प्रो. मृगेश पाण्डे

धारचूला की बेटी सुमन कुटियाल दताल की एवेरेस्ट विजय

“ऊपर की ओर देखा तो सामने सागरमाथा की चोटी थी. मन में हिलोर सी उठी कि दौड़ कर जाऊं और सागरमाथा मां के चरण छू उनसे आशीर्वाद लूँ. पूछूँ उनसे कि माँ अब तक तुम कहाँ थी? आज अभी वह दिन आया जब इतने समीप से दर्शन का सौभाग्य मिला. आशीर्वाद दो माँ.”
(Suman Kutiyal Uttarakhand Mountaineer)

“पीक पर पहुँचते ही माथा झुक गया. पूजा की.सफेद चावल के दानों से, अक्षतों से सभी देवी देवताओं को वारा, खतक लगाया. शांति कुंज के गुरुदेव व माताजी की फोटो ले गई थी. हनुमान चालीसा थी साथ में. सभी परिवार जनों की फोटो देखी, जिनमें परिवार का सबसे छोटा सदस्य साढ़े तीन साल का अपना भांजा पार्थ प्रीतम मुस्कुरा रहा था.सागरमाथा मां के चरणों में पहुँच सबको याद किया. याद किया कई बार अपने परिवार वालों को जिनकी प्रार्थनाओं का भावनात्मक कवच हमेशा मुझे मजबूत और निरन्तर साहसी बनाते रहा.

इस ऊंचाई पर पहुँच मैं मन्त्र मुग्ध थी. हवा के तेज थपेड़े मेरे चेहरे पर पड़ रहे थे लग रहा था कि प्रकृति मां मेरी पीठ ठोक कर मुझे नयी तरंग नयी उमंग दे रही है. सोच रही थी कि थोड़ी हवा थम जाये तो कुछ फोटो खींचू. पर हवा तो और तेजी से बहने लगी थी. अब आसमान मैं चारों ओर बादल ही बादल दिखने लगे थे. किसी तरह हवा के उस तीव्र वेग के साथ तिरंगा फहराया. राष्ट्रीय ध्वज के साथ अपनी फोटो खींची. फिर अपनी मौसी चंद्र प्रभा एतवाल की फोटो निकाली और उनकी फोटो के साथ अपनी फोटो खींची.”

सागरमाथा के नजदीक पहुँचने की इच्छा और एवेरेस्ट पर्वत पर विजय पताका फहराने की अपनी मौसी की कामना को साकार कर देना सुमन कुटियाल दताल ने पूरा कर दिखाया. एवेरेस्ट पर विजय प्राप्त करने के उनके साहसिक अभियान पर भारत सरकार ने उन्हें 1994 में नेशनल एडवेंचर अवार्ड प्रदान कर सम्मानित किया. सुमन कहतीं हैं कि जैसे जैसे ऊपर की और चढ़ते प्रकृति के पास पहाड़ों के पास पहुँचते जो आध्यात्मिक परिवर्तन उपजता है, उसकी प्रतीति दुर्लभ ही होती है. यह अनुभूति मन में अमिट हो जाती है. बस इसे पाने के लिए लक्ष्य स्पष्ट होना, दृढ़ इच्छाशक्ति,आत्म विश्वास और अपने प्रयासों के प्रति निष्ठा हो तो हर ऊंचाई को छुआ जा सकता है. मन की भावनाओं में परिवर्तन आ जाता है, जैसे स्वर्ग पहुँच गये हों. महसूस हुआ कि कोई सच्ची दुनिया है तो इससे ऊपर है. इससे नीचे की दुनिया जैसे इन पलों में मैं बिल्कुल भूल चुकी थी.

चोटी पर एक घंटा रुकी. खुश थी बहुत खुश. मैं अपनी खुशी बाँटना चाहती थी. सबको जताना चाहती थी कि मेरा बरसों का सपना आज इस पल पूरा हुआ. पर कहूं किससे? बस यह संतोष बढ़ते जा रहा था कि मेरी पुकार उस ईश्वर ने सुन ली. सागर माथा मां ने सुन ली.

तभी मैंने पाया कि मेरे साथी तो नीचे लौट चुके. अब मुझे भी विदा लेनी होगी. फिर से सागरमाथा देवी को नमन किया. मुझे लगा कि माँ आशीर्वाद दे रही है और ऐसी ध्वनि अनुगूंज रही है कि बेटी फिर आना दुबारा. मैं नीचे को लौट चली, बार बार पीछे को मुड़ कर देखती फिर चल पडती. सागरमाथा वैसी ही अविचल विदा कर रही थी जैसे उसने स्वागत किया था अपूर्व शांति के साथ, मन में उपज रहे संतोष की प्रतीति के साथ, यहां तक पहुँच धैर्य से खड़े होने के साहस की ऊर्जा के साथ. फिर अंतिम बार दिखी उसकी झलक ओझल हो गई पर स्मृतियों में उसके बिम्ब तैरते रहे. आज तक तैरते हैं. ऐसा लगता है पलक झपकने से पहले मैं वहीँ थी. सागरमाला माँ की छाँव में.

चीन की कहावत है कि यदि मैदानों की सुंदरता देखनी हो तो पहाड़ों की ऊंचाइयों पर चढ़ना होगा.. इस चढाई की शुरुवात सुमन ने 1982 से कर दी थी जब उन्होंने एडवेंचर कोर्स पास किया.सोच ही कुछ ऐसी बदल गई थी कि पहाड़ों के बारे में ही सोचने से खुशी मिलती. हाथ पैरों में कुछ ऐसी तेजी आती कि लगता उस ऊँची चोटी पर पहुँच गई हूं. मैं उत्साह से भर उठती, बदन के हर पोर से उमंग लहर मचलती. आत्मविश्वास से लबरेज हो जाती. मेरे भीतर उमड़ -धुमड़ रहे इस तूफान की परख अगर किसी ने की तो वह मेरी मौसी थीं, पद्म श्री सुश्री चंद्र प्रभा ऐतवाल जिनकी ममता भरे वात्सल्य ने मेरी इच्छा को जिद में बदल दिया. 1983 में मैंने बेसिक कोर्स,1984 में एडवांस कोर्स और 1990 तक गाइड कोर्स नेहरू पर्वतरोहण संस्थान उत्तरकाशी से ‘ए’ ग्रेड में पूरे किये. 1985 से ही मैं देशी -विदेशी दलों के साथ संतोपंथ, केदारडोम, भागीरथी -द्वितीय, बंदरपूँछ, स्टॉक काँगड़ी, मोमस्टॉन्ग कांगड़ी, संसर कांगड़ी जो काराकोरम श्रृंखला की सबसे ऊँची चोटी थी में चढ़ चुकी थी और इनके साथ ही कामेट, कंचनजंघा, अनिगामिन और श्री कंठ भी.

1990 में पता लगा कि 1993 में सिर्फ लड़कियों का एक ग्रुप माउंट एवेरेस्ट के लिए भेजे जाने की योजना है. सुमन ने तुरंत भारतीय पर्वतारोहण संस्थान, नई दिल्ली को आवेदन किया व वह चुन लीं गईं. अभियान में जाने से पहले दो प्री -एवेरेस्ट कैंप चले. पहले चरण के लिए 1991 में पूरे देश से 37 लड़कियों का एक दल माउंट कॉमेट (25,447 फीट ) के लिए रवाना हुआ. इस चयन अभियान में चढाई में 40 किलो भार का सामान उठा, एक कैंप से दूसरे तक ले जाना व वहाँ टेंट लगाना, आखिरी कैंप में पहुँच खुद खाना बनाना, बर्फ को पिघला कर पानी बनाना जैसे कामों के साथ यह निगरानी भी की जा रही थी कि एक कैंप से दूसरे तक पहुँचने में कितना समय लगता है और पर्वतरोही का व्यवहार, उसकी मनः स्थिति कैसी है.

माउंट कामेट जाने वाले पहले दल में सुमन का चयन सुश्री बचेंद्री पाल ने किया जो इस दल की नेता थीं. यह दल जब रवाना हुआ तो मौसम बहुत अच्छा था पर दोपहर होते होते पहले सारे इलाके में धुंध छा गई, थपेड़े मारती हवा चलने लगी और फिर हिमपात होने लगा. ऐसे में चोटी के 100 फीट नीचे पहुँच कर भी वापस आना पड़ा. हालांकि दूसरे दिन 24,130 फीट ऊँची अभीगामिन चोटी तक चढ़ने में दल के 16 सदस्य सफल रहे.इसके बाद दूसरा प्री एवेरेस्ट वर्ष 1992 में करा कोरम श्रृंखला में 24,685 फीट ऊँची मोमस्टॉग कांगड़ी व 21,000 फीट ऊँची स्टॉक कांगड़ी चोटी के लिए हुआ. इन दोनों अभियानों में दल के 10 सदस्य चढ़ पाने में सफल रहे. इन दोनों प्राथमिक चढ़ाईयों के आधार पर एवेरेस्ट अभियान के लिए 10 प्रशिक्षु चयनित हुए. इन्हें शामिल कर अभियान के कुल सदस्य 22 थे जिनमें दल की लीडर सुश्री बचेंद्री पाल, उप लीडर सुश्री रीता मारवाह, सुश्री चंद्र प्रभा ऐतवाल मुख्य थी.अभियान की अन्य सदस्य सुश्री विमला नेगी, हर्षा पंवार, अनीता देवी, सरला नेगी, दीपू शर्मा, कुगा भूटिया, डिक्की डोलमा, राधा देवी, सविता मरतोलिया, व सुश्री संतोष यादव के साथ डॉ रीता पटेल व बेस कैंप इंचार्ज के. सरस्वती शामिल थीं.

नेपाल की ओर से सुश्री नीमी शेरपा, उपासना मल्ल थीं और तकनीकी सलाहकार श्री राजीव शर्मा, बलदेव कुंवर, सुश्री नीमा निरबू व दो वायरलेस ओपेरेटर साथ में थे.अभी यह असमंजस भी था कि बजट की कमी से कहीं यह अभियान निरस्त न हो जाये पर नवंबर 1992 में भारत सरकार ने इस अभियान के रवाना होने की अधिकारिक घोषणा कर दी.

सुमन को अपने विभाग से बिना वेतन अवकाश लेना पड़ा और पूर्व तैयारी व अभ्यास के लिए 5जनवरी 1993 को मनाली के लिए रवाना हो गईं. यहाँ 31 जनवरी तक कर्नल प्रेम चन्द के निरीक्षण में नरम बर्फ पर चलना, ऊंचाइयों को लाँघना, रुकसेक को पीठ पर लाद कर चलना, शरीर को मजबूत बनाए रखना और आंधी तूफानों का मुकाबला करते हुए आगे चलते चले जाने का अभ्यास हुआ.

दिल्ली में 1 मार्च 1993 को प्रधानमंत्री के द्वारा फ्लैगऑफ के बाद 3 मार्च को दल काठमांडू को रवाना हो गया. यहां से 9 मार्च को बस से जीरी पहुंचे जिससे आगे ऊँची नीची पहाडियों की पद यात्रा आरम्भ होती थी. 27 मार्च को बेस कैंप पंहुचे जो 18,000 फीट की ऊंचाई पर था. अब सामने बर्फीली चट्टानें थी और था, दुनिया का सबसे भयावह रूप में दिखने वाला “खुम्बू” आइसफॉल. 3 व 4 अप्रैल से दल ने पहली मंजिल के लिए लोड फेरी शुरू की. सामान उठाया और चल निकले मंजिल की ओर.हेड टॉर्च पहन कर आधे किलोमीटर दूर क्रमपोन पॉइंट तक बिना क्रमपोन पहने हुए. भोर से पहले के अँधेरे में दूर से देखने पर ऐसा लगता कि बल्ब की माला आगे को सरकती बर्फ में अपनी रौशनी से रास्ता बना रही. पर ये रस्ते यूँ ही आसान न थे. अब आगे एक -दूसरे लेडर को जोड़ कर रास्ता बनाना होता, कई जगह तो आठ -दस लेडर तक आपस में जुड़ते और केवास के ऊपर रख रास्ता बनता.

बर्फ गिरने लगी थी और पहले ही दिन चालीस -पेंतालिस तक लेडर समय और परिस्थिति के हिसाब से कम ज्यादा होते रहते. बड़ी व लम्बी खाइयाँ थीं जिन्हें पार कर नियत समय में ही पहले कैंप पहुँच गये.16 अप्रैल को दूसरे कैंप के लिए लोड फेरी थी. दल का हर सदस्य हर कैंप के लिए तीन लोड फेरी करता फिर वापस बेस कैंप आता.20 तारीख को मौसम बहुत खराब हो गया. सुबह सात बजे दल निकल तो चला पर दल की एक सदस्य हर्षा पवार का क्रम्पोन टूट गया सो उसे वापस लौटना पड़ा. हालत ऐसी थी कि इतने साहसिक अभियान में कुछ सदस्यों के अलावा बाकी के पास जूते व क्रम्पोन अच्छी क्वालिटी के न थे. इनका तालमेल सही न होने से ये बीच -बीच में खुलते रहते. इन्हें ठीक करने कि कोशिश में हाथ -पाँव इतने अकड़ जाते कि चलना दूभर हो जाता. पहाड़ों में पैर को सही चलने लायक बनाए रखने के लिए अच्छे जूते जरुरी हैं. चंद्र प्रभा ऐतवाल के साथ भी यही परेशानी रही कि उन्हें न तो अच्छे जूते मिले व न ही क्रम्पोन. उनके क्रम्पोन के तो दो टुकड़े हो गये जिन्हें जोड़ पाना संभव न था, मजबूरी में उन्हें वापस कैंप आना पड़ा.

कैंप 2 से कैंप 3 की चढाई कुछ दूरी तक तो ठीक रही, पर जुमारिंग पॉइंट के बाद ठंड इतनी बढ़ गई कि हाथ पाँव अकड़ गये. रोप में इतनी बर्फ जमीं होती कि जुमार आगे खिसकने के बजाय नीचे फिसलता. उस पर तेज हवा के थपेड़े और धीरे धीरे इतने घने बादल,कि एक दूसरे को देख पाना नामुमकिन हो गया. सिर्फ आवाज से यह पता चलता कि आगे -पीछे भी कोई है.आगे ऑस्ट्रेलियन लीडर टाप्सी व लोबजाग सर थे. दोनों ने कहा कि मौसम बहुत खराब है अब आगे चलते रहना जोखिम भरा होगा. टाप्सी तेन सिंह शेरपा के भतीजे थे बहुत साहसी मिलनसार. वहीँ लोबजाग सर के साथ तो विधाता ने क्रूर खेल खेला. एवेरेस्ट समिट के बाद 10 मई के दिन वह वहीँ बर्फ में समा गये.

21 अप्रैल को एक सदस्या को खांसी होने से दल की लीडर ने उसके साथ हर्षा व सुमन को भी वापस भेजने का निर्णय ले डाला पर सुमन ने इसका विरोध कर यह निवेदन किया कि पूरी तरह स्वस्थ होने से वह बेस कैंप वापस न जाएंगी बल्कि कैंप 2 से कैंप 3 की ओर लोड फेरी करना चाहेंगी. आखिर लीडर उनके निर्णय से सहमत हुईं व अगले दिन सुमन अगले पड़ाव की ओर जा पाईं साथ में चंद्र प्रभा ऐतवाल व तीन अन्य सदस्याएं भी थीं. अब 29 अप्रैल का बेसब्री से इंतज़ार था जिसमें समिट टीम को घोषित किया जाना था. 30 अप्रैल को पहली टीम घोषित हुई पर उसमें सुमन का नाम न था. उन्हें व सविता मरतोलिया को रिज़र्व में रखा गया था. अन्य सब बातें ठीक थीं स्वास्थ्य बिल्कुल सही था. सुमन के लिए यह असमंजस का समय था. हर पर्वतारोही की यही कामना होती है कि वह शिखर तक पहुंचे. दिल में इतने दिनों का उत्साह, उमंग और कुछ कर गुजरने की ताकत जो उमड़ पड़ी थी वह एक ही झटके में तिरोहित हो गई.
(Suman Kutiyal Uttarakhand Mountaineer)

पहली मई को चुनी गई समिट टीम आगे अपनी मंजिल की ओर बढ़ने के लिए तैयार थी. उन्हें दुआएं दीं, उनकी सफलता के लिए प्रार्थना की. पर अपना सारा धैर्य चुक गया बेबसी से घिरे मन की तड़प. आगे बर्फीले पहाड़ों को देखते स्नो गोगल के भीतर आँसू छलकने लगे.जो आगे बढ़ चले उनकी रक्षा के लिए माँ को पुकार लगायी. मौसम का जरा सा बिगड़ा मिजाज या कोई भी लापरवाही का अंत तो यहाँ बस काल के गाल में समाना था अभी 21 अप्रैल को नेपाली सदस्य पसाग लागबू और शेरपा सनम की असमय मृत्यु ने सबके दिलों में कम्प कर दिया था. सुमन अपनी रोक ली गई साथियों के साथ लगातार कभी आसमान की ओर टकटकी लगाती तो कभी देखतीं कि बर्फ गिरने की रफ़्तार क्या है. नींद खुलते ही यह देखने की उत्सुकता बनी रहती कि अभी मौसम का मिजाज क्या है? जब कभी सब कुछ ठीकठाक दिखता तो मन:स्थिति सही रहती वरना हर समय आशंकाऐं घिरी रहतीं. खुद को व्यस्त रखने का भी एक ही उपाय था कि आगे लोलापास और काला पत्थर की तरफ घूमने के लिए निकल पड़ो. जिसकी बड़ी वजह यह थी कि इन स्थलों से सागरमाथा देवी के दर्शन होते थे.असलियत में वहां पहुँच पाने की तो अब कोई उम्मीद ही न थी.

पहली टीम का 5 मई को समिट दिन था जिसमें वह असफल हो गई थी. इस कारण तीसरी टीम की योजना बनी जिसमें सुमन और सविता को शामिल किया गया. आखिरकार 9 मई को सुमन, सविता और चंद्रप्रभा ऐतवाल को बेस कैंप से कैंप -दो जाने का मौका मिला.10 मई को संतोष, कुगा, भाटिया और डोलमा ने सागरमाथा को फतह करने में सफलता पायी और उन्हीं के साथ बलदेव सर, कुसांग शर्मा, काला सिरिंग व शेरपा दोरजी सुरक्षित उतर आये.संतोष की तबियत खराब हो गई थी. ठंड से हाथ पैर अकड़ने लगे थे और साथ ही फेस बाईट भी हो गया था. उसकी आँखों में पट्टियां बांधनी पड़ी थीं जिससे बाहर की रौशनी से कहीं दृष्टि पर बुरा असर न पड़े.

अब बारी सुमन के दल की थी. पहले समिट डेट 12 मई की रखी गई पर मौसम बहुत खराब हो चला. ऑस्ट्रेलियन सदस्य लोबजांग सर इधर सफलता के बाद अचानक हुए मौसमी चक्रवात से घिर बर्फ में दब सागरमाथा में विलीन हो चुके थे. इस दुर्घटना से सब भयभीत थे, आहत थे.13 तारीख को भी मौसम खराब ही रहा. इन दशाओं में फिर 17 मई के लिए अभियान तय किया गया पर 14 मई को अचानक ही 3 बजे शाम पता चला कि बाकी देशों की टीम ने 16 मई की तारीख समिट के लिए तय की है. ऐसे में जल्दी -जल्दी तैयारी शुरू हुईं. इधर हुई दुर्घटनाओं और मौत की ख़बरों से सुमन और सविता बहुत घबराये हुए भी थे.सब कुछ देवी पर छोड़ पूजा की. अब तुम्हारी शरण में आ रहे हैं माँ, रक्षा करना. तीनों ने माउंटेन के जेवरात पहने.साथ में दीपू, राधा, सविता, राजीव शर्मा और नीमा सर थे. साथियों से गले मिले और कैंप 2 से कैंप 3 की ओर 6 बजे निकल पड़े.

अब घना अँधियारा घिरने लगा था. सबने अपनी अपनी टॉर्च जलाई. जहां तक रोप फिक्स नहीं होती वहाँ तक जाने में बहुत सुविधा होती है पर फिक्स रोप के सहारे चलने में हाथ अकड़ जाते हैं. अब अंधेरा भी इतना कि रस्ते व रोप का कुछ पता ही नहीं चलता. बस अपना अनुभव ही टटोलने में मदद करता है. बस पीछे से आती रौशनी सहायक होती है. सबसे पीछे राजीव सर थे जिनकी टॉर्च की रौशनी का सहारा था वह भी कुछ जगहों पर. रात पौने ग्यारह बजे कैंप -3 पर पहुंचे. वहाँ तीन टेंट लगे थे पर सबसे ऊपर वाले टेंट में भीतर भी बर्फ घुस चुकी थी. आइस ब्रेकर से बर्फ तोड़ कर टेंट के भीतर जाने लायक जगह बनाई. नीमा सर और राजीव सर ने बर्फ से पानी बनाया. सबको खूब प्यास लगी थी.टेंट के भीतर थोड़ी सी जगह बना थकान के मारे सब लेट गये.

15 मई की सुबह आठ बजे तीसरे कैंप से चौथे कैंप की ओर चाय व मैगी सूप पी निकल लिए. साउथ कोल के लिए शेरपा भी दूसरे कैंप से आ रहे थे. एक लम्बी सी कतार में सब धीरे धीरे आगे बढ़ रहे थे. तभी कुछ ही दूरी पर ऊपर से येलो बैंड से पसांग लागम्बू और लोबजांग सर के शव रोप के सहारे नीचे लाये जाते दिखे. लागम्बू पिछली 21 तारीख को सफल आरोहण के बाद ऑक्सीजन की कमी होने से और लोबजांग 10 मई को गिर कर बर्फ में समा गये थे.जिस रोप से दल ऊपर की ओर जा रहा था उसी रोप से शवों को उतारा जा रहा था. जैसे ही दोनों शव चढ़ाई चढ़ते दल के समीप से उतरते सदस्य रोप को छोड़ आईसेक्स का सहारा ले खड़े हो जाते.जब शव काफी दूर नीचे हो जाते तब सदस्य अपने कैरावाइनर रोप में लगा लेते. जोखिम भरी कष्टप्रद चढ़ाई में जहां एक छोटी सी चूक या असावधानी सीधे मृत्यु का आलिंगन कराती है वहाँ सफलता के शिखर को छू कर आये साहसियों के शव उतारना देखना और ऐसे में स्वयं को संतुलित रखने के लिए प्रबल इच्छा शक्ति चाहिए. बस सब सदस्य इसी सोच के सहारे आगे बढ़ रहे थे कि सागरमाथा देवी ने उनका वरण कर अपने पास हमेशा हमेशा के लिए आश्रय दे दिया.

साउथ कोल अब ज्यादा दूर न था. येलो बैंड का रास्ता खतम होने के बाद आगे तिरछा जाना होता है. अब कैंप चार आता है जो काफी फैली हुई जगह है. वहाँ कई पुराने टेंट व ऑक्सीजन सिलिंडर पड़े हुए थे. ठीक सामने साउथ समिट दिखाई दे रहा था. अभी मौसम साफ था. शेरपा लोग पहले ही वहाँ पहुँच चुके थे. उन्होंने दल के पहुँचते ही गरमा गरम चाय के मग थमा सबका स्वागत किया. ऐसा लगा जैसे घर के आंगन में पहुँच गये हैं. चाय पी अगली तैयारियां भी शुरू हो गईं. हर टेंट में ई. पी. आई. गैस मौजूद थी. बर्फ पिघला का पानी बनाया और हर एक ने अपने थर्मस भरे. दूसरे कैंप से लाई रोटी और चने खाये. सुमन अपने घर से बनी लहसुन की चटनी लाई थी. सबने रोटी के साथ खाई. फिर गरम कपडे बदले और करीब सात बजे सो गये. दस बजे फिर उठे. स्लीपिंग बैग में घुसे घुसे ही चाय का दौर चला, रोटी खाई. अब तैयारी करते करते बारह बज गये. सबने तैयार होना था और टेंट बहुत छोटा था इसलिए एक एक कर ही तैयार हो सकते थे. बाहर तो विकट शीत थी. क्रम्पोन पहन, रुक्सेक में ऑक्सीजन सिलिंडर के साथ टोपी, मोजा, दस्ताना, पानी का थर्मस, कैमरा, ड्राईफ्रूट आदि डाल पीठ पर लादा और रात के एक बजे साउथकोल से निकल चले. अभी हवा की गति मंद थी. घनी अँधेरी रात में भी चमकती बर्फ रौशनी का काम कर रही थी. अब कुछ ही समय में बर्फीली पहाड़ियों में अंतिम पहर की लालिमायुक्त पौ दिखाई देने लगी.
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सुबह होते ही सूरज की किरणों ने चकाचौँध कर दी. सबने स्नो गॉगल पहना.शेरपा नागतेम्बो जिन्हें सब दाज्यू कहते साथ थे. सविता और दीपू आगे आगे और उनके पीछे सुमन. सुमन को स्नो गॉगल से काफी परेशानी हो रही थी. मास्क के कारण उसमें बार बार धुंध लग जाती और आगे कुछ दिखाई न देता. दूसरा गॉगल लगाया पर उससे भी वही परेशानी. नंगी आँखों से चलना तो संभव ही नहीं. चकाचौँध से आँखे मुंद जाती और आँखे खराब होने का डर. फिक्स रोप भी न था जिसके सहारे चलो. तब नागतेम्बो दाज्यू ने फोल्डिंग वाला चश्मा दिया जिससे बस आँख की सीध कर चला जा सकता था. सब ऊपर की ओर साउथ समिट में एक कतार में चले जा रहे थे. नौ बजे साउथ समिट पहुँच गये. वहाँ भी काफी ऑक्सीजन सिलिंडर पड़े थे, भारी पंद्रह किलो तक के कुछ खाली कुछ भरे हुए.

यहां से ठीक सामने हिलेरी स्टेप था.दस बजे तक यहां पहुँच भी गये. पहले गये दूसरे दल के कई सदस्य लौट रहे थे. यह ऐसा रास्ता होता है जिसमें एक बार में एक ही आ या जा सकता है. रास्ते पर रोप भी इतने लटके रहते हैं कि यह चुनाव करना मुश्किल होता है कि कौन सी रस्सी पकड़ कर जाएं. यहाँ रॉक और बर्फ का संमिश्रण सा होता है. इसकी गली जैसी बन जाती है जिसमें जुमारिंग करने की जरुरत पडती है. उसके बाद तिरछे -तिरछे चलते आगे फिर एक विशाल चट्टान पडती है. उससे घूम कर आगे चलने के बाद ऊपर की ओर देखो तो सागरमाथा की चोटी दिखाई देने लगती है.लगता है कि ये बहुत नजदीक है पर चलते चलते काफी समय लगता है जब यहाँ गाढ़े हुए झंडे दिखाई देने लगते हैं.

सुमन का मन हुआ कि दौड़ कर जा पहुंचूं और सागरमाथा माँ के चरण छू लूँ. माँ से कहूं कि आज तेरा बुलावा आया, तेरे दर्शन कर मेरी मनोकामना पूरी हो गई. जीवन आज जो मिला उससे अमूल्य निधि और कुछ हो ही नहीं सकती. आशीर्वाद दो माँ. चोटी पर पहुँच माथा अपने आप झुक गया. सागरमाथा माता को दंडवत प्रणाम किया. पूजा की. माँ का स्मरण किया. जप किया. अपने सभी परिवार जनों का स्मरण हो आया. मेरी इस मनोकामना के सिद्ध होने के पीछे कितनों की शुभेच्छा थी. सब याद आये. सुमन कहतीं हैं कि इस ऊंचाई पर पहुँच कर मन की भावनाओं में आकस्मिक परिवर्तन आ जाता है. लगता है इससे भी ऊँची पर्वत श्रृंखला होती है तो फिर उसी सीढ़ी से जाना था. लगा कि सच्ची दुनिया अगर कोई है तो वह बस यहीं और इससे ऊपर है.

नीचे को लौट चले. हर पल लगता कि सागरमाथा माँ आशीष दे कह रहीं कि बेटी फिर आना. लौटते क़दमों के साथ अनजाने ही बार बार पीछे मुड़ कर देखती. सागरमाथा वैसी ही अविचल खड़ी विदा दे रही थी. संतुष्टि का अद्भुत भाव मन में भर चुका था. जब भी ये दृश्य याद आता है वही पुलक वही संतोष स्थाई रूप से भर गया लगता है.

सुमन के दल के पीछे कोरियाई दल घिसटते फिसलते आता दिख रहा था. उस दल के तीन सदस्यों ने बिना ऑक्सीजन समिट किया था. उनके पास पानी भी खतम हो गया था. रुक कर उनके हाल चाल जाने. पानी पिलाया. गरमागरम ब्लैक टी पिलाई. कोरियाई दल बहुत दुखी था उनका एक साथी रास्ता भूल गुम हो चुका था तो दूसरा साउथ पिलर से गिर कर इसी हिम में दफन हो गया था. अब नीचे उतरते रात पड़ गई. बादल भी घने घिर गये थे. न दिशा का अंदाज आ रहा था. ऐसे असमंजस में भी बस चलते रहे और पता चला कि साउथ कोल पहुँच गये. सामने ही टेंट थे अँधेरे में दिख तो कुछ भी न रहा था पर कान में आवाज आई,स्वागत है -स्वागत है. एवेरेस्ट की चढ़ाई की संतुष्टि और बहुत खुशी से मिल रहे आगमन से दल के उत्साहित चेहरे देख मन पुलकित रहा. खूब गहरी नींद आई.

17 मई को मौसम साफ था बस हवा कुछ तेज गति से बह रही थी. इतनी तेज कि वीडियो खींचने की कई कोशिश बेकार हो गईं. आठ बजे कैंप -2 के लिए निकल चले. आगे -आगे दुर्घटना में मृत लोबजाग सर को ले जाया जा रहा था. दो बजे तक कैंप में पहुँच गये. ये मौसम की मेहरबानी थी.18 तारीख को दूसरे कैंप से बेस कैंप में लौटना था. अब मौसम भी खराब था और फिर धीमे-धीमे बर्फ भी पड़ने लगी. बेस कैंप आगमन पर धूमधाम से स्वागत हुआ बाकी सदस्य बेस में ही रुके. 20 मई को सुमन, चंद्रप्रभा ऐतवाल और हर्षा पंवार गोकियों घाटी के लिए निकल पड़े.यहाँ से मकालू और एवेरेस्ट पीक बहुत सुन्दर व नजदीक से दिखाई देती है.24 मई को गिकियों से नामचे बाजार पहुंचे. अगले दिन नामचे से नोकला और 26 मई को हेलीकाप्टर में नोकला से काठमांडू पहुंचे. एयरपोर्ट पर भव्य स्वागत हुआ. आई. एम.एफ. के अध्यक्ष सहित पूरा स्टॉफ मौजूद था. फिर पशुपति नाथ मंदिर गये. बाद में नेपाल के प्रधानमंत्री श्री जी. पी. कोइराला से मिले.
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30 मई को काठमांडू से दिल्ली के लिए चले.. पहली जून को प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद गृह मंत्री ने रात्रि भोज में निमंत्रित किया. महामहिम राष्ट्रपति डॉ शंकर दयाल शर्मा, प्रधान मंत्री नर सिंह राव, श्रीमती सोनिया गाँधी व श्री राजेश पाइलेट से भेंट हुई.6 जून को दिल्ली से दल के सभी नेपाली सदस्य व शेरपाओं को विदाई दी.8 जून को सुमन दिल्ली से वापस उत्तर काशी लौट आईं. अब नौकरी ज्वाइन करनी थी. भटवाड़ी क्षेत्रीय समिति के द्वारा भव्य स्वागत किया गया. उत्तरकाशी के जिलाधिकारी सहित सारा प्रशासनिक अमला मौजूद था. अपने गृह जनपद पिथौरागढ़ तहसील धारचूला आने पर उत्साह और खुशी से भरी जनता ने सर आँखों पर बैठाया. उन्होंने यह सौभाग्य माना कि उनके इलाके की बेटी ने ऊंचाइयों को छू उनका मान बढ़ाया है. इससे पूर्व नैनीताल, अल्मोड़ा, बागेश्वर व पिथौरागढ़ की जनता ने सुमन का नागरिक अभिनन्दन किया, सम्मान किया. उत्तर प्रदेश सरकार ने पुरस्कृत किया.वर्ष 1994 में एवेरेस्ट पर विजय पताका फहराने पर भारत सरकार ने सुमन कुटियाल दताल को नेशनल एडवेंचर अवार्ड प्रदान कर सम्मानित किया.

सुमन “माउंट एवेरेस्ट : शाश्वत चुनौती ” में अपने मनोभाव व्यक्त करते लिखतीं हैं कि, “अपने सामने लक्ष्य स्पष्ट हो, मन में दृढ इच्छा शक्ति हो, आत्म विश्वास हो तथा अपने प्रयासों के प्रति निष्ठा हो तो शायद कोई भी कार्य असंभव नहीं. इन्हीं गुणों के बल पर आने वाली पीढ़ियां अपने -अपने कार्य क्षेत्र के ऐसे अनेक एवरेस्ट आसानी से फतह कर सकेंगी, ऐसी शुभकामनायें हैं.
(Suman Kutiyal Uttarakhand Mountaineer)

प्रोफेसर मृगेश पाण्डे

जीवन भर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के कुल महाविद्यालयों में अर्थशास्त्र की प्राध्यापकी करते रहे प्रोफेसर मृगेश पाण्डे फिलहाल सेवानिवृत्ति के उपरान्त हल्द्वानी में रहते हैं. अर्थशास्त्र के अतिरिक्त फोटोग्राफी, साहसिक पर्यटन, भाषा-साहित्य, रंगमंच, सिनेमा, इतिहास और लोक पर विषदअधिकार रखने वाले मृगेश पाण्डे काफल ट्री के लिए नियमित लेखन करेंगे.

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