आग जलाने के लिए चूल्हे में फूंक मार-मारकर सुशीला की आंखें लाल हो गई थीं. कमरा धुएं से भर गया था. धुएं से उसकी आंखें चूने लगी थीं. सुशीला ने खीझ के कारण जोर से फूंक मारी, आग ‘धप्प’ से जल उठी. साथ में काफी राख भी उड़ गई थी. जिसमें कुछ राख सुशीला के बालों में जम गई, उसका सर पूस की धरती जैसे खरस्याण्या (पतझड़) हो गया था. आग के जलने पर चूल्हे में रखा झंगोरे का भात-खित-बित, खित-बित कर पकने लगा.
(Story by Trepan Singh Chauhan)
सुशीला ने एक कोयला निकाला और चूल्हे पर अपने खयालों के चित्रनुमा कुछ बनाने लगी और सोच रही थी, ‘सत्तू के बाबा अगर आज जिन्दा होते तो हमको अठुरवाला देहरादून में कहीं अच्छी जमीन मिल जाती. देवर की क्या मजाल होती कि हमारे हिस्से की जमीन का एक कतरा भी हड़प पाता. अब किसके पास जाऊं, उबसेर (ओवर सियर) के लिए बीस हजार रुपये कहां से करूं? नहीं तो वह मकान का मुआवजा नहीं बनाएगा.’ सुशीला ने एक लंबी सांस छोड़ी. जैसे तमाम दुखों को वह एक सांस में बाहर निकालना चाह रही हो.
‘‘मां!’’ नेकर पकड़ा हुआ सत्तू रसोई में आया. बोला, ‘‘सभी इस्कूल चले गए हैं. मुझे खाना दे न. मैं भी इसकूल जाता हूं. नहीं तो गुरुजी मारेंगे.’’
झंगोरा ठंडा करने के लिए सुशीला ने एक बड़ी प्लेट पर फैला दिया. एक कटोरे पर छाछ रख दी. सत्तू गरम झंगोरे को फूंक मारकर ठंडा कर रहा था.
‘‘मां, मंटू, बीरू, अनीता के मां-बाप लोग गांव से बाहर जा रहे हैं, क्या हमको भी उनके साथ जाना है?’’
‘‘जाने दो बेटा, हम भी जाएंगे किंतु…’’सुशीला आगे कुछ नहीं बोल पाई. उसका गला भर आया था, जो आंसुओं की शक्ल में बाहर आना चाह रही थी.
सत्तू झंगोरे का भात खाने में मगन हो गया. बच्चे के दिमाग में जो कुछ भी सवाल रहे होंगे, वे भात की भाप में उड़ गए.
सत्तू ने झोला उठाया और स्कूल चला गया. उसके पास एक ही नेकर थी. जो पीछे से फट गई थी. सत्तू के कुत्र्ते पर अनगिनत पैबंद लगे थे. सुशीला सोचने लगी, ‘जब जंगल था, भैंस पाल लेते थे. घी-दूध बेचकर गुजारा हो जाता था. जब से डाम का काम शुरू हुआ, पहले जंगल खत्म हुए, जंगल के बाद पशुओं को पालना मुश्किल हो गया. पशुओं के न रहने पर हमारे रोजगार के साधन क्या छिने, जिंदगी का एक-एक दिन बोझ की शक्ल अख्तियार कर रहा है.’
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‘‘अरे सुशीला! तू अभी तक बाहर नहीं निकली! चूल्हे पर ही बैठी रहेगी क्या?’’ रूपा ड्योढ़ी पर आकर खड़ी हो गई थी.
‘‘अभी सत्तू को स्कूल भेजा…’’ सुशीला ने रूपा को सर से पांव तक देखा. वह आज विशेष तैयारी में दिख रही थी, ‘‘भीतर आओ न.’’
‘‘हम आज भानीवाला जा रहे हैं, सपरिवार. बिरजू के बाबा बाजार ट्रक लेने गए हुए हैं. सोचा, आज नहीं तो कल गांव को छोड़कर जाना ही है तो चले ही जाएं. वहां कम से कम घर तो जग जाए.’’ सुशीला का दिल बैठ गया था. उसकी आंखों से आंसू निकलने लगे.
‘‘तुम्हारा फैसला अभी नहीं हुआ क्या! तुम तो पंचायत करने वाली थी?’’ सुशीला को रोते देख रूपा ने पूछा.
‘‘कहां हुआ फैसला, और कौन करेगा. देवर ने पूरी जमीन का मुआवजा हड़प लिया. मुझे एक कौड़ी तक नहीं दी. सुना है कि डाला-बुर्दों (पेड़-पौधे) के पैसे तक ले लिए. मेरे जैसे अभागिन का कौन है इस दुनिया में, जो हमारी कोई सुने. पंचों के पास गई तो कहने लगे, उसने घूस दी है तब जाकर पैसा मिला है. तुम भी घूस दो, तुम्हें भी मिल जाएगा.’’
सुशीला ने अपनी आंखें पोंछीं.
‘‘तू धैर्य रख यार, भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं है.’’ रूपा ने ढांढ़स बंधाया और सोचने लगी, ‘इस अभागिन का भाग ही खोटा है. अगर इसका पति जिंदा होता तो इसके देवर की क्या मजाल एक ढेले की बदमाशी भी कर सकता.’
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सुशीला कहती जा रही थी, ‘‘मेरे लिए भगवान के घर, डामवालों के घर, सरकार के घर और पंचों के घर तक अंधेरा-ही-अंधेरा है. कोई तो होता जो मेरी मदद करता. भगवान के घर में मदद करने वाले की सुनी जाती.’’ सुशीला ने आंखें साफ कीं. बोली, ‘‘पहले कौसा गई, रुकमणी गई, समा गई, भगवानी गई, अब तुम भी जा रही हो. फिर इस गांव में कौन बचा, जिसके पास मैं अपनी बिपदा लगा सकूं.’’
‘‘तेरा देवर कांतु कह रहा था कि मकान का मुआवजा उसने नहीं लिया. वह तेरे लिए छोड़ा है?’’ रूपा ने पूछा.
‘‘आज उबरसेर ने आपने का दिन दिया है. बताओ यार कितना बनेगा इस घर का मुआवजा.’’ सुशीला ने पूछा.
‘‘मैं तो बता नहीं सकती.’’ रूपा अपने दुख पर आ गई, ‘‘गांव छोड़ने का दुख भला किसको नहीं है. बिरजू का बाबा तो यहां रहने को अब कतई तैयार नहीं है. जब तक खेत हैं, खलिहान हैं, मेरे तो पराण इन्हीं पर अटके पड़े हैं. छोड़ने की इच्छा ही नहीं हो रही है.’’ दुख की परछाई रूपा के चेहरे पर उभर आई.
‘‘वही तो, कल खणदू खेत में डामवालों ने मशीन चला दी. मुझे लगा मेरे शरीर के टुकड़े काटे जा रहे हैं. यह देखकर मेरे जुकड़े पर चीरे पड़ रहे थे. उस खेत पर तो हमने सदा ही बारह नाज लिया, हे भगवान क्या…’’ सुशीला ने बेबसी में हाथ ऊपर उठा लिए.
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‘‘तेरा देवर कह रहा था कि भौजी के लिए भानीवाला में एक घर बना दूंगा और जमीन भी खरीद कर दूंगा.’’
‘‘यह सब उसके घिच्चे की पौलिशी है. ना देता जमीन जाते वक्त मिल के जाता. जब से गया है एक चक्कर भी हमें देखने नहीं आया. क्यों नहीं होता… उसका नाम ही ना ले यार. सच्चू बद्रीनाथ त…?’’ सुशीला का फिर गला भर आया.
‘‘देख यार…’’ रूपा कुछ कहती, उसका बेटा उसकी तलाश करता हुआ यहां आ पहुंचा. बोला, ‘‘माँ, पिताजी ढूंढ रहे हैं. ट्रक आ गया है.’’ रूपा ने जीभ बाहर निकाली और उठकर घर की तरफ भागी.
‘‘जाओ भागवानी. जिन बेचारों के हैं उनकी बहार है. हम जैसी विधवाओं का कौन होगा?’ सुशीला आह भरकर रह गई.
मकान का नाप-जोख करने उबरसेर आ रहा है. सुशीला इसी चिन्ता में थी. पड़ौस का मकान जब से खाली हुआ तब से मास्टर साहब ने बिना किराए का डेरा जमा लिया है. सुशीला मास्टर साहब के यहां से चाय के लिए आधा गिलास दूध मांगकर लायी. चीनी-चाय की व्यवस्था भी इधर-उधर से की. वह कई दिनों से सर पर साबुन-तेल का इस्तेमाल नहीं कर रही थी. बीस रुपये गांठ पर थे. अगर साबुन तेल में पैसे खर्च करती तो उबरसेर साहब के लिए बिस्कुट कहां से खरीदेगी. लोगों ने साहब को बीस-बीस हजार रुपये घूस दिये हैं. मेरे पास तो बीस रुपये ही हैं. वह दुकान गई वहां से बिस्कुट, नमकीन खरीदकर लायी.
दोपहर के बाद जेई (जूनियर इंजीनियर) आया. उसके साथ दो सहायक और थे. सुशीला के लिए दोनों अपरिचित थे. शुक्र है गांव का, आज सा’ब के पीछे गांव के लोग नहीं हैं और टैम पर तो सा’ब के पीछे पूरा गांव घूमता रहता है. घूमेगा क्यों नहीं. गांव का भगवान तो यही है. जिसने प्रधान के घास के छप्पर को बिल्डिंग दिखाकर प्रधान जी को लाखों दिला दिये. कितनी ताकत है बेचारे की कलम पर.
(Story by Trepan Singh Chauhan)
सुशीला मास्टर साहब के यहां से एक साफ चादर मांग लायी थी. चौक में दरी बिछा ली, उसके ऊपर चादर डाल दी, और खुद चाय बनाने रसोई में चली गई.
एक सहायक देहली तक आया और कहा, ‘‘साहब कह रहे हैं कि चाय-वाय के चक्कर में मत पड़ो. वैसे हम चाय पी के आये हैं.’’
‘‘मैं गरीब हूं सा’ब. जैसी भी होगी, एक घूंट तो पीनी ही पड़ेगी, गरीब-गुरबा के हाथों की.’’
शायद पानी ज्यादा हो गया और दूध कम. चाय रंग नहीं घोल पाई. दो अलग-अलग प्लेटों में सुशीला नमकीन और बिस्कुट ले आई. जेई ने नमकीन, बिस्कुट की ओर देखा तक नहीं. जैसे सावन के महीने भैंस के पास सूखी घास डाल दी हो. दोनों सहायकों ने एक-एक बिस्कुट उठाये थे कि वे भी बिदक गये. सुशीला को अहसास हुआ कि बिस्कुट या नमकीन शायद खराब थे. उसका दिल बैठ गया.
‘‘मकान दिखाओ!’’ जेठ के शब्दों में आदेश था.
‘‘आओ सा’ब जी.’’ सुशीला की आवाज कांप रही थी. वह जेई को बौंड (ऊपरी मंजिल) ले गयी. जेई दरवाजे पर ही खड़ा हो गया. सुशीला ने बक्सा खोलकर एक पुरानी पोटली बाहर निकाली. बोली, ‘‘अन्दर आ जाओ सा’ब, घर देख लो.’’
इस खास भाषा को जेई जानता था कि इस ‘खास’ वक्त पर गृह-स्वामी या स्वामिनी कमरे पर क्यों बुलाते हैं. वह जूतों सहित अन्दर चला गया.
‘‘मैं बहुत गरीब हूं सा’ब . मेरे पास यही सब कुछ है. पैसे नहीं हैं. सोचा कहीं बेचने से क्या. सा’ब को ही दे दूंगी. दया तो करेंगे भगवान मुझ जैसी अभागिन पर. मेरा आगे-पीछे कोई नहीं है सा’ब. एक बेटा है. वह भी पांव का खरा है.’’ सुशीला की आवाज भीग गई थी.
‘‘ये क्या है?’’ जेई असमंजस में पड़ गया. ‘‘एक तिमण्या (गले का हार), एक जोड़ी कुण्डल और एक फुल्ली है सा’ब, ये सब सोने की हैं. और खगवालू (बच्चों के चांदी का हार) और बिच्छु चांदी के हैं सा’ब . यही मेरे पास है.’’
(Story by Trepan Singh Chauhan)
जेई ने अनुमान लगाया. कुल जेवर आठ हजार तक के होंगे. उसे बारह हजार का घाटा हो रहा था. उसने घूर कर सुशीला को देखा.
सुशीला सकुचाई-सी एक कोने में खड़ी थी. भय भरे शब्दों में बोली, ‘‘नगद नहीं हैं सा’ब.’’
जेई ने जेवरों को अपने हैंड बैग के हवाले किया और बारह निकल आया. वह मकान को बिना देखे ही चलता बना. ‘‘सा’ब कब आऊं पैसों के लिए?’’ सुशीला ने सकुचाई आवाज में पीछे से पूछा.
जेठ के साथ का एक व्यक्ति पीछे मुड़ा. सुशीला से बोला, ‘‘तुम्हें घर पर ही बुलाने का कागज आएगा. उसी दिन तुम ऑफिस आ जाना.’’
उबसेर चला गया. बिना मकान का नाप-जोख किये. घर की कुल जमा पूंजी को साथ लेकर, बिना बताए. वह काफी देर तक चौक में ठगी-सी खड़ी रही.
सुशीला… रावत परिवार की बहू थी. उसका पति बेटे के पैदा होते ही चल बसा था. बेटे का एक पांव जन्म से ही विकलांग था. सुशीला ने कई डॉक्टरों को उसे दिखाया. घर की कुल जमा पूंजी बेटे पर खर्च हो गई. पांव ठीक नहीं हुआ. भैंस पालकर, घी- दूध बेचकर घर की गार्ड़ी ंखच जाती थी. अब तो वह भी नहीं रहा.
उसका एक सौतेला देवर था. जिसने पटवारी से मिलकर कुल जमीन का मुआवजा खुद हड़प लिया. फिर गांव में ही अपना बड़ा घर बनवाया. उसका भी उसने छककर मुआवजा लिया. सुशीला अपनी जमीन के मुआवजे के लिए भूमि अधिपति अधिकारी के पास गई. वहां पता चला कि उसका पति स्वर्ग से उतरकर अपने हिस्से का मुआवजा लेकर चला गया है. बेचारी सुशीला आज तक नहीं समझ पाई कि दस साल पहले मरा उसका पति स्वर्ग से उतरकर मुआवजा कैसे ले सकता है?
(Story by Trepan Singh Chauhan)
‘‘ज्यादा खोज-बीन करेगी तो तुझे कुछ भी नहीं मिलेगा. अगर साहब लोग नाराज होंगे तो तुझे एक कौड़ी भी नहीं मिलेगी. लोग, साहब लोगों को खुश करने के लिए कितनी घूस देते हैं, तुझे तो पता होगा ही.’’ एक चपरासी ने सुशीला को समझाया.
सुशीला अपने दुखों को किससे बयां करे? उसके पड़ोस में एक सुरजा डूमीण रहती थी. बताती थी कि वह नागपुर सलाण से आई है. दिन में वह कभी-कभार सुशीला के पास आती. वे दोनों अपने दुखों को बांट लेते थे.
गांव के काफी परिवार पलायन कर गए और जो कुछ घर बचे भी थे, वे जाने की तैयारी में इतने व्यस्त थे कि उनके पास किसी के दुख सुनने का समय भी नहीं था. उनका अपना दुख ही इतना भारी था कि दूसरे का दुख छोटा ही लगता. गांव के चंद चकड़ैतों को छोड़कर बाकी सारा गांव तो जैसे दुखों का पहाड़ बन गया था. अपनी जड़ से उखड़ना भी तो स्वयं में क्या कम त्रासदी नहीं है? एक सुरजा डूमीण ही थी, जिसको कहीं जाना नहीं था. जब तक टिहरी डूब नहीं जाती.
पौष से चैत्र तक टिहरी की धरती पर काफी उथल-पुथल हो गई थी. अठुर की जमीन पर मिट्टी, पत्थर के चट्टान खड़े हो गए थे किन्तु…सुशीला के लिए ऑफिस से कोई कागज नहीं आया. उबरसेर ने कागज क्यों नहीं भेजा? यह सवाल उसको बेचैन कर गया. सुशीला ने मास्टर जी के लड़के सुरेश को अपने साथ ऑफिस जाने के लिए तैयार किया. दूसरे दिन वे टिहरी हाईड्रो डेवलपमेंट कारपोरेशन के ऑफिस में पहुंचे. उबरसेर पंकज जुनेजा का पता नहीं था. थोड़ा पूछ-ताछ के बाद एक बाबू से पता चला कि वह दो महीने पहले नौकरी छोड़कर चला गया है. उसको कहीं सरकारी नौकरी मिल गई थी.
‘‘वह मेरा तगादा (जेवर) ले गया सा’ब.’’ सुशीला सर पकड़कर जमीन पर बैठ गई और रोने लगी.
‘‘यह तो वही बताएगा.’’ बाबू अपनी कुर्सी से उठकर चला गया.
सुशीला काफी देर तक वहीं जमीन पर बैठकर रोती रही. शाम को सुरेश उसे घर ले आया. उसका बेटा छज्जे में पांव लटका के बैठा था. अपनी मां को आते देख वह रोने लगा. सुशीला ने सत्तू के रोने पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया, वह सीधे सुरजा डूमीण के घर चली गई. उसकी रोने की इच्छा जो हो रही थी. किन्तु… उसके जेहन में यह सवाल अब भी अटका था कि जब उसका मृत पति स्वर्ग से आकर मुआवजा ले सकता है तो उस जीविता को क्यों नहीं मिल सकता? वह सुरजा के घर पहुंची तो वहां मजदूरों का एक समूह बैठा पाया. सुरजा कहीं दिखाई नहीं दे रही थी. सुशीला ने एक मजदूर से पूछा, उसने बताया कि ‘‘उसको तो यहां से भगा दिया गया है और हमें इस मकान को तोड़ने के लिए ठेकेदार ने भेजा है.’’ सुशीला उल्टे पांव घर पहुंची. सत्तू अब भी सिसक रहा था. सुशीला ने उसे अपनी गोदी में उठाया और छाती से लगाकर दोनों रोने लगे.
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त्रेपन सिंह चौहान
4 अक्टूबर 1971 को टिहरी जिले के केपार्स बासर में जन्मे त्रेपन सिंह चौहान जाने-माने साहित्यकार के साथ एक सामाजिक कार्यकर्ता भी रहे. त्रेपन सिंह चौहान ने यमुना (2007), भाग की फांस (2013), हे ब्वारी (2014) उपन्यास तथा दरवाजे के पीछे (2009) कहानी संग्रह के अतिरिक्त कई पुस्तकों का सम्पादन व अनुवाद कार्य भी किया. एक लम्बी बीमारी के बाद 49 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया.
सलाम त्रेपनदा! हरदम दिलों में रहोगे जिंदा
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बहुत बढ़िया!...आप ने बड़े ही मार्मिक विषय पर "डैम के विस्थापित" के जीवन मे आने वाली समस्या पर ये कहानी लिखी है।
दिल को छुने वाला नज़ारा था।
बहुत ही मार्मिक एवम उत्कृष्ट