भदौरा-धपोलासेरा) कुछ दूर सनगाड़ नौलिंग मन्दिर में मेले लगते रहे हैं. बागेश्वर उतरैणी मेला तो आप सभी ने सुना ही होगा तब सभी मेलों का स्वरूप एक सा ही था. लगभग एक सी दुकानें सजती थी एक सी खाने की चीजें मिलती. चीड़ के खाम काटकर ऊपर पिरूल से छाना जैसा बनाकर दुकानें तैयार होती. बरसात का डर हो तो ऊपर तिरपाल डाला जाता.
मेले में जाने वाले हर किसी का अपना एक अलग और खास मकसद होता था. हम बच्चे जाते थे खिलौने लेने के लिए, जलेबी खाने. बड़े बुजुर्ग जाते थे कि पर्व का दिन है दर्शन हो जायें, जवान लोग जो खेती किसानी करते वो कृषि सम्बन्धित सामान लेते, महिलाएं जाती थी चूड़ी पहनने या लाली बिन्दी धपेली गोटा खरीदने. तब पैसा कम ही था हम मेले के लिए कुछ महिने पहले से ही पैसा जमा करते, यह पैसे मेहमान देकर जाते. तब जेबखर्च जैसा कुछ नहीं था.
(Traditional Fairs of Uttarakhand)
मेले में एक चीज और होती थी वह था भरत मिलाप. जी हां ब्याहता लड़कियां अपने ससुराल से आती और उनकी मां अपने घर से यहीं मिलना होता था. लड़की के लिए खजूरे, पुवे, साई वगैरह पकाकर ले जाती मां और वहां पर कुछ खिलाती और कुछ घर के लिए रख देती. मां-बेटी के इस मिलाप में एक करुणा होती. लड़की रोती रहती मां चुप कराती. उस समय यदि लड़की किसी कारणवश न आ पाये तो उसके गांव के लोगों को खोजकर सामान भिजवाते. कई बार सामान ले जाने वाला अजनबी होता फिर भी सामान नियत जगह पर पहुंचा देता.
तुमार गौं में मेरि छ्योड़ि बेवाई छ, फलाणै ब्वारि. उ म्याल में नै ऐरैय तुम यकैं दि दिया.
मैं अपने यहां के मेले की बात करूं तो मेले की शुरुआत में ही दांयी तरफ जलेबी की एक दो दुकानें लग जाती. मिट्टी को खोदकर भट्टी बनी होती उसमें एक बड़ा सा हड (बड़ी लकड़ी का गठ्ठा) सुलग रहा होता और मोटी-मोटी जलेबी निकल रही होती. जलेबी तोलकर तो बिकती ही थी पर हम बच्चों को फुटकर पैसों की पांच पैसे, दस पैसे की दे देते. हमारे लिए यही उस समय सबसे पसंदीदा मिठाई थी. जिस पत्ते या कागज में मिलती उसमें लगा बख्खर भी चाट जाते.
जलेबी के बाद दूसरी दुकान होती आलू चने की. बड़ी कढाई में आलू के गुटके सजे होते. ऊपर हरा धनिया बुरका होता. चारों तरफ भुनी हुई खुश्याणी (मिर्च) खोसी होती. खुश्याणी हल्की भूरी और मैरून रंग की हो जाती. आलू के गुटके घर के लिए कागज की पुड़िया में भी लेकर आते कई बार. साथ में भांग की चटनी होती जायेदार मसालेदार. मिर्ची वाले गुटके खाकर हम मिर्च लगने पर स्वी-स्वी भी करते पर खा भी जाते, पच्चीस पैसे की प्लेट मिलती थी. आलू की गुटके की दुकान में ही चने भी मिलते. आस-पास पकौड़ी की दुकान होती. हमें ठन्डे गरम से मतलब न था जैसे भी हो हमारे लिए तो अप्राप्य थे. स्वाद ही लगते.
(Traditional Fairs of Uttarakhand)
कुछ आगे जाने पर मनिहारी की दुकानें दोनों तरफ होती इन पर बड़ी भीड़ होती. गांव की महिलाओं का जमावड़ा रहता. टिकुलि बिन्दुलि, चरेउ की माला, कांच के पोत के मंगलसूत्र, कुटैक्स (नेलपालिस) गिलट के बिछुवे, पायल, लाली (लिपिस्टिक) अन्त:वस्त्र की जमकर खरीददारी होती. इसका कारण यह था कि गांव की दुकान में यह सब मिलता न था और शहर जाना महिलाओं का होता न था सो साल भर का स्टाक ले लिया जाता. गांव में तो कभी कभार ही चुड्याव (चूड़ी बेचमे वाला)आता.
बच्चों के लिए भीमसेनी काजल ऐला युक्त यही पर मिलता और एक चीज हम बच्चों को भी लुभाती वह थे दो तरफ रुद्राक्ष बीच में नकली हाथीदांत और लाख का टुकड़ा, जिसे नजरिया कहते हैं. हम तब ताबीज कहते. हमारी मान्यता थी इसे पहनने से छौव या छल (भूत) नहीं लगता है.
हमारे लिए खिलौनों की दुकान भी होती जिसमें- बांस का बना बाजा, मुरली, नकली घड़ियाँ, लाल पन्नी के चश्मे, खुणमुणी (झुनझुना) प्लास्टिक या तार की मुनड़ी (अंगूठी) मिलती थी. हमें कोई एक या दो चीज खरीदने की इजाजत होती, ज्यादा चीज मांगने पर डांट पड़ती और ज्याजा जिद्द करने पर सीधे मुंह में फचैक पड़ती. मेरा पसंदीदा खिलौना प्यांआआआ… की आवाज करने वाला बांस की एक दो नलियों को फंसाकर उसके मुंह पर गुब्बारा बंधा बाजा था.
(Traditional Fairs of Uttarakhand)
मनोरंजन के नाम पर- दस के चासीस (पैसे) या कागज कि चिट फाड़ने वाली लॉटरी होती थी. एक थैली में रेवड़ी जैसे गिट्टियों में गिट्टी निकालकर इनाम जीतने वाला होता था पर असल में ये खेल ठगी वाले जैसे ही थे. बीच-बीच में पहाड़ी केले मुगरी क्याव, दूदक्याव कहीं-कहीं हरीछाल के केले मिलते. सीजनल फल होते. धनिये और हरी खुश्याणी के लूण के साथ पहाड़ी ककड़ी का चीरा मिलता था. पांगर (पहाड़ी फल) मिलते, अखरोट मिलते. पागर और अखोट चौकी (चार दाने) के भाव मिलते. एक रुपै चौकि द्वि रुपै चौकि. केला साईज के हिसाब से चार आन कोस आठ आन कोस मिलता. एक दो जगह ठेकी में ककड़ी का रैत मिलता जो कि तिमूल के पत्ते में होता, भाव होता – बीस डबल का एक डाडू. एकाद पान की दुकाने होती. अगर हमने पान खा लिया तो दिन भर मुंह में रहता, जीभ फिरा-फिरा कर होठ लाल करते ताकि सबको पता लगे हमने पान खाया है.
फिर होती नकि भलि चीज की दुकानें. नई पीढी को आश्चर्य होगा कि तब मेले में एक-दो परचून जैसी दुकानें मिलती जिसमें ग्वाव (गोला), मिसिरी, गट्टा स्यो (मीठा होता था जिसरे अन्दर बेसन का पीस होता था), चाहा पत्ती, गुड, भुने चने, मूंगफली मिलती. मीठा कड़वा और दोरसा तम्बाकू भी होता था जिसे लोग अपने बुबू के लिए लेकर जाते. इसके अलावा डाल, सुप, मोस्ट, डोका, पत्ते और बांस रिंगाल का मौंण (बारिस से बचाने वाला) लेकर बेचने वाले लोग आते थे जिन्हें बारुड़ी कहते थे. ताबे की गगरी, लोहे की कढाई, जुबरी, जाम, लकड़ी की ठेकी, नईया, पाई, माणा, नाई या नाली और दातुल, कुटव, भगवान को चढाने के लोहे त्रिशूल. लोहे की पांच बत्ती की आरती भी बिका करती थी मेले में. कहीं-कहीं पर कुमिन (भुज या पेठे) की मिठाई भी मिलती थी.
कौतिक का मुख्य आकर्षण होता था झ्वाड चाचैरि. महिलाएं पुरुष गोल घेरा बनाकर हाथ पकड़े पैरों को लयबद्ध चलाकर, कमर हल्का झुकाकर गाते-
कमला रहटै को ताना कमला घट खुजो बाना
रौतास्यारा घाम लागछौ रौ रौ भौजा रौतास्यार.
भीना सनेति कौतिका भीना दगडै जै उला
बीच में हुड़का बजाते, जोड़ डालते. ओ हो हो… की आवाज निकालते, बच्चों को कन्धे पर बिठाकर गाते. एक पल को पूरा मेला रुक जा जाता सभी इसी में खो जाते. भोग आरती होती. ढोली लोग करीब इक्कीस प्रकार का बाजा बजाते. रणसिंह तुरही, झांझर, मजीरे, भुंकर की आवाज के साथ पुजारी परिक्रमा करते फिर भोग लगता था. फिर मेले से विदाई की बारी आती घर का सामान खरीदा जाता था.
घर आकर आस-पास कौतिकी बान् (मेले से लाया खाने का सामान) बांटने की परम्परा थी. महिलाएं अपनी खास सहेलियों के लिए या पड़ोस की महिलाओं के लिए या अपनी देराणी-जिठाणी के लिए सुहाग का चरेऊ बिन्दी भी जरूर लेकर आती थी.
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वर्तमान में हरिद्वार में रहने वाले विनोद पन्त ,मूल रूप से खंतोली गांव के रहने वाले हैं. विनोद पन्त उन चुनिन्दा लेखकों में हैं जो आज भी कुमाऊनी भाषा में निरंतर लिख रहे हैं. उनकी कवितायें और व्यंग्य पाठकों द्वारा खूब पसंद किये जाते हैं. हमें आशा है की उनकी रचनाएं हम नियमित छाप सकेंगे.
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