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दसवीं बोर्ड परीक्षा में जब मैंने रात भर जागकर पढ़ा सामाजिक विज्ञान

पहाड़ और मेरा जीवन -49

(पिछली क़िस्त: ये रहा मेरे हाथ लगी ग्यारहवीं की डायरी का पहला पन्ना)

कक्षा पांच में कक्षा में तीसरे नंबर पर आ जाने के बाद से पढ़ाई को लेकर मुझमें जो जुनून पैदा हो गया था और जिसकी प्रमुख वजह दोस्तों की आंखों में मेरे लिए बढ़ी इज्जत और टीचर्स की वाह-वाह थी, वह आठवीं तक पहुंचते-पहुंचते फुस होने लगा था क्योंकि आठवीं में मैंने पढ़ाई की ही कहां. (Sundar Chand Thakur Memoir 49)

राजस्थान के जिस स्कूल से मैंने पढ़ाई की, जहां मैं घर से बोरी लेकर जाता था और पूरी कक्षा फर्श पर बैठती थी. वहां पढ़ाई का स्तर बहुत खराब था. ऐसा मैं इसलिए भी कह सकता हूं क्योंकि अमूमन स्कूल बंक मारकर किराए पर साइकल चलाने और स्कूल में भी अक्सर खेलते रहने के बावजूद जब रीजल्ट आया, तो मैं पूरे स्कूल में पांचवें नंबर पर था. (Sundar Chand Thakur Memoir 49)

पांचवें नंबर पर आने के गुरूर से भरा हुआ ही मैं जीआईसी पिथौरागढ़ पहुंचा, जहां एक से एक धुरंधर मेरा इंतजार कर रहे थे. दो सप्ताह पहले मैंने पिछले कई सालों से अमेरिका में रह रहे अपने सहपाठी आशुतोष जोशी के बारे में लिखा था कि वह ग्यारहवीं से हमारे साथ आया. उसने मुझे सूचना भेजी है कि वह नवीं से ही हमारे साथ था. प्रवीर, भुवन, मनोज और आशुतोष कक्षा के सबसे होनहार लड़के थे. हमारे स्कूल में उन दिनों आज के प्राइवेट स्कूलों की तरह हर विषय के बहुत ज्यादा टेस्ट तो नहीं होते थे, पर जो भी होते थे, उनमें ये चारों ही आगे रहते.

ऐसा नहीं कि मैं अपनी ओर से कोशिश नहीं करता था, पढ़ता कम था, पर कोई तो बात थी कि मेरे उतने नंबर नहीं आ पाते, जितने के लायक मैं खुद को समझता था. मुझे बखूब याद है कि ज्यादा नंबर कैसे लाए जाएं के सवाल पर मैं उन दिनों भी बहुत सोचा करता था. मुझे लगता था कि कोई न कोई तो ट्रिक है ज्यादा नंबर लाने की क्योंकि ये चारों हमेशा ही मुझसे ज्यादा नंबर लाते थे, जबकि मुझे लगता था कि पढ़ाई तो मैं भी बहुत करता था.

मुझे कई बार अपनी बहुत सुंदर लेखनी में नोट्स बनाने की आदत संदिग्ध लगती कि कहीं यह पढ़ाई का गलत तरीका तो नहीं क्योंकि नोट्स तो किताब से ही टीपता था. मन में सवाल उठता कि बाकी लोग अगर सीधे किताब से पढ़ते होंगे, तो नोट्स बनाने में जितना समय मुझे लगा, उतना तो वे मुझसे ज्यादा पढ़ ही लेते होंगे. ऐसा सोचते हुए कई टेस्ट बिना नोट्स बनाए दिए. मगर उनमें मेरा प्रदर्शन और खराब रहा, नंबर और कम आए. और तब मुझे लगता कि ठीक इम्तहान से पहले किताब से पढ़ाई करने की बजाय कुछ महत्वपूर्ण हिस्सों के नोट्स बनाना ही ज्यादा बेहतर है क्योंकि किताब के तो पन्ने पलटाने में ही सारा वक्त चला जाता था.

खैर, यह नोट्स बनाने या नहीं बनाने वाली पहेली कॉलेज के आखरी साल तक नहीं सुलझी. पर कॉलेज में चूंकि क्लास के दूसरे होनहार छात्र-छात्राएं भी नोट्स बनाते थे, इसलिए मुझे वहां अपने नोट्स बनाने पर कभी कोई संदेह नहीं हुआ. और एक बार जब बी.एससी के तीसरे वर्ष भौतिक शास्त्र के एक प्रश्नपत्र में नोट्स से पढ़ने के बाद मेरे पचास में से पचास अंक आए, मैंने नोट्स को लेकर अपने हर किस्म के संदेह की तिलांजलि दे दी.

कक्षा नौ और दस के दौरान हम उस उम्र में आते हैं जब हमारा स्वाभिमान अंकुरित होकर बढ़ चुका होता है. मेरी उम्र तो कक्षा के अन्य छात्रों से एक-दो बरस ज्यादा ही थी. यानी उनकी तुलना में मुझमें स्वाभिमान की भावना अपेक्षाकृत ज्यादा पुष्पित-पल्लवित हो चुकी थी. इसी विकसित स्वाभिमान की वजह से ही रहा होगा कि मुझे इस बात पर बहुत कोफ्त होती थी कि कक्षा में मैं इतने सारे लड़कों से पीछे आता हूं.

हालांकि मेरी क्लास में मुझसे ज्यादा अंक लाने वाले ये सभी लड़के कुशाग्र बुद्धि के मामले में मुझसे आगे थे और मैं बहुत हद तक इस तथ्य के सम्मुख समर्पण कर चुका था क्योंकि गणित के सवालों को लेकर कई बार मैं उनकी शरण जाता था और वे मुझे समझा भी देते थे. समझ आने के बाद मुझे लगता था कि बताओ कैसे बेवकूफों वाली गलती मैं कर रहा था- सिद्धांत समझ में आ रहा था पर सूत्रों के इस्तेमाल में और साधारण गणना में गलती कर देता था.

आज जब लगभग ऐसी ही गलतियां मेरी बेटी करती है, तो मैं चुप रहता हूं. उसे डांटता नहीं क्योंकि जानता हूं कि इसमें उसकी गलती नहीं. उसे यह कमजोरी मुझसे ही हस्तांतरित हुई है. जब दसवीं की बोर्ड परीक्षाएं आईं, तो यह तय था कि बाकी चारों मुझसे कहीं आगे जाने वाले हैं. यह तब और भी तय हो गया जब ठीक बोर्ड परीक्षाओं से पहले मैं लगभग तीन महीनों तक एनसीसी के कैंपों में रहा. फरवरी के पहले सप्ताह जब मैं दिल्ली से गणतंत्र दिवस का कैंप पूरा कर वापस पिथौरागढ़ पहुंचा, तो परीक्षाओं को लगभग एक महीना बाकी था.

मैं चाहता था कि थोड़ा बहुत फाइट तो मैं करूंगा ही. उनके अस्सी नंबर आएंगे, तो मेरे पैंसठ तो आने चाहिए. मैंने एक टाइम टेबल बनाया और हर विषय के लिए दिन मुकर्रर कर दिए. भाषा के पेपर मुझे आसान लगते थे, दिक्कत साइंस और गणित में ही थी. इसलिए मैंने इन दोनों को ज्यादा वक्त दिया. लेकिन जब ये पेपर निपट गए और सामाजिक विज्ञान के पेपर की तैयारी करने का वक्त आया, तो मुझे एहसास हुआ कि मैंने तो इस विषय को छुआ भी नहीं. इतना तो मैं भी समझता था कि विषय से कोई फर्क नहीं पड़ता, अंत में तो पूरे अंक मायने रखते हैं.

गणित और विज्ञान में कितने भी आ जाएं, अगर सामाजिक विज्ञान में पचास से कम नंबर आए, तो मेरी पर्सेंटेज तो घुस ही जानी थी. मैंने मन में प्रण किया कि सामाजिक विज्ञान की पूरी किताब दो बार पढ़कर जाऊंगा ताकि कहीं से भी सवाल पूछा जाए, मैं कुछ न कुछ तो लिखकर ही आऊं. लेकिन मैंने देखा कि अगले दिन परीक्षा थी और मैं किताब एक बार भी पूरी नहीं पढ़ सका था. मेरे हाथ पैर फूलने लगे. उस दिन बड़ा भाई भी जाने कहां गया हुआ था, तो कमरे में मैं अकेला ही था. समय बचाने के लिए मैंने खाने-पीने में शॉर्टकट मारा. दिन में खिचड़ी बनाई और रात में भी उसी में दो अंडे की भुजिया मिलाकर खा गया. मैं बहुत ईमानदारी से बता रहा हूं कि मैं पढ़ने की बजाय रट्टे मार रहा था.

इतिहास, राजनीति शास्त्र और भूगोल में रट्टे मारने की बहुत गुंजाइश नहीं रहती, पर जिसे पढ़ने का समय ही न मिला हो, वह कुछ भी कर सकता था. मार्च के महीने तक पिथौरागढ़ का मौसम बहुत खुशनुमा हो जाता है. बहुत भीनी सी ठंड होती है और वातावरण में वनस्पति की गंध तैरती रहती है. मेरे पास पढ़ने को इतना सारा बाकी था कि पता ही नहीं चला कब काली रात पिघलकर रोशन सुबह में बदल गई. रात भर में दो-तीन बार चाय पीने की वजह से बने दबाव से मुक्त होने के लिए बाहर निकलने पर मैंने पूर्व की ओर गर्दन घुमाई तो नारंगी सूरज उफक से झांक रहा था. अभी भी लगभग आधी किताब रटी जानी बाकी थी. बाहर आते ही मेरे चेहरे पर जो ताजा हवा का झोंका टकराया और इसके साथ चिड़ियों का कलरव और हवा में घुली गंध मुझ तक पहुंचे, मुझे लगा इन्हें छोड़कर नहीं जाया जा सकता.

मैं फारिग होकर किताब लेकर बाहर खुले में ही आ गया. मैं उन दिनों सद्गुरू निवास में रहता था, जो राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, पिथौरागढ़ की इमारत से एकदम सटी हुई इमारत थी. हमारे कमरे से सौ मीटर दूर ही महाविद्यालय का बगीचा था जिसमें तरह-तरह के फूल लगे हुए थे. डहेलिया के इतने सुंदर फूल थे कि पूछो मत. इन फूलों से खुशबू कम आती है. एक बार खुशबू लेने को फूल से नाक सटाई तो मधुमक्खी काट गई थी. तब से मैंने फूल सूंघना छोड़ दिया था. महाविद्यालय के बाग में एक पीपल का बड़ा पेड़ था जिस पर एक घुगती पुकार रही थी. मैं इसी पेड़ के नीचे बैठा और अगले दो घंटे में पूरी किताब पढ़ गया. कमरे में पहुंच मैंने फटाफट दो अंडे फेंटे. बाहर रामसिंह अपना चाय का खोमचा खोल चुका था. वहां से मैं अपना पसंदीदा क्रीम रॉल ले आया. एक मीठा वाला बन भी ले आया. बन के बीच थोड़ा मक्खन डलवाकर. मैंने दो अंडे का ऑमलेट बना बन में डाल दिया. यही मेरा नाश्ता था.

यह जीवन में मेरे साथ पहली बार हुआ था कि मैं रात भर नहीं सोया. इसके बाद दूसरा मौका फौज की ट्रेनिंग के दिनों में आया था और तीसरा मौका सोमालिया में तैनाती के समय जब मेरा ऑफिसर कमांडिंग कर्नल के एस सूच दारू पीकर मुझे पूरी रात घुमाता रहा. लेकिन दसवीं में मैं बहुत नादान था और घबरा रहा था कि कहीं इम्तहान देते हुए नींद न आ जाए. मैं इतना घबराया हुआ था कि प्रश्नों के उत्तर लिखते हुए बार-बार अपनी आंखें भींच जांचने की कोशिश करता कि कहीं मुझे नींद तो नहीं आ रही. लेकिन नींद नहीं आई और पेपर ठीक-ठाक हो गया. मेरे साथ होता अक्सर यह था कि परीक्षा के तुरंत बाद पेपर बहुत अच्छा होता था और मुझे लगता था कि 75-80 नंबर आ जाएंगे. लेकिन घर पहुंचने के बाद जैसे-जैसे मैं किताब से उत्तर मिलाता तो नंबर कम होते जाते. सामाजिक विज्ञान में भी यही हुआ.

दसवीं के बोर्ड का जब रिजल्ट आया, तो मैं सिर्फ तीन नंबर से प्रथम श्रेणी में आने से वंचित हो गया था. सामाजिक विज्ञान में हालांकि ठीक 60 नंबर आए यानी प्रथम श्रेणी. एक रात जागकर उस विषय में प्रथम श्रेणी लायक नंबर आ जाना बहुत खराब स्थिति तो नहीं थी, लेकिन मुझे बाद के जीवन में सामाजिक विज्ञान में कितने नंबर आए, यह कभी याद नहीं रहा, पर यह हमेशा याद रहा कि उसकी तैयारी करते हुए मैं रात भर नहीं सोया और सुबह मैंने घुगती की संगीत भरी पुकार और भंवरों के गुंजन के बीच बैठकर पढ़ाई की. वक्त कितना बदल चुका है. आज देखता हूं कि 90 नंबर आने पर भी बच्चे रोते हैं, तनाव में आ जाते हैं. किसी विषय में कम नंबर आने का मुझे कई बार अफसोस तो हुआ, लेकिन वह हमेशा नए दिन के सूरज की गर्मी में भाप बनकर उड़ गया.  

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सुन्दर चन्द ठाकुर

कवि, पत्रकार, सम्पादक और उपन्यासकार सुन्दर चन्द ठाकुर सम्प्रति नवभारत टाइम्स के मुम्बई संस्करण के सम्पादक हैं. उनका एक उपन्यास और दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं. मीडिया में जुड़ने से पहले सुन्दर भारतीय सेना में अफसर थे.

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