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डाण्डी कांठी में बसन्त बौराने लगा है

भारतीय संस्कृति में नदी, पहाड़, पेड़-पौंधे पशु-पक्षी, लता व फल-फूलों के साथ मानव का साहचर्य और उनके प्रति संवेदनशीलता का भाव हमेशा से रहा है. प्रकृति और मानव के इस अलौकिक सम्बन्ध को स्थानीय लोक ने समय-समय पर गीत, संगीत और कथाओं के माध्यम से समाज तक पहुंचाने का कार्य किया है. उत्तराखण्ड के कई लोकगीतों में ऋतु गीतों का उल्लेख बहुलता से मिलता है. यहां के ऋतु आधारित प्रमुख गीतों यथा फाग, ऋतुरैण, चैती, बसन्ती खुदेड़, झुमैलो में प्रतीक स्वरुप जो बिम्ब आये हैं वे अलौकिक तो हैं ही उनमें पहाड़ के असल जन-जीवन व लोक परम्परा की अद्भुत बानगी भी दिखायी देती है. Spring in Uttarakhand

प्रचंड गर्मी के मौसम में जंगलों कफू-हिलांस की कूक सुनायी देते ही परदेश गये पति की विरह वेदना में पर्वतीय नारी का मन अत्यंत व्याकुल हो उठता है. चर्तुमास में वर्षा की अनवरत झड़ी और घनघोर अंधेरी रातों में गरजते बादलों की गर्जना से ससुराल में रह रही बहू-बेटियों को अपने मायके की याद सताने लगती है. वहीं शरद ऋतु के आते ही समूची प्रकृति जब निथर कर नये रुप में प्रकट हो जाती है तब खेतों की शाक-सब्जी व अनाज की बहार देखकर किसानं का मन संतोष से भर उठता है. शिशिर ऋतु में पर्वत शिखरों पर बर्फ की चादर बिछ जाने पर आग तापते हुए बड़े व बुर्जुग लोगों से पहेली व कहानी सुनने में बच्चों को बड़ा आनंद आता है.

फाल्गुन का महीना आते ही जब जाड़ा कम होने लगता है तब समूचे पहाड़ में शनैः शनैः बसन्त की रंगत बिखरने लगती है. सुदूर जंगल में खिले लाल बुंराश के साथ ही गांव के खेतों व रास्तों के किनारे खिली पीली सरसों, प्योंली,भिटौर, किलमड़, पंय्या तथा आड़ू व खुबानी के श्वेत गुलाबी फूलों की मोहक छटा देखकर यहां के निवासियों का हृदय हर्ष व उल्लास से भर जाता है.

बसन्त ऋतु में समूची प्रकृति के शोभित होते ही यहां के निवासी भी बासन्ती रंग में रंग कर प्रकृति के साथ एकाकार हो उठते हैं. प्रकृति ने अपने सुनहरे रंगों से हिमालय में धूनी रमाने वाले भगवान शिव और उनकी पत्नी पार्वती को भी रंग दिया है. इस अलौकिक रुप से जन-मानस आह्लादित होकर गा उठता है- आओ हम सब लाल बुरांश को कुमकुम अर्पित करें, पहाड़ के सारे शिखर पर्वत बसन्ती रंग से शोभायमान हो गये हैं. पार्वती जी की सुनहरी साड़ी को हिम परियों ने सतरंगी रंगों से रंग दिया है. समूचे हिमांचल में लालिमा फैल गयी है. बसन्त के सूरज ने स्वर्ग से लायी हुई रंग की पूरी गागर शिव पर उड़ेल डाली है जिससे भगवान शिव की शोभा देखते ही बन रही है.

पहाड़ में अत्यंत उत्साह से बसन्त पंचमी पर्व का स्वागत किया जाता है. अरे देखो… सिरी पंचमी का पर्व आ गया है… डाण्डी कांठी में बसन्त बौराने लगा है, रास्ते और खेतों में प्योंलड़ी फूल गयी है. बांज की डालियों में मौल्यार आ गया है. जहां तहां कुंजा के फूल खिल गये हैं. गेहूं जौं के खेतों में रंगत दिखने लगी है. औजी (ढोल वादक) ढोल बजाकर गांव के हर घर में जाकर हरे जौं के तिनके देते हुए परिवार की सुफल कामना कर रहे हैं-

सिरी पंचमी भै झुमैलो, सिरी पंचमी भै झुमैलो
ए गैन दादू जी झुमैलो,रीतु बौड़िगे भै झुमैलो
बाटा की बाड़ी भै झुमैलो, प्योंलड़ी फुलली भै झुमैलो
ग्यों जौं की सारी भै झुमैलो, रिगंली पिंगली ह्वैली भै झुमैलो

पेड़-पौंधों की डालियां नयी कोपलों और फूल-पत्तियों से लद गयीं हैं. दूर किसी घर से हारमोनियम की धुन व तबले की गमक में बैठ होली के गीत शनैः शनै बसन्ती बयार में घुल रहे हैं. परदेश गये पति के विरह में विरहणी नारी का अन्र्तमन प्रेम, श्रृंगार के रंग-लहरों में हिलोरें मार रहा है. नायिका आतुर होकर अपने प्रेमी से अनुनय रही है कि मेरे प्रिय ! ग्वीराल, प्योंली, मालू, सकीना, कुंज और बुंराश के फूल खिल चुके हैं…डाल-डाल पर बसन्त बौरा गया है… अब बस भी करो..तुम आ जाओ और मुझे भी बसन्ती रंग से रंग डालो.

अहा बसन्त ऋतु भी कितनी भली है इसने ससुराल में विवाहित बेटी बहुओं को उनके मायके की याद जो दिला दी. अपनी विवशता के कारण वह मायके में नहीं जा सकती लेकिन वह अपने मायके वालों के राजी-खुसी रहने व सुफल रहने की कामना अवश्य करती है. मेरी मां! चैत्र का महिना आ गया है. मेरे मायके के खेतों में पीली दैण यानि सरसों फूल गयी होगी, समूची धरती सुनहरे रंग से शोभित हो गयी होगी. धुर जंगल में कफू कुहकने लगा होगा. अब तो ऋतुरैण आ गया है. मेरे माता-पिता, भाई-बहन, दूध देने वाली सुरमाली भैंस और वह नटखट बिल्ली न जाने कैसे होंगे. मन करता है मैं पक्षी बनकर उड़ जाऊं, पर मैं असहाय हूं. मेरी सुफल कामना है कि इस पीली सरसों की तरह आप लोगों का परिवार हमेशा ही फूला-फला रहे.

पहाड़ की डांडी-काठियों में खिले लाल बुंराश के फूलों को देखकर प्रेमी का मन व्याकुल हो उठा है. प्रेयसी की याद में उसकी आंखे डबडबा आयी हैं. वह अपना दुख सुख किससे कहे. प्रेयसी की बाट जोहते हुए वह कहता है कि बसन्त ऋतु लौटकर पुनः आ गयी है पर वह निरमोही अब तक नहीं आयी न जाने वह कहां रम गयी होगी. Spring in Uttarakhand

फूलों का त्यौहार फूलदेई अथवा फुलसंग्राद उत्तराखण्ड में बड़े ही उत्साह से मनाया जाता है. बसन्त ऋतु में फूलदेई नव वर्ष के आगमन पर खुसी प्रकट करने का त्यौहार है. गांव के छोटे बच्चे नन्हीं टोकरियों में किस्म-किस्म के फूलों को चुनकर लाते हैं. इन फूलों को बच्चे प्रातः काल में गांव की हर देहरी पर रखते हैं. परिवार व समाज की सुफल कामना करते हुए बच्चे गीत गाते हैं- फूल देई तुम हम सबकी देहरी पर हमेशा विराजमान रहो और हमें खुसहाली प्रदान करो. आपके आर्शीवाद से हमारे अन्न के कोठार सदैव भरे रहें.

फूलदेई,छम्मा देई, दैण द्वार भरी भकार
य देई कै बारम्बार नमस्कार, फूलदेई,छम्मा देई
हमर टुपर भरी जै, हमर देई में उनै रै
फूलदेई,छम्मा देई

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पहाड़ की लोककला संस्कृति और समाज के अध्येता और लेखक चंद्रशेखर तिवारी दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र, 21,परेड ग्राउण्ड,देहरादून में रिसर्च एसोसियेट के पद पर कार्यरत हैं.

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