समाज

थल केदार: महादेव का तीन हजार वर्ष पुराना आराधना स्थल

पुराण के मानसखण्ड में महर्षि व्यास ऋषियों को बताते हैं कि सरयू और श्यामा नदियों के बीच में भव्य स्थाकिल पर्वत के अग्रभाग में एक विशिष्ट शिवस्थल पर स्थलकेदार नाम के महादेव विराजमान हैं. उनके दर्शन से अति दुर्लभ मुक्ति प्राप्त होती है. इसमें सन्देह नहीं कि इस पर्वत पर चढ़कर सिद्धजलों से नहाकर स्थलकेदार का विधिपूर्वक पूजन करने से केदारनाथ जाकर पूजा करने के समान फल मिलता है.
(Thal Kedar Pithoragarh)

सरयूश्यामासरितोर्मध्ये स्थाकिलपर्वतः. स कान्लेनातिदिव्येन स्वलेनातिविराजितः
शिवस्थलेति विख्यातं पर्वतो तपोधनाः. तत्र मध्ये महादेवः स्वकेदारसंज्ञकः  
राजते मुनिशार्दूला महापुरुषलक्षणः. या न साङ्ख्येन योगेन प्राप्यते मुनिसत्तमाः
तां प्राप्नोत्याशु मनुजः स्वलकेदारदर्शनात्. पर्वतं तं समारुह्य स्नात्वा सिद्धजलैः शुभैः  
समर्च्य सवलकेदारं विधिदृष्टेन कर्मणा. केदारसंमितं पुण्यं प्राप्यते नहि संशयः

(स्कन्दपुराण, मानसखण्ड, अध्याय 133, श्लोक 3-7)

सरयू नदी का अपना पुराणकालीन नाम बना हुआ है, परन्तु श्यामा नदी आज काली कहलाती है. स्कन्दपुराण के अनुसार श्यामा नदी मानसरोवर के दक्षिण में लिपि पर्वत से निकलती है. आज की काली नदी कैलास-मानसरोवर के पथ पर लिपुलेक दर्रे के ठीक नीचे उपजती है.

मानसोत्था पुण्यतीर्था श्यामला लिपि पर्वताः

(स्कन्दपुराण, मानसखण्ड, अध्याय 117, श्लोक 4)

स्पष्ट है कि सरयू और श्यामा (काली) के बीच का स्थाकिल पर्वत आज का थलकेदार शिखर है. और उस पर अवस्थित स्थलकेदार आज थलकेदार कहलाता है.

पूर्वी कुमाऊँ में सोर-पिथौरागढ़ अंचल की दक्षिणी सीमा में पूर्व से पश्चिम तक फैली हुई है थलकेदार श्रेणी. घने वन से ढकी हई इस श्रेणी का 2480 मीटर (8184 फुट) ऊँचा शिखर थलकेदार है. इतनी ऊंची है यह चोटी कि पूर्वी कुमाऊँ का लगभग सम्पूर्ण भूभाग दिखता है. सौ-सौ किलोमीटर दूर की श्रेणियों को पहचाना जा सकता है. पर्वत-शिखर पर अवस्थित मंदिर बाँज, बुरॉज, खर्सू, मोरू आदि के सघन वन से घिरा हुआ है. विविध प्रकार के वन्य-पशुओं और पक्षियों का आश्रयस्थल है यह वन.

मूल स्कन्दपुराण महाभारत से पूर्व की रचना है. थलकेदार की प्रतिष्ठा इससे पूर्व हो चुकी थी इस आधार पर कहा जा सकता है कि यह देवस्थल कम से कम तीन हजार वर्षों पुराना है.
(Thal Kedar Pithoragarh)

किरातों के आराध्य देव थे शंकर .महाभारत के कैरात पर्व (अध्याय 39, श्लोक 11) में एक आख्यान है कि जब अर्जुन अपनी साधना के निमित्त हिमालय में घूम रहे थे तो एक बार किरातरूपी शंकर ने उनको एक चुनौती दी- किरातरुपी सहसा वारयामास शंकरः. यह स्वाभाविक था कि किरातों ने स्थाकिल पर्वत पर बने फुटलिंग को भी शिव का स्वयम्भू लिंग मान लिया. मन्दाकिनी नदी के उद्गम स्थल पर केदारनाथ के रूप में भगवान शंकर का प्रमुख धाम था. वह आज सम्पूर्ण हिन्दु समाज का प्रमुख ज्योतिर्लिंग है. उसकी भी स्थापना तीन-साढ़े तीन हजार वर्ष पूर्व हुई थी.

किरातों द्वारा स्थापित स्थलकेदार देवस्थल बाद में आये आर्य-मूल के खस लोगों के आराध्य बने रहे.यही नहीं खसों और उनके बाद आये लोगों ने और श्रद्धा-भक्ति से स्थलकेदार का पूजन किया. कालान्तर में स्वयम्भू लिंग को छोटे-से मंदिर के घेरे में रख दिया गया.

समय के साथ मंदिर पुराना हुआ. उसकी मरम्मत हुई. टूटा, नया बना. ऐसा बार-बार हुआ. वर्तमान ऐतिहासिक काल में मंदिर के जीर्णोद्धार एवम् सुधार-विस्तार के कार्य में योगदान देनेवालों में कहा जाता है, पेशवा नाना साहब धोंदूपन्त भी थे जो अंग्रेजों से बचकर रतन बाबा के नाम से नेपाल में छिपे हुए थे, (मदन चन्द्र भट्ट 1998) पंचेश्वर के रास्ते से वे थलकेदार भी आये थे. अपनी तीर्थयात्रा के दौरान अस्कोट के राजा खड़क पाल ने खड़किया नौला बनवाया था. मंदिर के आस-पास के सभी गाँवों ने थलकेदार की देखभाल की जिम्मेदारी किसी न किसी रूप में ली थी. इस प्रकार मंदिर जीवन्त बना रहा.
(Thal Kedar Pithoragarh)

चूंकि मंदिर एक ऊँचे वृक्षविहीन शिखर पर है, अतः उसे बार-बार आकाशी बिजली की मार सहनी पड़ी. एक सक्रिय दरार के निकट होने के कारण मंदिर अनेक बार भूकम्प के धक्कों से झकझोरा गया. अतः जब-तब मंदिर का जीर्णोद्धार या पुनर्निर्माण होता रहा.

सौभाग्य से इस अंचल के अनेक गाँवों के लोगों ने नवनिर्माण का बीड़ा उठाया नवनिर्माण समिति की परिषद बनी, कार्यसमिति तथा परामर्शदात्री समितियों का गठन हुआ और कार्यदल गया. चन्दे की पहली रकम जनवरी 2008 के पहले सप्ताह में मिलते ही परिसर में वर्षाजल के संचय का कार्य शुरू हो गया. मई-जून 2008 में आर्थिक सहायता के लिए सैकड़ों महानुभावों को लिखा देखते-देखते उदारहृदय दाताओं से इतनी धनराशि और इतनी निर्माण सामग्री मिल गयी कि कार्य का मार्ग प्रशस्त हो गया.

आस-पास के गाँवों की महिलाओं, पुरुषों और बालकों के श्रमदान से निर्माण कार्य आसान हो गया. वरन मंदिर के नवनिर्माण की महिमा बढ़ गयी. बड़ी परिस्थितियों में काम हुआ. लगातार तीन वर्षों में न वर्षा हुई, न हिमपात. सारा अंचल सूखे की चपेट में था. एकमात्र खड़किया नौला सूख गया था. तीन साढ़े तीन किमी की लम्बी कठिन चढाई तय कर घोड़ों पर रेत, सिमेंट, सरिया, लकड़ी आदि के अतिरिक्त पानी की भी ढुलाई करनी पड़ी.
(Thal Kedar Pithoragarh)

ऊंचे पर्वत शिखर की कठिन परिस्थतियों में काम करने के लिए कारीगर तैयार नहीं होते थे परन्तु, कार्यदल के सदस्यों का उत्साह कभी कम नहीं हुआ, न कभी उनका प्रयास रुका. निर्माण के अन्तिम चरण में जब पानी का नितान्त अभाव हो गया तो दूर और नजदीक के गाँवों की महिलाओं एवं नवयुवकों ने कई हफ्ते पानी ला-ला कर टकियों को भरा. नवनिर्माण में लगे कार्यदल के कर्मठ, निष्ठावान, समापत आर सक्षम सदस्यों ने अथक परिश्रम कर दो साल में देवाधिदेव महादेव शिव का नया मंदिर बना लिया. 27 मई 2010 को बुद्ध पूर्णिमा के दिन नवनिर्मित मंदिर का विधिवत उदघाटन हुआ.

नवनिर्मित मंदिर का ढाँचा ऐसा बना है कि वह भूकम्प क धक्का को सह सकगा. लाइट कन्डक्टर आकाशीय बिजली की वार को मोड सकेगा. बरसाती पानी को जमाकर उसे साफ करने का वैज्ञानिक उपाय किया गया है, ताकि परिसर में ही जल सुलभ हो जाये. थलकेदार से दिखने वाले भव्य शिखरों में केदारनाथ, त्रिशूल, बद्रीनाथ, नंदादेवी, पंचाचूली और आपी-नाम्पा हैं.

प्रो. खड्ग सिंह वल्दिया का यह लेख थल केदार मंदिर समिति की ओर से जारी पुस्तक से साभार लिया गया है. काफल ट्री के साथी रवि वल्दिया द्वारा ली गयी मंदिर की कुछ अन्य तस्वीरें देखिये :
(Thal Kedar Pithoragarh)

पेशे से फोटोग्राफर रवि वल्दिया पिथौरागढ़ के रहने वाले हैं. रवि के कैमरे का कमाल उनके फेसबुक पेज Ravi Valdiya Photography पर भी देखा जा सकता है.
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