धिनाली कुमाऊनी का एक शब्द है जिसका सामान्य मतलब होता है- दूध, दही, घी, मठ्ठा, मक्खन आदि यानि दूध और दूध से बने पदार्थ डेयरी उत्पाद पर पहाड़ के सन्दर्भ में यह शब्द बहुत व्यापकता लिये हुए है. डेयरी उत्पाद के अलावा इसमें किसान या गोपालक का पशुधन भी समाहित हो जाता है. सामान्य बोलचाल में कुशलक्षेम पूछनी हो तो कहा जाता है- भलि छै कुशल? धौ-धिनालि कि छ. (कुशल से हो. धिनाली क्या है?)
(Tradition Dairy Products Uttarakhand)
आप उपरोक्त पक्तियों पर गौर करेगे तो कुमाऊनी समाज में धिनाली की महत्ता पता चलती है. सामान्य तौर पर कुशलक्षेम पूछने के लिए बाल बच्चों की खबर पूछी जाती है पर हमारे यहां धिनाली को बाल बच्चों पर भी वरीयता मिली है. पहाड़ के पत्रों में एक लाइन धिनाली का समाचार भी होती थी धिनाली क्या है आजकल या कुछ लोग लिखते गाय ब्या गयी है या फलां महिने ब्याने वाली है.
ये प्रमुखता ऐसे ही नहीं मिली है इसके पीछे कारण रहा है पहाड़ की खेती. दसअसल पहाड़ की खेती पूरी तरह से आर्गेनिक होती थी खाद सिर्फ और सिर्फ गोबर की ही प्रयोग की जाती रही है. जितनी अधिक खेती यानि खेत होगे उतना ज्यादा खाद की जरूरत होगी जिसकी पूर्ति पशुओं से ही होगी और यही बात पशुपालन पर भी लागू होती है. पशुओं के लिए चारा या अनाज खेत से ही आएगा तो पहाड़ का सीधा सा हिसाब किताब रहा है खेती पाती और धिनाली एक दूसरे के पर्याय या पूरक रहे हैं. एक चीज भी गड़बड़ा गयी तो दूसरे पर सीधा फर्क पड़ेगा. पहाड़ के समाज में सामूहिकता का एक उदाहरण यह भी है कि किसी परिवार के पास गाय भैंस कम रह गयी खाद कम हो रही है तो जिसके यहां गाय भैंस ज्यादा हों उसके गोठ में गोबर तैयार किया जाता है. महिलायें जंगल से सुतर (चीड़ की सूखी पत्तिया या बुरास वगैरह की हरी पत्तिया काटकर उन्हें गिन्याठ से काटकर) लेकर आऐगी और किसी परिचित के गोठ में गाय भैसों के गोठ में जानवरों के दौंण में डालकर आ जाऐगी. अगली सुबह या दोपहर गोबर समेत उस सुतर को निकालकर ले जाऐगी और अपने घर या खेत में गोबर का ढेर जमा करती रहेगी. वहां नया सुतर डाल दिया जाऐगा. गोबर के ढेर को पोर्स या मोव का खात कहते हैं. जिस पर गोबर और सुतर मिक्स होकर सड़कर खाद बन जाता है. ये दूसरे के गोठ में गोबर बनाने की परम्परा शायद ही पहाड़ के अलावा कहीं रही हो. इससे दोनों पक्षों को फायदा है. एक को फ्री सुतर और जानवरों के गोठ की सफाई मिल गयी दूसरे को फ्री की खाद.
पहाड़ में जैसे कृषि कार्य महिलायें ही करती थी उसी तरह पशुपालन भी उन्हीं के जिम्मे होता था तो धिनाली पर भी उन्हीं का अधिकार रहा है. किसी को दूध दही लेना हो तो पुरुष से न मांगकर गृहणी से ही पूछा जाता था. धिनाली की बड़ी इज्जत की जाती थी. दूध दही यदि खराब हो जाय या उसे फेंकने की नौबत आ जाय तो उसे ऐसे फेंका जाता था जैसे पूजा के अवशेष को. निर्मैल डाला जाता था- यकें यसि जाग डालि आये जां नंग्यूंण नि हो. अर्थात जहां लांघने की जगह न हो. या सिसूण के भूड़ में डाल देना हुआ.
गाय या भैस ब्याने का इन्तजार सभी को रहता था. पूछा जाता था – गोरु कब ब्याणि छ गाय और भैंस अधिकतर पहाड़ी नस्ल की ही होती थी. चारा घास पत्ती का तो इनकी धिनाली का स्वाद भी बिलकुल अलग होता था. घास के साथ कुछ पेड़-पौधे की कोमल पत्तियां भी चारे में प्रयोग होती थी. जैसे- बांज, फयांठ, भेकुवा, खडीक, बेडू आदि. गाय भैसों को इसके अलावा भट्ट पीसकर, और दौ बनाकर भी खिलाते थे. दौ गाय भैसों का ऐसा पकवान है जिसे घर के बचे खाद्य पदार्थ चावल का भूसा कुछ अनाज मिलाकर पकाया जाता था. जो कि ब्याई हुई गाय, भैंस के लिए बनता था. इसके अलावा भंगीरा और गुर्ज भी पीसकर खिलाया जाता था जो दवाई की तरह होता था. भट्ट पिसा हुवा तो गायों के पेट की गर्मी की उत्तम दवाई होती थी. पहाड़ की धिनाली का एक अलग की स्वाद है.
पहाड़ की धिनाली का स्वादिष्ठ होने का एक कारण यहां की वनस्पतियां भी हैं. भेकुवा एक ऐसा ही पेड़ है जिसकी पत्तियां खिलाने से जानवर का दही लाजवाब बनता है. पहाड़ की बाल मिठाई एवं सिगौड़ी तभी तक बेहतरीन रही है जब तक वह पहाड़ी मावे यानि कुन्द की बनती थी. शुद्ध पहाड़ी घी तो औषधि का काम भी करता है यहां तक भी पुराना घी भी काम आता है.
गाय ब्याने पर शुरुआत में पूरे गांव पड़ोस को बिगौत (खीस) खिलाते थे. इसके लिए बाकायदा कहा जाता था- बिगौत खै जाया हां. घर के बिलकुल अन्दर बैठाकर बिगौत खिलाया जाता और बाहर जाते वक्त मुंह पोछकर जाना होता था. यह इसलिए ताकि नजर न लगे. बिगौत के बाद मठ्ठा पिलाने की परम्परा थी. फिर जौला बनता और लोगों को जौला (मठ्ठे में चावल पकाकर) खिलाया जाता था. जौले में नमक नहीं डालते थे धनिये और मिर्च का नमक अलग से मिलता था. जिसे मिलाकर खाते थे स्वाद की तो पूछिये मत.
(Tradition Dairy Products Uttarakhand)
फिर अपनी अपनी परम्परानुसार ग्यारहवें और बाईसवें दिन अपने कुल देवता ईष्ट देवता ग्राम देवताओं को दूध चढाया जाता था. ग्यारहवें दिन पहाड़ में बौधाँण पूजा का भी रिवाज है. गाय बांधने वाले खूटे जिसे किल कहा जाता है पर पूजा की जाती है. नये बछड़े या बछिया का नामकरण किया जाता है. गृहणिया खीर आदि बनाती हैं. बौधाण एक लोकदेवता हैं जो पशुओं के रक्षक माने जाते हैं. गाय का किल ही इनका स्थान माना जाता है वहीं पर पूजा होती है.
जब कोई अपनी गाय भैंस बेचता है तो गाय के दाम के साथ किल का दाम भी लिया जाता है ये एक प्रकार की भेट होती है. गाय बेचने पर अपनी वह रस्सी जिसे गयूं कहा जाता है वह नहीं दी जाती खरीदने वाला अपनी लेकर आता है. धारणा यह है कि अपनी गाय का स्थान या खूंटी (किल) रिक्त न हो.
वैसे तो कुमाऊं में ईष्टदेव को दूध बाईसवें दिन चढ़ता है पर हमारे गांव में धौलीनाग देवता को ग्यारहवें, तेरहवें, पन्द्रहवें दिन चढा देते हैं. फिर बाईसवें दिन लोकदेवता छुरमल को चढाते हैं. इसके लिए लिए गृहणिया सुबह उठकर नहा धोकर दूध निकालती हैं. पहले से जमाई हुई दही से मठ्ठा और मक्खन तैयार होता और चल पड़ते मन्दिर में भोग लगाने. ये जो मख्खन (नौणि) लेकर जाते उसे भगवान के मूर्ति (अधिकांश लिंग रूप में या पत्थर) में पोत दिया जाता था. यह मख्खन लिंगचू कहलाता था. जिसे बाद में बच्चों के सिर पर भी मला जाता था धारणा थी कि इससे बच्चों बी बुद्धि बढती है. जब तक देवताओ को दूध न चढे तब तक धिनाली प्रयोग में नहीं लाते थे. बिगौत और लैण की छां या लैंण का जौला खिलाने के अलावा. जिन देवताओं को दूध चढता है उसमें छुरमल, नौल्लिग वगैरह प्रमुख हैं. ये स्थान-स्थान पर अलग हो सकते हैं. पहाड़ों में कुछ लोकदेवता तो पशुधन यानि धिनाली से ही जुड़े हैं. कुछ को गाय भैसों का रक्षक माना जाता है.
धिनाली पहाड़ में सम्पन्नता का प्रतीक भी है. कहा जाता था कि अरे सम्पन्न परिवार भै दस थान ( गिनती ) तो गोरु बाछै छन द्वि भैंस छन इदुक बाकार छन. पहाड़ी समाज में धिनाली को पर्दे में ही रखा जाता है. जब गृहणी दूध निकालकर लाऐगी तो आँचल से ढककर भीतर लाऐगे भीतर भी सबसे पीछे के कमरे में एक काठ के बक्से में रखा जाऐगा जिसे ढन्ड्याव कहते थे. ढन्ड्याव में धिनाली रखने की वजह से इसे पवित्र चीज माना जाता है. इसी में सारी धिनाली रखी जाती थी. दही जमाने के लिए लकड़ी की ठेकी और मठ्ठा छांछ बनाने के लिए लकड़ी का ही बर्तन जिसे नई कहते थे होता था. जिसमें बिलोने की लकड़ी का रौल होता था (ये नाम कुमाऊं के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग हो सकते हैं)
छांछ बनाने का स्थान भी नियत होता था जहां लकड़ी का एक खम्भा जैसा होता था जिसे थुमी कहते हैं. ये थुमी भी एक पवित्र स्थान होता है. जहां पर ऐपण दिये जाते थे गोबर्धन पूजा के दिन यहीं पर पूजा भी होती थी. यहां पर लछिम नरैंण बनाये जाते थे ऐपण डालकर पहाड़ में मठ्ठा बनाना जिसे छां फांनण कहते हैं विशेष योग्यता व जानकारी की जरूरत होती है. कि क्स मौसम में कैसे बनायी जाय. तब गरम पानी डलेगा कब ठन्डा. जो सफेद मख्खन निकलता है वो मड़वे की रोटी के साथ खाया जाय तो उससे स्वादिष्ट दुनिया में कुछ नहीं.
धिनाली के साथ कुछ रीति रिवाज पहाड़ के लोकजीवन में जुड़े हैं. यह आज के युग में लोगों को दकियानूसी बाते लगें पर वहां पर तो ये परम्परायें चली आ रही हैं. धिनाली का बर्तन खाली नहीं रखा जाता यदि आप किसी को लोटे या ठेकी में दूध, दही दें या हड़पी (घी रखने का काठ का बर्तन) में घी दो तो वह बर्तन लौटाते समय उसमें कुछ डालकर ही वापस करेगा. कुछ नहीं तो पानी डालकर तब भी. धिनाली को बुरी नजर से बचाने का बड़ा यत्न किया जाता है. नातक सूतक के दिनों इसका प्रयोग नहीं किया जाता ताकि धिनाली अपवित्र न हो.
(Tradition Dairy Products Uttarakhand)
वैसे तो हर हिन्दू परम्पराओं में धिनाली का महत्व है फिर पहाड़ों में तो हर काम में इसका महत्वपूर्ण उपयोग किया जाता है. पंचामृत , पंचगब्य बनाना हो, देवताओं का भोग तैयार करना हो, देवताओं का विशेष सम्मान कराना हो. हवन यज्ञ हो, पहाड़ों में जड़ी-बूटियों से धूप बनाने में भी घी प्रयोग होता है. धिनाली का ही हर जगह प्रयोग होता है. गाय के गोबर से लिपाई तो हर घर में होती थी. लाल मिट्टी में गोबर मिलाये बिना लीपना अच्छा नहीं माना जाता था.
पहाड़ के पुराने मकानों का गारा भी गोबर मिट्टी का ही होता था. पहाड़ों में कोई परिवार तब तक सम्पूर्ण नहीं माना जाता था जब तक गोठ में गाय भैंस न हो एक कहावत तो बहुत प्रसिद्ध है – जो गोठ गौ उ भीतर मौ. (जिसके गोठ में गाय उसी के घर में परिवार)
धिनाली पहाड़ में आर्थिकी का भी एक प्रमुख स्त्रोत रहा है. कुछ लोग तो थोड़ा दूध, दही, घी बेचकर अपनी दरगुजर करते आये हैं. आज इस धिनाली को व्यवसायिक स्तर पर करके पहाड़ी किसान न केवल अपनी आर्थिक स्थिति सुधार सकते हैं वरन इसके सहारे हमारी पहाड़ी सस्कृति को भी बचा सकते हैं.
(Tradition Dairy Products Uttarakhand)
वर्तमान में हरिद्वार में रहने वाले विनोद पन्त ,मूल रूप से खंतोली गांव के रहने वाले हैं. विनोद पन्त उन चुनिन्दा लेखकों में हैं जो आज भी कुमाऊनी भाषा में निरंतर लिख रहे हैं. उनकी कवितायें और व्यंग्य पाठकों द्वारा खूब पसंद किये जाते हैं. हमें आशा है की उनकी रचनाएं हम नियमित छाप सकेंगे.
इसे भी पढ़ें: ठेठ पहाड़ी खेलों की याद
Support Kafal Tree
.
काफल ट्री वाट्सएप ग्रुप से जुड़ने के लिये यहाँ क्लिक करें: वाट्सएप काफल ट्री
काफल ट्री की आर्थिक सहायता के लिये यहाँ क्लिक करें
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में आज से कोई 120…
उत्तराखंड के सीमान्त जिले पिथौरागढ़ के छोटे से गाँव बुंगाछीना के कर्नल रजनीश जोशी ने…
(1906 में छपी सी. डब्लू. मरफ़ी की किताब ‘अ गाइड टू नैनीताल एंड कुमाऊं’ में…
पिछली कड़ी : साधो ! देखो ये जग बौराना इस बीच मेरे भी ट्रांसफर होते…
आपने उत्तराखण्ड में बनी कितनी फिल्में देखी हैं या आप कुमाऊँ-गढ़वाल की कितनी फिल्मों के…
“भोर के उजाले में मैंने देखा कि हमारी खाइयां कितनी जर्जर स्थिति में हैं. पिछली…
View Comments
Such amazing and informative article Pant ji !!!