गंगनाथ ज्यू काली नदी के पार डोटीगढ़ के रहने वाले थे. कांकुर उन की राजधानी थी. उनके पास डोटीगढ़ की रौथानगिरी थी. माता का नाम प्योंला रानी तथा पिता का नाम भवेचंद था. दादाजी का नाम केसरचन तथा दादी का नाम इंदुमती था. चाचा का नाम उदय चंद तथा बहन का नाम दूधकेलि था. इनके पास कंचन महल था. सोने के सिंहासन में मखमली गद्दी बिछी रहती थी. यह स्वर्ण पात्रों में ही भोजन किया करते थे. घाटगढ़, बागलेख से धुलीसाल तक इनकी रकम चलती थी. डोटीगढ़ में छोलनी-बिजौरी और दाख-दाड़िम छील कर खाते थे. गंगनाथ अपने मां बाप के इकलौते पुत्र थे. ज्योतिषियों ने इनके बारे में भविष्यवाणी की थी की इनके भाग्य में 12 वर्ष तक ही राज योग है. उसके बाद यह जोगी हो जाएंगे.

गांगीनाथ के पास गाय-भैंसों और दूध-दही की कमी न थी. डोटीगढ़ में इन्होंने बड़ा उत्पात मचा रखा था. इन्हीं दिनों बागेश्वर में उत्तरायणी का आठ दिन का मेला लगा. इस मेले में हूण-सौक लोग आये रहते थे. घोड़ों, सोना चांदी, लोहे से निर्मित वस्तुओं, थुलमा, पश्मीना, पंखी, दरी आदि चीजों का वहां मेला लगा रहता था. उस समय गंगनाथ का 12वां साल चल रहा था. वे अपने दरी-दीवान सौद-मसौद को साथ लेकर 12 वर्ष की उम्र में बागनाथ के मेले में गए.

अल्मोड़ा जिले के रंगोड़ पट्टी में दन्या नामक एक गांव है. इस गांव में जोशी लोग रहते थे. इस दुनिया में किशनानंद (किशनू ) जोशी की भानुमति (भाना) नाम की रूपवती पत्नी थी. धनिया के पास लधौड़ी गाड़ मकौली में किशनू जोशी का झपरू नाम का लोहार रहता था. किशनू की अल्मोड़ा हाट में दीवानचारी थी. भाना के साथ रुकम रस्यारी (खाना पकाने वाली), कुसुम घस्यारी, नाथ-बिन्यान, झपरू ल्वार तथा अन्य नौकर-चाकर रहते थे. विश्वामटक में भाना जोश्याणी का मायका था. भवानी दत्त पंत उसके पिता थे. विश्वामटक बागेश्वर के नजदीक पड़ता था. भाना अपने संगी-साथियों के साथ बागेश्वर का मेला देखने के लिए अपने मायके गई हुई थी. वह वहीं से मेले में गई. गंगनाथ भी अपने नौकर-चाकरों के साथ इस मेले में आया हुआ था. संयोगवश दोनों का डेरा आस पास ही था.

गंगनाथ हृष्ट-पुष्ट और देखने में अति सुंदर था. भाना ने जब पहली बार उसे देखा तो वह उसके रूप पर मोहित हो गई. उसने अपने लोहार से कहा कि तुम जाकर पता करो यह लड़का कहां से आया है और किसका बेटा है. झपरू लोहार गंगनाथ के पास गया और कुछ के बारे में सारी बातें पूछी तथा आकर भाना को सब कुछ बताया. एक दिन दोनों की आंखें एक दूसरे से मिल गईं और वे देर तक एक दूसरे को टकटकी लगाए निहारते रहे. आठवें दिन जब मेला समाप्त हुआ तो भाना गंगनाथ से बोली – “हे गंगनाथ इस मेले में तुम जैसे सुंदर राजकुमार को देख कर मैं धन्य हो गई. अब तुम अपने राज्य को जाओगे और मैं अपने मायके होते हुए अपनी ससुराल दन्या को जाऊंगी. पर मेरी एक विनती सुन लो. जब तुम्हें तेरहवां साल लगेगा तो तुम मुझे याद करना. मेरा नाम भाना है. यह मेरे झपरू ल्वार, रुकुम रस्यारी और कुसुम घस्यारी हैं. जब कभी तुम्हारा मेरे ससुराल के देश आना होगा तो तुम इनके नामों को मत भूलना. रात में अपने सपनों और दिन में मन की उदासी का ख्याल करना.” इतना कहकर वह चुप हो गई और दोनों अपने अपने घरों को लौट गए. लेकिन भाना की बात गंगनाथ के मन को बार-बार उद्वेलित करने लगी.

गंगनाथ को जब 12 वर्ष पूरे हुए तो वह रात को सपनों में भाना को ही देखता था और दिनभर उसी के ध्यान में डूबा रहता था. दिन को मुरली बजाते हुए भी भाना-भाना ही कहता रहता. उसे न नींद आती थी न भूख लगती थी. माता पिता बहन आदि सगे संबंधियों के प्रति भी उसके मन मे लाड़-प्यार कम होता चला गया. यार दोस्तों और रिश्तेदारों के बीच उसका उठना बैठना भी कम हो गया था. रात को गंगनाथ जब भाना को सपने में देखना तो वह उससे सपने में कहती थी – “गंगनाथ! तुम तो अपनी राजधानी में ऐश और आराम कर रहे हो लेकिन मैं जब से बागेश्वर के मेले से लौटी हूं मेरी रातों की नींद और दिन की भूख गायब हो गई है. किसी दिन इस जोशीखोला में आकर अपनी शक्ल सूरत तो दिखा जाते. मेरी आंखों की प्यास बुझ जाती दिल की बेचैनी कम हो जाती. आपस में कुछ सुख-दुख की बातें हो जाती तो मेरा मन शांत हो जाता. मैं तुमको एक उपाय बताती हूं. तुम वैराग्य ले लो. नौणी गात (मक्खन जैसा शरीर) भभूत रमा लो. केदारी कंगन, बिल्लौरी दर्शन, खरवा की झोली, तिमिरी स्वट, भसमंडी चिमटा, रतन कम्बली, पस्याली रमट, वनवासी बांसुरी, रंगढली मुरली पकड़कर, सर मुंडाकर, कान फाड़ कर घर घर ‘माई बाप का अलख आदेश’ पुकारते हुए जोगी बन कर यहां आ जाओ. तभी तुम्हारी और मेरी मुलाकात होगी.”

सपने में भाना की ऐसी बातों को सुनकर गंगनाथ ने एक दिन राजकाज छोड़कर वैराग्य ले लिया. कुछ दिन तल्ली-मल्ली डोटी में अलख आदेश देकर घूमा फिरा. मां बाप ने गंगनाथ को बहुत समझाया आया कि तुम हमारी चौथी अवस्था की इकलौती संतान हो. वृद्धावस्था में हमारा भरण-पोषण कौन करेगा और कौन इस राज्य को संभालेगा. परंतु गंगनाथ ने किसी की न मानी. उसने कहा – “हे माँ! तुमने मेरे लिए न जाने कितने ही कष्ट सहे, कितना त्याग किया. माघ के मकर पूस के इतवार, शनि मंगल आदि को व्रत रखे. अनेक देवी-देवताओं के मंदिरों में मिन्नतें मांगी. मुझे अपने गर्भ में दस मास तक पाला. मैं सब जानता हूं! मां! मैं वंश का राजा था लेकिन कर्मों का जोगी निकल गया. फिर राज दोछूंन गाँव छोड़ना भाई-दोछूंन चुल-बाड़, गाड़-बड़ डालना कहते हैं. मुझे तिरिया के दोछूंन (विरह) लगे हैं. मेरी नींद भूख चली गई है. अन्न धन का मुझे लोभ नहीं रहा. मां मुझे जोगी बन जाने दो. मेरे लिए सब घर घर माई घर-घर बाप है” – ऐसा कहकर जोगी का वेश धारण कर गंगनाथ डोटीगढ़ छोड़ कर चल दिया.

डोटीगढ़ छोड़ कर उसने शारदा (काली) नदी पार की और कुछ दिन सौणि सोर हाट (पिथौरागढ़) में रहा. उसके उपरांत काली कुमाऊं होते हुए हरिद्वार चला गया. हरिद्वार में उसने हर की पैड़ी में प्रार्थना की, ब्रह्म कुंड में नहाया और वहां से गुरु गोरखनाथ के मठ में चला गया. उन दिनों हरिद्वार में कुंभ का मेला लगा हुआ था. बारह पंथों के जोगी और सोलह पंथों के सन्यासी वहां आए हुए थे. सब ने गुरु के आंगन में आसन लगा रखा था. गंगनाथ भी वहां गया और उसने गुरु गोरखनाथ से कहा – “ गुरु मेरा सिर मुंडा दो, कान फाड़ दो और मुझे जोग दे दो.” गुरु ने उस सुंदर राजकुमार से सन्यास लेने का कारण पूछा तो उसने कहा उसे किसी बात का कोई दुख नहीं है. वह संसार से वैराग्य होने के कारण ही जोग ले रहा है. गुरु के समझाने-बुझाने पर भी जब गंगनाथ ने एक न मानी तो उन्होंने उसके कान फाड़ कर, मुंड मुंडा कर जोगी की शिक्षा दे दी.

हरिद्वार से गंगनाथ दन्या चला आया. उसने वहां चौबाट चकोली में धूनी रमा ली. वह मोहिनी मुरली बजाता था. वहां आने-जाने वाले लोग, ग्वाल, बाल, घस्यार आदि उस रूपवान जोगी को देखकर तथा उसकी मधुर मुरली के स्वर से मोहित होकर घर-घर उसकी चर्चा करने लगे. उसकी चर्चा सारे दन्या में फैल गई.

भाना ने सुना तो उसे शंका हुई कि कहीं गंगनाथ ही जोगी का रूप धर कर तो नहीं आ गया. उसने अपने विश्वासपात्र झपरू लोहार को उसके पास भेजा. लोहार गंगनाथ के पास गया और उसे भाना का संदेश दिया. गंगनाथ ने झपरू के माध्यम से भाना को आश्वस्त किया किसी बात की चिंता न करना मैं मरते दम तक तुम्हारा साथ दूंगा.

झपरू लोहार ने गंगनाथ की सारी बातें भाना को बताईं कि डोटीगढ़ का राजकुमार गंगनाथ जोगी बनकर तुम्हारे गाँव तुमसे मिलने आया है. भाना ने पुनः झपरू को गंगनाथ के पास भेजा कि अगर दन्या के जोशी तुमसे तुम्हारा घर पूछें तो तुम अपना घर विश्वामटक बताना. धीरे-धीरे दन्या के लोग भाना से कहने लगे कि तेरे मायके का जोगी चौबाट में आया है. उस बेचारे को गांव में बुलाकर अपने किसी मकान में रहने की जगह दे दो. भाना ने लोगों के कहने पर उसे गाँव में बुला लिया और किमुडाली (शाखा) के नीचे उसका आसन जोड़ दिया और झपरू लोहार को उसकी सेवा में नियुक्त किया. इस बीच भाना और गंगनाथ का प्रेम प्रसंग चलता रहा.

जब गंगनाथ को जोश्यूड़ में रहते हुए छः सात महीने हो गए तो भाना गर्भवती हो गई. उसे गंगनाथ का गर्भ ठहर गया. यह बात दन्या के जोशियों में फैल गई. धीरे धीरे अलम शहर अल्मोड़ा में भी किशनू जोशी को इस बात का पता चल गया. उसने अपने कारिंदों से, लोकलाज के भय से बचने के लिए गंगनाथ, भाना और झपरू लोहार का पीछा किया और और उन्हें घाटी के गधेरे में पनचक्की के भीतर मरवा कर वहीं दफना दिया.

इसके तीसरे महीने से ये तीनों प्रेत बनकर किशनू जोशी, उसके परिवार और अन्य जोशियों को सताने और परेशान करने लगे. उन्होंने जोशी लोगों की बहुत अधिक बर्बादी कर डाली. गन्त-पूछ करने पर पता चला की ये तीनों ही भूत बनकर उन्हें परेशान कर रहे हैं. तब किशनू जोशी और उसके बिरादरों ने दन्या के पास कुड़क्वेली में इन तीनों का पहला थान (मंदिर) बनवाया. ये तीनों थान आज भी मौजूद हैं.

वहां से गंगनाथ का प्रचार समूचे कुमाऊँ में हो गया. दन्या के कुड़क्वेली से सालम का अनूपसिंह गंगनाथ को दुखी आवाज़ निकाल कर वहां से धत्या कर अपने यहाँ ले गया क्योंकि अगर के सौनों ने उसके साथ अत्याचार किया था. तब गंगनाथ को शांत करने के लिए ध्यूली गाँव के टकुरी नामक स्थान पर उसका मंदिर बनाया गया जिसे गंगनाथ की राजधानी माना जाता है. यहीं से न्यायदेवता के रूप में गंगनाथ की पूजा होना शुरू हो गयी. यहें से रैनखा, सेरी, मल्ला बेली, झ्वातकिगाड़ आदि स्थानों में गंगनाथ के मंदिर बनाये गए. जिसके लिए भी कोई अन्याय होता है वह गंगनाथ के मन्दिर में जाकर उस अन्यायी के विरुद्ध आवाज़ लगाकर न्याय की भिक्षा माँगता है. गंगनाथ झपरू लोहार को साथ ले जाकर अन्यायी को दण्डित करता है.

ग्वल्ल देवता के साथ गंगनाथ भी कुमाऊँ के सबसे बड़े न्याय-देवताओं में गिना जाता है.

(श्री लक्ष्मी भंडार अल्मोड़ा द्वारा प्रकाशित ‘पुरवासी’ के 1988 के अंक से साभार डॉ. शेरसिंह बिष्ट के आलेख के आधार पर)

इसे भी पढ़ें: गोलू देवता की कहानी

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  • आपकी कहानी में ये सही नहीं है कि भाना जोशी जी कि पत्नी थी ये गलत है पूरी कहानी ही गलत है

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