कला साहित्य

बंद दरवाजा – स्मिता कर्नाटक की एक अल्मोड़िया दास्तान

चलते चलते अचानक मेरे पैर जहाँ के तहाँ ठहर गये. अग़ल-बग़ल उठ आये मकानों के बीच इस मकान को खोजना मुश्किल हो रहा था लेकिन पहचान तो पुरानी थी. यही तो था वो घर जिसकी दीवारों, खिड़कियों और आँगन से हमारे जीवन के सबसे मासूम साल लिपटे हुए थे. घर से उठती कई पुरानी ख़ुशबुएँ धीरे धीरे वहाँ की वीरानियों में घुलने लगीं. The Locked Door story by Smita Karnatak

वे दोनों जुड़वाँ बहने मेरी सबसे अच्छी सहेलियाँ थीं. स्कूल के पहले दिन इंटरवल के दौरान जब मैं रुआँसी सी अपनी सीट पर बैठी थी तब अदिति मेरे पास आई और आते ही उसने मेरा हाथ पकड़कर कहा, “तुमने टिफ़िन खा लिया अपना?” जवाब में मैंने ज़ोर से “ना” में सिर हिला दिया. उसकी जुड़वाँ बहन अपनी सीट से पीछे मुड़कर हमें ही देख रही थी. अदिति ने उसे हाथ के इशारे से मेरी सीट पर बुला लिया. तीन टिफ़िन खुले और उनके ख़त्म होने तक मेरी सारी उदासी काफ़ूर हो गई और हम पक्के वाले दोस्त हो गये.

पहले दर्जे में हुई ये दोस्ती अगले पाँच साल तक ऐसे ही चली. हम तीनों सब जगह एकसाथ जाते. मेरा घर उनके यहाँ से कोई चौथाई मील पर था और उन दिनों इतना रास्ता तो हम खेल खेल में नाप जाया करते थे. स्कूल से छुट्टी होने के बाद हम अपने अपने घरों की ओर चल देते लेकिन मेरा हर इतवार और कोई भी छुट्टी का अधिकतर समय इसी घर में बीतता था. The Locked Door story by Smita Karnatak

दोनों बहनों के पास अपना कहने को एक अदद कमरा था जहाँ हम मूसलाधार बारिश के दिनों में बैठे कैरम या लूडो खेलते. सर्दियों की चटक धूप में बाहर खेलते. अग़ल – बग़ल के बच्चे भी आ जुटते. उन दिनों मैं अपने घर से अपना लाल रंग का कोट पहनकर निकलती जिसकी दोनों जेबों में मूँगफलियाँ ठूँसीं रहती. मन ललचा गया तो सहेलियों के घर की चढ़ाई के रस्ते में कुछ तो खा ही जाती थी. बाकी जितनी ईमानदारी से बच गईं तो उनके घर पहुँच कर जेबें ख़ाली कर देती. “मम्मी ने जेबें ऊपर तक भर दी थीं ना !” मैं बिन माँगे सफ़ाई देने की कोशिश करती. “और वो चलते समय गिर रही थीं तो मैंने थोड़ी सी खा लीं.” संगीता मेरे झूठ को पकड़ लेती थी. “झूठी!” वो मेरी लंबी चोटी पकड़कर खींचते हुए कहती. “मैंने तुझे देखा नहीं था रास्ते में रुककर खाते हुए?” काकी ऐसे में हमारे झगड़े सुलझातीं. थोड़ी देर मुँह फुलाकर कुट्टा होने के बाद सब भूल जाते और मेरे घर वापस लौटने से पहले अँगूठा मिलाकर सल्ला भी हो जाती. खेलकूद पूरा होने के बाद दोनों बहने मुझे अपने घर के मोड़ तक छोड़ने आतीं जहाँ से नीचे मेरा घर दिखने लगता. उतार में दौड़ते हुए मैं जब अपने घर पहुँचती तब कई बार दोनों वहीं खड़ी मिलतीं. मैं जब उन्हें पीछे मुड़कर आख़िरी बार हाथ हिलाकर ‘बॉय’ कहती तब वे भी अपने घर की ओर बढ़ जातीं. 

अदिति और संगीता के माता-पिता कई साल पहले नासिक से यहाँ आकर बस गये थे. काकी कहतीं, “अरे बेटा ! इन पहाड़ों ने बाँध दिया तुम्हारे काका को.” शुरु में मैंने उन बहनों की माँ को ऑंटी कहा था लेकिन उन्होंने तुरंत ही टोक दिया. “काकी कहो मुझे.” बस तभी से वो मेरी काकी और अंकल मेरे काका. ख़ास मौक़ों पर काकी की बनाई पूरनपोली मुझे इतनी अच्छी लगती थी कि पेटभर खा चुकने के बाद भी मेरा मन नहीं भरता तो काकी सिर पर एक चपत मारकर हँसकर कहती, “बस कर अब. पेट फूट जायेगा. घर के लिये रखे दे रही हूँ , बाद में खा लेना.” मुझे और क्या चाहिये था. शाम को खेल कूदकर जब मैं अपने घर के रस्ते लगती तो स्टील के टिफ़िन में दो पूरनपोली भी मेरे साथ चलतीं. The Locked Door story by Smita Karnatak

माँ अगली बार उस टिफ़िन में पुए या सिंगल बनाकर रखते हुए कहती, “ये ले, ख़ाली बरतन वापस नहीं करते. अपनी काकी को देना,” फिर  थोड़ा डपटते हुए कहती, “खा मत लेना इसमें से कुछ रास्ते में !” खाने के मामले में मेरी नीयत पर उन्हें हमेशा शक रहा. 

घर पर मेरी दादी थीं जिनको अक्सर ये शिकायत रहती कि सहेलियों के घर से आने के बाद मैं खाना नहीं खाती. “क्या खिलाती हैं उनकी आई तुझे जो घर आकर खाने की तरफ़ देखती भी नहीं.” मैं दादी का शॉल खींचकर भाग जाती और दूर जाकर उन्हें मुँह चिढ़ाती. “ऐसा ही टेढ़ा हो जायेगा मुँह, फिर कोई ब्याह कर भी नहीं ले जायेगा.” दादी भी ग़ुस्सा दिखाते हुए कहती. 

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उस दिन पापा किसी काम से दिल्ली गये हुए थे. छुट्टी का दिन था. स्कूल से मिला होमवर्क करने के बाद मैंने किताबें समेटी और जूते पहनने लगी. आज काकी ने शाम को वड़ा पाव की दावत पर मुझे न्योता दिया था. उसे मेरे जैसी पेटू लडकी भला कैसे छोड़ सकती थी. रोज शाम को बाहर कुर्सी डालकर बैठने वाली दादी आज नदारद थी. मैंने माँ को आवाज़ लगाकर अपने जाने की सूचना दी तो उन्होंने मुझे चाय का गिलास थमाकर दादी को दे आने को कहा. वे सुखे कपड़ों की ढेर को तह लगा रही थीं. कमरे में जाकर मैंने चाय का गिलास रखा और दादी को आवाज़ दी, “आमा ! चाय पी लो.” इतना कहकर मैंने उन्हें ज़ोर से हिला दिया. दादी सिर ढाँपे गहरी नींद में थी शायद. उसने सुना ही नहीं. “ओ आमा! उठो, चाय पी लो, फिर ठंडी हो जायेगी.” कहते हुए मैंने उन्हें लगभग झिंझोड़ दिया. दादी टस से मस नहीं हुई. दो-तीन बार ऐसा करने पर भी जब नहीं उठी तो मुझे झुँझलाहट हो आई. पैर पटकते हुए मैं कमरे से बाहर आई और माँ से बोली, “नहीं उठ रही दादी, अब तुम ही उठाकर पिला देना चाय. मुझे खेलने जाना है, देर हो रही है.”

“रुक ज़रा, एक काम को कहो वो भी नहीं होता इस लडकी से. पापा ने बहुत सिर पर चढ़ा रखा है.” कहते हुए माँ दादी को उठाने उनके कमरे की तरफ़ चल दीं. मौक़ा जानकर मैं बाहर की ओर लपकी. घर के बाहर निकली ही थी कि माँ के ज़ोर से चीख़ने की आवाज़ आई. मेरे पैर वहीं जम गए. एक पल को समझ नहीं आया कि क्या हुआ. फिर न जाने कौन सी अनजान ताक़त मुझे उल्टे पैर घर के भीतर ले गई. माँ की चीख़-पुकार जारी थी. डरते हुए मैंने कमरे में क़दम रखा. माँ दादी का सिर गोद में लिये रोए चली जा रही थी. मुझे देखते ही उन्होंने एक हाथ मेरी तरफ़ पसार दिया. मैं दौड़कर उस विशाल बाँह में समा गई. “दादी चली गई बेटा,” और ये कहकर माँ फिर फफककर रोने लगी. मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था. दादी आँखें बंद किये शांत लेटी थी. वही दादी जिसकी गोद में सिर रखकर मैं रोज़ नींद आने तक कहानियाँ सुना करती थी, जिसके पल्लू में बँधे पैसों की गाँठ खोलकर मैं टॉफ़ी लेने चल देती थी और जिसे चिढ़ाने के लिये मैं जानबूझकर उसके पल्लू से हाथ पोंछ देती थी.

थोड़ी देर में ही सारा पड़ोस घर में जुट गया. काका-काकी को ख़बर लगी तो वे भी बेटियों के साथ आ पहुँचे. काकी ने थोड़ी देर में ही सब सँभाल लिया. रात भर वे दोनों वहीं रहे. मुझे याद है काकी थोड़ी देर के लिये  घर गई थी और ज़बरदस्ती मुझे भी साथ ले गई. जल्दी- जल्दी उन्होंने कुछ बनाया और मेरे आगे खाने को रख दिया. मेरी रुलाई फूट पड़ी. एक तरफ़ दादी याद आती थी तो दूसरी तरफ़ भूख भी लग आई थी. पहला निवाला मुँह में डालते ही दादी की कही बात याद आयी,”तुझे क्या खिलाती है उनकी आई?” आँख में आँसू भर आये, गला रुँध गया लेकिन बचपन की भूख जीत गई. 

काका ने सारी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले ली. आस-पड़ोस के लोगों के साथ मिलकर सारे इंतज़ाम किये.  मुश्किल ये थी कि पापा को ख़बर कैसे दी जाय. दिल्ली में उनके दोस्त का फ़ोन नंबर माँ के पास था. दिल्ली जाकर पापा उन्हीं के वहाँ रुकते थे. कुछ तो काका ने किया ही होगा. अगले दिन ग्यारह बजे तक पापा की टैक्सी दरवाज़े पर आकर लग गई थी. The Locked Door story by Smita Karnatak

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लेखिका सस्मिता कर्नाटक का कहना है कि जयमित्र सिंह बिष्ट का यह फोटो इस कथा को लिखने की प्रेरणा बना

देखते देखते एक बरस भी बीत गया. दादी की बरसी के बाद पापा कई बार दिल्ली जाते थे. एक बार मैं और माँ भी गये. वापस आते हुए माँ और पापा बहुत ख़ुश थे. माँ ने कनॉटप्लेस से कुछ शॉपिंग भी की. मेरे लिये भी कुछ अच्छे नये ढंग के कोट और ऊनी कपड़े ख़रीदे गये. मैं पहली बार दिल्ली गई थी लिहाज़ा इतने बड़े शहर की रंगीनियाँ मुझे वैसे ही लुभा रही थीं. ज्यों – ज्यों हमारा ठेठ पहाड़ी शहर अल्मोड़ा पास आता गया मैं मन ही मन उसकी तुलना दिल्ली से करने लगी. वहाँ के मुक़ाबले हमारे शहर में कुछ भी नहीं है. काश मैं भी दिल्ली में रहती. मेरे मन में दिल्ली पूरी तरह से छा गया था. 

घर आकर माँ और पापा देर तक आपस में बातें करते रहते. मैंने उनकी बातों में शामिल होना ज़रूरी नहीं समझा, न उन्होंने मुझे इस क़ाबिल पाया. माँ कई बार कपड़े छाँटती रहती और ग़ैर ज़रूरी कपड़ों और दूसरे सामान को अलग रखती जाती. एक दिन पापा शाम को ऑफ़िस से आये तो बड़े ख़ुश थे. “चलो आख़िरकार सारा काम हो गया,” वे माँ से बोले. मैं अपनी ड्रॉइंगबुक पर झुकी पहाड़ से उतरती नदी में रंग भर रही थी. “अच्छा ! ये तो बहुत अच्छा हुआ.” माँ ने ख़ुशी से कहा. मैंने नज़र उठाकर दोनों की तरफ़ देखा. 

“सुनिधि ! बेटा कल मैं एक अर्ज़ी लिखकर तुम्हें दे दूँगा, तुम अपनी प्रिन्सिपल को दे देना. मैं कल दोपहर स्कूल आकर बात कर लूँगा.” पापा ने कहा. 

“क्यों पापा, आपको स्कूल क्यों आना है, और ये अर्ज़ी किस बात की?” मैंने एक बार पापा को देखा और फिर रंग भरने में तल्लीन हो गई. मेरा तो बहुत सारा काम पड़ा था अभी. नदी के पार बने घर के बाहर हरी हरी घास लगानी थी, फूलों में लाल – पीले रंग भरने थे, आसमान में तीन काली चिड़िया उड़ानी थीं और पहाड़ों के बीच से सिंदूरी सूरज उगाना था. 

“इधर आओ.” पापा ने बड़े प्यार से मुझे कहा. पास रखे मग में रंग से पुते हाथ डुबाकर घुटनों के बल खड़ी होकर मैं पापा के पास आ गई. पापा ने मुझे अपनी गोद में बिठाकर सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “अब तुम्हें यहाँ के स्कूल जाने की कोई ज़रूरत नहीं है.” The Locked Door story by Smita Karnatak

“क्यों?” मैंने आदतन मुँह में उँगली दबाते हुए कहा. 

“क्योंकि हमलोग अब अमेरिका जा रहे हैं.” पापा ने प्यार से मेरी उँगली दाँतों के बीच से छुड़ाते हुए कहा जिसे मैंने अपनी बाकी उँगलियों में उलझा लिया. 

“हाँ, सच्ची?” मैं उनकी गोद से उछलकर खड़ी हो गई. “अमेरिका? वो तो बहुत बड़ा देश है ना पापा? वहाँ बहुत ऊँचे -ऊँचे घर होते हैं, और वहाँ सब इंग्लिश बोलते हैं?” मैं एक साँस में कह गई. पापा और मम्मी मेरी इस बात पर ठहाका मारकर हँस पड़े. 

मैं अपने इस उतावलेपन पर थोड़ी खिसिया कर रह गई. पापा ने मुझे अपने चौड़े सीने में छुपाते हुए कहा, “हाँ मेरी गुड़िया ! वहाँ ऐसा ही होता है.” माँ ने हँसते हुए मेरे सिर पर एक प्यार भरी चपत लगाई और पापा के लिये चाय बनाने रसोई की ओर बढ़ गईं. 

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अमेरिका जाने की ख़बर तो अपनी पक्की सहेलियों को देनी ही थी. मैंने एक नज़र अपने आधे बने चित्र पर डाली और सोचा कि ये तो मैं कल भी कर सकती हूँ. ड्रॉइंग का पीरियड तो अब दो दिन बाद होना था. मैंने जल्दी जल्दी जूते पहने और अपनी सहेलियों के घर की तरफ़ भागी.  काकी बाहर से बडियाँ और अचार समेट रही थी. “काकी! आत्या और सत्या कहाँ हैं?” मैंने चहकते हुए उनसे पूछा. “अंदर होंगी, क्या बात है? आज तो तू बहुत ख़ुश लग रही है.” उन्होंने पूछा लेकिन काकी को जवाब देने की फ़ुरसत मुझे कहाँ थी. उनकी बात के पूरा होने तक तो मैं अपनी सहेलियों के कमरे में थी. 

“हम लोग अमेरिका जा रहे हैं.” मैंने भीतर घुसते ही ख़बर दी. दोनों बहनें मेरा मुँह देखने लगीं. आत्या ने अपनी गुड़िया को नए कपड़े पहना दिये थे और अब वो सत्या के गुड्डे के साथ बाहर सैर पर जाने को तैयार थी. अचानक कही गई मेरी बात शायद उनके पल्ले नहीं पड़ी. 

“कितनी दूर है अमेरिका?” आत्या ने भोलेपन से पूछा. 

“बहौत दूर है.” मैंने अपने हाथ फैलाकर दूरी नापने की कोशिश करते हुए बताया. “मालूम है वहाँ हवाई जहाज़ से जाना पड़ता है तब भी दो दिन लग जाते हैं.”

“सच्ची….?” संगीता ने गोल गोल आँखें घुमाते हुए कहा. 

“हाँ, और पता है, वहाँ इतने ऊँचे – ऊँचे घर होते हैं.” मैंने पंजों के बल खड़े होते हुए पूरी लंबाई में अपनी बाँहों को इतना ऊँचा किया जितने से मेरी कल्पनाओं में उतने ऊँचे घर फ़िट हो जायें. 

“फिर तू वापस कब आयेगी?” संगीता ने पूछ लिया. “सर्दियों की छुट्टी के बाद आ जायेगी?”

ये बात तो मुझे भी पता नहीं थी. मेरे लिए तो यही बहुत था कि मैं एक अनजाने मगर ऐसे देश जा रही थी जहाँ जाने का बाकी लोग सपना ही देख पाते थे. उस दिन हमारी बातचीत का विषय अमेरिका ही रहा. 

शाम को घर लौटकर मैंने माँ से पूछा, “मम्मी ! हम लोग अमेरिका से वापस कब आयेंगे? काकी कह रही थी कि इस बार मेरे लिये ख़ूब सारा आम पापड़ बनायेगी.”

माँ रोटी बेल रही थी. बेलन का सिरा मेरे पेट में लगाती हुई बोली, “चल बुद्धू ! हम लोग अब इतनी जल्दी वापस नहीं आ पायेंगे. पापा वहीं काम करेंगे ताऊजी के साथ, उनके बिज़नेस में मदद करेंगे.”

सुनकर मेरा अमेरिका जाने का सारा उत्साह ठंडा पड़ गया. मैं चुपचाप पलटकर कमरे में चली आई जहाँ पापा अपने सामने बिखरी फ़ाइलों में कुछ काग़ज़ लगाने में व्यस्त थे. 

मैं उन्हें ऐसा करते देखती रही. क्या हमलोग सच में वापस नहीं आयेंगे? मम्मी- पापा को अपने दोस्तों की याद नहीं आयेगी? मम्मी कहती है कि ये गमलों में लगे ढेर सारे फूल उनके बच्चों जैसे हैं. मम्मी को अपने इन बच्चों की याद नहीं आयेगी?  दो साल पहले मेरे जन्मदिन वाले दिन मम्मी ने मेरे हाथ से बोगनवीलिया की बेल लगवाई थी. इस साल उसमें कितने फूल आ गये थे. गमले से नीचे लटकती बेल फूलों से लद गई थी. 

मेरे मन में हौल सी उठने लगी. मैं वहाँ और देर नहीं बैठ सकी. उठकर उस कमरे में चली आई जो कभी दादी का कमरा हुआ करता था, अब वो मेरा था. दीवारों पर मेरी बनाई पेंटिंग्स लगी थीं. पापा अच्छी पेंटिंग्स छाँटकर मेरे कमरे की दीवारें सज़ा देते थे. मुझे ये सब छोड़कर जाना होगा?  वहाँ मुझे कहाँ मिलेंगी अदिति और संगीता?  किनके साथ खेलूँगी मैं वहाँ?

सच ये था कि मेरी जल्दी से किसी के साथ दोस्ती होती नहीं थी. बड़ी मुश्किल से ये दो सहेलियाँ बनी थीं, इनका साथ भी छूट जायेगा?  मम्मी ने खाने के लिये आवाज़ दी. मैं बिस्तर पर पड़ी रही तब उन्हें खुद आना पड़ा.The Locked Door story by Smita Karnatak

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बीस दिन बाद दिल्ली से न्यूयॉर्क के लिये हमारी फ़्लाइट थी. पापा ने स्कूल से मेरा नाम कटवा दिया था. अब तो मुझे दिन और भी लंबे लगने लगे. मम्मी सारा दिन व्यस्त रहतीं. कुछ सामान किसी को देना था, कुछ बेच देना था, कपड़े भी छाँटकर अलग करने थे. मम्मी – पापा को फ़ुरसत नहीं थी इसलिये लखनऊ से मौसी और मौसाजी मिलने के लिये खुद आने वाले थे. मम्मी का कुछ सामान मौसी ने लेकर जाना था. मम्मी-पापा सारा दिन कुछ न कुछ करते रहते. कई सारी लिस्ट बनतीं और फाड़कर फेंकीं जाती. 

मैं अब भी अपनी सहेलियों के घर जाती रही लेकिन जैसे जैसे मेरे जाने के दिन नज़दीक आते गये मैं ये सोचकर परेशान रहने लगी कि इतनी सारी चीज़ें छोड़कर हम कैसे चले जायेंगे. शाम होते ही मैं सहेलियों के घर की तरफ़ लपकती. जितनी देर मैं वहाँ रहती तो सोचती कि मुझे घर जाना ही न पड़े. मैं यहीं रह जाऊँ. बीच-बीच में काकी मेरे जाने की बात पूछती. मेरा अनमना मन उनके इस सवाल से बचना चाहता, जैसे ये सब करके हमारा जाना टल जायेगा. 

उन दिनों एक दूसरे से बिछड़ते समय एक-दूसरे को निशानियाँ देने का चलन था. काकी और काका ने जाने के दो दिन पहले हम सबको उनके घर पर खाने का न्यौता दिया. मम्मी ख़ुश होकर काकी को जाने की बात बताती रही. उस दिन मुझे सच में ऐसा लगा कि मैं दुनिया के आख़िरी छोर पर खड़ी हूँ जहाँ से मेरी आवाज़ कहीं नहीं पहुँचती. माँ- पापा ख़ुश थे कि वे विदेश जा रहे थे, उनके दोस्त उनकी ख़ुशी में ख़ुश थे लेकिन मुझे किसने पूछा था। 

मैं अपनी बनाई हुई दो पेंटिग्स आत्या और सत्या के लिये ले गई थी, पापा ने उन्हें फ़्रेम करवा दिया था. मम्मी ने अपने सारे गमले काकी को दे दिये थे. बोगनवीलिया का वो गमला भी जो चटक फूलों से लद जाता था. 

हम तीनों उस दिन कितने उदास थे. मुझसे ज़्यादा उन्हें इस बात की ख़बर थी कि अब हम शायद ही मिल पायें. काका के पास एक कैमरा था. उन्होंने हमारी कई सारी फ़ोटो खींची. पापा ने उनसे वादा किया कि वो घर जाकर ताऊजी का पता उन्हें देंगे ताकि ये फ़ोटो वे अमेरिका भेज सकें. 

अगले दिन की आख़िरी शाम को भी मैं अपनी सहेलियों के पास मिलने गई. काकी ने बोगनवीलिया के पौधे को गमले से निकालकर घर के दरवाजे के पास लगा दिया था. The Locked Door story by Smita Karnatak

तीसरे दिन मैं जब सुबह उठी तब तक एक टैक्सी घर के नीचे वाली सड़क पर खड़ी थी. पापा के कुछ दोस्त विदा कराने आ पहुँचे थे और बचा-खुचा सामान ठिकाने लगाया जा रहा था. हमारा ले जाये जाने वाला सामान तो पिछली रात ही पैक करके एक तरफ़ लगा दिया गया था. मैं ज़िद करती रही कि मैं अपनी सब गुड़िया और अपने खेल के सारे बरतन लेकर जाऊँगी. ये तो अमेरिका जाकर ही पता चला कि उसमें से कुछ भी वहाँ नहीं आया था. केवल एक सादी सी स्क्रैपबुक जो मेरी सहेलियों ने मेरे लिये ख़रीदी थी वही कपडों के नीचे मिली. उसके पहले पन्ने पर आत्या और संगीता ने हाथ पकड़े तीन लड़कियों की तस्वीर बनाकर सबके नीचे उनके नाम लिख दिये थे. 

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पिण्डारी ग्लेशियर की ट्रैकिंग से लौटते हुए हमने तीन दिन अल्मोड़ा में रुकने का कार्यक्रम बनाया था. एडवर्ड और मैं दस साल बाद इंडिया आये थे. इससे पहले हम अपने कुछ दोस्तों के साथ साउथ के टूर पर आये थे और वहीं से वापस लौट गये थे. हमारे दोनों बेटे अपने अपने कैरियर में आगे बढ़ रहे थे और हम अब अपना घूमने का शौक़ पूरा कर रहे थे. एडवर्ड पक्का घुमक्कड़ है. अब तक हम आधी से ज़्यादा दुनिया के सुदूर इलाक़ों की यात्रा कर चुके थे और इस बार भारत के कम से कम दो ग्लेशियर तक जाने का इरादा रखते थे. मिलम ग्लेशियर से होते हुए हम पिंडारी ग्लेशियर भी जाना चाहते थे. 

ट्रैवल रूट की प्लानिंग करते हुए मैंने देखा था कि लौटते समय अल्मोड़ा रास्ते में पड़ेगा. तभी मैंने एडवर्ड को बताया था कि बचपन का सबसे यादगार समय मैंने इस शहर में बिताया है. “ओ रियली? वी कैन प्लान ए शॉर्ट स्टे एट दैट प्लेस.” हमने आसपास की जगहें देखीं और तय किया कि कौसानी और कटारमल होते हुए दो दिन के लिये नैनीताल जाएँगे. 

चालीस साल बाद मैं उसी शहर में थी. हर बदलते शहर की तरह ये भी कितना तो बदल गया है, उसे बदलना ही है. हम भी तो कितना बदल गये हैं. अब हम भी वो पहले जैसे कहाँ रहे. चालीस साल पहले हमारे भीतर कितनी शांति थी, कितना सुकून. अब कितना शोर है हमारी इच्छाओं का, कामनाओं का, ज़रूरतों का. दिनोंदिन ये शोर बढ़ता ही जाता है. 

मुझे कुछ – कुछ याद था कि हमारा घर किस तरफ़ पड़ता था लेकिन ठीक से नाम याद नहीं था मोहल्ले का. मम्मी-पापा होते तो उनसे पूछ लेती लेकिन वे दोनों तो इस दुनिया से जा चुके थे. मुझे इतना याद था कि सर्किट हाउस की ओर जाने वाली सड़क के नीचे हमारा घर हुआ करता था और उसी के एक तरफ़ ऊपर की ओर मेरी सहेलियों का घर .  The Locked Door story by Smita Karnatak

पहले दिन तो हमने  शाम को होटल पहुँचकर ट्रैकिंग की थकान उतारी. मुझे सुबह का इंतज़ार था. 

अगले दिन होटल से ही नाश्ता करके हम शहर की सड़कों पर घूमने निकल पड़े. सर्किट हाउस को जाने वाला रास्ता पूछते-पूछते हम उस सड़क पर थे जहाँ कभी इक्का-दुक्का गाड़ियों के अलावा सड़क पर चलने वालों की ही आवाजाही रहती थी. अब वहाँ गाड़ियों का शोर है और पैदल चलने वाले किनारों पर सिमटते हुए चल रहे हैं. रास्ता तो पहचान में आ गया लेकिन वो जगह खोजना बड़ा मुश्किल काम था. मेरी यादों में जो घर था, सड़क के नीचे मुझे वैसा एक भी घर नहीं दिखाई दिया. सभी घर पक्के सीमेंट के दो- तीन मंज़िला थे जबकि हमारा टीन की ढलुवा छत वाला एक मंज़िला मकान था. मैं खोजती रही चालीस बरस पहले के निशान जो शायद वहीं कहीं किसी पक्के मकान की नींव तले ज़मींदोज़ हो गये थे. एडवर्ड मेरे मन की बात समझ गये थे. मुझे कंधे से पकड़ कर वापस ले चले. “ओ कम ऑन डियर! इट हैपन्स.” मैंने उसे बताया कि ऊपर की तरफ़ मेरी फ़्रेंड्स रहा करती थीं. 

“वाना गो देयर?” उसने पूछा. जवाब में मैं सिर्फ़ सिर हिला पाई. 

सड़क से निकलकर हम ऊपर की तरफ़ चढ़ने लगे. चालीस बरस पहले के दौड़ते-भागते पैरों को अजीब सी थकन जकड़ने लगी. कितने मन से मैंने तीन दिन यहाँ रुकने का प्लान बनाया था. लेकिन मेरे बचपन का वो घर तो जाने कहाँ गुम हो गया था. हर तरफ़ इतना कन्स्ट्रक्शन हो चुका है कि पुराने दिनों में अपनी यादें तलाशना मुमकिन ही नहीं है. 

सड़क छोड़कर जब हम ऊपर की ओर चढ़े तब भी उन दिनों की ख़ाली जगहें सब भर गई दिख रही थीं. कुछ चीज़ें यादों में ही रहें तो अच्छा है. इतने बरसों बाद फिर से उन जगहों में वही सुकून तलाशने के लिये जाना बिल्कुल बेमानी है. काका-काकी भी अब होंगे या नहीं क्या मालूम. अदिति और संगीता भी शादियाँ करके अपने घरों को चली गई होंगी. क्या मालूम वो घर भी हमारे घर की तरह किसी और घर की नींव तले सो रहा हो. 

“सी, द व्यू फ़्रॉम हियर इज ब्यूटीफ़ुल.”क कोने पर आकर कैमरा का ऐंगल सेट करते हुए एडवर्ड ने कहा. ये वही कोना था जहाँ तक अदिति और संगीता मुझे छोड़ने आते थे. नीचे, बहुत नीचे यहाँ से वो जगह दिख रही थी जहाँ कभी हमारा घर हुआ करता था. मेरी आँखों ने फिर कोशिश की, क्या पता कोई निशान मिल जाये. मिला, एक बूढ़ी सी औरत किसी को अपने घर से जाते हुए विदा करने घर के दरवाज़े के बाहर तक आई थी और सड़क पर पहुँच गये अपने किसी अज़ीज़ को हाथ हिला रही थी. हम यहीं होते तो मम्मी भी इतनी ही बूढ़ी हो गईं होतीं. 

मेरे चारों ओर की हवा ठहर गई. सड़कों पर गाड़ियों का शोर थम गया. आसपास से गुज़रते लोगों के पैरों की आवाज़  कहीं खो गई. रह गई केवल एडवर्ड के कैमरे की फ़ोटो खींचती हुई ‘क्लिक, क्लिक,क्लिक’. मैं एडवर्ड को उसके कैमरे के साथ छोड़कर उसी धुन में आगे बढ़ गई. सिर्फ़ एक आवाज़, ‘ क्लिक, क्लिक, क्लिक…..’ मेरे पैर नाउम्मीदी के एक जादुई सम्मोहन से जकड़े धीरे -धीरे आगे बढ़ रहे थे जब मैंने उस अहाते में क़दम रखा. बोगनवीलिया की फूली हुई बेल प्रवेश द्वार के ऊपर से गोलाई में नीचे की ओर झुकी हुई थी. बाहर बनी तीन – चार सीढ़ियों तक उसके फूल बिछे हुए थे — जाने किसकी प्रतीक्षा में…. दरवाज़े पर मोटा सा ताला लटका हुआ था. कई सारे गमले लाइन से लगे हुए थे लेकिन रख-रखाव न होने के कारण सूख रहे थे. हाँ, ये वही घर है. वही है, एकदम वही. पीछे आउटहाउस भी वैसा ही था. वहाँ अब भी कोई रहता है. बाहर तार पर कपड़े लटके हुए थे. मेरी सांसे अचानक तेज हो गईं. “एडवर्ड!” मैंने ज़ोर से उसे पुकारना चाहा. देखा तो महाशय मुस्कुराते हुए मेरे बग़ल में आ खड़े हैं.  The Locked Door story by Smita Karnatak

“आय फाउंड इट डियर! फाइनली आय एम हियर. ओ! दिस इज द सेम हाउस. यस, दिस इज द हाउस डार्लिंग!”मैं एडवर्ड की बाँह में अपनी ऊँगलियाँ धँसाती चली गई. 

“ओके, ओके! फाइन. हैप्पी नाउ?” कहते हुए उसने अपनी मज़बूत बाँह मेरे कँधे पर रख दी. मैं उसके सीने से लगकर देर तक उस बंद दरवाज़े को देखती रहती अगर एक आवाज़ ने मुझे चौंका न दिया होता. 

“नमस्कार साब! आप लोग…?” एक औसत क़द का ठेठ पहाड़ी आदमी हमारे सामने खड़ा था. मैं सँभलकर सीधी खड़ी हुई. 

“इस घर में ताला क्यों लगा है?” मैंने उससे पूछ लिया. अमेरिका में यही सवाल करने पर मुझे शक की निगाह से देखा जाता, लेकिन ये भारत था. मेरा अपना वतन, मेरी मिट्टी. “मेरा मतलब है यहाँ कोई रहता नहीं क्या?” मैंने आगे जोड़ा. 

“रहते हैं साब! रहते क्यों नहीं हैं, साब और मैडम जी यहीँ रहने वाले हुए. एक महीने से आजकल पूना गये हैं अपनी बड़ी बेटी के पास.” उसने कहा, फिर थोड़ा हिचकते हुए बोला, “लेकिन साब ! आप कहाँ से…?” उसने ये सवाल मेरे समझने के लिये बीच में ही आधा छोड़ दिया था. 

“उनकी दो बेटियाँ हैं, जुड़वाँ?” मैंने उसके सवाल को नज़रअंदाज़ करते हुए पूछा.

“जी, दो बेटियाँ ठैरीं साब की, लेकिन आप….?” उसने थोड़ा आश्चर्य में पड़ते हुए फिर मूल प्रश्न मेरी तरफ़ दागा. मुझे उसके सवालों से ज़्यादा अपने सवालों का सही जवाब मिलने की बेचैनी थी. 

“उनके नाम संगीता और अदिति हैं?” मेरी बेचैनी अपने चरम पर थी और सिर्फ़ अपनी बातों के जवाब सुनना चाहती थी. 

“जी हाँ ! लेकिन आप …? आप कैसे जानने वाले हुए उनको?” उसकी ज़ुबान से ज़्यादा सवाल उसकी आँखों में थे. इतनी देर से एक फ़िरंगी के साथ आई अधेड़ उम्र की एक औरत उससे सवाल किये जा रही थी और बदले में उसे अपने सवालों का कोई जवाब नहीं मिला था. 

मैंने कसकर एडवर्ड के हाथ पकड़ लिये. “ओ डियर ! कैन यू बिलीव दिस?” बिना एडवर्ड की प्रतिक्रिया का इंतज़ार किये मैं दौड़कर दरवाज़े तक पहुँची. रास्ते में बिछे फूल मेरे जूतों के नीचे आने पर भी धीमे से हँस दिये. मैंने हाथ लगाकर दरवाजे को महसूस किया जिसके ऊपर बने शेड पर बेल में लगे फूल नीचे झुककर झूल रहे थे. एडवर्ड सामने खड़ा मेरे बचपने पर मुस्करा रहा था जो हमेशा मेरी ऐसी हरकतों पर हँसकर कहता, “द ग्रेट इंडियन इमोशन्स.” मैं वहीं दरवाजे पर टिककर खड़ी हो गई और तभी एडवर्ड ने मेरी फ़ोटो खींची, ‘क्लिक…’

घर का वो पहाड़ी केयर टेकर कभी मुझे और कभी मेरे फ़िरंगी पति को देख देखकर मुस्कुरा रहा था. 

“ओ सॉरी भाई!” अब मैं उस आदमी से मुख़ातिब हुई. “आपके पास साहब या किसी और के फ़ोन नंबर तो होंगे?”

“जी, फ़ोन नंबर तो हैं, लेकिन आप …?” उसने फिर अपना सवाल अधूरा छोड़ दिया था. 

“ओह हाँ, मैं अदिति और संगीता के बहुत बचपन की सहेली हूँ. पहले हम यहीं रहते थे पास में. आप मुझे साहब का नंबर दे सकते हैं?” The Locked Door story by Smita Karnatak

“जी मैं अभी बात करा देता हूँ आपकी साब से … आपका शुभनाम मैडम…?” कहकर उसने जेब से अपना मोबाइल निकाला और नंबर मिलाने लगा.

फ़ोन की घंटी की आवाज़ घर के अहाते से होती हुई सामने के पहाड़ों से टकराती चारों ओर गूँज रही थी. कुछ देर में उसने मेरे पास वो सारा बीता हुआ समय लौटा लाना था जिसकी प्रतिध्वनि मेरे भीतर ही कहीं थी और मैं उसे अब तक सुन नहीं पाई. दरवाजा अभी भी बंद था लेकिन अनजाने ही मैं उसे थोड़ा सा भीतर की ओर ठेल आई थी जहाँ से सूरज की एक बारीक किरण दूर तक पसरती जा रही थी. 

स्मिता कर्नाटक

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स्मिता कर्नाटक. हरिद्वार में रहने वाली स्मिता कर्नाटक की पढ़ाई-लिखाई उत्तराखंड के अनेक स्थानों पर हुई. उन्होंने 1989 में नैनीताल के डीएसबी कैम्पस से अंग्रेज़ी साहित्य में एम. ए. किया. पढ़ने-लिखने में विशेष दिलचस्पी रखने वाली स्मिता काफल ट्री की नियमित लेखिका हैं.

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  • बहुत सुन्दर। भावो को जिस ढंग से गुँथा है , उसने पूरा पढ़ने को मजबूर कर दिया। एक प्रवासी पहाड़ी होने के नाते अपने आप को भी इसी अवस्था में पाया। साधुवाद।

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